वैराग्य शतक के 71वें श्लोक का अर्थ हैः ‘ऋग्वेदादि चारों वेद, मनु आदि स्मृतियों, भागवतादि अठारह पुराणों के अध्ययन और बहुत बड़े-बड़े तर्क, व्याकरण आदि शास्त्रों के पढ़ने, आडम्बरपूर्ण भिन्न-भिन्न प्रकार के कर्मकाण्ड में प्रवृत्त होने से स्वर्ग समान स्थल में कुटिया का स्थान प्राप्त करने के अतिरिक्त और क्या लाभ है ? अपने आत्मसुख के पद को प्राप्त करने के लिए संसार के दुःखों के असह्य भार से भरे निर्माण को विनष्ट करने में प्रलयाग्नि के समान एकमात्र, अद्वितीय परब्रह्म की प्राप्ति के सिवा बाकी सारे कार्य बनियों का व्यापार हैं अर्थात् एक के बदले दूसरा कुछ ले के अपना छुटकारा कर लेना है।’
मनुष्य को अपने अनमोल जीवन को जिसमे लगाना चाहिए, इस बारे में समझाते हुए योगी भर्तृहरि जी कहते हैं कि मनुष्य जन्म अति दुर्लभ है और यह केवल परमात्मप्राप्ति के लिए ही मिला है। इसमें कितना कुछ भी जान लो, सकाम भाव से कितने भी पुण्यों का संचय कर लो, वे अधिक-से-अधिक स्वर्ग आदि के भोग देंगे परंतु आखिर में वहाँ से भी गिरना ही पड़ता है। सारे दुःखों का सदा के लिए अंत करना हो तो परमात्मप्राप्ति का लक्ष्य बनाकर मन को चारों ओर से खींच के सत्संग के श्रवण-मनन व आत्मचिंतन में लगाओ। परमात्मा को पा लेना ही दुर्लभ मनुष्य-जीवन का फल है और यही शाश्वत सुख की प्राप्ति का एकमात्र उपाय है।
श्रीमद् आद्य शंकराचार्य जी ने भी कहा हैः ‘अज्ञानरूपी सर्प से डँसे हुए को ब्रह्मज्ञानरूपी औषधि के बिना वेद से, शास्त्र से, मंत्र से और औषध से क्या लाभ ?’ (विवेक चूड़ामणिः 63)
पूज्य बापू जी के सत्संगामृत में आता हैः “बाहर तुम कितना भी जाओ, कितनी भी तीर्थयात्राएँ करो, कितने भी व्रत उपवास करो लेकिन जब तक तुम भीतर नहीं गये, अंतरात्मा की गहराई में नहीं गये तब तक यात्र अधूरी ही रहेगी। स्वामी रामतीर्थ ने सुंदर कहा हैः
जिन प्रेमरस चाखा नहीं,
अमृत पिया तो क्या हुआ ?
स्वर्ग तक पहुँच गये, अमृत पा लिया लेकिन अंत में फिर गिरना पड़ा। यदि जीवात्मा ने उस परमात्मा का प्रेमरस नहीं चखा तो फिर स्वर्ग का अमृत पी लिया तो भी क्या हुआ ? सभी विद्याएँ ब्रह्मविद्या में समायी हैं। श्रुति कहती हैः यस्मिन् विज्ञाते सर्वं विज्ञातं भवति। ‘जिसको जान लेने से सबका ज्ञान हो जाता है (वह परमात्मा है)।’ ब्रह्मविद्या के लिए शास्त्रों में वर्णन आता हैः
स्नातं तेन सर्वं तीर्थं दातं तेन सर्वं दानम्।
कृतं तेन सर्वं यज्ञं, येन क्षणं मनः ब्रह्मविचारे स्थिरं कृतम्।।
जिसने मन को ब्रह्मज्ञान, ब्रह्मविचार में लगाया, उसने सारे तीर्थों में स्नान कर लिया, सारे दान कर दिये तथा नौचंडी, सहस्रचंडी, वाजपेय, अश्वमेध आदि सारे यज्ञ कर डाले। जैसे कुल्हाड़ी लकड़ी को काट के टुकड़े-टुकड़े कर देती है, ऐसे ही सर्व दुःखों, चिंताओं और शोकों को काट के छिन्न-भिन्न कर दे ऐसी है यह ब्रह्मविद्या।”
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2018 पृष्ठ संख्या 24 अंक 308
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