Monthly Archives: August 2018

कितना ऊँचा होता है महापुरुषों का उद्देश्य !


एक बार स्वामी दयानन्द सरस्वती अमृतसर में सरदार भगवान सिंह के मकान में ठहरे थे। एक दिन 7-8 घमंडी लोग अपने साथियों सहित दयानंद जी से शास्त्रार्थ करने आये और अकड़कर उनके सम्मुख बैठ गये। उन्हें शास्त्रार्थ तो क्या करना था, उनके साथियों ने धूल व ईंट-पत्थर फेंकने आरम्भ कर दिये। ऋषि दयानंद के इस अपमान को देखकर भक्तजन कुपित हो उठे। उन्हें शांत करते हुए दयानंद जी ने कहाः “मदरूपी मदिरा से उन्मत्त जनों पर कोप नहीं करना चाहिए। हमारा काम एक वैद्य का है। उन्मत्त मनुष्य को वैद्य औषध देता है निश्चय जानिये, आज जो लोग मुझ पर ईंट, पत्थर और धूर बरसा रहे हैं, वे ही पछताकर कभी पुष्प-वर्षा करने लग जायेंगे।”

जब दयानंद जी अपने डेरे पर पधारे तो एक भक्त ने कहाः “महाराज ! आज दुष्ट लोगों ने आप पर बहुत धूल-राख फेंकी, आपका घोर अपमान किया।”

दयानंद जी ने कहाः “परोपकार और परहित करते समय अपने मान-अपमान की चिंता और परायी निंदा का परित्याग करना ही पड़ता है। इसके बिना सुधार नहीं हो सकता। मेरी अवस्था एक माली जैसी है। पौधों में खाद डालते समय राख और मिट्टी माली के सिर पर भी पड़ जाया करती है। मुझ पर धूर-राख चाहे जितनी पड़े, मुझे इसकी कुछ भी चिंता नहीं परंतु वाटिका हरी-भरी बनी रहे और निर्विघ्न फूले-फले।”

कैसा होता है महापुरुषों का हृदय ! कितना ऊँचा होता है उनका उद्देश्य ! आज भी ऐसे महापुरुष धरती पर विद्यमान हैं, तभी यह धरती टिकी है। ऐसे महापुरुष अपनी चिंता नहीं करते, खुद निंदा-दुष्प्रचार और अत्याचार सहकर भी ईश्वर की यह संसाररूपी वाटिका अधिक-से-अधिक कैसे फले-फूले, महके इसके लिए अपना जीवन और सर्वस्व लगा देते हैं। जिस दिन धरती पर ऐसे संतों का अभाव हो जायेगा, यह धरती नहीं रहेगी, नरक हो जायेगी।

किन्हीं मनीषी ने कहा हैः

आग लगी आकाश में झर-झर गिरे अंगार।

संत न होते जगत में तो जल मरता संसार।।

कितना दुर्भाग्य होगा उन लोगों का, जो अपने इन परम हितैषियों को समझ न पाते हों और उनसे उनके हयातीकाल में ही लाभ उठाने से खुद वंचित रह जाते  और दूसरों को भी वंचित करते हों ! उन्हें जीवन के अंतिम क्षणों में पश्चात्ताप अवश्य होता है। किसी के साथ अत्याचार किया है तो मरते समय अंतरात्मा लानतें देता है। ऐसे लोग समय रहते ही चेत जायें तो कितना मंगल हो !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2018, पृष्ठ संख्या 9 अंक 308

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

परमात्मा को ढूँढना चाहते हो तो आओ….


ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के लिए ज्यादा कर्म शक्ति की जरूरत नहीं है और ज्यादा जोरदार आँख, कान होने की भी जरूरत नहीं है और ज्यादा जोरदार बुद्धि होने की भी जरूरत नहीं है। कोई बड़ा बुद्धिमान होगा तब उसको ब्रह्मज्ञान होगा – यह शर्त नहीं लगाना भला ! अमुक जाति में जन्म होगा तब ब्रह्मज्ञान होगा, मन एकाग्र होग तब ब्रह्मज्ञान होगा, बुद्धि बड़ी तेज हो जायेगी तब ब्रह्मज्ञान होगा – ऐसा नहीं है। यदि ब्रह्म बुद्धि का विषय होता, बुद्धि के सामने रख के उसके बारे में विचार करना हो तो तेज बुद्धि की जरूरत थी। कहते हैं- ‘अचिन्त्यम्’। बुद्धि से तो उसका चिंतन करना नहीं है। तब ब्रह्मज्ञान कैसे होता है ? यह जो बुद्धि के द्वारा चिंतन किया जाता है, उस चिंतन करने वाली बुद्धि को जो देख रहा है, उसकी ओर चलना है ! उसकी ओर चलना है माने वही होना है। वही होना नहीं है, हम वही है।

परमात्मा की पहचान

परमात्मा की पहचान कैसे होती है ? इसको पहचानने का एक तरीका बताते हैं। इसको पहचानने के लिए यह ढंग अपनाओः ‘एकात्मप्रत्ययसारम्।’ श्रुति में यह बात कही गयी।

यदि तुम उस परमात्मा को ढूँढना चाहते हो तो आओ, आओ, इसका तरीका देखो !

एक पहली समझो ! यह पहेली क्या है ? जागना होता है और चला जाता है, स्वप्न आता है और चला जाता है, सुषुप्ति आती है और चली जाती है। ये सब तो आने-जाने वाली चीजे। इनमें कोई एक चीज़ है क्या ? वह तो बताओ ! जो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति –तीनों में है, ऐसी कोई चीज़ है क्या ? भाई, ऐसा कोई दूसरा हो तो हमको क्या पता ! नहीं, जिसका पता नहीं है उसकी बात नहीं पूछते हैं ! ‘एकात्मप्रत्यय’ है न ! जिसका पता है, वह बताओ ! वह कौन सी चीज़ है जो तीनों में एक रहती है और कहती है कि ‘यह हमारा जागना हुआ और बीत गया, हमारा सपना हुआ और बीत गया, सुषुप्ति हुई और बीत गई, जाग्रत और स्वप्न से एक विलक्षण अवस्था हुई और बीत गयी।’ यह कहने वाला कौन है ? यह तो एक आत्मा ही है। और यह कभी व्यभिचरित (विचलित) नहीं होता, हमेशा बना रहता है। मेरे बिना न जाग्रत, न स्वप्न, न सुषुप्ति और मैं तीनों में और तीनों के बिना भी ! बस-बस, यही जो एक चीज़ मालूम पड़ती है, इसको पकड़ो !

अंधकार की दुनिया ले के सुषुप्ति आती है, प्रकाश की दुनिया ले के स्वप्न आता है और सच्चाई की भ्रांति लेकर यह जाग्रत आता है, कोई बाहर-कोई भीतर परंतु मैं तो बिल्कुल एक हूँ !

परमात्मा कहाँ है ?

श्रुति कहती है कि वह परब्रह्म-परमात्मा कोई दूसरा नहीं, अपना आत्मा ही है। परमात्मा की उपलब्धि में जो कोई परमात्मा को पाना चाहता है, उसको वह ‘मैं’ ढूँढना पड़ेगा जिसके बिना दुनिया में कोई व्यवहार नहीं होता है, वह जो एक आत्म-विषयक प्रत्यय (भान, अनुभव) है, परोक्षरूप से नहीं, अपरोक्षरूप से। यह नहीं समझना कि परमात्मा कोई सातवें आसमान में बैठा है। यदि परमात्मा यहाँ नहीं है तो सातवें आसमान में भी नहीं है। यदि ईश्वर तुम्हारे दिल में नहीं है तो समझ लो कि तुम्हारे सातवें आसमान में भी नहीं है। परमात्मा तो तुम्हारे दिल में है। दिल परमात्मा है। परमात्मा की रोशनी में यह दिल दिखता है। परमात्मारूप अधिष्ठान में यह दिल की तस्वीर खिंची हुई है। यह तुम्हारे दिल की रेखा जिस मसाले में खिंची हुई है, वह अखंड चैतन्य, ज्ञानघन जो सत्ता है, उसी का नाम परमात्मा है। उस परमात्मा को पाने का उपाय क्या है ? अपने-आपको ही पाना। यह अपना-आपा, जो कभी छोड़ा नहीं जा सकता, वही तो इस समय बिछुड़ गया है ! कैसे बिछुड़ गया है ? जब दूसरी-दूसरी चीज़ों को हमने पकड़ लिया है। छोड़ तो सकते नहीं परंतु मान बैठे हैं कि छोड़ दिया है।

यह जो अपने आपको न जानने के कारण हम मान बैठते हैं कि ‘हमने छोड़ दिया है’, सोच-विचार करने से यह मान्यता झूठी निकलती है। अपना जो आपा है, सो तो प्राप्त ही है और असल में वही परमात्मा है। इसलिए परमात्मा को ढूँढने का रास्ता यह नहीं है कि हम आँख के रास्ते बाहर जायें या मन के रास्ते बाहर जायें या बुद्धि के रास्ते कहीं बाहर जायें या सिमटकर कहीं बैठ जायें। परमात्मा की प्राप्ति का उपाय है कि हम अपने-आपको जानें ! एकमात्र अपने-आपको जानने से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2018, पृष्ठ संख्या 25,26 अंक 308

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

नित्य सुख की प्राप्ति हेतु श्रेयस्कर उपाय


वैराग्य शतक के 71वें श्लोक का अर्थ हैः ‘ऋग्वेदादि चारों वेद, मनु आदि स्मृतियों, भागवतादि अठारह पुराणों के अध्ययन और बहुत बड़े-बड़े तर्क, व्याकरण आदि शास्त्रों के  पढ़ने, आडम्बरपूर्ण भिन्न-भिन्न प्रकार के कर्मकाण्ड में प्रवृत्त होने से स्वर्ग समान स्थल में कुटिया का स्थान प्राप्त करने के अतिरिक्त और क्या लाभ है ? अपने आत्मसुख के पद को प्राप्त करने के लिए संसार के दुःखों के असह्य भार से भरे निर्माण को विनष्ट करने में प्रलयाग्नि के समान एकमात्र, अद्वितीय परब्रह्म की प्राप्ति के सिवा बाकी सारे कार्य बनियों का व्यापार हैं अर्थात् एक के बदले दूसरा कुछ ले के अपना छुटकारा कर लेना है।’

मनुष्य को अपने अनमोल जीवन को जिसमे लगाना चाहिए, इस बारे में समझाते हुए योगी भर्तृहरि जी कहते हैं कि मनुष्य जन्म अति दुर्लभ है और यह केवल परमात्मप्राप्ति के लिए ही मिला है। इसमें कितना कुछ भी जान लो, सकाम भाव से कितने भी पुण्यों का संचय कर लो, वे अधिक-से-अधिक स्वर्ग आदि के भोग देंगे परंतु आखिर में वहाँ से भी गिरना ही पड़ता है। सारे दुःखों का सदा के लिए अंत करना हो तो परमात्मप्राप्ति का लक्ष्य बनाकर मन को चारों ओर से खींच के सत्संग के श्रवण-मनन व आत्मचिंतन में लगाओ। परमात्मा को पा लेना ही दुर्लभ मनुष्य-जीवन का फल है और यही शाश्वत सुख की प्राप्ति का एकमात्र उपाय है।

श्रीमद् आद्य शंकराचार्य जी ने भी कहा हैः ‘अज्ञानरूपी सर्प से डँसे हुए को ब्रह्मज्ञानरूपी औषधि के बिना वेद से, शास्त्र से, मंत्र से और औषध से क्या लाभ ?’ (विवेक चूड़ामणिः 63)

पूज्य बापू जी के सत्संगामृत में आता हैः “बाहर तुम कितना भी जाओ, कितनी भी तीर्थयात्राएँ करो, कितने भी व्रत उपवास करो लेकिन जब तक तुम भीतर नहीं गये, अंतरात्मा की गहराई में नहीं गये तब तक यात्र अधूरी ही रहेगी। स्वामी रामतीर्थ ने सुंदर कहा हैः

जिन प्रेमरस चाखा नहीं,

अमृत पिया तो क्या हुआ ?

स्वर्ग तक पहुँच गये, अमृत पा लिया लेकिन अंत में फिर गिरना पड़ा। यदि जीवात्मा ने उस परमात्मा का प्रेमरस नहीं चखा तो फिर स्वर्ग का अमृत पी लिया तो भी क्या हुआ ? सभी विद्याएँ ब्रह्मविद्या में समायी हैं। श्रुति कहती हैः यस्मिन् विज्ञाते सर्वं विज्ञातं भवति। ‘जिसको जान लेने से सबका ज्ञान हो जाता है (वह  परमात्मा है)।’ ब्रह्मविद्या के लिए शास्त्रों में वर्णन आता हैः

स्नातं तेन सर्वं तीर्थं दातं तेन सर्वं दानम्।

कृतं तेन सर्वं यज्ञं, येन क्षणं मनः ब्रह्मविचारे स्थिरं कृतम्।।

जिसने मन को ब्रह्मज्ञान, ब्रह्मविचार में लगाया, उसने सारे तीर्थों में स्नान कर लिया, सारे दान कर दिये तथा नौचंडी, सहस्रचंडी, वाजपेय, अश्वमेध आदि सारे यज्ञ कर डाले। जैसे कुल्हाड़ी लकड़ी को काट के टुकड़े-टुकड़े कर देती है, ऐसे ही सर्व दुःखों, चिंताओं और शोकों को काट के छिन्न-भिन्न कर दे ऐसी है यह ब्रह्मविद्या।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2018 पृष्ठ संख्या 24 अंक 308

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ