साँप मर गया, नेवला वहीं रह गया !

साँप मर गया, नेवला वहीं रह गया !


आत्मा पर आवरण क्या है ? असलियत यह है कि आत्मा पर कोई आवरण नहीं है। वह तो नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त ब्रह्म ही है। परंतु बहुत सारी बातें आपके मन में बिना सोचे-समझे बिठा दी गयी है, साँप को भगाने के लिए आपके मन में नेवला को लाकर बैठा दिया गया है।

पंचतंत्र की यह कहानी आपने सुनी होगी। एक पेड़ पर बहुत सी चिड़ियाँ रहती थीं। उस पेड़ के नीचे एक साँप रहता था। वह चिड़ियों के अंडे-बच्चे खा जाता था। चिड़ियों की पंचायत हुई। उन्होंने तय किया कि ‘साँप को मारने के लिए नेवला बुलाया जाय।’ नेवला आ गया। नेवले को देखकर साँप तो भाग गया किंतु नेवला वहीं रह गया। अब वही नेवला चिड़ियों के अंडे-बच्चों को खाने लगा। भक्षितोऽपि लशुने न शान्तो व्याधिः। एक तो लहसुन खाया और रोग भी नहीं मिटा ! नेवला तो आ गया पर अंडे-बच्चे बचे नहीं। इसी प्रकार देहाभिमान को छुड़ाने के लिए शास्त्रों ने बहुत सारे उपाय बताये परंतु एक गया, दूसरा आता रहा। रोग बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की !

श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई।

छूट न अधिक अधिक अरुझाई।। (श्रीरामचरित. उ.कां. 116.3)

आपको चाहिए था सुख। किसी ने कह दिया कि ‘विषय-उपार्जन करो तो भोग-सुख मिलेगा।’ अब विषयों का उपार्जन किया, भोग सुख तो मिला किंतु ‘मैं विषयी और विषयों का भोग करके सुखी होऊँगा’ यह संस्कार शेष रह गया। अब भोग सुख में भी होड़ लगी। प्रजा के भोग से कम सुखी, राजा के भोग से अधिक सुखी, इन्द्र के भोग से और अधिक सुखी ! न जाने किस अशुभ मुहूर्त में हमें भोक्ता बनाया गया और हम भोक्ता बन गये। इसी का नाम ‘पाप’ है। गाली देने का, किसी को मारने का, किसी का माल लेने का नाम ‘पाप’ है, यह तो आप जानते हो परंतु ‘हम भोगी हैं’ ऐसा अपने को मानने का नाम भी ‘पाप’ है – यह आपके दिमाग से निकल गया। ‘हम भोक्ता हैं’ – यह पराधीनता का पाप ही हमारा आवरण बन गया।

हमें नहीं मालूम कब अनजाने में हमने अपने-आपको कर्ता मान लिया। हम कर्म के पराधीन हो गये। ‘कर्म नहीं करेंगे तो हम बंधन से नहीं छूटेंगे’ – यह ग्रंथि बन गयी। और ज्यों-ज्यों बंधन से छूटने के लिए कर्म करते गये, त्यों-त्यों रेशम के कीड़े की तरह फँसते चले गये। यह अपने को कर्ता मानना ‘पाप’ है।

कर्तापन-भोक्तापन पाप है। अपने को जन्मने-मरने वाला मानना पाप है, जन्म-जन्मांतर में लोक-लोकांतर में भटकने वाला मानना पाप है। ‘यह पाप है, वह पाप है’ यह तो आपको सिखाया गया परंतु ‘मैं पापी हूँ।’ – यह मानना भी पाप है, यह नहीं सिखाया गया। पर्दे-पर-पर्दे पड़ते गये।

एक नासमझीरूपी सर्प को भगाने के लिए समझरूपी दूसरे नेवले को लाया गया, दूसरी नासमझी को हटाने के लिए तीसरी समझ और तीसरे सर्प को हटाने के लिए तीसरी समझ और तीसरे सर्प को हटाने के लिए चौथा नेवला आया परंतु हर बार साँप मर गया, नेवला वहीं रह गया। अरे ! आप न कर्ता हैं न भोक्ता हैं, न संसारी हैं न परिच्छिन्न हैं। आप टुकड़े नहीं हैं, कतरा नहीं हैं दरिया हैं, बिंदु नहीं हैं सिंधु हैं-

बिंदु में सिंधु समाहिं सुनि कोविद1 रचना करें।

हेरनहार2 हिरान3, रहिमन आपुनि आपमें4 ।।

1 विद्वान 2 खोजने वाला 3 खो गया 4 अपने-आप में।

आप कोई साधारण वस्तु नहीं हैं। परंतु आपने इस अपने-आपको परमानंदरुपी खजाने पर से अपना हक छोड़ दिया ! बड़ों (महापुरुषों) पर विश्वास नहीं किया, ज्ञान के लिए प्रयत्न नहीं किया, आवरण का भंग नहीं किया, इसको (परमानंदरूपी खजाने को) अपना-आपा नहीं समझा। केवल मुक्ति की चर्चा करने से मुक्ति नहीं मिलती।

आत्म-तत्त्व को समझाने के लिए कुछ अध्यारोप (वस्तु यानी ब्रह्म में अवस्तु यानी जड़ समूह (देह, मन आदि) का आरोप करना ‘अध्यारोप’ कहलाता है।) किये शास्त्र ने। उसी शास्त्र को हमने सच्चा समझ लिया। तब उसके अपवाद (अपवाद यानि अध्यारोप का निराकरण। जैसे – रस्सी में सर्प का ज्ञान यह अध्यारोप है और रस्सी के वास्तविक ज्ञान से उसका जो निराकरण हुआ यह अपवाद है।) के लिए शास्त्र बने। जितना-जितना अध्यारोप बढ़ता गया, अपवाद के शास्त्रों की संख्या भी बढ़ती गयी। परंतु ब्रह्मज्ञान में समझना यह है कि समस्त अध्यारोपों और उनके अपवादों का जो साक्षी-अधिष्ठान है, वह स्वयं ही है। इसलिए आप अपने पूरे सामर्थ्य, विवेक और बल का प्रयोग करके अपने इस अज्ञान-शत्रु का नाश कर डालिये।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2018, पृष्ठ संख्या 25,26 अंक 311

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