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असली चमत्कार


एक बार स्वामी अखंडानंद जी की किसी शिष्या ने उनके चरणों में अपना एक प्रश्न रखाः “बहुत से महात्मा चमत्कार दिखाते हैं, आप क्यों नहीं दिखाते ?”

स्वामी जीः “तुम जब पहली बार हमसे मिलीं तो तुम्हारे चित्त की क्या स्थिति थी ?”

“उस समय तो मैं अत्यधिक डाँवाडोल स्थिति में थी।”

“सत्संग करते हुए 10 वर्ष तो तुमको हो ही चुके होंगे, बताओ, अब तुम्हारे चित्त की क्या स्थिति है ?”

“आपसे प्रथम मिलने के बाद, इस क्षण पर्यन्त मुझे ऐसा स्मरण नहीं कि मैं रोयी हूँ, अथवा कभी दुःखी हुई हूँ। निरंतर आपकी कृपा का अनुभव होता है।

“क्या तुम उसको हमारा ‘चमत्कार’ नहीं मानतीं ? ‘सिद्धियाँ-चमत्कार’ चमत्कार नहीं हैं। असली चमत्कार है चित्त का परिवर्तन !”

और यह चमत्कार पूज्य बापू जी के अनगिनत शिष्यों, भक्तों एवं सम्पर्क में आने वालों के जीवन में प्रत्यक्ष देखने को मिलता है।

स्रोतः ऋषि प्रसादः अगस्त 2018, पृष्ठ संख्या 7 अंक 308

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मन को शान्त करने के उपाय-पूज्य बापू जी


किसी भी प्रकार का व्याधि होने पर उस व्याधि की औषधि लेने के साथ मन को भी शान्त करने के प्रयास करने चाहिए। वर्तमान समय में बहुत सारे रोगों का कारण अशांत मन है। स्वप्नदोष, श्वेतप्रदर, अनियमित मासिक धर्म, अनियंत्रित रक्तदाब (Uncontrolled B.P.), मधुमेह (Diabetese), दमा, जठर में अल्सर, मंदाग्नि, अम्लपित्त (Hyper Acidity), अतिसार, अवसाद (Depression), मिर्गी, उन्माद (पागलपन) और स्मरणशक्ति का ह्रास जैसे अनेक रोगों का कारण मन की अशांति है।

चित्त (मन) में संकल्प-विकल्प बढ़ते हैं तो चित्त अशांत रहता है, जिससे प्राणों का लय अच्छा नहीं रहता, तालबद्ध नहीं रहता। अनेक कार्यों में हमारी असफलता का यही कारण है।

हमारे देश के ब्रह्मवेत्ता, जीवन्मुक्त संतों ने मन को शांत करने के विभिन्न उपाय बतलाये हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख, चुनिंदा उपाय इस प्रकार हैः

1.उचित आहारः मन को वश करने के लिए, शांत करने के लिए सर्वप्रथम आहार पर नियंत्रण होना आवश्यक है। जैसा अन्न खाते हैं, हमारी मानसिकता का निर्माण भी वैसा ही होता है। इसलिए सात्त्विक, शुद्ध आहार का सेवन करना अनिवार्य है। अधिक भोजन करने से अपचन की स्थिति निर्मित होती है, जिससे नाड़ियों में कच्चा रस ‘आम’ बहता है, जो हमारे मन के संकल्प-विकल्पों में वृद्धि करता है। फलतः मन की अशांति में वृद्धि होती है। अतएव भूख से कम आहार लें। भोजन समय पर करें। रात को जितना हो सके, अल्पाहार लें। तला हुआ, पचने में भारी व वायुकारक आहार के सेवन से सदैव बचना चाहिए। साधक को चाहिए कि वह कब्ज का निवारण करके सदा ही पेट साफ रखे।

2.अभ्यास, वैराग्य व ब्रह्मचर्यः भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा हैः

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।

अभ्यास और वैराग्य से मन शान्त होता है। वैराग्य दृढ़ बनाने के लिए इन्द्रियों का अनावश्यक प्रयोग न करें, अनावश्यक दर्शन-श्रवण से बचें। समाचार पत्रों की व्यर्थ बातों व टी.वी., रेडियो या अन्य बातों में मन न लगायें। ब्रह्मचर्य का दृढ़ता से अधिकाधिक पालन करें।

3.आसन-प्राणायामः इन्द्रियों का स्वामी मन है और मन का स्वामी प्राण है। प्राण जितने अधिक सूक्ष्म होंगे, मन उतना ही अधिक शांत रहेगा। प्राण सूक्ष्म बनाने के लिए नियमित आसन-प्राणायाम करें। पद्मासन, सिद्धासन, पादपश्चिमोत्तानासन, सर्वांगासन, मयूरासन, ताड़ासन, वज्रासन एवं अन्यान्य आसनों का नियमित अभ्यास स्वास्थ्य और एकाग्रता के लिए हितकारी है, सहायक है। आसन-प्राणायाम के 25-30 मिनट बाद ही किसी आहार अथवा पेय पदार्थ का सेवन करें। प्राणायाम का अभ्यास खाली पेड़ ही करें अथवा भोजन के 3-4 घंटे के बाद ही करें। प्राणायाम का अभ्यास आरम्भ में किन्हीं अनुभवनिष्ठ योगी महापुरुष के मार्गदर्शन में करना चाहिए।

(विभिन्न आसनों की सचित्र जानकारी हेतु पढ़ें आश्रम व समिति के सेवाकेन्द्रों पर उपलब्ध पुस्तक ‘योगासन’। – संकलक)

4.श्वासोच्छवास की गिनतीः सुखासन, पद्मासन या सिद्धासन में बैठकर श्वासोच्छवास की गिनती करें। इसमें न तो श्वास गहरा लेना है और न हो रोकना है। केवल जो श्वास चल रहा है, उसे गिनना है। श्वास की गणना कुछ ऐसे करें-

श्वास अंदर जाय तो ‘राम….’, बाहर निकले तो ‘1’… श्वास अंदर जाय तो ‘आनंद’…. बाहर निकले तो ‘2’…. श्वास अंदर जाय तो ‘शांति’…. बाहर निकले तो ‘3’…. इस प्रकार की गणना जितनी शांति, सतर्कता से करेंगे, हिले बिना करेंगे उतनी एकाग्रता होगी, उतना सुख शांति, प्रसन्नता और आरोग्य का लाभ होगा।

5.त्राटकः मन को वश करने का अगला उपाय है त्राटक। अपने इष्टदेव, स्वास्तिक, ॐकार अथवा सदगुरु की तस्वीर को एकटक देखने का अभ्यास बढ़ायें। फिर आँखें बंद कर उसी चित्र का भ्रूमध्य में अथवा कंठ में ध्यान करें।

6.जप-अनुष्ठानः मंत्रजप का अधिक अभ्यास करें। वर्ष में 1-2 जपानुष्ठान करें तथा पवित्र आश्रम, पवित्र स्थान में थोड़े दिन निवास करें।

7.क्षमायाचना करना एवं शांत होनाः मन की शांति अनेक जन्मों के पुण्यों का फल है अतएव जाने-अनजाने में हुए अपराधों के बदले में सदगुरु या भगवान की तस्वीर अपने पास रखकर अथवा ऐसे ही मन-ही-मन प्रायश्चितपूर्वक उनसे क्षमा माँगना एवं शांत हो जाना भी एक चिकित्सा है।

8.आत्मचिंतनः आत्मचिंतन करते हुए देहाध्यास को मिटाते रहें। जैसे कि मैं आत्मस्वरूप हूँ…. तंदुरुस्त हूँ…. मुझे कोई रोग नहीं है। बीमार तो शरीर है। काम, क्रोध जैसे विकार तो मन में हैं। मैं शरीर नहीं, मन नहीं, निर्विकारी आत्मा हूँ। हरि ॐ…. आनंद…. आनंद….

9.प्रसन्नताः हर रोज प्रसन्न रहने का अभ्यास करें। किसी बंद कमरे में जोर से हँसने (देव-मानव हास्य प्रयोग) और सीटी बजाने का अभ्यास करें।

इन 9 बातों का जो मनुष्य दृढ़तापूर्वक पालन करता है, वह निश्चय ही अपने मन को वश में कर लेता है। आप भी अपने मन को सुखमय, रसमय, अनासक्त, एकाग्र करते हुए अपने सदा रहने वाले आत्मस्वरूप में जग जाओ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2018, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 308

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हे मनुष्यो ! एकजुट हो जाइये….


समानी व आकूतिः समाना हृदयानि चः।

समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति।।

‘हे मनुष्यो ! तुम लोगों के संकल्प और निश्चय एक समान हों, तुम सबके हृदय तक एक जैसे हो, तुम्हारे मन एक समान हों ताकि तुम्हें सब शुभ, मंगलदायक, सुहावना हो (एवं तुम संगठित हो के अपने सभी कार्य पूर्ण कर सको)।’

(ऋग्वेदः मंडल 10, सूक्त 191, मंत्र 4)

1.विचार संकल्पः जगत संकल्पमय है। जब अनेक व्यक्तियों के विचारों में एकजुटता होती है तब उससे सामूहिक संकल्प-शक्ति पैदा होती है, जिसके प्रभाव से दुनिया में क्रांतिकारी बदलाव होते देखे गये हैं। जब-जब आत्मवेत्ता सत्पुरुष धरती पर अवतरित होते हैं, तब-तब तत्कालीन जितने अधिक लोग उनके सिद्धान्त को समझ पाते हैं, उनके पदचिन्हों का अनुसरण कर पाते हैं उतना ज्यादा व्यक्ति, समाज, देश और पूरे विश्व का कल्याण होता है।

2.हृदय-साम्यः हृदय का एक अर्थ केन्द्र भी होता है। हृदय साम्य का अर्थ है कि हमारा जो केन्दीय सिद्धान्त है वह उस एक ईश्वरीय विधान के अनुकूल हो। ईश्वरीय विधान यह है कि सबकी भलाई में अपनी भलाई, सबके मंगल में अपना मंगल है क्योंकि सबकी गहराई में एक ही चैतन्य आत्मा विद्यमान है। अकः किसी का अहित न चाहना भगवान की सबसे बड़ी सेवा है। सबका हित चाहने से आपका स्वयं का हृदय मंगलमय हो जायेगा। ईश्वर में आप जितना खोओगे, उनके प्रति आप जितना समर्पित होंगे, ईश्वर आपके द्वारा उतने ही बढ़िया कार्य करवायेंगे। इससे ईश्वर भी मिलेंगे और समाज की सेवा भी हो जायेगी।

3.मनः साम्यः यदि मन-भेद है, मनःसाम्य नहीं है तो बाहर की सुख-सुविधाएँ होते हुए भी लोग भीतर से दुःखी, चिंतित, अशांत रहते हैं। सभी के मन भिन्न-भिन्न हैं, ऐसे में क्या मनःसाम्य सम्भव है ? हाँ, सम्भव है। सभी के मन एक चैतन्यस्वरूप आत्मा से स्फुरित हुए हैं। अतः यदि आत्मदृष्टि एवं आत्मानुकूल व्यवहार का अवलम्बन लिया जाय तो मनःसाम्य के लिए अलग किसी प्रयास की आवश्यकता नहीं रहेगी। इससे जीवन में परमत सहिष्णुता आयेगी अर्थात् अपने मत का आग्रह न रहकर दूसरे का जो भी कोई शास्त्रसम्मत मत सामने आयेगा, उसके अनुमोदन एवं पूर्ति में रस आयेगा। इससे अपने व्यक्तिगत अधिकारों की चिंता छूटने लगेगी और दूसरों के शास्त्रसम्मत अधिकारों की रक्षा होने लगेगी। दूसरों द्वारा अपना सही विचार भी अस्वीकृत होने पर व्यक्ति के हृदय में विक्षेप व खेद नहीं होगा बल्कि वह ईश्वर को, सदगुरु को प्रार्थना करेगा एवं शरणागत होकर हल खोजेगा।

तो उपरोक्त वैदिक त्रिसूत्री में अपना एवं सबका मंगल समाया हुआ है। अपना एवं समाज का जीवन सुशोभित करने के लिए मानो यह एक ईश्वरीय उपहार ही है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2018, पृष्ठ संख्या 2 अंक 308

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