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विभिन्न रंगों की खान-पान की चीजों से बनायें सेहत


कुदरत ने हमारे चारों ओर फल-सब्जी या अन्य चीजों के रूप में कई रंग बिखेरे हुए हैं। इन चीजों से जुड़े रंगों की अपनी विशेष महत्ता है। आइये जानें विभिन्न रंगों की खान-पान की चीजों के बारे में, जो स्वस्थ बनाये रखने का काम करती हैं।

1.लालः दिल की सेहत के लिए लाल  रंग की चीजें खायें। सेब, गाजर, स्ट्राबेरी, टमाटर आदि इसके बेहतर उदाहरण हैं, जिनमें हृदय को स्वस्थ रखने वाले पोषक तत्त्व पाये जाते हैं।

2.पीलाः यह रंग नींबू, कद्दू, केला, रसभरी आदि में पाया जाता है, जो विटामिन ‘सी’ की कमी को दूर करता है। कुछ जड़ी बूटियों में भी यह रंग होता है, जो हमें कई रोगों से बचाता है।

3.केसरियाः यह रंग ऊर्जा व पोषण बढ़ाता है। पपीता, संतरा जैसे केसरिया रंग के फल शरीर में विटामिन्स व खनिज पदार्थों (मिनरल्ज़) की पूर्ति करते हैं। इनसे त्वचा को चमक मिलती है और हड्डियाँ मजबूत होती हैं।

4.सफेद और नीलाः ये रंग फल और सब्जी दोनों से मिलते हैं। कच्चा प्याज, लहसुन, गोभी, मूली आदि में सफेद रंग एवं जामुन, बैंगन आदि में नीला रंग होता है, जिनसे शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है और पाचनतंत्र उत्तम रहता है।

5.काला-जामुनीः वृद्धावस्था को दूर रखने (एंटी एजिंग) के एवं एंटी ऑक्सीडेंट गुणों से भरपूर यह रंग चुकंदर, जामुन, काले अंगूर आदि में मौजूद होता है। यह मांसपेशियों व कोशिकाओं की कार्यक्षमता को सुधारने में उपयोगी है।

6.सफेद-हराः इस सम्मिश्रित रंग से पोषण में ताजगी मिलती है। खीरा, लौकी, ककड़ी आदि इसके उदाहरण हैं। ये शरीर में विटामिन्स, खनिज पदार्थों, रेशे (फाइबर्स) व पानी की पूर्ति करते है।

7.गेहुँआः यह रंग आलू, चीकू, अदरक और मेवों में पाया जाता है। इस रंग की चीजें त्वचा, दिमाग व पाचनतंत्र को ठीक रखती हैं। इनमें अधिक मात्रा में माइक्रोन्यूट्रियेंट्स मौजूद होते हैं।

8.हलका हराः इस रंग के फल व सब्जी शरीर को तरोताजा रखते हैं। लौह तत्त्व (आयरन), विटामिन्स और फॉलिक एसिड से युक्त यह रंग आँवला, परवल, टिंडा, बेर आदि में होता है।

9.गहरा हराः इस रंग की सब्जियाँ जैसे – पालक, भिंडी, बथुआ, करेला, मटर, फलियाँ आदि में विटामिन ‘के’, फॉलिक एसिड और लौह तत्त्व भरपूर होता है, जो शरीर को पोषण देते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2018, पृष्ठ संख्या 31,32 अंक 306

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वर्षा ऋतु में स्वास्थ्यप्रदायक अनमोल कुंजियाँ


पूज्य बापू जी के सत्संग-अमृत से संकलित

वर्षा ऋतुः 21 जून 2018 से 22 अगस्त 2018 तक

1.वर्षा ऋतु में मंदाग्नि, वायुप्रकोप, पित्त का संचय आदि दोषों की अधिकता होती है। इस ऋतु में भोजन आवश्यकता से थोड़ा कम करोगे तो आम (कच्चा रस) तथा वायु नहीं बनेंगे या कम बनेंगे, स्वास्थ्य अच्छा रहेगा। भूल से भी थोड़ा ज्यादा खाया तो ये दोष कुपित होकर बीमारी का रूप ले सकते हैं।

2.काजू, बादाम, मावा, मिठाइयाँ भूलकर भी न खायें, इनसे बुखार और दूसरी बीमारियाँ होती हैं।

3.अशुद्ध पानी पियेंगे तो पेचिश व और कई बीमारियाँ हो जाती हैं। अगर दस्त हो गये हों तो खिचड़ी में देशी गाय का घी डाल के खा लो तो दस्त बंद हो जाते हैं। पतले दस्त ज्यादा समय तक न रहें इसका ध्यान रखें।

4.बरसाती मौसम के उत्तरकाल में पित्त प्रकुपित होता है इसलिए खट्टी व तीखी चीजों का सेवन वर्जित है।

5.जिन्होंने बेपरवाही से बरसात में हवाएँ खायी हैं और शरीर भिगाया है, उनको बुढ़ापे में वायुजन्य तकलीफों के दुःखों से टकराना पड़ता है।

6.इस ऋतु में खुले बदन घूमना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।

7.बारिश के पानी में सिर भिगाने से अभी नहीं तो 20 वर्षों के बाद भी सिरदर्द की पीड़ा अथवा घुटनों का दर्द या वायु संबंधी रोग हो सकते हैं।

8.जो जवानी में ही धूप में सिर ढकने की सावधानी रखते हैं उनको बुढ़ापे में आँखों की तकलीफें जल्दी नहीं होतीं तथा कान, नाक आदि निरोग रहते हैं।

9.बदहजमी के कारण अम्लपित्त (Hyper acidity) की समस्या होती है और बदहजमी से जो वायु ऊपर चढ़ती है उससे भी छाती में पीड़ा होती है। वायु और पित्त का प्रकोप होता है तो अनजान लोग उसे हृदयाघात (Heart Attack) मान लेते हैं, डर जाते हैं। इसमें डरें नहीं, 50 ग्राम जीरा सेंक लो व 50 ग्राम सौंफ सेंक लो तथा 20-25 ग्राम काला नमक लो और तीनों को कूटकर चूर्ण बना के घर में रख दो। ऐसा कुछ हो अथवा पेट भारी हो तो गुनगुने पानी से 5-7 ग्राम फाँक लो।

10.अनुलोम-विलोम प्राणायाम करो – दायें नथुने से श्वास लो, बायें से छोड़ो फिर बायें से लो और दायें से छोड़ो। ऐसा 10 बार करो। दोनों नथुनों से श्वास समान रूप से चलने लगेगा। फिर दायें नथुने से श्वास लिया और 1 से सवा मिनट या सुखपूर्वक जितना रोक सकें अंदर रोका, फिर बायें से छोड़ दिया। कितना भी अजीर्ण, अम्लपित्त, मंदाग्नि, वायु हो, उनकी कमर टूट जायेगी। 5 से ज्यादा प्राणायाम नहीं करना। अगर गर्मी हो जाय तो फिर नहीं करना या कम करना।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2018, पृष्ठ संख्या 30 अंक 306

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नित्य कल्याणकारी परम सुख


ब्रह्मेन्द्रादिमरुद्गणाँस्तृणकणान्यत्र स्थितो मन्यते

यत्स्वादाद्विरसा भवन्ति विभवास्त्रैलोक्यराज्यादयः।

भोगः कोऽपि स एक एव परमो नित्योदितो जृम्भते

भो साधो क्षणभङ्गुरे तदितरे भोगे रतिं मा कृथाः।।

‘हे साधन करने वाले साधुपुरुष ! इस संसार में अनेक प्रकार के भोग हैं फिर भी उन सबमें नित्य कल्याणकारी एक ही उत्तम परमभोग (आत्मसुख) है। उस भोग में स्थिति करने वाला पुरुष ब्रह्मा, इन्द्र आदि जैसे बड़े देवों को भी तृण (तिनके) के समान समझता है। इस भोग का स्वाद लेने पर त्रैलोक्य के राज्य और वैभव रसहीन लगते हैं। अतः इस अलौकिक भोग को छोड़कर दूसरे क्षणभंगुर भोगों में तुम प्रीति न करो।’ (वैराग्य शतकः40)

भगवान कहते हैं-

ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।

आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।।

‘जो ये इन्द्रिय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सब भोग हैं, यद्यपि विषयी पुरुषों को सुख भासते हैं तो भी दुःख के ही हेतु हैं और आदि अंतवाले अर्थात् अनित्य हैं। इसलिए हे अर्जुन ! बुद्धिमान-विवेकी पुरुष उनमें नहीं रमता।’ (गीताः 5.22)

स्वामी शिवानंद जी कहते हैं- “मनुष्य अपने हृदय में सांसारिक पदार्थों के प्रति अनासक्ति एवं वैराग्य का भाव उत्पन्न कर सकता है क्योंकि स्वर्ग से भी अवधि पूरी होने पर मनुष्य को जन्म लेकर पृथ्वी पर आना पड़ता है। स्वर्ग में भी संसार की तरह इन्द्रिय-सुख भोगने को मिलते हैं। किंतु वे अधिक तीव्र और कृत्रिम होते हैं। विवेकी व्यक्ति को उनसे कोई आनंद नहीं प्राप्त हो सकता। वह तो स्वर्ग के भी सारे सुखों को तिलांजली दे देता है।”

पूज्य बापू जी के सत्संग-अमृत में आता हैः “बढ़िया मकान हो, गाड़ी हो, पत्नी बढ़िया हो, बढ़िया बैंक बैलेंस हो, बढ़िया मजा लूँ…. इस ‘बढ़िया-बढ़िया’ में ही बेचारा जीव खप जाता है और अंत में दुःखद योनियों को पाता है। जो शाश्वत है, नित्य अपने साथ रहने वाला है, जिसको पाने के बाद कुछ पाना बाकी नहीं रह जाता, उस आत्मा को तो वह जानता नहीं, उसको जाने तो बेड़ा पार हो जाय।

इन्द्रपद बहुत ऊँचा है लेकिन आत्मसाक्षात्कार के आगे वह भी मायने नहीं रखता। आत्मसाक्षात्कार के आनंद के आगे त्रिलोकी को पाने का आनंद भी बहुत तुच्छ है। इसीलिए अष्टावक्र गीता (4.2) में कहा गया हैः

यत्पदं प्रेप्सवो दीनाः शक्राद्याः सर्वदेवताः।

अहो तत्र स्थितौ योगी न हर्षमुपगच्छति।।

‘इन्द्रादि सारे देवता जिस पद की प्राप्ति के लिए अत्यंत दीन हो रहे हैं, बड़े आश्चर्य की बात है कि उसी पद पर स्थित होकर तत्त्वज्ञानी हर्षरूप विकार को नहीं प्राप्त होते।’

यह आत्मदेव का ज्ञान, आत्मदेव का सुख ऐसा अदभुत है ! उस आत्मदेव को जानो जिसके आगे जगत का बड़े-में-बड़ा पद भी कुछ नहीं, जीवन भी कुछ नहीं, मृत्यु भी कुछ नहीं।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2018, पृष्ठ संख्या 24 अंक 306

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