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आत्मसंतोषरूपी धन ही सबसे ऊँचा है


वैराग्य शतक के 29वें श्लोक  भर्तृहरि जी महाराज कहते हैं- “जो लोग संतोष से सदा प्रसन्न रहते हैं, उनके आनंद छिन्न-भिन्न नहीं होते हैं, कम नहीं होते हैं अपितु बढ़ते हैं। और जो दूसरे लोग, जिनकी बुद्धि धन के लोभ से आकुल है, की चाह समाप्त नहीं होती अपितु बढ़ती ही जाती है। ऐसी दशा में विधाता ने अनिर्वचनीय सम्पत्ति का स्थान वह स्वर्णमय मेरू पर्वत किसके लिए निर्मित किया है ? क्योंकि उसकी सुवर्ण-विषयक महिमा अपने में ही समाप्त हो जाती है अर्थात् इस अतुल धनराशि का वह केवल प्रदर्शन करता है, वह किसी के काम में नहीं आती ( न संतोषी के काम आती है न लोभी के)। ऐसा मेरु पर्वत मुझे तो अच्छा नहीं लगता।”

असंतोषी, तृष्णावान पुरुष को बाहर धन कभी तृप्त नहीं कर सकता क्योंकि तृष्णा कभी पूर्ण नहीं हो सकती। और संतोषरूपी अमृत को पीकर तृप्त, शांत पुरुष को जो सुख मिलता है वह सुख धन के पीछे जहाँ-तहाँ दौड़ने वाले अशांत व्यक्ति को कहाँ नसीब होता है ? मेरु पर्वत के समान धन भी अपार दुःख का कारण बनता है। इसलिए आत्मसंतोषरूपी धन ही सबसे ऊँचा है। यदि धनिक जन भी अभिमानरहित होकर महापुरुषों की तरह अपने धन को सेवा-सत्कार्यों में, सत्संग-लाभ दिलाने हेतु सबके मंगल, सबकी भलाई के लिए लगायें तो वे भी आत्मसंतोषरूपी धन पा सकते हैं। अन्यथा लोभवश, केवल अपने स्वार्थ हेतु धन इकट्ठा करके मर जाने से क्या लाभ?

श्री नारद पुराण (पूर्व भाग) में सनत्कुमार जी कहते हैं- “धन के त्याग में बड़ा कष्ट होता है। उसको रखने में भी सुख नहीं है तथा उसके खर्च करने में भी क्लेश ही होता है, अतः धन को प्रत्येक दशा में दुःखदायक समझकर उसके नष्ट होने पर चिंता नहीं करनी चाहिए। मनुष्य धन का संचय करते-करते पहले की अपेक्षा ऊँची स्थिति को प्राप्त करके भी कभी तृप्त नहीं होते। वे और अधिक धन कमाने की आशा लिए हुए ही मर जाते हैं और विद्वान  पुरुष सदा संतुष्ट रहते हैं। संतोष ही परम सुख है। अतः पंडितजन इस लोक में संतोष को ही उत्तम धन मानते हैं।”

पूज्य बापू जी के सत्संगामृत में आता हैः “जब हृदय में चाह आ जाती है तब व्यक्ति लघु हो जाता है। जिस समय तृष्णा हृदय पर कब्जा कर लेती है,  उस समय व्यक्ति तुच्छ हो जाता है और जिस समय अनजाने में भी तृष्णा नहीं रहती, उस समय उसके चित्त में आनंद, प्रेम और दिव्यता छलकती है।

धन की कमी या अधिकता से कोई निर्धन या धनवान नहीं होता। संतोष की कमीवाला व्यक्ति ही निर्धन है और संतोषी व्यक्ति ही धनवान है। समझ की कमी से व्यक्ति निर्धन होता है और सच्ची समझ होने पर धनवान होता है।

वासना मिटाने का पुरुषार्थ ही वास्तविक पुरुषार्थ है। वासना मिटाने का अर्थ यह नहीं कि जैसी इच्छा हुई वैसा कर लिया। इससे वासना मिटेगी नहीं वरन् गहरी उतर जायेगी। इसलिए ज्ञान का प्रकाश और विवेक का सहारा लेकर वासना को निवृत्त करने का यत्न करना चाहिए। सदैव अंतर्यामी ईश्वर पर भरोसा रखें। अपनी इच्छाएँ-वासनाएँ घटाते जायें और ईश्वरप्रीति बढ़ाते जायें।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2018, पृष्ठ संख्या 24 अंक 311

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क्या है यज्ञार्थ कर्म ? – पूज्य बापू जी


गीता (3.9) में भगवान कहते है-

यज्ञार्थत्कर्मणओऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।

तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर।।

‘यज्ञ (परमेश्वर, कर्तव्य-पालन) के निमित्त किये जाने वाले कर्मों से अन्यत्र कर्मों में (अर्थात् उनके अतिरिक्त दूसरे कर्मों में) लगा हुआ ही यह मनुष्य-समुदाय कर्मों से बँधता है। इसलिए हे अर्जुन ! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभाँति कर्तव्य-कर्म कर।’

आँख को दूसरे के प्रति ईर्ष्या न करने देना यह आँख की सेवा है, यह यज्ञार्थ कर्म है। जीभ को निंदा-चुगली में न लगाना-एक को एक बात बोले, दूसरे को दूसरी बोले, आपस में लड़ावे, झगड़ा करावे तो यह हो गया बंधन। लेकिन दो लोग लड़ रहे हैं तो एक को वह अच्छी बात करे, दूसरे को भी अच्छी बात करके दोनों का मेल कर दे, यह हो गया यज्ञार्थ कर्म। अपनी जीभ का सदुपयोग किया – किसी की श्रद्धा टूट रही है तो उसको सत्संग की बाते बताकर, भगवान की महिमा बता के उसका मन भगवान में लगाया, यह यज्ञार्थ कर्म है।

“हाँ जी ! यह तो ऐसा है।’, ‘क्या पता भगवान मिलेंगे कि नहीं मिलेंगे….!’, यह ऐसा-वैसा…. अपन तो चलो खाओ-पियो, पान-मसाला खाओ, मजा लो….’ तो यह जीभ का अन्यत्र कर्म हुआ। जो अन्यत्र कर्म है वह बन्धनकर्ता है और जो यज्ञार्थ कर्म है वह मुक्ति देने वाला है। जीभ है तो भगवन्ना-जप किया, सुंदर वाणी बोले, परोपकार के दो वचन बोले तो यह हो यज्ञार्थ कर्म हो गया। आपने जीभ की कर्म करने की शक्ति का सदुपयोग यज्ञ के निमित्त किया।

ऐसे ही कान के द्वारा तुमने निंदा सुनी, किसी की चुगली सुनी, किसी की बुरी बात सुनी तो तुमने यह अन्यत्र कर्म किया लेकिन कान के द्वारा तुमने सत्संग सुना, भगवान का नाम सुना, जिह्वा के द्वारा तुमने भगवान का नाम लिया, हाथों के द्वारा भगवान के नाम की ताली बजायी तो यह यज्ञार्थ कर्म हो गया, ईश्वर की प्रीतिवाला कर्म हो गया। मनुष्य को यज्ञार्थ कर्म करते हुए अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2018, पृष्ठ संख्या 17, 23 अंक 311

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इससे बड़ा सौभाग्य क्या हो सकता है !


भगवान ने अपना दैवी कार्य करने के लिए हम लोगों के तन को, मन  को पसंद किया यह कितना सौभाग्य है ! और ईश्वर की यह सेवा ईश्वर ने हमें सौंपीं यह कितना बड़ा भाग्य है ! समाज और ईश्वर के बीच सेतु बनने का अवसर दिया प्रभु ने, यह उसकी कितनी कृपा है ! पैसा कमाना, पैसों का संग्रह करना, संसार के विषय-विकारों में खप जाना यह कोई बहादुरी नहीं है लेकिन भगवान के दैवी कार्य में भागीदार होना बड़ी बहादुरी है, बड़ा  सौभाग्य है। भगवान के दैवी कार्य में भगवन्मय हो जाना – इससे बड़ा सौभाग्य क्या हो सकता है। मुझे तो नहीं लगता है कि इससे बड़ा कोई सौभाग्य होता होगा। हम लोगों का बहुत-बहुत बड़ा भाग्य है। ये जो सेवक – बेटे-बेटियाँ, साधक-साधिकाएँ सेवा करते हैं, कितने बड़े भाग्य हैं इनके ! परमात्मा की प्रेरणा के बिना कोई ईमानदारी से सेवा नहीं कर सकता है।

धन का लोभी, वाहवाही का लोभी, पद का लोभी व्यक्ति कुछ भी कर ले उसे ऐसा आनंद नहीं आता जैसा ईश्वर के दैवी कार्य में लगे साधक-साधिकाओं को आता है। ईश्वर की सेवा में ऐसा आनंद आता है कि कल्पना नहीं कर सकते। ऐसा ज्ञान आता है, ऐसी सूझबूझ आती है कि सोच नहीं सकते।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2018, पृष्ठ संख्या 17 अंक 311

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