कार्य की सफलता उद्यम से होती है । जो प्रयत्नशील एवं उद्यमशील रहता है उसी के कार्य सिद्ध होते हैं, आलसी के नहीं । जंगल का राजा होने के बाद भी सोये हुए सिंह के मुख में मृग स्वयं प्रवेश नहीं करते, उसे भी उद्यम करना पड़ता है ।
जर्मनी में जोजफ बर्नडार्ड नामक एक युवक था, जो बचपन में इतना भोंदू था कि उसे पढ़ाने के लिए माता-पिता ने उसको कई स्कूलों में भर्ती कराया, कई योग्य शिक्षक नियुक्त किये पर वह बुद्धु ही रहा ।
एक दिन दुःखी माता-पिता ने क्रोध में आकर उससे कहाः “अरे मूर्ख ! तेरे जैसे निकम्मे के स्थान पर हम लोग कोई पिल्ला पाल लेते तो अच्छा था ।”
ये शब्द बर्नडार्ड को चुभ गये । उसने उसी क्षण निश्चय कर लिया कि ‘अब मैं निकम्मेपन के इस दाग को धोकर ही रहूँगा !’
उसने अपनी सारी शक्ति अध्ययन में केन्द्रित कर दी । उसकी लगन, जोश व निश्चय-बल का परिणाम यह हुआ कि वह मूर्ख बालक नौ-नौ भाषाओं का ज्ञाता बन गया ।
उसने ऐसी विलक्षण क्षमता अपने भीतर पैदा कर ली कि जब वह पार्लियामेंट में आया तो 9-9 भाषाओं में बोलता और लिखता था । उसकी क्षमता 9 व्यक्तियों के बराबर हो गयी, जिसे देखकर लोग दंग रह जाते थे ।
यह तो कुछ भी नहीं, हमारे देश में ऐसे अगणित उदाहरण इतिहास प्रसिद्ध हैं । महामूर्ख किशोर को सत्संग मिला और लग गया उसके अनुसार पुरुषार्थ करने तो वही आगे चलकर महान संत श्रीधर स्वामी के नाम से सुविख्यात हो गये । जिस डाली पर बैठा है उसे ही काट रहा है – ऐसा युवक पुरुषार्थ में लग गया और वही समय पाकर महान विद्वान एवं महाकवि कालिदास जी के नाम से प्रसिद्ध हो गये । जगतपति को प्रकट करने व अटल पद पाने के पीछे ध्रुव का पुरुषार्थ ही तो था !
मनुष्य जब तक स्वयं उठने की चेष्टा नहीं करता तब तक वह निकम्मा ही रहता है । यदि उसका सोया हुआ आत्मबल जाग जाय तो ऐसी कौन-सी मंजिल है जो वह नहीं पा सकता !
उद्यमी को देखकर भाग्यहीनता डर के भाग जाती है । उद्यमी चट्टान में भी राह बना लेता है । उद्यम करने पर भी कभी ध्येय सिद्ध न हो तो भी उदा नहीं होना चाहिए क्योंकि पुरुषार्थ अथवा प्रयत्न स्वयं ही एक बड़ी सिद्धि है । अतः जीवन में पुरुषार्थ होना चाहिए । और हमारा पुरुषार्थ सुफलित हो इसके लिए जरूरी है कि वह संत व शास्त्र सम्मत हो ।
पूज्य बापू जी के सत्संग में आता हैः “जो उद्यम, साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति और पराक्रम का अवलम्बन लेता है उसको अंतर्यामी परमेश्वर पद-पद पर सहायता करते हैं । उद्यमी और श्रमशील लोगों को ही श्री और सुख प्राप्त होते हैं । देवता भी आलस्यरहित, उत्साही, श्रमशील लोगों की ही सहायता करते हैं । जो चलचित्र देखता है है, अपने समय शक्ति खोता है या आलसी होकर बैठा रहता है उसका भाग्य भी बैठा रहता है । जो उठ खड़ा होता है उसका भाग्य भी उठ खड़ा होता है । जो सोया पड़ा रहता है उसका भाग्य भी सोया पड़ा रहता है । जो आगे बढ़ता है उसका भाग्य भी आगे बढ़ता है । अतः सुयोग्य संग, सुयोग्य पुरुषार्थ और ऊँचा उद्देश्य (परमात्मप्राप्ति), ऊँचा संग-सत्संग सर्वांगीण विकास की कुंजी है ।”
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2019, पृष्ठ संख्या 8 अंक 315
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