Monthly Archives: March 2019

माँ ! यह गाय तुम्हारा बालक होती तो ?


सावली गाँव (जि. वडोदरा, गुजरात) के एक गरीब घर का बालक था चूनीलाल । उसके घर एक गाय थी । चूनीलाल की माँ घर का सब काम करती, फिर दूसरों के घरों में भी काम करने रोज जाती । इससे गाय की देखभाल के लिए समय नहीं मिलता था ।

एक दिन माँ ने घर में कहाः “अपना गुजारा मुश्किल से होता है तो फिर गाय को कहाँ से खिलायें ? गाय माता भूखी रहेगी तो हमें ही पाप लगेगा । मुझे यह बात हृदय में खटकती है । इससे तो अच्छा हम इसे किसी सेवाभावी व्यक्ति को बेच देते हैं ।”

यह सुन चूनीलाल ने कहाः “माँ ! यह गाय तुम्हारा बालक होती तो ?”

माँ- “अरे चूनिया ! हमारे पास गाय को बाँधने के लिए अलग  जगह नहीं है । उसके लिए खरीदकर घास भी नहीं ला सकते हैं । गोबर मूत्र से रास्ता बिगाड़ता है । इसी कारण रोज गाँववालों की खरी-खोटी बातें सुननी पड़ती हैं । बिना विचारे बात मत किया करो ।”

चूनीलाल ने विनम्र भाव से कहाः “माँ ! गाय की देखरेख मैं करूँगा, उसके लिए घास भी ले आऊँगा । फिर अपनी पढ़ाई भी ठीक से करूँगा । उसमें जरा भी कमी नहीं आने दूँगा । बोल माँ ! अब तो गाय को नहीं बेचोगी न ? गाय तो हमारी माता कहलाती है । उसकी तो पूजा करनी चाहिए ।”

“बोलना आसान है किंतु पालन करना कठिन ! देखती हूँ तू गाय की कैसे देखभाल करता है । तू बोला हुआ करके बता तो सही ।”

दूसरे दिन चूनीलाल ने गोबर मूत्र से खराब हुआ रास्ता साफ करके वहाँ सूखी मिट्टी डाल दी निकट के कालोल गाँव में सब्जी आदि लेकर आस-पास के गाँवों से बैलगाड़ियाँ आती थीं । उनके बैलों के खाने से बची हुई अच्छी-अच्छी घास इकट्ठी करके चूनीलाल गाय के लिए रोज ले जाता । कभी दोस्तों से अनुमति लेकर उनके खेत के किनारे उगी घास काट के गाय को ताजी, हरी घास से प्रेम से खिलाता । वह पढ़ाई में भी आगे रहता था ।

यह सब देख माँ मन-ही-मन बहुत प्रसन्न होती, सोचतीः “आखिर चूनिया ने वचन का पालन कर ही लिया ।”

जीवों के प्रति दयाभाव, वचन पालन में दृढ़ता, पुरुषार्थ, विनम्रता, ईश्वरभक्ति आदि सदगुणों ने बालक चूनीलाल को सदगुरु के पास पहुँचा दिया और सदगुरु-निर्दिष्ट मार्ग पर चल के उन्होंने महानता की ऊँचाइयों को पाया तथा ‘पूज्य मोटा’ के नाम से विख्यात हुए, जिनके नड़ियाद और सूरत में मौन-मंदिर, आश्रम चल रहे हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2019, पृष्ठ संख्या 25 अंक 315

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‘कल्याणी’ या ‘अतिकल्याणी’ ?


दयानंद सरस्वती गुरु विरजानंदजी के आश्रम में विद्याध्ययन करते थे । उनका गुरुभाई सदाशिव आलसी एवं उद्दंड था । एक दिन गुरुदेव ने प्रवचन में समझायाः “समय का सम्मान करो तो समय तुम्हारा सम्मान करेगा । समय का सदुपयोग ही उसका सम्मान है । जो सुबह देर तक सोते हैं, पढ़ाई के समय खेलते हैं तथा आलस्य, निद्रा और व्यर्थ के कामों में समय बरबाद करते हैं, समय उनसे प्रतिशोध लेता है ।”

एक दिन एक मंदिर के प्रांगण में दयानंद जी सदाशिव ने दो समान मूर्तियाँ देखीं । लेकिन एक के हाथ में लोहे का दंड था और नीचे लिखा था ‘अतिकल्याणी’ तथा दूसरी के नीचे लिखा था ‘कल्याणी’ । आकर गुरुजी से उनका रहस्य पूछा तो बोलेः “ये मूर्तियाँ काल की स्वामिनी दो देवियों की हैं । ‘कल्याणी’ उसका कल्याण है जो समय का सम्मान नहीं करता । परंतु तुम्हें अतिकल्याणी का उपासक नहीं बनना है ।”

सदाशिव ने सोचा, ‘कल्याण ही करना है तो वह अतिकल्याणी से भी हो जायेगा ।’ उसमें कोई सुधार नहीं हुआ, फलतः उसे आश्रम से निकाल दिया गया ।

समय बीता । दयानंद जी गुरुज्ञान के प्रचार हेतु भारत-भ्रमण कर रहे थे । मथुरा के निकट एक गाँव में उनकी दृष्टि सिर पर तसला और कंधे पर फावड़ा रखे तेजी से जा रहे व्यक्ति पर पड़ी ।

“सदाशिव !”

“ओह, दयानंद ! तुम तो बड़े महंत बन गये हो !”

“लेकिन तुमने यह क्या हाल बना रखा है ?”

“गुरु विरजानंद के पाखंड का फल भोग रहा हूँ ।”

“क्या मतलब ?”

“उन्होंने कहा था कि अतिकल्याणी उसका भी कल्याण करती है जो समय का सम्मान नहीं करता । मेरा कल्याण कहाँ हुआ ?”

“मथुरा में मेरा प्रवचन है, आ सकते हो ?”

“बिल्कुल फुरसत नहीं है फिर भी देखूँगा ।”

प्रवचन शुरु हुआ । श्रोताओं में सबसे पीछे सदाशिव बैठा है । दयानंद जी ने प्रवचन की दिशा बदली और उन मूर्तियों वाला पूर्व प्रसंग और गुरुदेव का बताया उनका अर्थ दोहराया । फिर बोलेः “मूर्ख समझता है कि समय के सम्मान बिना भी कल्याण सम्भव हो तो समयशील क्यों बनें ? मनमुख यह नहीं सोचता कि ‘अतिकल्याणी के हाथ में कौन-सा दंड है और क्यों है ?’ वह दंड है ‘काल-दंड’ और यह उसे कल्याण-मार्ग पर जबरन चलाने के लिए ईश्वर की कृपापूर्ण व्यवस्था है । समझदार व्यक्ति गुरु के उपदेशमात्र से समय का महत्त्व जान लेता है और मूर्ख अतिकल्याणी के कठोर दंड से दंडित होकर ! दंड पाकर जो उसके लिए भी गुरु को दोषी ठहराता है वह तो महामूर्ख है, मंदमति है । अतः काल-दंड से बचो ।”

सदाशिव को अपनी भूल का एहसास हो गया । जो समय बरबाद करता है समय उसी को बरबाद कर देता है । ब्रह्मवेत्ता महापुरुष के वेदांत से सराबोर सत्संग का श्रवण-मनन, उनकी दैवी सत्प्रवृत्तियों में सहभाग, भगवद्-स्मृति, प्रीति व शांति-विश्रांति में समय लगाना ही उसका सदुपयोग है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2019, पृष्ठ संख्या 24 अंक 315

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किसको कहते हैं ऊँची पढ़ाई और तुच्छ पढ़ाई ? – पूज्य बापू जी


जिनके जीवन का लक्ष्य ऊँचा नहीं है वे हलकी इच्छाओं में, हलके दिखावों में, हलके आकर्षणों में खप जाते हैं । जीवन का कोई ऊँचा ध्येय बना लेना चाहिए और ऊँचे में ऊँचा ध्येय तो यह है कि जीवनदाता का अनुभव करें । अनंत ब्रह्मांडों का जो आधार है उसका साक्षात्कार करना ऊँचा लक्ष्य है ।

दुनिया में हर इज्जतवाले से ऊँची इज्जत होती है आत्मज्ञानी की, हर ऊँचे पद से ऊँचा पद होता है आत्मपद, हर ऊँचे ज्ञान से ऊँचा ज्ञान होता है आत्मज्ञान । सारे ज्ञान इसी से पैदा होते हैं – चाहे सिविल सर्जन का ज्ञान हो, चाहे टेक्नोलॉजी का हो, साइकोलॉजी का हो या बायोलॉजी का हो – सभी आत्मा की सत्ता से होते हैं । चाहे अतल-वितल का ज्ञान हो, चाहे नरक का ज्ञान हो, सारे ज्ञान का मूल स्थान, उद्गम स्थान आत्मा है । सारे विश्व का नहीं, सारे ब्रह्माण्डों का ज्ञान आत्मा की सत्ता से ही होता है । ब्रह्मा जी भी सृष्टि का संकल्प करते हैं न, वे भी सत्ता उसी आत्मा से लाते हैं । शिवजी संहार करते हैं, वे भी शक्ति आत्मा से लाते हैं । सारी शक्तियाँ जो हैं विश्वभर की, वे उसी विश्व-चैतन्य आत्मा से आती हैं । उस चैतन्य आत्मा का ज्ञान सर्वोपरि है ।

जो आँख का विशेषज्ञ है वह मस्तिष्क का नहीं होता, हो हृदय का विशेषज्ञ है वह दूसरे अंगों का विशेषज्ञ नहीं बन पाता । एक-एक अंग के ज्ञान की निपुणता पाने में उनका समय खप जाता है । यह तो हुई केवल स्थूल शरीर के एक-एक अंग के विशेषज्ञ की बात लेकिन आत्मा तो पूरे शरीर का विशेषज्ञ है, स्वर्ग-नरक का विशेषज्ञ है और सारे विशेषज्ञों का भी आधार तो वह आत्मा ही है । ढेर सारे ज्ञान एक-एक करके पा भी लोगे तो भी एक दिन जीवन पूरा हो जायेगा और मृत्यु के एक ही झटके में सब छूट जायेगा लेकिन उस एक आत्मज्ञान को पा लिया तो सब कुछ मिल गया । एक साधे सब सधे, सब साधे सब जाय ।

ऐसी उच्च शिक्षा पा लो

ऊँची पढ़ाई और तुच्छ पढ़ाई किसको कहते है जरा समझ लें । तुच्छ पढ़ाई वह जो तुच्छ शरीर को ‘मैं’ मानना सिखाये और तुच्छ वस्तुओं से सुखी होने की तरफ तुम्हारी इच्छाएँ, वासनाएँ बढ़ाये । एम. बी. ए. कर लो मतलब गंजे व्यक्ति को भी कंघी बेचने की शिक्षा पा लो, जो आदिवासी कपड़े नहीं पहनते हैं उनको भी कपड़े धोने का साबुन पकड़ा दो और पैसे निकलवाओ । यह तुच्छ शिक्षा है । संत कबीर जी कहते हैं-

कबीर आप ठगाइये, और न ठगिये कोय ।

आप ठगे सुख ऊपजै, और ठगे दुःख होय ।।

महत्तवहीन शिक्षा क्या है ? अनावश्यक डिग्रियाँ लेना, व्यर्थ चीजों को याद करना, व्यर्थ जानकारी एकत्र करना और किसी के क्षणिक प्रभाव में आ जाना, किसी का रूप लावण्य देखकर आकर्षित हो जाना, उस पर लट्टू हो जाना – यह महत्त्वहीन शिक्षा है ।

तो उच्च शिक्षा क्या है ? उच्च शिक्षा है शुद्ध प्रेम, आनंद कैसे बढ़े और उसका उपाय और उसकी तरफ की यात्रा व उत्साहमयी दृष्टि कैसे बढ़े इसका ज्ञान । कैसी भी परिस्थिति आये, हार के, उद्विग्न होकर भागाभागी न करें बल्कि परिस्थिति के सिर पर पैर रख के अपने लक्ष्य की तरफ बढ़ते जायें, फिसलें नहीं । दुःख आये लेकिन हम दुःख से प्रभावित न हों, इसकी क्या कला है – यह उच्च शिक्षा बताती है । आत्मविश्वास और एकाग्रता कैसे पायें, यह सिखाना उच्च शिक्षा का उद्देश्य है ।

जगतराम एक अनपढ़-गँवार था । उसने हरिहर बाबा को कहाः “बाबा ! मैं तो अनपढ़-गँवार हूँ, मेरा कल्याण हो जायेगा क्या ?”

बाबाः “अरे जगतराम ! बाहर की योग्यताओं से दुःख नहीं मिटते । ‘दुःखहारी प्रभु ! तुम मेरे हो । मैं पढ़ा-लिखा हूँ या नहीं लेकिन मैं तुम्हारा हूँ….’ ऐसा सोचा कर । मैं तुम्हारा हूँ, ॐॐॐ….’ ऐसा भीतर चिंतन करो और शांत होते रहो । उस शांति से बुद्धि में भगवान का प्रसाद आयेगा ।”

“महाराज ! भगवान कैसे हैं मैं तो नहीं जानता, मुझको तो आप ही भगवान लगते हो ।”

अब ‘महाराज ! ॐ ॐ ॐ….’ कहते हुए जगतराम मन-ही-मन अपने गुरु महाराज से बातें करता । धीरे-धीरे उसका मन शांत होने लगा और वह गुरुभाव में इतना एकाग्र हो गया कि जो होने वाला हो वह पहले ही बोल देवे, जो मन में सोचे वह चीज-वस्तु-परिस्थिति आ जाय क्योंकि उच्च शिक्षा के मूल तक पहुँच गया ।

तो आपको अंदर का सुख-सामर्थ्य मिलेगा

उन्नति के लिए प्राण को महत्त्व दो और अवनति के लिए अपान को । हम जब हरि ओऽऽऽऽऽऽऽम्’ बोलते हैं तो प्राण ऊपर आते हैं । मनुष्य का जीवन बुद्धि और कर्म का मिश्रण है । बुद्धि और कर्म के मिश्रण से अर्थात् जो इन्द्रियों से कर्म करके, बुद्धि से निर्णय करके सुखी होना चाहता है, पदवियाँ, पत्नी, पति, भोग, वाहवाही पाकर सुखी होना चाहता है उसको सुखद अवस्था तो मिलती है लेकिन उसके प्राण और मति प्रवृत्ति की तरफ, संसार की तरफ हैं और संसार फिर अपान में (नीचे के केन्द्रों में) ले जायेगा । लेकिन जो वासनापूर्ति करके सुखी होने की बेवकूफी छोड़ने वाला सत्संग समझ लेता है कि वासनापूर्ति का सुख पतन की तरफ ले जाता है और वासना-निवृत्ति का सुख परमात्मा में ले जाता है तो फिर वह अपनी इच्छा-वासना पूरी हो इस पचड़े में नहीं पड़ता, वह इच्छा निवृत्त हो इस सूझबूझ में लगता है । कोई बोले कि ‘भगवान को पाने की इच्छा भी नहीं करें ?’

भगवान को पाने की इच्छा सारी इच्छाएँ मिटाने का एक सबल साधन है । सारी इच्छाएँ मिट गयीं तो भगवान को पाने की इच्छा भी फिर अपने आप शांत हो जाती है, भगवान ही अंतर में प्रकट हो जाते हैं । तो संकल्प की, इच्छा की निवृत्ति को महत्त्व देते हो तो आपको अंदर का सुख-सामर्थ्य मिलेगा और मरने का भय नहीं रहेगा, जीने की आशा नहीं रहेगी, जीते जी आप परिस्थितियों के प्रभाव से मुक्त हो जायेंगे, जीवन्मुक्त हो जायेंगे ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2019, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 315

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