Monthly Archives: April 2019

‘मुझमें अहंकार नहीं’ यह जानना ही अहंकार है


महर्षि पराशर मैत्रेय को कहते हैं- “हे मैत्रेय ! सर्व अनर्थों को देने वाला जो देह आदि का अहंकार है, उसको जब तू जलायेगा (बाधित अर्थात् मिथात्व निश्चय करेगा) तब शेष जो पद रहेगा उसमें मन-वाणी का मार्ग नहीं, जो मैं वर्णन करूँ और तू सुने । परंतु देह को जलाने से सुख होता नहीं । देह को जलाने से सुख हो तो सती को भी सुख होना चाहिए, जो होता नहीं क्योंकि आवागमन से छूटने का नाम सुख है । इसलिए तुझे भी जन्म-मरणादि के मूल अहंकार को जलाने से ही सुख होगा ।”

मैत्रेयः “अहंकार मुझ चैतन्यस्वरूप को है नहीं और बिना हुए (अस्तित्व में आये) वस्तु को त्यागना लज्जा का काम है । जब अहंकार मुझमें है नहीं तब क्या त्यागूँ और क्या ग्रहण करूँ ? जैसे – आकाश को भूत-भौतिक पदार्थों का ग्रहण-त्याग नहीं बनता । हे गुरो ! जैसे मलस्पर्श बिना मल को दूर करने का उपाय करना मूर्खता है । ग्रहण-त्याग से रहित, यत्न बिना ही निर्विकल्प-निर्विकार मुझ चैतन्य में स्वतः ही अहंकार का अत्यंताभाव है । लाखों तरह के अहंकार और कोटि कोटि तरह के संकल्प व निश्चय, हजारों तरह के चिंतन व शोक, मोह आदि, हजारों तरह के खान-पान और शयन आदि तथा अनेक प्रकार के चक्षु आदि इन्द्रियों के रूप-दर्शनादि व्यवहार…. सारांश में, मन आदि धर्मी और उन अनात्मा मनादि के संकल्पादि धर्म मुझ अवाड्मनसगोचर (मन और वाणी की पहुँच से दूर) चैतन्य पूर्ण आकाश में बिजली-मेघादिवत् हजारों बार होकर मिट जाते हैं और उत्पन्न होते हैं परंतु मुझ चैतन्य आकाश का रोममात्र भी छेदन नहीं होता । जैसे भूताकाश में मेघ, बिजली, वर्षा, अंधकार, प्रकाश, सूर्य, चाँद, तारामंडल, स्वर्ग, नरक, मलिन और शुद्ध पदार्थ इत्यादि अनेक पदार्थ होते हैं और पुनः मिट जाते हैं पर आकाश ज्यों-का-त्यों है, जैसे समुद्र में तरंगे, बुदबुदे, फेन उत्पन्न हो के मिट जाते हैं परंतु समुद्र ज्यों-का-त्यों है, वैसे ही मुझ चैतन्य-समुद्र में अनंत ब्रह्मांडरूपी तरंगे उत्पन्न होकर मिट जाती है परंत मैं चैतन्य ज्यों-का-त्यों हूँ ।”

पराशर जीः “हे मैत्रेय ! बड़ा आश्चर्य है ! अहंकार बिना व अंतःकरण बिना ‘मुझ निर्विकल्प चैतन्य में अहंकार है नहीं  और जगतरूप तरंग होने-मिटने से हानि-लाभ का मुझमें अभाव है ।’ यह वृत्तांत तुझ निर्विकल्प चैतन्य को कैसे मालूम हुआ है !

हे मैत्रेय ! ‘मुझ चैतन्य में अहंकार नहीं’ यह जानना ही अहंकार है । इसी से कहता हूँ कि तू अवाडमनसगोचर निजस्वरूप के बारे में इस जाननारूप अन-होते अहंकार का त्याग कर तो सुखी होगा ।”

मैत्रेयः “मैं सुखी नहीं होता क्योंकि सुखी होना-न-होना भी अहंकार ही है ।”

पराशर जीः “यही समझ संतों की है परंतु तूने तो निर्विकल्प को सविकल्प जाना है और सविकल्प को निर्विकल्प जाना है । हे मैत्रेय ! तू सम्यदर्शी1 हो संत पदवी पायेगा ।”

1 प्रतिबिम्बों की तरह नष्ट हो रहे पदार्थों में दर्पण-सदृश यानी प्रतिबिम्बों के नष्ट होने पर भी दर्पण की नाईं साक्षीस्वरूप से स्थित अविनाशी आत्मा को जो देखता है, वह सम्यदर्शी है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2019, पृष्ठ संख्या 10 अंक 316

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पहले खुद को पहचानो


एक बार श्री रमण महर्षि जी के एक शिष्य ने उनसे पूछाः “भगवन् ! मैं किताबें पढ़ना चाहता हूँ ताकि मुक्ति का मार्गदर्शन मिल सके, पर मैं पढ़ना नहीं जानता हूँ, मैं क्या करूँ ? मुझे मुक्ति कैसे मिल सकती है ?”

महर्षि जी ने कहाः “तुम अनपढ़ हो इससे क्या फर्क पड़ता है ? तुम आत्मा को जानो यही काफी है । ये किताबें क्या सिखाती हैं ? तुम अपने-आपको देखो, और फिर मुझे । यह तो ऐसे ही है जैसे तुमसे कहना कि “दर्पण में अपने-आपको देखो ।’ दर्पण में वही दिखेगा जो होगा । यदि मुँह धोकर देखोगे तो चेहरा साफ दिखेगा, नहीं तो दर्पण कहेगा, ‘मुँह गंदा है, यहाँ धूल है, वहाँ गंदा है, धोकर आओ ।’ किताब भी ऐसा ही कुछ करती है । यदि आत्मज्ञान के बाद पुस्तक पढ़ोगे तो सब आसानी से समझ में आयेगा । यदि आत्मज्ञान से पहले पढ़ोगे तो (सही मार्गदर्शन में भी) त्रुटियाँ दिखेंगी । पुस्तक भी यही कहती है, पहले अपने-आपको पहचानो फिर मुझे पढ़ो । पहले खुद को पहचानो । इस किताबी ज्ञान की तुम इतनी चिंता क्यों करते हो ?”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2019, पृष्ठ संख्या 7 अंक 316

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….और यह जीव मुक्त हो जाता है – पूज्य बापू जी


तुम्हारे जो प्राण चल रहे हैं उनको अगर तुमने साध लिया, प्राण-अपान की गति को सम करने की कला सीख ली तो तुम्हारे लिए स्वर्गीय सुख पाना, आत्मिक आनंद पाना, संसार में निर्दुःख जीना आसान हो जायेगा । वाहवाही होने पर भी निरहंकारी रहना आसान हो जायेगा । निंदा होने पर भी निर्दुःख रहना, स्तुति होने पर भी चित्त में आकर्षणरहित दशा रहना, चित्त की समता और आत्मिक साम्राज्य का अनुभव करना तुम्हारे लिए सरल बन जायेगा ।

एक दृष्टांत है । एक सम्राट को अपने वजीर पर गुस्सा आया और उसने वजीर को कैद की सज़ा सुना दी ।  उसे ऊपर मीनार पर छोड़ दिया और नीचे से सीढ़ी हटा दी ।

वजीर की स्त्री साध्वी थी । वह पतिव्रता स्त्री चुपचाप रात्रि को वहाँ आयी और पूछाः “मैं आपकी क्या मदद करूँ ?”

वजीरः “देख प्रिये ! तू अगर मुझे इस मीनार से जिंदा बचाना चाहती है तो कल रात्रि को रेशम का एक पतला सा धागा, थोड़ा मजबूत सूती धागा, नारियल की रस्सी, एक मोटा रस्सा, थोड़ा सा शहद और एक कीड़ा ले आना ।”

पत्नी को समझ में तो नहीं आया लेकिन पति-आज्ञा मानकर दूसरे दिन वह सामान ले आयी ।

पतिः “यह जो जन्तु है, इसकी मूँछों पर जरा सा शहद लगा दे और पीछे पतला धागा बाँध दे और ऊपर की ओर दिशा करके दीवार पर छोड़ दे ।”

पत्नी ने वैसा ही किया तो शहद की खुशबू-खुशबू में वह कीड़ा ऊपर की ओर चल पड़ा और मीनार के ऊपर पहँच गया ।

पतला धागा वजीर तक पहुँच गया । उसके सहारे सूती धागा खींच लिया । उसके सहारे नारियल की रस्सी खींच ली, फिर उससे रस्सा खींच लिया और रस्से से उतर के वजीर मुक्त हो गया । ऐसे ही हम अगर भवबंधन से पार होना चाहते हैं तो एक सुंदर उपाय हैः

दायें नथुने से श्वास लिया और बिना रोके बाये से छोड़ा फिर बायें से लेकर दायें से छोड़ा अर्थात् अनुलोम-विलोम प्राणायाम किये । ऐसा करने से नाड़ी शुद्धि होती है, जिससे शरीर तंदुरुस्त रहता है । लेकिन शरीर तंदुरुस्त रखना ही हमारा लक्ष्य नहीं है । अगर तंदुरुस्ती ही मानव जीवन का लक्ष्य होता तो पशु मानव से ज्यादा तंदुरुस्त मिलेंगे । वटवृक्ष 5-5 हजार वर्ष के दीर्घजीवी मिलेंगे । तन की तंदुरुस्ती के साथ मन की एकाग्रता भी अनिवार्य है और मन की एकाग्रता के साथ ‘एक तत्त्व’ का ज्ञान होना भी जरूरी है ।

त्रिकाल संध्या में 8-10 अनुलोम-विलोम प्राणायाम किये तो एकाध महीने में नाड़ियों का शोधन हो जाता है । वात-पित्त-कफ के दोषों से ही रोग होते हैं । आलस्य, उदासी आदि भी इन्हीं के कारण आते हैं । अगर नाड़ी शोधन प्राणायाम किये तो नाड़ी शुद्धि होगी और दोष मिटेंगे । यह समझो रेशम का धागा ले आना है । जीभ तालू में लगाओ तो आपके मस्तिष्क के दोनों भाग संतुलित होने लगते हैं और दृढ़ निष्ठा, सर्जनात्मक प्रवृत्ति व ठोस कार्य करने की क्षमताए आती हैं । यह मानो नारियल की रस्सी का हाथ लगना है । इससे मजबूत क्या ? कि दृढ़ विचार । यह मजबूत रस्सा है । फिर सद्गुरु  के वेदांत ज्ञान के दिव्य विचार से दिव्य तत्त्व में स्थिति हो जाती है और यह जीव मुक्त हो जाता है ।

तो हजार उपदेश हम सुना दें, युक्तियाँ और शास्त्रों आदि के उद्धरण देकर किसी सिद्धान्त को हम पुष्ट कर दें और आप स्वीकार कर लो लेकिन पूर्ण तत्त्व का, जीवनमुक्ति का साक्षात्कार तब तक नहीं होगा जब तक आपने अपने-आप पर कृपा नहीं की । और अपने आप कृपा करना यह है कि हृदय की उदारता, विशालता, प्राणीमात्र में अपने परमात्मा को निहारने की क्षमता विकसित करें और अखिल ब्रह्माण्ड में एक जो हरि है उस हरि तत्त्व में अपने देहाध्यास को, अपने तुच्छ ‘अहं-मम्’ को डुबा दें । और बिना साधन-भजन के, बिना विवेक विचार के यह सम्भव नहीं है । तो विवेक विचार करने की ज्ञानतंतुओं की क्षमता बढ़ाने के लिए भी प्रतिदिन आश्रम आकर अथवा जहाँ अनुकूल पड़े, जहाँ साधन ठीक से हो ऐसी जगह पर साधन-भजन, सत्संग-श्रवण आदि में समय बिताना चाहिए ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2019, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 316

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