Monthly Archives: June 2019

शक्ति की वृद्धि कैसे करें ?


जिस प्रकार श्रम करने के लिए शरीर बलवान तथा अभ्यासी होना चाहिए, शब्द, स्पर्श, रूप, रसादि विषय ग्रहण करने के लिए इन्द्रियों में शक्ति होनी चाहिए अथवा किसी बात को मानने और उसी का मनन करने के लिए मन में स्वीकृति की भावना होनी चाहिए, उसी प्रकार विद्या-प्राप्ति व विचार करने के लिए बुद्धि में योग्यता होनी चाहिए ।

बुद्धि को बलवती तथा योग्य बनाने के लिए मन की चंचलता को रोकना होता है । इन्द्रियों के द्वारा विषय-वृत्तियों का भी दमन करना पड़ता है । शरीर द्वारा व्यर्थ चेष्टा, निरर्थक क्रिया को रोकना आवश्यक होता है ।

अपने सरल स्वभाव से सबको प्रिय लगने वाले विचारवान विद्यार्थियो ! सावधान होकर समझ लो कि तुम्हें अपनी परीक्षा में सफल होने के लिए कहीं से शक्ति की भीख नहीं माँगनी है, शक्ति तो तुम्हारे जीवन के साथ है । अब तुम्हारा कर्तव्य है कि जो शक्ति प्राप्त है उसका कहीं व्यर्थ दुरुपयोग न करो ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2019, पृष्ठ संख्या 19, अंक 318

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गुरुमंत्र के प्रभाव से एक ने पाया ऋषि पद ! – पूज्य बापू जी


इतरा माता का पुत्र बालक ऐतरेय बाल्यकाल से ही जप करता था । वह न तो किसी की बात सुनता था, न स्वयं कुछ बोलता था । न अन्य बालकों की तरह खेलता ही था और न ही अध्ययन करता था ।

आखिर लोगों ने कहाः “यह तो मूर्ख है । कुछ बोलता ही नहीं है ।”

एक दिन माँ ने दुःखी होकर ऐतरेय से कहाः “माता-पिता तब प्रसन्न होते हैं जब उनकी संतान का यश होता है । तेरी तो निंदा हो रही है । संसार में उस नारी का जन्म निश्चय ही व्यर्थ है जो पति के द्वारा तिरस्कृत हो और जिसका पुत्र गुणवान न हो ।”

तब ऐतरेय हँस पड़ा और माता के चरणों में प्रणाम करके बोलाः “माँ ! तुम झूठे मोह में पड़ी हुई हो । अज्ञान को ही ज्ञान मान बैठी हो । निंदा और स्तुति संसार के लोग अपनी दृष्टि से करते हैं । निंदा करते हैं तो किसकी करते हैं ? जिसमें कुछ खड़ी हड्डियाँ हैं, कुछ आड़ी हड्डियाँ हैं और थोड़ा माँस है जो नाड़ियों से बँधा है, उस निंदनीय शरीर की निंदा करते हैं । इस निंदनीय शरीर की निंदा हो चाहे स्तुति, क्या अंतर पड़ता है ? मैं निंदनीय कर्म तो नहीं कर रहा, केवल जानबूझकर मैंने मूर्ख का स्वांग किया है ।

यह संसार स्वार्थ से भरा है । निःस्वार्थ तो केवल भगवान और भगवत्प्राप्त महापुरुष हैं । इसीलिए माँ ! मैं तो भगवान के नाम का जप कर रहा हूँ और मेरे हृदय में भगवत्शांति है, भगवत्सुख है । मेरी निंदा सुनकर तू दुःखी मत हो ।

माँ ! ऐसा कभी नहीं सोचना चाहिए जिससे मन में दुःख हो, बुद्धि में द्वेष हो और चित्त में संसार का आकर्षण हो । संसार का चिंतन करने से जीव बंधन में पड़ता है और चैतन्यस्वरूप परमात्मा का चिंतन करने से जीव मुक्त हो जाता है ।

वास्तव में मैं शरीर नहीं हूँ और माँ ! तुम भी यह शरीर नहीं हो । शरीर तो कई बार पैदा हुए और कई बार मर गये । शरीर को ‘मैं’ मानने से, शरीर के साथ संबंधित वस्तुओं को मेरा मानने से ही यह जीव बंधन में फँसता है । आत्मा को मैं मानने और परमात्मा को मेरा मानने से जीव मुक्त हो जाता है ।

माँ ! ऐसा चिंतन-मनन करके तू भी मुक्तात्मा हो जा । अपनी मान्यता बदल दे । संकीर्ण मान्यता के कारण ही जीव बंधन का शिकार होता है । अगर वह ऐसी मान्यता को छोड़ दे तो जीवात्मा परमात्मा का सनातन स्वरूप है है ।

माँ ! जीवन की शाम हो जाय उसके पहले जीवनदाता का ज्ञान पा ले । आँखों को देखने की शक्ति क्षीण हो जाय उसके पहले जिससे देखा जाता है उसे देखने का अभ्यास कर ले । कान बहरे हो जायें उसके पहले जिससे सुना जाता है उसमें शांत होती जा… यही जीवन का सार है माँ !”

इतरा ने देखा कि बेटा लगता तो मूर्ख जैसा है किंतु बड़े-बड़े तपस्वियों से भी ऊँचे अनुभव की बात करता है । माँ को बड़ा संतोष हुआ ।

ऐतरेय ने कहाः “माँ ! पूर्वजन्म में मुझे गुरुमंत्र मिला था । मैं निरंतर उसका जप करता था । उस जप के प्रभाव से ही मुझे पूर्वजन्म  की स्मृति हुई, भगवान के प्रति मेरे मन में भक्ति का उदय हुआ ।”

यही बालक आगे चलकर ऐतरेय ऋषि हुए ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2019, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 318

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आत्मज्ञानी गुरु से बढ़कर कुछ नहीं – भगवान श्री रामचन्द्र जी


भावार्थ रामायण में आता है कि महर्षि वसिष्ठ जी द्वारा राम जी को आत्मज्ञान का उपदेश मिला और वे आत्मानंद में मग्न हो गये । तत्पश्चात् अद्वैत आनंद-प्रदाता सद्गुरु की महिमा का वर्णन करते हुए श्रीराम जी कहते हैं- “हे गुरुदेव ! आपके कृपा-प्रसाद से मैं न कोई विधि अर्थात् शास्त्र-संगत व्यवहार देखता (मानता) हूँ, न कोई निषेध अर्थात् शास्त्र के प्रतिकूल समझता हूँ (मैं विधि-निषेध का विचार नहीं कर रहा हूँ)। फिर भी आपकी आज्ञा ही नित्य कार्यान्वित करने योग्य है ।

हे सज्जनो ! आत्मज्ञान से तथा आत्मज्ञानी गुरु से बढ़कर कुछ भी नहीं है । हे महामुनि वसिष्ठ जी ! आपके आदेश का पालन करना ही मेरे लिए प्रताप की बात है । मैं उसके अतिरिक्त किसी बात को विधि या निषेध के रूप में न मन में मानता हूँ, न आँखों से देखता हूँ । हे स्वामी ! आपके कथन का (गुरु आज्ञा का ) सामर्थ्य ऐसा है कि उसके सामने मेरे लिए कर्म, कार्य तथा कर्तव्य का कोई विचार बिल्कुल शेष नहीं रहा है (अर्थात् आपकी आज्ञा ही मेरे लिए सब कुछ है) इसलिए आपका कथन मेरे लिए सब प्रकार से अनुल्लंघ्य है (उसे किसी भी प्रकार से टाला नहीं जा सकता) । आपका जैसा भी आदेश हो वह मेरे लिए प्रयत्नपूर्वक, अति विश्वास के साथ, सब प्रकार से करने योग्य है । शिष्य अपने सद्गुरुदेव के आदेश का प्राणों के निकल जाने की स्थिति में भी बिल्कुल उल्लंघन न करे । गुरु के आदेश का परिपालन करना ही वेदों, शास्त्रों, स्मृतियों, पुराणों में शिष्य का मुख्य लक्षण बताया गया है । जिस व्यवहार द्वारा गुरु के आदेश का पालन किया जाता है वही व्यवहार विधियुक्त है । गुरु के आदेश का उल्लंघन करना ही घोर महापाप है । महापाप के लिए (शास्त्रों में) प्रायश्चित की व्यवस्था निर्धारित है परंतु गुरु के आदेश की अवज्ञा करना पूर्णरूप से वज्रपाप है (जिसका किसी भी प्रायश्चित्त से दोष निवारण नहीं होता) । जिसके अँगूठे पर (अर्थात् जिसके हाथों किये हुए) महापाप है, उसके उन पापों के करोडों गुना अधिक पाप गुरु की अवज्ञा करने पर होते हैं । गुरु की अवज्ञा करना वज्रपाप है जो कोटि-कोटि पापों के बराबर होता है । गुरु की अवज्ञा शिष्य के धर्म तथा कर्तव्य-कर्म का नाश कर देती है । उससे उसे स्पष्ट, ठोस हानि पहुँचती है । इसलिए सारभूत यह बात है कि आत्मज्ञान ही सबसे बड़ा लाभ है । बिना आत्मज्ञान के चौदह विद्याएँ तथा चौंसठ कलाएँ दुःखस्वरूप हो जाती है, वे सब विकृत, हीन हो जाती है । आत्मज्ञान (की प्राप्ति) में सुख का समारोह सा होता है । आत्मज्ञान समस्त सिद्धान्तों की चरम सीमा है, आत्मविद्या ही मुख्य ज्ञान है । जो अन्य चौदह विद्याएँ विख्यात हैं वे सब अविद्याएँ ही हैं । उस आत्मज्ञान का सद्गुरु से बड़ा ज्ञाता कोई नहीं है । किसी देवता में भी सद्गुरु से अधिक बढ़ाई (श्रेष्ठता) नहीं है ।  समस्त गुणों से परे स्थित मुख्य सद्गुरु ही हैं, वे ही वंदनीय हैं । ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी सद्गुरु के सेवक हैं । तीनों लोकों में सद्गुरु से बड़ा, अधिक योग्य कोई भी नहीं है ।”

इस प्रकार कहते-कहते राम जी का गुरुप्रेम उमड़ पड़ा, उन्होंने पूर्ण भक्तिभाव से गुरुदेव वसिष्ठ जी के चरणों का सिर टिकाकर वंदन किया । वसिष्ठ जी ने उनका आलिंगन किया ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2019, पृष्ठ संख्या  11 अंक 318

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