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गुरु कृपा से राजा रानी हुए सिद्ध


आमेर नरेश पृथ्वीराज कछवाहा की रानी बाला बाई जी बालपन से ही बड़ी भगवद्भक्त थीं । संत कृष्णदास जी पयहारी से उन्होंने मंत्रदीक्षा ली थी ।

एक बार संत कृष्णदास जी अपनी शिष्या रानी की प्रार्थना पर उनके यहाँ पधारे । बाला बाई जी ने उन्हें अनुनय-विनय कर रोक लिया । उनकी धूनी अपने महल में लगवायी और अपनी सेवा से उन्हें प्रसन्न करके वचन ले लिया कि उन्हें बताये बिना बाबा वहाँ से कहीं न जायें । राजा भी संत का शिष्य बन गया ।

संत कुछ दिन वहाँ रुके पर समाज में भक्ति के प्रचार का उद्देश्य सामने होने से उन्हें वहाँ अधिक रहना सम्भव नहीं था । वहाँ से विदा लेने के लिए उन्होंने एक लीला रची । एक दिन वे भगवान नृसिंह के मंदिर में कीर्तन कर रहे थे । राजा और रानी भी वहाँ उपस्थित थे । कीर्तन समाप्त होने पर संत ने सहज भाव से कहाः “अब जा रहा हूँ ।” रानी समझी कि धूनी पर जाने को कह रहे हैं । उन्होंने भी कह दियाः “पधारो महाराज !” रानी का इतना कहना था कि संत वहाँ से चल दिये ।

राजा-रानी को जब कृष्णदास जी के स्थान छोड़कर निकल जाने की बात पता चली तो उनसे अपने गुरु का वियोग सहन न हुआ । दोनों अन्न-जल त्यागकर पड़े रहे । तब गुरु ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिये और कहाः “तुम लोग दुःख न करो । मेरे चरण-चिह्नों के अर्चन-वंदन में सुख मानकर भगवद्भजन करो । अब अन्न-जल ग्रहण करो ।” राजा रानी संतुष्ट हुए और गुरुदेव के आदेशानुसार भगवद्भजन, ध्यान, पूजन आदि करने लगे ।

गुरुदेव की आज्ञानुसार चलने से राजा-रानी दोनों साधना में उन्नत होते गये । एक बार राजा पृथ्वीराज नर-नारायण का दर्शन करने बदरिकाश्रम गये । वे रानी को महल में ही छोड़ गये । रानी को भी भगवद्-दर्शन की उत्कंठा जागी । तब संकल्प करते ही वे राजा से पूर्व मंदिर पहुँच गयीं । राजा जब मंदिर में पहुँचे तो संयोग से रानी के पीछे खड़े हो गये पर उन्हें पहचान न पाये । उन्होंने कहाः “बाई जी ! ज़रा बगल हो जाइये, मैं भी दर्शन कर लूँ ।” रानी बगल हटीं तो राजा को लगा कि ये रानी हैं । पर इसे असम्भव जान ध्यान उधर से हटा लिया और तन्मय हो भगवान के दर्शन करने लगे । रानी जैसे बदरिकाश्रम गयी थीं, वैसे ही लौट आयीं ।

जब राजा लौटे तो उन्हें प्रणाम कर रानी ने राजा द्वारा मंदिक मं किया ‘बाई’ सम्बोधन उद्धृत करते हुए कहाः “अब आप मुझे ‘बाई जी’ ही पुकारा करें ।”

राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ । उन्हें विश्वास हो गया कि जिस महिला से उन्होंने मंदिर में बगल हो जाने को कहा था, वह उनकी रानी ही थी । वे समझ गये कि रानी गुरुदेव की कृपा से सिद्धावस्था प्राप्त कर चुकी है ।

रानी ने कहाः “मेरे प्रति वैसा ही भाव रखें जैसा ‘बाई’ (शब्द के विभिन्न अर्थों यहाँ अभिप्रेत अर्थः माता, बहन, बेटी) के प्रति रखा जाता है । नर-नारायण के सामने उनकी इच्छा से यह नया रिश्ता कभी न टूटे ।”

उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक रानी से अपना नया रिश्ता स्वीकार किया और अंत तक उसे निभाया । गुरुकृपा से राजा भी सिद्धावस्था को प्राप्त हुए ।

संत कृष्णदास जी ने राजा-रानी को श्री नृसिंहरूप शालग्राम दिये थे और आशीर्वाद दियाः “जब तक नृसिंह पौली में, तब तक राज झोली में ।” अर्थात् जब तक नृसिंह मंदिर की देहरी के भीतर रहेंगे, तब तक राज उनकी वंश-परम्परा में रहेगा ।

पृथ्वीराज ने आमेर की पहाड़ी पर एक मंदिर बनवाया । उसमें नृसिंहदेव को विराजमान किया । वह मंदिर ‘नृसिंह बुर्जा’ के नाम से आज भी प्रसिद्ध है । जब तक संत के वचनों का पालन किया गया अर्थात् नृसिंहरूप शालग्राम को मंदिर की देहरी के बाहर नहीं लाया गया, तब तक मुसलमान बादशाहों का आतंक और उनके पश्चात् अंग्रेजों की कुदृष्टि इस राज्य का कुछ नहीं बिगाड़ सकी । परंतु दैवयोग से एक बार किसी ने शालग्राम को चुरा लिया । इस कारण से भारत की आजादी के बाद जब सभी राज्यों को भारत में विलय हुआ तब आमेर (जयपुर) का भी विलय हो गया ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2019, पृष्ठ संख्या 16,22 अंक 318

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धन्य हैं ऐसे गुरुभक्त !


पंजाब के होशियारपुर जिले के गढ़शंकर गाँव में भाई तिलकजी नामक एक सज्जन रहते थे । गुरु हरगोबिन्द जी ने भाई तिलकजी को होशियारपुर में गुरुज्ञान के प्रचार-प्रसार की सेवा दी थी । उनके सेवाभाव से नगर लोग बहुत प्रभावित थे ।

एक तपस्वी तिलकजी के निवास-स्थल के पास में रहता था । वह तरह-तरह के कठिन तप व क्रियाओं द्वारा सिद्धियाँ पाने में लगा रहता था लेकिन उसके जीवन में किन्हीं ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु का ज्ञान-प्रकाश न होने से असंतोष व राग-द्वेष का घना अँधेरा था । सत्संग, सेवा, सदगुरु की महिमा से अनजान होने से वह गुरुसेवा, गुरुज्ञान के प्रचार को देखकर ईर्ष्या करता था । धीरे-धीरे उसकी मान्ययता लोगों में घटती जा रही थी । एक दिन उसने यह खबर फैलवा दी कि तपस्वी को शक्ति प्राप्त हुई है और वरदान मिला है कि जो उसका दर्शन करेगा वह एक वर्ष तक स्वर्गलोक में रहेगा ।’

यह समाचार सब जगह फैल गया । स्वर्ग पाने के लालची कई लोग उसके पास गये लेकिन विवेकी सदगुरु के सत्शिष्यों पर कोई असर नहीं हुआ ।

उस तपस्वी ने भाई तिलकाजी को संदेश भेजा कि वे आकर उसका दर्शन कर लें ताकि उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति हो ।

तिलकजी तो पक्के गुरुभक्त थे । उन्होंने उसकी एक न सुनी और अपने गुरु द्वारा बतायी गयी सेवा-साधना में लगे रहे ।

आखिर हारकर वह तपस्वी कुछ लोगों के साथ तिलकाजी को स्वयं दर्शन देने आया । जब तिलका जी को पता चला तो उन्होंने दरवाजा बंद कर लिया ।

तपस्वी दरवाजा खटखटा कर कहने लगाः “मैं आपके लिये स्वयं चल कर आया हूँ, आप मेरे दर्शन करो व स्वर्ग प्राप्त करो ।”

तिलकाजी ने कहाः “मेरे सद्गुरुदेव ब्रह्मज्ञानी हैं और ब्रह्मज्ञानी सद्गुरु की सेवा-साधना और कृपा से शिष्य को जो ज्ञान, भक्ति, आनंद व शांति का प्रसाद मिलता है, उसके आगे स्वर्ग क्या मायने रखता है ! मुझे स्वर्ग की जरूरत नहीं ।”

सच्चे गुरुभक्त भाई तिलकाजी के उत्तर ने तपस्वी के अंतर्मन को झकझोर दिया । वह सोचने लगा कि ‘ये  कैसे शिष्य हैं जो अपने सद्गुरु के ज्ञान को स्वर्ग से भी उत्तम मानते हैं ! जिन महापुरुषों के शिष्यों के जीवन में ऐसी ऊँचाई देखने को मिलती है, वे महापुरुष कितने महान होंगे !’

तपस्वी ने तिलका जी को गुरु की दुहाई दी और कहाः “कृप्या दरवाजा खोल के आप मुझे दर्शन दीजिये और मुझे भी उन सद्गुरु के दर्शन करवाइये जिनके आप शिष्य हैं ।”

गुरु की दुहाई सुनते ही भाई तिलकाजी ने तुरंत दरवाजा खोल दिया । उस समय गुरुगद्दी पर गुरु हरगोबिन्द जी थे। तिलका जी तपस्वी को लेकर उनके चरणों में पहुँचे । उनका आत्मज्ञान-सम्पन्न सत्संग सुनकर तपस्वी ने धन्यता का अनुभव किया । बाद में वह तपस्वी भी गुरुज्ञान का प्रचार-प्रसार करने की सेवा में लगकर अपना जीवन धन्य करने लगा ।

धन्य हैं ऐसे गुरुभक्त, जिनके लिए ब्रह्मवेत्ता गुरु से बढ़कर दुनिया में स्वर्ग, वैकुंठ कुछ भी नहीं होता । सद्गुरु के ऐसे प्यारे किसी के बहकावे या प्रलोभन में नहीं आते बल्कि अपनी गुरुनिष्ठा, गुरुसेवा व दृढ़ विश्वास द्वारा दूसरों के लिए भी प्रेरणास्रोत बन जाते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2019, पृष्ठ संख्या 10 अंक 318

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भगवान की सीख मान के समय रहते चेत जायें


ब्रह्मज्ञानी संतों के आदर पूजन, उनके सत्संग-सान्निध्य तथा शास्त्रोक्त आचरण से दीर्घायुष्य, आरोग्य, सुमति, सम्पदा, सुयश, मोक्ष – सब कुछ मिलता है तथा 7-7 पीढ़ियों की सद्गति होती है और संतों महापुरुषों की निंदा करने-कराने, भगवद्भक्तों से द्वेष रखने तथा धर्मविरूद्ध कार्य करने से सर्वनाश हो जाता है, इतिहास और हमारे शास्त्रों-पुराणों में ऐसे अनगिनत प्रसंग मिलते हैं ।

पुराणों में एक कथा आती है कि भगवान शिवजी माता पार्वती से कहते हैं- “एक ब्राह्मण प्रतिदिन मेरी पूजा व संत-सेवा आदि करता था । उस पुणय के प्रभाव से वह पिंडारपुर का राजा कुकर्दम बना । लेकिन बाद में राजपद के अहंकार से भरकर वह बड़ा ही मूढ़, गोहत्यारा व संत-निंदक बन गया । असमय उसकी मृत्यु हो गयी । संतों की निंदा के घोर पाप के कारण वह प्रेत बना । प्रतेयोनि में वह भूख प्यास से पीड़ित होकर केवल हवा पी के जीता था, जिससे वह करूण स्वर मं रोता और हाहाकार मचाता हुआ भटकता फिरता था ।”

श्रीरामचरितमानस (उ.कां. 120.12) में आता हैः

हर गुर निंदक दादुर होई । जन्म सहस्र पाव तन सोई ।।

द्विज निंदक बहु नरक भोग करि । जग जनमइ बायस सरीर धरि ।।

शिव और गुरु की निंदा करने वाला मनुष्य (अगले जन्म में) मेंढक होता है और वह हजार जन्म तक वही मेंढक का शरीर पाता है । ब्राह्मणों (ब्रह्मवेत्ताओं) की निंदा करने वाला व्यक्ति बहुत से नरक भोगकर फिर जगत में कौए का शरीर धारण करके जन्म लेता है ।

गुरु की उदारता

शिवजी आगे कहते हैं- “एक समय दैवयोग से वह प्रेत अपने गुरु (पूर्वजन्म के ब्राह्मण शरीर के गुरु) कहोड़ मुनि के आश्रम पर जा पहुँचा । उस प्रेत को देख के गुरु जी बोलेः “अरे ! तुम्हारी यह दशा कैसे हुई ?”

प्रेतः “गुरुदेव ! मैं वही पिंडारपुर का कुकर्दम राजा हूँ । ब्राह्मणों की हिंसा करना, साधु-संतों पर अत्याचार करना, प्रजा का उत्पीड़न करना, गौओं को दुःख देना, असत्य बोलना, सज्जन पुरुषों कलंक लगाना, भगवान और उनके भक्तों की निंदा करना – यही मेरा काम था । मैं दुराचारी और दुरात्मा था और उसी पापकर्म के कारण मैं प्रत बना हूँ । गुरुदेव ! यहाँ नाना प्रकार के दुःख सहने पड़ते हैं । अब आप ही मेरे माता-पिता एवं बंधु हैं, आप ही उत्तम गति हैं, कृपा करके मुझे मुक्त कर दीजिये ।”

परम दयालु गुरु कहोड़ मुनि ने कृपा करके शास्त्रीय विधि-विधान से उसकी सद्गति कर दी ।”

संत महापुरुष सदैव हितैषी होते हैं । उनको किसी भी प्रकार से कष्ट नहीं पहुँचाना चाहिए, उसकी निंदा नहीं करनी चाहिए । नासमझी, अहंकार वश उसका अपमान हो गया हो तो उनके चरणों में पहुँच के क्षमायाचना करनी चाहिए, जिससे नीच योनियों में जाकर दुःख न भोगने पड़ें ।

आश्रमों को किया कलंकित, शरीर पर हो गया कोढ़ अंकित

महादेव जी कहते हैं- “हे पार्वती ! चम्पक नगर का राजा विदारूण भी बड़ा दुष्ट और प्रजा को पीड़ा देने वाला, परस्त्रीगामी व अधर्मी था । वह ब्राह्मणों के घात में लगा रहता था । वह निरंतर भगवान और संतों की निंदा करता और आश्रमों को कलंक लगाने में लगा रहता था, जिससे उसे कोढ़ हो गया ।

एक दिन वह शिकार खेलता हुआ प्यास से पीड़ित हो वेत्रवती (बेतवा) नदी पर पहुँचा । पूर्व समय में वहाँ संतों ने साधन-भजन किया था, जिससे वह भूमि आध्यात्मिक स्पंदनों से युक्त थी । उस नदी के जल का पान करके राजा राजधानी लौट गया । उस भूमि व जल के प्रभाव से उसका कोढ़ दूर हो गया । उसकी बुद्धि में निर्मलता, मन में शांति व हृदय में  भक्ति उत्पन्न होने लगी । वह समय-समय पर वहाँ आने लगा तथा स्नान, जप, संतों की सेवा आदि करने लगा, जिसके प्रभाव से वह भगवद् धाम को प्राप्त हुआ ।

जब हुआ भूल का एहसास, तब पाप का हो गया नाश

शिवजी एक और प्रसंग बताते हैं- “ऐसा ही एक पापात्मा, भगवान व ब्रह्मवेत्ता संतों की निंदा करने वाला गुरुद्रोही तथा प्रजा को पीड़ा देने वाला दुष्ट राजा था वैकर्तन । कुछ काल पश्चात अपने पाप के कारण वह अत्यंत पीड़ाप्रद रोग से ग्रस्त हो गया । शरीर की दुर्दशा देखकर उसे अपनी भूल का एहसास हुआ ।

एक दिन घूमते हुए वह साभ्रमती (साबरमती ) नदी तट पर पहुँचा । वहाँ उसने स्नान किया और वहाँ का जल पिया । संतों के सत्संग, ध्यान, सत्कर्मों की सुवास से महकती उस पुण्यभूमि के प्रभाव से उसे अपने कर्मों के प्रति घृणा हुई, अपराधों के लिए उसने संतों से क्षमा माँगी, जिससे वह धीरे-धीरे पूर्ण स्वस्थ हो गया ।”

रामायण में आता है कि ‘जो अभिमानी जीव देवताओं और वेदों की निंदा करते हैं, वे रौरव नरक में पड़ते हैं । संतों की निंदा में लगे हुए उल्लू होते हैं, जिन्हें मोह (अज्ञान) रूपी रात्रि प्रिय होती है और ज्ञानरूपी सूर्य जिनके लिए बीत गया (अस्त हो गया) रहता है ।’ जैसे चन्द्रमा और सूर्य का उदय समस्त विश्व के लिए सुखदायक है, ऐसे ही संतों का अनुभव सदा ही सुखकर होता है ।

जैसे संतों-महापुरुषों के सत्संग और सेवा-सान्निध्य से होने वाले लाभ अवर्णनीय हैं, वैसे ही उनकी निंदा करने, उनसे द्वेष रखने आदि से होने वाले पापों और कष्टों का पूरा वर्णन करना असम्भव है । संतों के साथ किये गये प्रतिकूल व्यवहार का बदला चुकाना ही पड़ता है, किसी को भी अभी तो किसी को बाद में । शास्त्रों के ऐसे प्रसंग मनुष्य को समय रहते अपने पापों, गलतियों का एहसास कराने तथा पाप करना छोड़ के उनका प्रायश्चित्त कर भावी जीवन सुधारने हेतु सचेत करते हैं । परंतु जिनको सावधान ही न होना हो उन्हें तो भावी महादुःख, नरक यातनाएँ झेलने हेतु तैयार ही रहना चाहिए ।

संदर्भः पद्म पुराण आदि शास्त्र

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2019, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 318

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