पुण्य कब परम कल्याणकारी होता है ?

पुण्य कब परम कल्याणकारी होता है ?


बालि एक ऐसा योद्धा है जो अपने जीवन में कभी पराजित नहीं होता । वह किसी भी शत्रु की चुनौति से घबराता नहीं । यह बालि के चरित्र में पग-पग पर दिखाई देता है । जब बालि के ऊपर भगवान राम बाण-प्रहार करते हैं तो पहले तो बालि भगवान को चुनौति के स्वर में फटकारता है और उनसे पूछता हैः

धर्म हेतु अवतेरहु गोसाईं । मारेहु मोहि ब्याध की नाईं ।।

जब आपने धर्म की रक्षा के लिए अवतार लिया है, तब मुझे व्याध की तरह छिपकर क्यों मारा ? (श्रीरामचरित. कि. कां. 8.3)

आपका अवतार तो पाप को नष्ट करने के लिए हुआ है, पुण्य को नष्ट करने के लिए नहीं । यदि आप रावण पर बाण चलाते तो बात कुछ समझ में आती पर आपने मुझ पर अपने बाण का प्रयोग किया, यह दुःख की बात है । इससे आपके अवतार का उद्देश्य तो पूरा होने वाला नहीं । फिर आपने मुझमें और सुग्रीव में भेद क्यों किया ?

मैं बैरी सुग्रीव पिआरा । अवगुन कवन नाथ मोहि मारा ।।

मैं वैरी और सुग्रीव प्यारा ? हे नाथ ! किस दोष से आपने मुझे मारा ?

(श्रीरामचरित. कि. कां. 8.3)

बालि का सांकेतिक तात्पर्य यह है कि ‘सुग्रीव यदि सूर्य का पुत्र है, सूर्य के अंश से यदि उसका जन्म हुआ है तो मेरा जन्म भी तो इन्द्र के अंश से हुआ है । ऐसी स्थिति में आपको ज्ञान और पुण्य की रक्षा करनी चाहिए थी । आपने ज्ञान अर्थात् सुग्रीव की तो रक्षा की लेकिन पुण्य पर अर्थात् मुझ पर प्रहार किया, इसमें आपका उद्देश्य क्या है ?’

भगवान श्री राम ने कहाः “वस्तुतः मैंने जो तुम पर प्रहार किया है उसका उद्देश्य तुम्हें मारना नहीं है ।

मूढ़ तोहि अतिसय अभिमाना ।

हे मूढ़ ! तुझे अत्यंत अभिमान है ।’

(श्रीरामचरित किं.कां. 8.5)

मैंने तेरे अभिमान पर प्रहार किया है ।”

संसार में पुण्य की तो आवश्यकता है मगर अभिमान की नहीं । इसलिए जब पुण्य के साथ अभिमान की वृत्ति सम्मिलित हो जाती है तब अभिमान को नष्ट करना पड़ता है । इसलिए जब बालि का अभिमान नष्ट हो जाता है, तब भगवान उसके सिर पर हाथ रख देते हैं । जिस बालि के ऊपर प्रभु ने अपने हाथों से धनुष पर बाण चढ़ाकर प्रहार किया था, उसी के मस्तक पर उनका हाथ है । इसका अभिप्राय यह है कि जब तब पुण्य अभिमान से युक्त है तब तक भगवान उसको विनष्ट करने पर तुले रहते हैं पर यदि पुण्य से अभिमान की निवृत्ति हो जाय तो ऐसा पुण्य परम कल्याणकारी होता है । तभी तो भगवान राम बालि के मस्तक पर हाथ रखकर कहते हैं-

अचल करौं तुन राखहु प्राना ।

बालि ! मैं चाहता हूँ कि तुम जीवित रहो, तुम्हारे शरीर और प्राणों की मैं रक्षा करना चाहता हूँ ।”

किंतु बालि ने भगवान राम के इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया । आगे चलकर वर्णन आता है कि बालि की मुक्ति हो गयी ।

बहुत बार ऐसा होता है कि व्यक्ति पुण्य तो करता है पर अपने-आपको न तो अहंता से मुक्त कर पाता है और न ममता से । इसलिए पुण्यकर्म करने पर यदि अहंता और ममता बनी हई है तो व्यक्ति की मुक्ति सम्भव नहीं । बालि का यह प्रसंग इसी ओर संकेत करता है । अतः मुक्ति के लिए पुण्यकर्म करने के साथ-साथ ब्रह्मवेत्ता महापुरुष के सत्संग-मार्गदर्शन अनुसार चलकर अहंता-ममता निवृत्त करनी चाहिए ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2019, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 324

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