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तत्परता वाला विफल नही होता


भक्ति में गलती हो तो आदमी पागल बन जाता है, योग में गलती हो तो आदमी रोगी हो जाता है और ज्ञान में गलती हो तो आदमी विलासी बन जाता है। और ज्ञान के रास्ते कभी चलते-चलते थोडासा झलक मिल और वाहवाही हो तो मनुष्य को तुष्टि …हाँ मेरे को बहुत कुछ मिल गया, मेरे पास बहुत कुछ है… जैसे चूहे को हल्दी का टुकड़ा मिल जाए और अपने को गाँधी मान लेवे ऐसे भी आता है…एकांत है,भजन करता हूँ तो इसको बोलते है तुष्टि। ये मन धोखा देता है, छोटी मोटा कुछ मिल गया उसमें तुष्ट हो जाते है, संतुष्ट हो जाते है

लेकिन जबतक परमात्मा का साक्षात्कार नही होता तबतक सद्गुरुओं का सहयोग बहुत जरूरी है। और परमात्मा का साक्षात्कार हो जाए तो जो मिला है उसे याद करते करते वो वफादार बना रहेगा।

विवेकानंद अपने गुरु के लिए आजीवन वफादार थे। ऐसा कोई महापुरुष नही हुआ जिसने अपने सद्गुरु के लिए कभी कुछ गलत कहा या सोचा हो , अगर कहा या सोचा है तो वो महापुरुष भी नही बना है। जय रामजी की! वो फिसल गया है! नरक का अधिकारी हो गया वो!
तो वो माई थी तो सज्जन लेकिन उसको थोडासा साधन भजन करते करते कोई अनुभव नही हो रहा था तो एकदम मन उसका नास्तिक जैसा हो गया। और गाँव में संत आए और उसके चेलियों ने कहा कि महाराज आए है,बोली “हमने देख लिए सब महाराज। जिसने जो साधन कहा हमने सब करके देख लिया। कोई भगवान-वगवान का अनुभव नही हुआ, साक्षात्कार का अनुभव नही हुआ।” ऐसा करके वो नही जाना चाहती थी। फिर भी पहले का किया हुआ पुण्य उसको महापुरुष का दर्शन करने ले गए। और महापुरुष ने देखा कि अधिकारी जीव है…अपना सामर्थ्य बरसाया, तो वही उसकी चित्त शक्ति जागृत हो गई।

जिनकी आत्म शक्ति जगी होती है वो जो टोपी पहनते है उस टोपी में भी वेव्ज आते है, वो जो करमंडल पकड़ते है उसमें भी! और जिस वस्तू पर देखते है वो आध्यात्मिक वेव्ज वहाँ भी बरसते है। जैसे सूरज की किरण है धरती पर पड़ते है, लेकिन जहाँ बीज जैसा है वही बीज वैसा ही फल और पत्ते फूल बना लेता है सूरज की कृपा से। सूरज उसे छूता नही फिर भी सूरज उसे छूता है! सूरज हजारों लाखों माईल दूर होते हुए भी उसके साथ है, उसके साथ होते हुए भी वो निराला है! ऐसे ही ज्ञानी के हृदय में सूर्यों का सूर्य जो परमात्मा प्रगट हुआ है! तो ज्ञानी की दृष्टि से…जैसे सूरज वहाँ है और सूरज की दृष्टि कहो, किरण कहो पेड़ पौधों को पोषते है और पेड़ पौधों में जैसी जैसी बीज में संस्कार और क्षमताएँ होती है ऐसे ऐसे बीज कोई छोटा पौधा, छोटे गमलों का बीज होता है तो कोई बड़े पेड़ों का बीज होता है ,तो कोई गुलाबी फूल का होता है तो कोई और किसी रंगरूप आकृति के होते है। लेकिन सत्ता तो सूरज के किरणों से मिलती है उनको पनपने की,खिलने की,महकने की! ऐसे ही जिसके जैसे संस्कार है..जबतक ज्ञानवान महापुरुष सूर्य की कृपादृष्टि नही पड़ी तबतक उसका अंतःकरण उस साधन में उतना खिलता नही!

माई ने तप तो किया, व्रत भी किया, सब साधन किए लेकिन किताब पढ़-पढ़के बताने वाले गुरुओं के द्वारा उसने किए। सद्गुरु अभी उसको मिला नही था तो कर-करके बेचारी थक गई थी। थक गई थी तो एकदम नास्तिक जैसी हो गई। और जब समर्थ संत आए तो उसकी चेलियाँ समर्थ संत के सत्संग सुनने को गई और आकर कहा अपनी सत्संग सुनाने वाली बाई को , तो उसने डाँट दिया कि कोई साधु -वाधु नही है , साधुने जो बताया सब किया कोई अनुभव नही हुआ! भगवान -वगवान नही है।

फिर भी उसका मन उस संत के दर्शन के लिए छुप के जाने का हो गया। और छुप के जब गई तो उस संत की दृष्टि पड़ी और उसका छुपा हुआ जो चैतन्य… जैसे बीज को खाद-पानी है फिर भी कई ऐसे बीज है जो फूटते नही क्योंकि उनपर कोई कंकड़ है या कोई ठीकरा पड़ा है, इसको बोलते है प्रतिबंधक प्रारब्ध! तो महाराज! वो हट गया उसका प्रतिबंध हट गया! तो माई को अनुभव हुआ थोड़ा बहुत। बाद में तो संत चले गए और वो बाई पैदल पैदल उनके यहाँ गई, वर्षों तक उनके आश्रम में रही, दिन-रात आए हुए अतिथियों को भोजन बनाके खिलाती थी। सुबह ४ बजे से लेकर रात्रि पंगत…कार्यभार सँभालती थी।उसकी वही सेवा थी। और अंत में सद्गुरु की कृपा से उसको ऐसे पद की प्राप्ति हुई कि महाराज ! जिस पद को योगी पाकर मुक्त हो जाते है, ज्ञानी पाकर ब्रह्मवेत्ता हो जाते है उस पद को वो पा ली!

कहने का तात्पर्य ये है कि ईश्वर है और ईश्वर को पाने की योग्यता भी है लेकिन उस दोनों का…योग्यता का और ईश्वर की प्राप्ति इन दो के बीच का जो मिडिया है वो सद्गुरु का सानिध्य जबतक नही होता तबतक काम नही बनता! बीज भी है, सूरज भी है लेकिन किसान जबतक सेटिंग नही करता है तबतक काम नही बनता है!

दूसरी बात… साधक के जीवन में एक खास होना चाहिए, हर मनुष्य के जीवन में ये गुण होना चाहिए- तत्परता! अपने लक्ष्य की स्मृति और तत्परता!
एक कहानी बता दूँ… दो किसान थे। दोनों की जमीन बराबर थी पास-पास में। एक किसान ने उस जमीन को खेडा , क्यारियाँ बनाई , बीज बोए। दूसरे ने भी खेडा अपने ढँग से..बीज इधर उधर डले, फिर कभी बगीचे में आता था कभी नही, कभी कुछ।लेकिन जो पहला किसान था उसने विधिवत बीज बोए, अमुक अंतर पर बीज बोए और अमुक दिन पर पानी दिया, उसका बगीचा तो कुछ ही समय में लहलहाने लगा, फूल खिलने लगे, पक्षियों की किलहोल और महाराज! फल फूल से लदा भरा उसका बाग दूर-दूर से लोग देखने को आने लगे । उसके बाग को देखकर लोगों को होता कि “हाश!कितना सुंदर बगीचा!वाह!ईश्वर की क्या लीला है!बंजर जमीन था और उस बंजर में देखो प्रभु का क्या खेल है!वाह!इसने अपनी महनत से देखो कैसा प्रभु की सृष्टि में सौंदर्य भर दिया” व्ज बोलता था “प्रभु की सृष्टि में सौंदर्य भरने वाला मैं कौन होता हूँ?सौंदर्य भी उसीका है और भरने की सत्ता भी उसीकी है! ये हाथ-पैर भी उसीके दिए हुए हैं!हमको तो आप यश दे रहे है, बाकी यश तो उसी प्यारे का गाईए!” जय रामजी की!

वो माली क्यारी-क्यारी की खबर लेता!पौधे-पौधे की निगरानी रखता, हर फूल को सुबह-श्याम निहारता देखता,कही कटाई हो, कही छटाई हो, कही सिंचाई हो, कही खाद पानी बराबर देता। और उसको अपने कार्य करने में इतना आनंद आता! कोई पौधा सूखने न पाए और कोई पेड़ बूढा होकर व्यर्थ न जाए। जहाँ कटाई करना है वो कटाई कर लेता,जहाँ बुआई करना है बुआई कर लेता , बड़ा खयाल रखता।उसने उस बगीचे में प्राण भर दिए! वो बगीचा विश्रांति स्थल हो गया! माली को आय भी अच्छी होती थी,यश भी अच्छा हुआ और उसको कार्य में तत्पर होने का रस भी मिला और उसकी काम करने की क्षमताएँ भी बढ़ गई। दूसरे माली ने बगीचा लगाया , कही कोई पेड़ पौधा हुआ है तो कही सूखा पड़ा है, कही थोड़े फल लगे है तो पकने के पहले ही गिरे हुए है ,कही पक्षियों को कभी भगाया तो कभी पक्षियों ने चट कर दिया!

उसकी जमीन उजाड़ जैसी लग रही थी, एकदम उजाड़ न पूरा हराभरा। जहाँ कहीं छोटा मोटा पेड़ पौधा खिला है उसको देखकर वो फूलता था कि देखो मैने कितना बढ़िया किया। लेकिन आसपास का कचरा और सूखे पेड़ और पौधे उस खिले हुए पौधे की शोभा को नष्ट कर देते थे। वो अपना भाग्य कूटता था “क्या करें!मेरा भाग्य ही ऐसा है!पड़ोसी का बगीचा भगवान ने ऐसा कर दिया और मेरे बगीचे का ठिकाना नही! ” हकीकत में तो भगवान ने सूर्य किरण दोनों को बराबर दिए, भगवान ने वृष्टि तो दोनों को बराबर की, भगवान ने धरती में रस तो दोनों के लिए एक जैसा भरा। लेकिन जो तत्पर था अपने काम में, जो बारीकी से एक एक पौधे की खबर रखता था, बारीकी से एक एक पेड़ की, खाद पानी की व्यवस्था रखता था उसका
तत्पर होना, ख्याल रखना ही उसके कार्य की सफलता थी। और वो जो लापरवाही है वोही उसकी विफलता का कारण था और दोष देता है भगवान को। और यश मिलता है तो बुद्धिमान कहता है भगवान की लीला है। तो कौनसा आदमी दुनिया में जीने के काबिल हुआ? जो तत्परता से काम करता है और सफल होता है तब भी ईश्वर की स्मृति कर देता है और तत्परता से कार्य करनेवाला व्यक्ति विफल नही होता है! और विफल कभी कबार कभी हो भी जाता है तो खोजता है विफलता का कारण क्या है?विफलता का कारण ईश्वर नही है,
विफलता का कारण प्रकृति नही है, विफलता का कारण अपनी बेवकूफी है। जय रामजी की! तो कहाँ हमारी बेवकूफी हुई जानकारों की सलाह लेकर वो अपनी बेवकूफी मिटाते है और कार्य तत्परता से करते है। आज तो जरा-जरा बात में गलती हो गई, भूल गए, ये हो गए इसको बोलते है

लापरवाही,प्रमाद…एक होता है आलस्य दूसरा होता है प्रमाद। पति ने कहा अथवा साथी ने कहा ये कर लेना, याद भी है… अच्छा! होगा..देखते है, देखते हैं, देखते है- देखते हैं करके कहाँ भटक गया ये है आलस्य। तो आलस्य और प्रमाद मनुष्य का शत्रु है, मनुष्य की योग्यताओं का शत्रु है। तीसरा शत्रु है ईर्षा.. मैं इतना काम करता हूँ वो तो कुछ नही करता। तो अपनी योग्यता विकसित करने के लिए भी अपने को तत्परता से कार्य करना चाहिए। कम से कम समय और अधिक से अधिक सुंदर कार्य करने की जसकी कला विकसित है वो आध्यात्मिक रस्ते जाता है तो आध्यात्मिक जगत में भी सफल हो जाए, लेकिन ज्यादा समय बरबाद करे और कम से कम कार्य हो और वो भी सड़ा गला बगीचे वाला जैसा वो आदमी व्यवहार में भी विफल रहता है और परमार्थ में भी पलायन वादी हो जाता है। जय रामजी की! वो परमार्थ में पलायनवादी हो जाएगा, जितना सुख सुविधा मिला तो हाँ! अच्छा है एकांत है भजन होता है और जहाँ थोड़ी प्रतिकूलता आई तो वहाँ से भाग जाएगा। तो – अतो भ्रष्ट ततो भ्रष्ट

तो, पलायनवादी लोग जिनको सुख सुविधाएँ मिल जाती है लेकिन तत्परता नही है काम करने की ,ईश्वर में प्रीति नही है…जप में प्रीति नही है, ध्यान में प्रीति नही है ऐसे व्यक्ति को ब्रह्मा जी आकर भी सुखी करना चाहे तब भी वो नही हो सकता है, दुःखी रहेगा, दुःख बना लेगा। कभी कबार दैव योग से सुख मिला तो आसक्त हो जाएगा, फूल जाएगा और दुःख मिला तो बोलेगा “क्या करें भगवान की सृष्टि ऐसी है, जमाना ऐसा है , ये ऐसा है, वो ऐसा है।

संत की अवहेलना का दुष्परिणाम


आत्मानंद की मस्ती में रमण करने वाले किन्हीं महात्मा को देखकर एक सेठ ने सोचा कि ‘ब्रह्मज्ञानी के सेवा बड़े भाग्य से मिलती है। चलो, अपने द्वारा भी कुछ सेवा हो जाय।’ यह सोचकर उन्होंने अपने नौकर को आदेश दे दिया कि “रोज शाम को महात्माजी को दूध पिलाकर आया करो।”

◆नौकर क्या करता कि दूध के पैसे तो जेब में रख लेता और छाछ मिल जाती थी मुफ्त में तो नमक-मिर्च मिलाकर छाछ का प्याला बाबाजी को पिला आता।

◆ एक बार सेठ घूमते-घामते महात्माजी के पास गये और उनसे पूछाः “बाबाजी ! हमारा नौकर आपको रोज शाम को दूध पिला जाता है न?”बाबाजीः “हाँ, पिला जाता है।”

◆ बाबाजी ने विश्लेषण नहीं किया कि क्या पिला जाता है। नौकर के व्यवहार से महात्माजी को तो कोई कष्ट नहीं हुआ, किंतु प्रकृति से संत की अवहेलना सहन नहीं हुई। समय पाकर उस नौकर को कोढ़ हो गया, समाज से इज्जत-आबरू भी चली गयी। तब किसी समझदार व्यक्ति ने उससे पूछाः “भाई ! बात क्या है? चारों ओर से तू परेशानी से घिर गया है !”

◆ उस नौकर ने कहाः “मैंने और कोई पाप तो नहीं किया किंतु सेठ ने मुझे हर रोज एक महात्मा को दूध पिलाने के लिए कहा था। किंतु मैं दूध के पैसे जेब में रखकर उन्हें छाछ पिला देता था, इसलिए यह दुष्परिणाम भोगना पड़ रहा है।”

समय रहते उनसे जगदीश्वर की मुलाकात का पाठ पढ़ लें


◆ एक बार सूफी संत मौलाना जलालुद्दीन अपने शिष्यों के बीच बैठे थे । सब कीर्तन ध्यान की मस्ती में मस्त थे । किसी कॉलेज के प्रोफेसर अपने मित्रों के साथ घूमते-घामते वहाँ आ पहुँचे । उन्होंने सुना था कि ‘यहाँ ध्यान, साधना कराने वाले और आत्मविद्या का प्रसाद बाँटने वाले एक अलमस्त फकीर और उनके शिष्य रहते हैं ।’ वे लोग कुतूहलवश ही वहाँ जा पहुँचे ।

◆ देखा कि मौलाना 50-60 साल की उम्र के लगते हैं और अपने शिष्यों को आत्ममस्ती में मस्त बना रहे हैं । कोई नाच रहा है, कोई हँस रहा है, कोई काँप रहा है, कोई घूम रहा है, कोई चुप होकर बैठा है ।

◆ यह सब देखकर उन्होंने अपनी मति से संत को और उनके व्यवहार को तौलना शुरु किया ।

◆ एक ने कहाः “अजीब फकीर हैं ये ! किस ढंग से सबको मस्त बना रहे हैं !”

◆ दूसरे ने कहाः “अरे ! यह आदमी खतरनाक मालूम होता है । सबको पागल बना रहा है ।”

◆ तीसरे ने कहाः “यह कोई ध्यान है ? ध्यान में कभी हिलचाल होती है ? नाचना-गाना होता है ? ध्यान तो चुपचाप बैठकर किया जाता है ।”

◆ चौथे ने कहाः “कुछ भी हो लेकिन ये लोग मस्ती तो ले रहे हैं । ध्यान कैसा होता है, यह तो हमें पता नहीं पर ये लोग कुछ अजीब मस्ती में मस्त हैं । इनका रोम-रोम खुशी की खबरें दे रहा है ।”

◆ तब किसी ने कहाः “जिस विषय का पता न हो उस विषय में बोलना बेवकूफी है । चलो, बेकार में समय मत गँवाओ ।”

◆ उस वक्त वे मूर्ख लोग अपना-अपना अभिप्राय देकर चलते बने । फिर कुछ महीनों के बाद स्कूल-कॉलेज की छुट्टियाँ आयीं । तब उनको हुआः ‘चलो, वहीं चलें ।’ वे लोग फिर से गये पर शिष्य होकर नहीं, साधक हो के नहीं, केवल दर्शक हो के गये ।

◆ जो लोग दर्शक होकर महापुरुषों के द्वार पर जाते हैं, उनकी जैसी-जैसी मान्यताएँ होती हैं वैसा-वैसा अर्थ वे निकालते हैं । वे लोग संत-दर्शन का या संत के ज्ञान का कुछ फायदा नहीं ले पाते हैं । जो लोग प्यास लेकर जाते हैं, जिज्ञासा ले के जाते हैं उनमें कुछ सात्त्विकता होती है जिससे ऐसे लोगों को लाभ भी होता है ।

◆ प्रोफेसर और उनके साथी विद्वता का भूत अपनी खोपड़ी में रखकर संत के पास पहुँचे । इस बार उन्होंने देखा कि संत के सामने लोग बड़ी शांति से बैठे हैं । न कोई नाच रहा है, न गा रहा है, न हँस रहा है, न रो रहा है, न काँप रहा है, न चिल्ला रहा है । जलालुद्दीन भी मौन हैं, शांत हैं ।

◆ तब उस टुकड़ी के मूर्खों ने अपना अभिप्राय देना शुरु कर दियाः “हाँ, अब ये लोग ध्यान में हैं । अब जलालुद्दीन और उनके शिष्यों को कुछ अक्ल आयी । पहले तो ये बिगड़े हुए थे, अब सुधर गये हैं ।

◆ जो लोग खुद बिगड़े हुए हैं उनको ही साधक लोग, भक्त लोग बिगड़े हुए दिखते हैं । ऐसे लोग ‘रॉक एंड रोल’ में नाचेंगे, फिल्म की पट्टिया देखकर तो हँसेगे-रोयेंगे लेकिन भगवान के लिए भाव में आकर न हँसेंगे, न रोयेंगे, न नाचेंगे । वहाँ अपने को सभ्य समझेंगे और भगवान के लिए हँसना, रोना, नाचना असभ्यता मानेंगे । वे बेचारे अंदर की मस्ती लेने की कला ही नहीं जानते हैं ।

◆ ऐसे ही प्रोफेसर और उनके साथियों ने, बेचारों ने अपना मत दियाः “हाँ, अब ठीक है । अब चुप होकर बैठे हैं । महाराज भी चुप हैं, लोग भी चुप हैं, अच्छा है । अब ये लोग सुधर गये हैं । अब साधना करते रहेंगे, ध्यान करते रहेंगे तो कभी-न-कभी परमात्मा को पा लेंगे ।”

◆ तब किसी ने कहाः “वह ठीक था या यह ठीक है, ऐसा कहना ही ठीक नहीं है । वैसे ही पहले से अपने पाप ज्यादां कि हम इन लोगों की तरह मस्ती में मस्त नहीं हो पाते हैं, ऊपर से संतों और साधकों के संबंध में अभिप्राय देकर पाप का बोझ बढ़ाना उचित नहीं है । हमें चुप रहना चाहिए ।”

◆ किसी ने कहाः “चलो, बेकार की बातों में समय मत गँवाओ ।” उस वक्त भी वे चले गये पर मौका मिला तो आये बिना नहीं रह पाये । अब की बार देखा तो जलालुद्दीन अकेले हैं । आकाश की ओर उनकी निगाहें हैं । उनके रोम-रोम से चैतन्य की मस्ती बिखर रही है । उनके अस्तित्व से मौन (शांति) और आनंद की खबरें मिल रही हैं ।…..उसे फिर कुछ सीखना नहीं पड़ता

◆ प्रोफेसर उनके सामने आकर बैठे । उन्होंने मौलाना से पूछाः “बाबा जी ! सब कहाँ गये ? आपके भक्त और शिष्य, जो आपके साथ रहते थे, वे सब चले गये क्या ?”

◆ जलालुद्दीन बोलेः “हाँ, मुझे जो देना था, वह मैंने दे दिया । उन्हें जो पाना था, वह उन्होंने पा लिया । मुझे जो पाठ पढ़ाना था, पढ़ा दिया । हमारे कॉलेज के दिन पूरे हो गये । अब छुट्टियाँ चल रही हैं ।”“अभी हमारे कॉलेज की छुट्टियाँ तो पड़ी नहीं हैं ।”

◆ “तुम्हारे अज्ञानियों के स्कूल-कॉलेज में तुम 15 साल तक विद्यार्थियों की खोपड़ी में कचरा भरते रहते हो, उन्हें हर साल छुट्टियाँ देते हो फिर भी उनकी छुट्टी नहीं होती है । वे कहीं-न-कहीं बँधे रहते हैं । परंतु यहाँ जो आता है और यहाँ के पाठ से पढ़ लेता है उसकी तो सदा के लिए छुट्टी हो जाती है, साथ ही उसे जन्म-मरण के चक्कर से भी छुट्टी मिल जाती है । हमारा ज्ञान ऐसा है ! विद्यार्थी तुम्हारे पाठ तो हजार जन्म पढ़ता रहे फिर भी उसकी बेड़ियाँ नहीं टूटतीं । हमारा पाठ जो एक बार सीख ले उसे फिर कुछ सीखना नहीं पड़ता । अँगूठाछाप व्यक्ति भी हमारा पाठ पढ़े तो अच्छे-अच्छे, तुम जैसे पढ़े हुए लोगों को भी पढ़ाने की योग्यता पा लेता है । वह चाहे निर्धन दिखे पर कइयों को धनवान बनाने का सामर्थ्य रखता है ।”

◆ प्रोफेसर एकटक जलालुद्दीन की ओर निहार रहे थे । जलालुद्दीन जो बोल रहे थे वह केवल भाषा नहीं थी, भाषा के पीछे कुछ सत्य था, तत्त्व का अनुभव था ।

◆ लोग समझते हैं कि पैसे हों, सत्ता हो या लोगों में प्रतिष्ठा हो तो ही सुखी जीवन गुजारा जा सकता है । पैसे के बिना सुख नहीं मिल सकता, सुधार नहीं हो सकता, सेवा भी नहीं हो सकती । लेकिन वे लोग भ्रांत मनोदशा में जी रहे हैं ।

◆ जलालुद्दीन ने प्रोफेसर को कहाः “मेरा पाठ पढ़ने वाला व्यक्ति जहाँ कहीं जायेगा, जो कुछ करेगा उसके लिए शुभ हो जायेगा । जिन वस्तुओं को देखेगा वे प्रसाद हो जायेंगी । वह जितने दिन जियेगा उतने दिन उसके लिए मानो हर दिन दीवाली और हर रात पूनम हो जायेगी । ऐसा पाठ पढ़ाकर अब मैं विश्रांति ले रहा हूँ ।”अगर सोचने में रह गये तो चूक गये…..

◆ वे प्रोफेसर तो पढ़े-लिखे व्यक्ति थे । कुछ सोचकर वे नम्रता से बोलेः “महाराज ! हम भी आपसे पढ़ना चाहते हैं । हमें भी आप पाठ पढ़ाइये ।”

◆ जलालुद्दीन बोलेः “अब मेरे पास समय नहीं है । तुम कई बार यहाँ आते रहे….. सब देखते रहे । परंतु तब मेरे पाठ पढ़ने की तुम लोगों में कोई उत्सुकता नहीं थी । अब मैंने अपना काम निपटा लिया है । अब मैं आखिरी क्षणों के इंतजार में कुछ दिन बिता दूँगा । फिर इस संसार के शरीररूपी चोले को छोड़कर अपने आत्मा में लीन हो जाऊँगा । वक्त यूँ ही चला गया, तुम समझ नहीं पाये । जगत की विद्या पढ़ाने वाले प्रोफेसर तो लाखों-लाखों मिल जायेंगे किंतु जगदीश्वर की मुलाकात का पाठ पढ़ाने वाले मुर्शिद (सद्गुरु) तो कभी-कभी, कोई-कोई विरले ही समाज के बीच आते हैं । वे जब आते हैं तो श्रद्धा-भक्तिवाले कुछ लोग उनसे जितनी जिसकी श्रद्धा-निष्ठा होती है उतना-उतना पा लेते हैं और बाकी के वैसे ही रह जाते हैं ।”

◆ आप स्टेशन पर पहुँचे हो और रेलगाड़ी भी उस समय खड़ी हो…. अगर आप कहीं जाना चाहते हो तो समय रहते ही, रेलगाड़ी जब खड़ी हो तब उसमें बैठ जाना चाहिए । अगर सोचने में रह गये तो चूक गये । रेलगाड़ी रवाना होने की तैयारी में हो तब तक भी बैठ सकते हो । तुम जहाँ कहीं जाना चाहते हो वहाँ पहुँच सकते हो परंतु रेलगाड़ी चली जाय उसके बाद तो फिर सिर कूटना ही रहेगा ।

◆ ऐसे ही प्रोफेसर बेचारे सोचने में ही रह गये । आये तो सही संत के पास….. दो बार, तीन बार, चार बार…. पर ऐसे-के-ऐसे ही रह गये । सब आपस में एक-दूसरे को दोष देने लगेः ‘तूने ऐसा कहा…. तूने वैसा कहा….।’ जब संत के पास समय नहीं रहा तब आये तो फिर उनके हाथ सिर कूटना ही रहा । ऐसे लोगों के लिए कहावत सार्थक होती है कि अब पछताये होत क्या, जब चिड़िया चुग गयी खेत ।

◆ उस समय तो दर्शक बनकर आये थे । अगर साधक बन के, जिज्ञासु बन के आते, भगवद्ध्यान, सत्संग और भगवन्नाम रूपी गाड़ी में बैठ जाते तो भवसागर से पार हो जाते । भवसागर से पार नहीं भी होते तो भवसागर से पार होने की कुछ कला ही सीख लेते । इतना भी नहीं होता तो सत्संगियों के बीच बैठकर सत्संग-कथा सुनते तो कुछ समझ का विकास होता, कुछ पाप मिटा सकते थे । पर जो लोग अपने को समझदार मानते हैं वे सत्संग में नहीं बैठ सकते । जो लोग जानते हैं कि अपनी समझ से भी अधिक समझ है, अपने सुख से भी विशेष सुख है और उसे पाने में अपने समय का सदुपयोग कर लेना चाहिए-ऐसी जिनकी सन्मति होती है, वे ही लोग ब्रह्मवेत्ता संतों के सान्निध्य में शांति और आनंद का अनुभव कर सकते हैं । वे ही संतों के सान्निध्य का लाभ लेकर परमात्मप्राप्ति की चल पड़ते हैं और अपने मनुष्य-जन्म को सार्थक कर लेते हैं ।

◆ स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2019, पृष्ठ संख्या 4-6 अंक 322