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तू फिर आयेगा और वह आया- आपमें रोमांच भर देगी यह कथा


अध्यात्मिक मार्ग तीक्ष्ण धार वाली तलवार का मार्ग है जिनको इस मार्ग का अनुभव है, ऐसे गुरू की अनिवार्य आवश्यकता है । अपने सब अहम भाव का त्याग करो और गुरू के चरण-कमलों में अपने आप को सौंप दो ।

गुरू आपको मार्ग दिखाएंगे और प्रेरणा देंगे, मार्ग में आपको स्वयं ही चलना होगा । जीवन अल्प है, समय जल्दी से सरक रहा है उठो, जागो ! आचार्य के पावन चरणों में पहुंच जाओ ।

रामकृष्ण परमहंस के साथ हुई पहली मुलाकात के बाद नरेंद्र उनसे दोबारा मिलने दक्षिणेश्वर पहुंचे । पहली मुलाकात में नरेंद्र उनसे बातचीत नहीं कर पाए थे, केवल उनके दर्शन हुए थे, इसलिए उनके मन में रामकृष्ण परमहंस से फिर एक बार मिलने की इच्छा जगी । वे अपना सवालाखी सवाल लेकर ठाकुर से मिलने गए, इस दूसरी मुलाकात में नरेंद्र ने फौरन अपना सवाल ठाकुर से पूछ लिया । क्या आपने कभी ईश्वर को देखा है ?

ठाकुर ने कहा हां, बिल्कुल देखा है, जैसे इस समय मैं तुम्हें देख रहा हूं,बिल्कुल वैसे ही ईश्वर को भी देखा है और बातचीत भी की है । अगर तुम्हें भी ईश्वर को देखना है तो देख सकते हो ।

आज के युग में लोग ईश्वर को जानने के बारे में नहीं सोचते, हां ! अगर किसी का पति मर गया हो, पत्नी मर गई हो या बेटा मर गया हो तो वे खूब रोते हैं । लेकिन इस बात पर कोई नहीं रोता कि अब तक ईश्वर का दर्शन नहीं हुआ ।जबकि वास्तविकता यह है कि जो भक्ति में रोयेंगे वे ईश्वर दर्शन को भी प्राप्त होंगे, तो आखिरकार नरेन्द्र को अपने सवाल के जवाब की झलक मिल ही गई । ठाकुर ने दावा किया कि मैंने ईश्वर को देखा है और तुम्हें भी उसका दर्शन करवा सकता हूं ।

हालांकि नरेंद्र को उनकी बात पर विश्वास ना हुआ क्यूंकि उस समय हर मामले में उनकी बुद्धि ही प्रधान रहती थी । ठाकुर के साथ नरेंद्र की यह दूसरी मुलाकात यादगार रही । आगे ऐसी कई मुलाकातें होने वाली थी, यह तो केवल शुरुआत थी । वहां रामकृष्ण परमहंस का अतार्किक व्यवहार देखकर उन्हें लगा जैसे वे नरेंद्र को लंबे समय से जानते हों । उस दिन ठाकुर ने नरेंद्र को अपने पास बिठाया और फिर भजन गाने के लिए कहा । जब नरेंद्र ने भजन गाया तो वह भाव दशा में चले गए, भजन खत्म होते ही ठाकुर ने नरेंद्र का हाथ पकड़ कर उन्हें बाहर बरामदे में ले गए और बोले तुमने आने में इतने दिन क्यूं लगा दिए ? इतने दिन तक तुम मुझसे अलग कैसे रह पाए नरेंद्र ? यह कहते हुए वह भावुक हो गए और उनकी आंखें भर अाई ।

उन्होंने आगे कहा कि मैं कब से तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं लोगों की निरर्थक बातें सुन-सुनकर मेरे कान पक गए हैं । अब तुम आ गए हो तो एक सच्चे खोजी से बात करने का आनंद आयेगा । तुम नर के रूप में नारायण हो और इस दुनिया का कल्याण करने के लिए मनुष्य का रूप लेकर अाए हो ।

दरअसल ठाकुर के पास जो भी लोग आया करते थे उनमें से अधिकतर सिर्फ इसी तरह की बातें करते थे कि मेरे घर में फलां परेशानी है, फलां दुख है । यदि काली माता का आशीर्वाद मिल जाए तो सब सुख मिल जाएं । आमतौर पर मंदिर के पुजारी के पास लोग ऐसी ही बातें लेकर आते हैं । ऐसे लोग बहुत ही कम थे जो सिर्फ ज्ञान में रुचि रखते हों । नरेंद्र ने कोई विशेष कार्य नहीं किया था उन्होंने तो ठाकुर के समक्ष सिर्फ वे ही भजन गाए जो उन्होंने ब्रह्म समाज में सीखे थे लेकिन वे भजन सुनकर रामकृष्ण परमहंस ने नरेंद्र के शुद्ध हृदय को पहचान लिया था ।

ठाकुर की बातें सुनकर नरेंद्र हैरान थे वे मन ही मन बड़बड़ाने लगे कि मैं यहां किसके दर्शन करने चला आया । मैं तो विश्वनाथ दत्त का पुत्र हूं, साधारण-सा इंसान हूं और ठाकुर मुझसे ऐसे बातचीत कर रहे हैं जैसे मैं अभी-2 आकाश से उतरा कोई देव हूं । नरेंद्र जब इन विचारों में खोए हुए थे तब अचानक से रामकृष्ण ने आकर उनका हाथ पकड़ा । ठाकुर के हाथ में मक्खन, मिश्री तथा मिठाई थी, वे स्वयं अपने हाथ से नरेंद्र को मिठाई खिलाने की चेष्टा करने लगे और कहने लगे ले खा ।

नरेंद्र ने उनका हाथ थामते हुए यह कहा ! आप यह मिठाई मुझे दे दीजिए, मैं अपने मित्रों के साथ बांटकर खाऊंगा । ठाकुर ने हाथ बढ़ाते हुए कहा वे लोग भी खाएंगे पहले तू खा ले । इस तरह वे नरेंद्र को मिठाई खिलाते रहे और उनके आग्रह से असहाय होकर नरेंद्र मिठाई खाते रहे । इसके बाद वह नरेंद्र को अपने साथ भीतर ले गए और उसकी प्रशंसा करते हुए सभी से बोले देखो नरेंद्र अपने ज्ञान के प्रकाश से किस प्रकार दीप्तिमान है । सारे लोग चकित होकर नरेंद्र की तरफ देखने लगे ।

एक तरफ तो ठाकुर नरेंद्र की प्रशंसा कर रहे थे लेकिन दूसरी तरफ नरेंद्र के तर्कशील मन में कुछ और ही चल रहा था । दरअसल नरेंद्र को तो लगा था कि ठाकुर कोई खास संदेश देंगे, कोई उपदेश देंगे । मगर उन्होंने तो नरेंद्र से जो बातें करी वे नरेंद्र को निरर्थक ही लगीं । नरेंद्र उन्हें देखते रहे कि अभी-2 तो वे कितनी अतार्किक बातें कर रहे थे और अब अंदर जाकर अलग-2 लोगों से मिल रहे हैं जैसे ऐसी कोई बात हुई ही ना हो । वो ठाकुर के इस व्यवहार को देखकर दुविधा में पड़ गए और सोचने लगे यह वाकई एक संत हैं या फिर कोई पागल हैं ।

जब नरेंद्र वहां से लौटने लगे तो ठाकुर ने उन्हें इसी शर्त पर जाने दिया कि वह जल्द ही वापिस लौटेंगे । नरेंद्र वहां पर बिना किसी से कुछ कहे यह सोचकर लौटे कि उनकी मुलाकात एक पागल से हुई है । इसके बाद कई दिनों तक नरेंद्र इसी बारे में सोचते रहे । उनका दिमाग ठाकुर की अजीब बातों और व्यवहार का विश्लेषण करते-2 थक गया । फिर उन्होंने सब कुछ भूलने की कोशिश करते हुए सोच लिया कि अब वे उनके पास वापिस नहीं जाएंगे लेकिन यह संभव ना हो सका ।

नरेंद्र ब्रह्म समाज से जुड़े रहे और साथ ही बार -2 दक्षिणेश्वर भी जाते रहे । धीरे-2 ठाकुर के बच्चों के जैसे भोले-भाले व्यक्तित्व, मीठी वाणी और प्रेम के प्रति निष्कपट, नरेंद्र का आकर्षण बढ़ता गया । गुरू और शिष्य में ऐसा ही आकर्षण होता है जब दो चीजें पूर्ण रूप से विपरीत होती हैं तब सबसे बड़ा आकर्षण पैदा होता है । विज्ञान की भाषा में भी देख लिया जाए तो नेगेटिव और पॉजिटिव दोनों विपरीत है लेकिन आकर्षण सबसे बड़ा है । जब सबसे बड़ी मांग करने वाला कोई हो और दुनिया का सबसे बड़ा दानी आ जाए तब उनके बीच कैसा रिश्ता होगा, कैसा आकर्षण होगा । हालांकि हर विपरीत रिश्तों में ऐसा नहीं होता, गुरू-शिष्य के रिश्ते में सत्य देने वाला और सत्य मांगने वाला दोनों ही तरफ समान आकर्षण तैयार होता है इसलिए इस रिश्ते को सबसे महत्वपूर्ण रिश्ता, तेज़ रिश्ता कहा गया है । ऐसा रिश्ता जो हर रिश्ते के परे है, इस रिश्ते को समझने के लिए काफी समय लगता है । जब समय के साथ गुरू-शिष्य का रिश्ता समझ में आता है तब इंसान सभी दुखों व माया से बाहर आ जाता है ।

नरेंद्र पर सत्य जानने की जिद्द सवार थी, जब उन्हें सबसे बड़े दानी और ज्ञानी सदगुरु परमहंस मिले तब उनके जीवन में सत्य प्रकट होना शुरू हुआ । ठाकुर को नरेंद्र में हमेशा नारायण ही दिखाई देते थे इसलिए वे उनसे बेहद प्रेम करते थे उन्होंने उस समय जिस परम आंनद का अनुभव किया था, वही वे अपने शिष्य को करवाना चाहते थे । दरअसल वे नरेंद्र की दो नावों की सवारी को तोड़ना चाहते थे । कोई टिप्पणी सदगुरु अपने भक्त को किसी नेता की भांति वोट पाने के लिए खुश नहीं करते और ना ही गुरू को भक्त से किसी लाभ की उम्मीद होती है,क्यूंकि गुरू लाभ-हानि से उपर उठ चुके होते हैं ।

शुरुआत में गुरू अथवा गुरू से मिले ज्ञान के प्रति शिष्य के मन में संदेह होना स्वभाविक है । सत्य को शब्दों में बताना कठिन होता है फिर भी गुरू हमारे लिए यह सत्य बहुत आसान शब्दों में बताते हैं । इसके लिए गुरू को कभी-2 अतार्किक बातें या अतार्किक व्यवहार करना पड़ता है । इससे शिष्य भ्रांति में पड़ जाता है क्यूंकि गुरू का व्यवहार और बातें समझ में नहीं आती । गुरू बैठे हैं बुद्धि के बाहर और शिष्य होता है बुद्धि की माया में, लेकिन यह विश्वास रखें कि गुरू के इस व्यवहार के पीछे कोई ना कोई कारण अवश्य होता है । समय आने पर गुरू शिष्य के सामने हर रहस्य खोल देते हैं । आपको गुरू द्वार हंसते-2 कहे गए या लापरवाही से कहे गए शब्दों को भी महत्व देना चाहिए । क्यूंकि गुरू बिना कारण कोई बात नहीं कहते फिर चाहे वह लापरवाही से ही क्यूं ना कही गई हो वरना शिष्य उलझन में पड़कर अपनी ही हानि कर बैठता है ।

अपने मन की सुनने और गुरू की ना सुनने की गलती कभी ना करें । गुरुवाणी आकाशवाणी होती है, गुरुवाक्य महावाक्य होते हैं । सच्चा शिष्य गुरू की सीख का मूल्य और महत्व समझता है । वह जानता है कि गुरू के शब्द केवल शब्द नहीं होते, इसलिए वह गुरू के शब्दों को ब्रह्मवाणी की तरह सुनता है । वह यह जानता है कि गुरू जो कहते हैं, उस पर ध्यान और मनन करना महत्वपूर्ण है । इसी मनन के जरिए सत्य का सफर शुरू होता है, गुरू अक्सर यह जांचते हैं कि उन पर शिष्य का पूरा विश्वास है या नहीं । शिष्य की पूरी पहचान होने के बाद ही गुरू उस परम सत्य या अंतिम सत्य का ज्ञान कराते हैं और माया से मुक्ति दिलाते हैं । गुरू ही शिष्य को जाग्रत अवस्था तक ले जाते हैं । जब शिष्य को गुरू की कार्यपद्धति समझ में आ जाती है तो उसके सारे संदेह मिट जाते हैं और उसे इस बात का अहसास हो जाता है कि सच्चा गुरू तत्व क्या है । हम वास्तव में जो हैं गुरू हमें वही समझकर बातें करते हैं । वे केवल हमें खुश करने के लिए नहीं बोलते, वे तो हमें प्रेम और प्रज्ञा के माध्यम से जाग्रत करते हैं, गुरू अपने शिष्य को हैड से हार्ट यानि बुद्धि से हृदय तक ले आते हैं । पहले शिष्य हर बात बुद्धि से सोचता है लेकिन गुरू से मिलते रहने के बाद वह यानि तेज़ स्थान पर रहना सीख जाता है । जब उसे प्राप्त हो जाती है तो फिर उसका हर निर्णय हृदय से ही होता है । ठाकुर के संपर्क में आने के बाद नरेंद्र को भी बुद्धि से तेज़ स्थान तक की यात्रा करने का मौका मिला ।

गुरू ने लेटे-लेटे ही की कुछ ऐसी लीला कि शिष्य की निष्ठा अटल हो गई ।


गुरू के प्रति भक्ति-भाव होना अध्यात्मिक निर्माण कार्य की नींव है । भावना का उफान या उत्तेजना गुरू भक्ति नहीं कहलाता । शरीर प्रेम यानि गुरू प्रेम का इन्कार, शिष्य अगर अपने शरीर की देखभाल करता है तो वह गुरू की सेवा नहीं कर पाता ।

साधक के दुष्ट स्वभाव के नाश का एकमात्र उपाय गुरू सेवा है । गुरू की कृपा, गुरूभक्तियोग का आखिरी लक्ष्य है । दशरथ के पिताश्री, स्वयं दशरथ और ब्रह्म राम भी गुरू के द्वार पर गए । सदगुरु दाता तो वैसे भी करुणा करके भर ही देते हैं लेकिन कुछ हमारी ओर से भी कदम उठे, यह आवश्यक है ।

*हमको है यह आरज़ू कि वो नकाब उठाए खुद, लेकिन उनको है इन्तजार कि तकाजा करे कोई* परमात्मा, सदगुरु भगवान अपने आप खुद को लुटा देते हैं लेकिन वह भी कभी-2 चाहते हैं कि तकाजा करे कोई जिसे शास्त्रों ने कहा अथाह तो ब्रह्म जिज्ञासा ।

गुरू के घर में जाना, गुरू के द्वार जाना या सामीप्य पाना इसका मतलब है कि गुरू के घट को टटोलना । गुरू की जागी हुई चेतना का, आत्मा का, चेतना का परिचय पाना । पहुंचे हुए फकीर की आंखों को देखना, लोग यदि पहुंचे हुए फकीर की आंख पहचान लें तो आप कुछ सुनाइए, सत्संग कीजिए यह बोलना ही बंद कर दें ।

*वो पलके झुकाएं, वो पलकें उठाएं, जो जाने सो समझे यही गुफ्तगू है ।* गुरू गृह में जाने का मतलब उनकी जगी हुई चेतना की पहचान के लिए चैतसिक सम्बन्ध जोड़ना, उनके घट में क्या है, क्या लिए बैठे हैं यह जागृत महापुरुष ।क्या मिलेगा उस दर से जो जाने, जो समझे कि यही गुफ्तगू है बात इतनी ही है ।

गुरू के द्वार जाने से, गुरू का सामीप्य पाने से नौ निधि की प्राप्ति होती है । पहली निधि, विषाद से मुक्ति – भगवान करे किसी को विषाद ना हो, परमात्मा किसी को ग्लानि ना दे,

सर्वे भवन्तु सुखि ना: सर्वे संतु निरामया: । हम सब इसी सनातन धर्म की उद्घोषणा करते रहते हैं और यही तो सनातनता है यही शाश्वत है लेकिन जगत में तो सब होता ही रहता है कभी ग्लानि, कभी खुशी, कभी विषाद, कभी प्रसाद यानि प्रसन्नता हम इन द्वन्दों से सटे हुए जी रहे हैं,परन्तु जब कभी मन में विषाद हो तो गुरू गृह जाइए । वहां से कोई प्रसाद लिए बिना नहीं लौटता है, उसका विषाद प्रसाद में कन्वर्ट ना हुआ हो यह असम्भव है । घटना घटती है इसमें कोई अंधश्रद्धा का प्रश्न नहीं है क्यूंकि यह अध्यात्मिक विज्ञान है दुनिया में कहीं भी जाने से विषाद कम नहीं हो पा रहा है ।

इधर-उधर सिर रखने से और हां-हां करने से नहीं लगता कि कहीं विश्राम मिलता है । मिलता है तो विशाल विनय से गुरू द्वार में जाने से मिलता है । उनके सामीप्य से मिलता है तो एक तो हमें गुरू के द्वार पर विषाद से मुक्ति मिलती है हम प्रसाद से भर जाते हैं । जाते हैं तब कुछ और होते हैं, लौटते हैं तो कुछ और हो जाते हैं ।

तो गुरू में ही आपकी निष्ठा हो, गुरू में ही आपकी श्रद्धा हो, बाकी तो संसार विषाद में वृद्धि ही करता है कम तो कहीं नहीं हो पा रहा । विचारों का एक तुमुल युद्ध दिमाग को कसके रखता है इसको आज का साइंस टेंशन कहता है तो विषाद से मुक्त होने के लिए गुरू गृह जाइए ।

दूसरी निधि है विद्या – गुरू के घर में व्यवस्था है विद्या प्रदान करने की । अब विद्या की तो बहुत बड़ी व्याख्या है, कई प्रकार की विद्याएं हैं गोस्वामी जी कहते हैं कि गुरू गृह जाने से समस्त विद्याएं प्राप्त हो जाती हैं यानि साधक की हर क्षेत्र में गति होने लगती है ।

गुरू गृह गए पढ़न रघुराई अल्प काल विद्या सब अाई*

समस्त प्रकार की विद्या गुरू के सामीप्य से गुरू द्वार से साधक को सहज ही प्राप्त हो जाती है । ऐसी विद्या की प्राप्ति होती है जिससे माया का समस्त प्रपंच हमारे लिए सुखद हो जाता है ।

तीसरी निधि – विवेक गुरू के गृह में विवेक की वृद्धि होती है जो गया है उसका विवेक बढ़ता है । विवेक का पंख लगता है और साधक ऊंची उड़ान भरने लगता है ।

चौथी निधि है – विकास, गुरू गृह जाने से हम सांसारिक लोगों के कुछ मनोरथ होते हैं कि हमारा विकास हो और हो और हो ।

विकास की वृद्धि होती है चाहे वह धर्म विकास हो चाहे अर्थ विकास हो, चाहे काम विकास, चाहे मोक्ष विकास

बरनऊ रघुबर विमल जसु जो दायकु फल चारु गुरू चरन सरोज रज*

तो गुरू के सामीप्य से विकास होता है धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में, परंतु यही आखिरी साधन नहीं हैं ।

हमारा दाम कौड़ी का भी नहीं होता और लाखों में मूल्यन होने लगता है, यह गुरू द्वार की महिमा है ।

पांचवी निधि गुरू द्वार से प्राप्त होती है – विश्राम, गुरू के घर से एक दान मिलता है वह है विश्राम का, विकास के बाद विश्राम ना मिले तो विकास किस काम का ।

पैसा बहुत मिल जाए और आप विश्राम ना कर सकें तो क्या, पैसे सबको मिलने चाहिए पर विश्राम परम आवश्यकता है ।

गोस्वामी जी कहते हैं

*जाकि कृपा लवलेश ते, मति मंद तुलसीदास हों पायो परम विश्राम*

गुरू के द्वार पर परम विश्राम की प्राप्ति होती है ।

छठवीं निधि प्राप्त होती है – वैराग्य, गुरुद्वार पर गुरू के सामीप्य से सहज ही साधक में सांसारिक माया से वैराग्य उत्पन्न होने लगता है । बाहर से सब कुछ होगा लेकिन अंदर से असंगता दीन दुगुनी, रात चौगुनी बढ़ती जाएगी । यह गुरू द्वार की महिमा है, गुरू सामीप्य की महिमा है ।

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सातवीं निधि – गुरू द्वार से जिज्ञासा की प्राप्ति होती है, बार-2 गुरू के दर्शन, उनसे मानसिक सम्बन्ध यह साधक के अंतः कर्ण में जिज्ञासा उत्पन्न करती है । जो नहीं देखा, जो नहीं सुना, उस परमात्म तत्व के प्रति जिज्ञासा अथवा तो ब्रह्म जिज्ञासा ।

आठवीं निधि – गुरू द्वार से प्राप्त होती है विचार शून्यता की, हमारे विचार शून्य होने लगते हैं ऐसे महापुरुषों के पास जाने से हमको अनुभव होता होगा कि हमारे विचार शून्य हो जाते हैं लाख सोच के गए हों, कुछ भी नहीं बोल पाते ।

तो गुरू के समक्ष उनके सामीप्य से, दर्शन से साधक सहज ही विचार शून्य हो जाता है और विचार की शून्यता सबसे बड़ी उपलब्धि है । जितनी देर भी उम्र बढ़े विचार शून्यता की जिसको हमारी योग धारणा में पतंजलि की पूरी प्रक्रिया में आगे-2 जाते निर्विकल्प समाधि माना जाता है ।

निर्विकल्प समाधि की अवस्था के लिए गुरू के साधकों को अलग से प्रयत्न नहीं करना पड़ता । गुरू दर्शन और गुरू सामीप्य ही साधक को निर्विकल्पता की ओर ले जाती है ।

नौवीं निधि – गुरू द्वार से प्राप्त होती है विश्वास की, गुरू के घर जाने से विश्वास दृढ़ होता है ।

विश्वास बढ़ाने की कोई भी व्यवस्था विश्व में नहीं है सिवाय गुरू द्वार के, किसी अस्पताल में जाने से या दवाइयां खाने से विश्वास नहीं बढ़ता, भरोसा नहीं बढ़ता । भरोसा बढ़ता है किसी जागृत महापुरुष के चरणों द्वारा, इसलिए सूरदास जी कहते हैं –

*भरोसो दृढ़ इन चरनन ही केरो*

दुनिया में कहीं भी जाओ धोखा ही धोखा मिल रहा है, फरेब मिल रहा है । बहकाने वाले सब उसके यार बन गए और समझाने वाले मुफ्त में गुनहगार बन गए । ऐसे जगत में रहना पड़ता है । गुरू के द्वारा हमारा भरोसा दृढ़ होता है, हमारा मन ऐसा है कि उसमें अनेकों प्रकार की अच्छी-बुरी तरंगें आती रहती हैं ।

अमीर खुसरो अपने गुरू निजामुद्दीन औलिया के इतना निकट था कि गुरू ने उसे छूट दे रखी थी कि वह गुरू के कमरे में रहता, वहीं सोता । क्या भाग्य रहा होगा, एक थाली में भोजन करते, मुर्शीद और शागिर्द दोनों । गुरू की कफनी खुसरो पहनता, निजामुद्दीन औलिया ने कहा भी था,

कि अमीर खुसरो की जब यात्रा पूरी हो तो उसकी कब्र बिल्कुल मेरे निकट बनवाना, दूर मत ले जाना । गुरू का इतना प्यार पाया था अमीर खुसरो ने, एक दिन रात्रि के समय वह पैर दबा रहा था एक तो एकांत है फिर पहुंचे हुए फकीर का एकांत, बात ही कुछ और हो जाती है ।

अंधेरे में भी रोशनी होती है, अमीर पैर दबाता रहा, पांच मिनट के लिए तरंगें बदली मन की, वह पैर दबाते हुए सोचने लगा कि क्या यह सच में पहुंचे हुए पीर हैं ? क्या यह जाग्रत व्यक्ति हैं, या मैंने अंधश्रद्धा से पैर पकड़ लिए हैं ? क्या सचमुच यह पहुंचे हुए हैं ? हमारे जैसे ही खाते-पीते हैं, मजाक करते हैं, टहलते हैं, कहते हैं नींद आ रही है सो जाना है ।

सब संसारियों के ही तो लक्षण हैं, अमीर खुसरो के मन में ऐसे भाव उठने लगे । बार-2 मन में यह ग़लत तरंगें टकराने लगी कि यह सचमुच सच्चे पीर हैं हम सभी जानते हैं कि जब हम बहुत दौड़ रहें हों तो धीरे-2 चलने से विश्रांति मिलती है । धीरे-2 चलने के बाद फिर खड़े रह जाएं तो विश्रांति और बढ़ जाती है ।

खड़े रहने से बैठ जाएं तो अधिक विश्रांति, बैठने से थोड़ा अपने को लेटा दें तो और विश्रांति । बिल्कुल सो जाएं तो और विश्रांति और सोने में भी करवट बदलें तो और विश्रांति । अमीर के मन में यह सब गलत तरंगें चल रही थी उसी समय निजामुद्दीन औलिया ने करवट बदली ।

गुरू की कृपालुता देखिए, वे एक ही शब्द बोलकर करवट बदल लेते हैं कि अमीर बेटे करवट बदल ले ।

बस बात खत्म हो गई गुरू का यही मंत्र था मानों संकेत था जैसे मैंने करवट बदली और मैं विश्राम महसूस कर रहा हूं बेटे तेरे मन में क्या चल रहा है,जरा तू भी करवट बदल ले फिर तो भरोसा दृढ़ हुआ अमीर का *छाप तिलक सब छीनी तोसे नैना लगाकर* फिर क्रांति घटी तो गुरू के बिना विश्वास का दृढ़ीकरण और कौन करेगा । गुरू के द्वार से , गुरू के सामीप्य से यह नौ निधियां जीवन में सहज ही प्राप्त हो जाती हैं ।

अगर आप शिष्य हैं तो यह कथा आपके लिए है ।


प्रत्येक विद्यार्थी के अंदर गुरू के प्रति अपनी विचित्र ही धारणा होती है । जब कोई किसी संत के पास जाता है तब वह उसके वास्तविक स्वरूप को देखने को तैयार नहीं होता । जब संत से आपकी आशाएं पूरी नहीं हो पाती तो आप निर्णय लेते हैं कि यह अच्छे संत नहीं हैं ।

संत के पास पहुंचने का यह अच्छा उपाय नहीं है, संत के पास दृढ़ संकल्प एवम् कुछ सीखने की प्रवृति, प्रबल इच्छा के साथ जाइये । तब वहां कोई भी समस्या नहीं होगी, आप सच्चे गुरु को कैसे प्राप्त कर सकते हैं । शास्त्रों में कहावत है कि जब शिष्य तैयार होता है तो गुरू स्वयं प्रकट हो जाते हैं ।

यदि आप स्वयं तैयार नहीं हैं, परिपक्वता को नहीं प्राप्त हैं तो गुरू आपके पास खड़े भी रहेंगे तो भी आप उन्हें पहचान नहीं पाएंगे । यदि आपको हीरे का ज्ञान ना हो और हीरा वहां प्रस्तुत हो तो आप उसे शीशे का टुकड़ा समझ कर उसकी अवहेलना करते हुए वहां से चले जायेंगे ।

साधना की प्रथम अवस्था में साधक या तो सहज भाव की उपेक्षा करता हुआ अति बौद्धिक बन जाता है या तर्क एवम् बुद्धि की उपेक्षा करता हुआ अत्याधिक भावुक बन जाता है । अति भावुकता या बुद्धि-बाधिता दोनों ही साधक के लिए उपयोगी नहीं क्यूंकि दोनों से ही अहंकार का विकास होता है ।

जो लोग अनुशासन में विश्वास ना करते हों उन्हें ज्ञान या मोक्ष की आशा नहीं करनी चाहिए । केवल कहने मात्र से कोई भी गुरू ज्ञान नहीं देते, वह शिष्य में कुछ लक्षणों को देखने का प्रयास करते हैं । वह जानना चाहते हैं कि कौन कितना तैयार है, कोई शिष्य गुरू की आंख में धूल नहीं झोंक सकता ।

गुरू बड़ी ही सरलता से यह देख लेते हैं कौन सा शिष्य कितना योग्य एवम् प्रौढ़ है । जब गुरू देखते हैं कि शिष्य अब पर्याप्त प्रौढ़ हो गया है तो वे उसे उच्च शिक्षाओं के लिए क्रमशः तैयार करना शुरू कर देते हैं ।

जब बत्ती और तेल दोनों तैयार हो जाते हैं तब गुरू इस दीप को जला देते हैं यही गुरू का काम है और दिव्य प्रकाश ही, आत्म प्रकाश ही इन सभी प्रयासों का परिणाम है । गुरू के पास शिक्षा देने की अनोखी विधियां होती हैं और कभी कभी बहुत रहस्यमय भी होती हैं ।

वे अपनी वाणी तथा कर्म से शिक्षा देते हैं किन्तु कुछ विशिष्ट प्रसंगों में बिना मौखिक वार्तालाप के भी बहुत सी शिक्षाएं दे सकते हैं क्यूंकि अनेकों महत्वपूर्ण शिक्षाएं जिनका मूल बुद्धि से परे प्रतिभा एवम् प्रज्ञा के साम्राज्य में है उन्हें वाणी से व्यक्त नहीं किया जा सकता ।

एक बार किसी साधक ने अपने गुरू से कहा कि वे उनको अच्छा नहीं पढ़ा रहे । गुरू ने कहा यहां आओ कुछ देर के लिए मैं तुम्हारा शिष्य बन जाता हूं और तुम मेरे गुरू बन जाओ और वैसा ही व्यवहार करो जैसा मैं तुम्हारे साथ करता हूं ।

शिष्य ने कहा किन्तु मुझे यही ज्ञात नहीं है कि क्या करूं । गुरू ने कहा कि चिंता मत करो तुम सब जान जाओगे, इसके बाद गुरू अपनी आंखें बंद किए हुए हाथ में छिद्रयुक्त जल पात्र लेकर आए और बोले गुरुजी मुझे कुछ दीजिए ।

शिष्य ने कहा मैं कैसे कुछ दे सकता हूं, आपके पात्र में एक बड़ा सा छिद्र है । तब गुरू ने कहा अपना नेत्र खोलकर कि तुम्हारे अंतः कर्ण में भी तो छिद्र है और मुझसे कुछ प्राप्त करना चाहते हो । जब स्वयं में छिद्र होता है तब अन्य में हम दोष दर्शन करते हैं ।

स्वयं का पात्र दुरुस्त करो, गुरू से कुछ अपेक्षा रखने की आवश्यकता नहीं, गुरू स्वयं तुम्हें देने के लिए ही बैठे हैं । तुम अपेक्षा ना भी रखो तो भी वे तुम्हारी झोली भरने के लिए ही बैठे हैं । स्वामी शिवानंद जी कहते हैं कि संसार सागर से उस पार जाने के लिए सचमुच गुरू ही एकमात्र आधार हैं ।

सत्य के कंटकमय मार्ग में आपको गुरू के सिवा और कोई उचित मार्ग दर्शन नहीं दे सकता । गुरुकृपा के परिणाम अदभुत होते हैं, ये दैनिक जीवन के संग्राम में गुरू आपको मार्गदर्शन देंगे और आपका रक्षण करेंगे ।

गुरू ही ज्ञान के पथ प्रदर्शक हैं, गुरू, ब्रह्म, ईश्वर, आचार्य, उपदेशक, दैवीय गुरू आदि सब समानार्थी शब्द हैं इसलिए ईश्वर को प्रणाम करने से पहले अपने गुरू को प्रणाम करो क्यूंकि वे आपको ईश्वर के पास ले जाते हैं ।