एक बार महमूदपुर गाँव (हरियाणा) में एक मंडली का कथा-कीर्तन हो रहा था । स्वामी नितानंद के कानों में भी भक्तिरस से सिक्त वह मधुर ध्वनि पड़ी तो वे भी वहाँ पहुँच गये । मंडली के प्रधान ने उन्हें सितार लेकर कुछ गाने को कहा । प्रतिदिन नितानंद जी के अलबेले व्यवहार को देखने वाले गाँव वालों ने कहाः “इन्हें सितार मत दीजिये, कहीं तोड़ न दें ।” नितानंद ने सितार हाथ में लिया और संगीत के साथ आध्यात्मिक मस्ती में यह भजन उनके होठों से निर्झर की तरह बहने लगाः
सोई जन मस्ताना-मस्ताना, जिन पाया पद निरवाना ।….
अंतर की गहराई से निकले उनके बोल आत्मचैतन्य की मिठास बिखेर रहे थे । भजन पूरा कर उन्होंने सितार दिया और चल दिये ।
मंडली के मुख्य महंत बहुत प्रभावित हुए । दूसरे दिन वे नितानंद जी के पास गये और उस भजन का तात्पर्य पूछकर लिखने लगे । उन्होंने नितानंद से ईश्वर अनुभूति का मार्ग पूछा । संत कुछ कहते उससे पहले महंत की दृष्टि उस ओर आ रहे ग्वालों पर पड़ी । महंत जी तुरंत उठकर चलने लगे । स्वामी नितानंद जोर से हँसते हुए कहने लगेः “अरे पकड़ो-पकड़ो ! चोर जा रहा है ।”
लोगों ने कहाः “स्वामी जी ! ये तो महंत जी हैं, आप यह कैसी अजीब बात कह रहे हैं ?”
इन अलमस्त साधुपुरुष ने मुस्कराते हुए कहाः “महंत जी के मन में यह भाव आया कि ‘मैं एक महंत होकर एक अप्रतिष्ठित संत से निर्देश ले रहा हूँ ।’ और वे अपने इस अहंभाव को छुपाकर चोरों की भाँति यहाँ से चलते बने इसलिए मैंने ऐसा कहा ।”
लोगों ने महंत जी को शपथ दिलाकर उनके मन के भावों को सच-सच प्रकट करने की प्रार्थना की । महंत जी ने कहाः “नितानंद जी ने बिल्कुल सत्य बात कही है । भाइयो ! आज मुझे अनुभव हुआ कि पद-प्रतिष्ठा, धन, सत्ता – किसी भी प्रकार का अहंकार इतना धोखेबाज है कि अंतर्यामी परमात्मा ऐसे संतों के रूप में धरती पर आ के हमें अपनी ओर आकर्षित करके बुला भी लेता है लेकिन यह अहंकार हमें वहाँ से भी रीता ही रखकर भगा के ले जाता है ।”
नितानंद जी बोलेः “महंत ! मैं यही अहंकार परमात्मा में लीन करने की बात तुम्हें बताने वाला था किंतु तुच्छ अहं इसके पहले ही तुम्हें यहाँ से ले जा रहा था । परमात्मा में अपने व्यक्तित्व को, अहं को खो दिया तो मुझे निर्वाण पद का सुदृढ़ निश्चय अर्थात् ब्रह्म का ज्ञान हुआ । तुम भी ऐसा अभ्यास करो ।”
संत का अंतर्यामित्व एवं ऊँची अनुभूति देखकर वहाँ उपस्थित सभी लोग नतमस्तक हुए । उन्हें सीख भी मिली की परम सत्य को पाये हुए ऐसे संतों को अपनी मति से तौला नहीं जा सकता । अतः उनके बारे में कुछ मान्यता बनाने के बजाय उनके ज्ञान का लाभ उठाकर अपना जीवन धन्य करना चाहिए ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2020, पृष्ठ संख्या 7 अंक 326
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