अर्जुनदेव जी का वह अनोखा शिष्य (भाग-1)

अर्जुनदेव जी का वह अनोखा शिष्य (भाग-1)


जो कोई मनुष्य दुखों से पार होकर सुख एवम् आंनद प्राप्त करना चाहता हो उसे सच्चे अंतः कर्ण से गुरुभक्ति योग का अभ्यास करना चाहिए । आपके लिए केवल इतना ही आवश्यक है कि गुरुभक्तियोग के मार्ग में अंतः कर्ण पूर्वक प्रमाणिक प्रयत्न करना है । मोटी बुद्धि का विद्यार्थी गुरुभक्तियोग के अभ्यास में किसी भी प्रकार की ठोस प्रगति नहीं कर सकता । पंचम बादशाह श्री गुरु अर्जुनदेव महाराज जी के समय की बात है, स्वर्ण मंदिर के अमृत सरोवर का कार्य प्रगति पर था । संगत के लश्करों के लश्कर सेवा का खजाना लूटने में मस्त थे । हर कोई अपनी हैसियत से बढ़ कर तन-धन और मन से योगदान दे रहा था । संगत पूरा-2 दिन सेवा करती और शाम को दरबार में बैठ कर कीर्तन का आंनद उठाती, यही नित्य का क्रम था । एक दिन ऐसे ही शाम को गुरु दरबार सजा हुआ था । कीर्तन की झूम-झनन में सब मस्त थे, दिन भर जो मजदूरी करके जो हाथ छलनी हो चुके थे वे ही अब ढोलक के ताल पर, भगवान के नाम पर तालियां बजा रहे थे परन्तु कहीं कोई दर्द का अहसास ना था, ना कोई थकान थी लेकिन जैसे किसी विवाह समारोह में भले ही शहनाइयों की संगत लहरियां बजा रही होती हैं । सभी एक दूसरे से मिलकर प्रसन्न हो रहे होते हैं परन्तु फिर भी सभी की नज़रें बार-2 मुख्य द्वार पर किसी को ढूंढ़ती हैं किसे ? दूल्हे राजा को ! उसी तरह हालांकि कीर्तन में अमृत रस झर रहा था, भगवान की धुन में सब मस्त हो रहे थे परन्तु फिर भी संगत की नज़रें गुरु महाराज जी के दर्शन के लिए बेचैन थी । तभी गुरु महाराज जी का सभा में आगमन हुआ । सभी अपने-2 स्थानों पर हाथ जोड़कर खड़े हो गए । सबके चेहरों पर खुशी का आलम छा गया । जयकारों की ध्वनि से पूरा दरबार ध्वनित हो उठा । गुरु महाराज जी का नूरानी मुखड़ा, सुंदर पोशाक और तेजस्वी नयन बस रूप देखते ही बनता था । सभी शिष्य गदगद हो उठे, गुरु महाराज जी ने दोनों हाथ उठाकर के आशीर्वाद दिया और आसन पर विराजमान हो गए । अब कुछ सज्जन खड़े हुए और अपनी-2 भेंट गुरुदेव के चरणों में अर्पित करने लगे लेकिन उन सबमें एक नव-आगंतुक और अज्ञानी भी था । उसके रेशमी वस्त्र बता रहे थे कि वह अवश्य ही कोई बड़ा सेठ है । सिर पर कीमती टोपी, गले से सच्चे मोतियों की माला और दोनों हाथों की अंगुलियों में चार-2 रत्न जड़ित अंगूठियां । उसके हाथ में एक चांदी का थाल था, उस थाल का चमकीले कपड़े से ढका होना, अवश्य उसमें कुछ खास होने का संकेत दे रहा था । सेठ जैसे ही गुरु महाराज जी के समीप पहुंचा, उन्होंने नज़रें उठाकर उसकी तरफ देखा, फिर मुस्कुरा कर पूछे कहां से आए हैं आप ? सेठ को जैसी उम्मीद थी वैसा ही हुआ । सोचा महाराज जी भी मेरी चौधराहट से प्रभावित हैं । क्यूंकि पंक्ति में उससे पहले आये किसी व्यक्ति से महाराज जी ने नहीं पूछा था कि आप कहां से आए हैं । सेठ खुद को मिले इस विशेष सम्मान से अभिभूत हो उठा, झट सिर झुकाया और स्वपुराण वाचने लगा । महाराज शायद आपने पहचाना नहीं मैं लाहौर का सबसे बड़ा पूंजीपति सेठ हूं । लाहौर में मेरा नाम चलता है, कोई भी पीर-फकीर मेरे दर से बिना खैरात पाए नहीं जाता । वहां कौन सी बड़ी महफ़िल है जिसमें मैं चांद ना बनूं । महाराज हर जुबान पर बस मेरी हस्ती के ही किस्से हैं । सेठ का सिर तो बेशक झुका था लेकिन भीतर अहंकार किसी सर्प के फन की भांति सीधा अकड़ा-2 था । सेठ चुप हुआ तो गुरु महाराज जी मुस्कुराते हुए बोले सेठ जी यह सब तो ठीक है, परन्तु आप बताइए हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं ? सेठ बोला महाराज यह क्या कह रहे हैं सेवा और आप नहीं-2, क्यूं मुझे पाप का भागीदार बना रहे हैं । दास सेवा कराने नहीं बल्कि करने आया है । जबसे मैंने सुना कि आपने अमृत-सरोवर का निर्माण आरम्भ किया है, मैं तो तभी से इंतजार कर रहा हूं कि कब आप इस दास को याद करेंगे लेकिन आपने तो हमारी ओर नज़रें ही नहीं की । गुरु महाराज जी सेठ की अहंकार पूर्ण भाषा को भली-भांति समझ रहे थे परन्तु फिर भी बड़े भोले बन कर बोले कि सेठ जी हम भी क्या करते । संगत की ही भेंटों से निर्माण इतना अच्छा चल रहा था कि हमने आपको कष्ट देने की जरूरत नहीं समझी । सेठ अब जरा स्वर ऊंचा करके बोला क्या ! निर्माण कार्य अच्छा चल रहा है । रब दी कसम अगर मैं होता तो अब तक तो सरोवर में मंदिर भी खड़ा हो गया होता । कहां अभी तक खुदाई भी पूरी नहीं हुई, आप ही बताइए क्या कभी चींटियां तैरकर सागर पार हुई हैं ? क्या कभी चिड़िया चील की तरह ऊंचे आसमान में उड़ सकी है ? नहीं ना फिर आप भला इन दीन-दुखियों से महल जैसा मंदिर कैसे खड़ा करवा लेंगे । इन बेचारों के पास तो स्वयं भी पूरी-सूरी झोंपडियां नहीं हैं । गुरु महाराज जी सेठ के यह शब्द सुनकर हंस दिए, मन ही मन क्या सोचने लगे कि अरे नादान तू क्या जाने कि गुरु का घर कभी सेठों के खनकते सिक्कों से नहीं बल्कि गरीबों की भाव भरी ठीकरियों से ही बनता है । सेठ फिर बोला महाराज लेकिन आप चिंता ना करें मैं हूं ना अब आप देखिए काम कितनी जल्दी पूरा होगा । जैसे एक चीचड़ भैंस के थनों से खून चूसने वाला छोटा सा जंतु, उसका नाम चीचड़ होता है । जैसे एक चीचड़ पूरा जीवन लगाकर भी भैंस का सारा खून नहीं चूस पाता और वहीं शेर यह काम एक झटके में कर दिखाता है, वैसे ही यह सारा कार्य बस मेरे एक झटके की मार है । आपकी सौगंध हुजूर अगर ऐसा ना हो तो कहना । गुरु महाराज जी ने फिर लीला की, चेहरे पर बनावटी हैरानी लाते हुए बोले अच्छा सेठजी लेकिन यह होगा कैसे । हाथों में लिए थाल की तरफ इशारा करते हुए सेठ बोला हुजूर पूरे 250 सिक्के हैं और वह भी चांदी के । और जी जहां पैसे हैं वहां क्या नहीं हो सकता । ईंट से गारा और गारे से ईंट जो मर्ज़ी बनवा लो । गुरुदेव फिर मुस्कुरा दिए, वे इस अनाड़ी सेठ को कैसे समझाते कि पगले क्या पैसे से श्रद्धा, प्रेम और समर्पण खरीदा जा सकता है ? कभी नहीं । चांदी का थाल गुरुदेव की ओर बढ़ाते हुए सेठ बोला हुजूर कृपया दास की इस छोटी-सी भेंट को दोनों हाथों से कुबूल करें । गुरु महाराज जी के थाल पकड़ते ही सेठ के अहम को तो और रंग चढ़ गया । मद के नशे में वह कुछ ऐसे वाक्य बोल पड़ा, जिन्हें सुनकर सारी संगत की देह में मानों कांच पिघल कर बह गया हो । उतावले होकर उसने कहा महाराज जरा थाली से कपड़ा तो हटवाईये । 250 सिक्के एक साथ तो यहां शायद किसी ने पहले देखा तक नहीं होगा क्यूंकि मुझे पता है जैसे अंधों के देश में चश्मा, बहरों के आंगन में वाद्ययंत्र और ठेठ दोपहरी में उल्लू नहीं मिला करते वैसे ही इतना दाम देने वाला यहां कौन हो सकता है । इतना कहकर सेठ खिसियानी सी हंसी हंसा और संगत की तरफ देखने लगा । गुरु महाराज जी अब गंभीर हो गए । अगर सेठ ने केवल उन्हें भला-बुरा कहा होता तो कोई बात नहीं थी लेकिन यहां तो सेठ ने उनके शिष्यों के स्वाभिमान को ललकारा था और गुरु के लिए तो उनके शिष्य उनकी मुकुट मणि होते हैं, किसी विवाहिता के श्रृंगार तुल्य होते हैं, चांद की चांदनी और सूर्य का प्रकाश होते हैं फिर भला उनकी तरफ उठी उंगली उन्हें कैसे बर्दाश्त हो सकती थी इसलिए गुरु महाराज जी ने निर्णय किया अब तो इसका अहंकार तोड़ना ही पड़ेगा । इसे बताना पड़ेगा कि सेठ तू स्वयं अदना-सा होकर मेरे महिमाशाली भक्तों से अपनी तुलना करने की गलती कर बैठा है । अब गुरुदेव वाणी में थोड़ा तीखापन चढ़ा कर बोले सेठ जी ! आप सत्य कह रहे हैं । मेरे दरबार में 250 चांदी के सिक्के देने वाले नहीं हैं मगर हां 500 सिक्के देने वाले जरूर हैं । यह सुनना था कि सेठ को मानो काठ मार गया । काफी देर मूक, चित्रलिखित-सा खड़ा रहा फिर सशंकित होकर बोला महाराज आप क्या कह रहे हैं ! पता है ना आपके मुख से मस्करी अच्छी नहीं लगती । 500 सिक्के इकट्ठे करने में तो पांच जन्म लगेंगे आपके शिष्यों को, शायद तब भी इकट्ठे ना हो पाएं और आपने यह दावा करने में पांच पल भी नहीं लगाए । अगर सच में ऐसा कोई धनाढ्य शिष्य है आपका तो क्या जरा मिलवाने का कष्ट करेंगे । महाराज जी सेठ की उत्कंठा बढ़ाते हुए तुरंत बोले हां-हां सेठ जी क्यूं नहीं आप चाहें तो उसके गांव जाकर उससे मिल सकते हैं । चाहें तो उससे 500 चांदी के सिक्के भी ले आएं आते-2, बस आप इतना कह देना कि मैंने मांगा है तत्काल इसके लिए आपको किसी शिनाख्त की भी जरूरत नहीं । बस हमारा नाम लेना ही काफी है। सेठ तो आवाक खड़ा रह गया, सोचता हुआ बोला क्या कोई बड़ा सेठ है गुरुवर रहस्यमय और गर्व भरी मुस्कान के साथ बोले हां वह भी बहुत बड़ा सेठ है । फर्क बस इतना है कि आप लाहौर के सेठ हैं और वह गुरु का सेठ है । सेठ के मन में बार-2 किंतु-परंतु उठ रहा था । गुरु महाराज जी की बातों पर विश्वास उसे हो ही नहीं रहा था और झुठलाने की पूरे दरबार में उसकी ताकत नहीं थी । अंततः उसने यही फैंसला किया, मैं खुद जा कर उस सेठ से मिलूंगा । अपने आप दूध-का-दूध और पानी-का-पानी हो जाएगा । सेठ उस शिष्य का पता लेकर तुरंत अपनी शाही बग्गी पर तैयार होकर चल पड़ा । रास्ते में सेठ सोचने लगा यदि गुरु महाराज जी झूठ नहीं बोल रहे तो यह शिष्य अवश्य ही कोई बहुत बड़ा सेठ होगा । परंतु इसका नाम तो मैंने सुना नहीं, पता नहीं कितनी बड़ी हवेली होगी उसकी, नौकर-चाकर, जमीन-जायदाद का तो कोई हिसाब ही नहीं होगा । पूरे इलाके में उसकी चौधराहट होगी । उसी के इशारे पर वहां दिन और रात होते होंगे, अभी सेठ इन्हीं ख्यालों में खोया हुआ था कि उसकी शाही बग्गी उस शिष्य के गांव पहुंच गई । सूर्य पश्चिम में डूबने की कगार पर था, बग्गी का सारथी इधर-उधर देखता हुआ बोला जनाब गांव तो आ गया । अब किसके यहां जाना है, सेठ ने लंबी सी करते हुए गांव को निहारा । मुख्य मार्ग टूटा सा, ऊबड-खाबड़, सड़क के दोनों ओर गंदगी के ढेर, उसके मन में खटका हुआ कि कहीं महाराज जी ने मजाक तो नहीं कर दिया क्यूंकि जिस गांव में 500 चांदी के सिक्के दान में देने वाला व्यक्ति रहता हो, उस गांव की यह दशा । दूसरे ही पल उसने सोचा कि जब इतनी दूर आया हूं तो पूरी छान-बीन करके ही जाऊंगा । सारथी से बोला भाई पूछो किसी से कि गुरु का सेठ कहां रहता है, किस तरफ उसकी हवेली है । इतने में ही एक घोड़ा बग्गी वाला सामने से गुजरा । उसे रोक कर सेठ ने पूछा ओ बग्गी वाले यहां गुरु के सेठ की हवेली कहां है । बग्गी वाला बोला साहब गुरु का सेठ, गुरु का सेठ नामक व्यक्ति इस गांव में तो क्या, पास के दस गांव में भी नहीं है । सेठ को खीज आ गई, अरे सारथी छोड़ो इसे गांव में रहकर अगर गांव के नामी सेठ को यह नहीं जानता तो क्या खाक गांव में रहता है, चलो गांव के अंदर । हम कल पढ़ेंगे कि लाहौर के सेठ से, गुरु के सेठ की मुलाकात किस प्रकार होती है।==================================आगे की कहानी कल के पोस्ट में दिया जायेगा …।

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