मन को मोड़ने की युक्तियाँ

मन को मोड़ने की युक्तियाँ


उमा कहउँ मैं अनुभव अपना ।
सत्य हरि भजन जगत सब सपना।।
ये जगत सपना हैं.. बार-बार चिंतन करो ये सपना हैं। ये सपनाहैं।

जितना सत्संग से लाभ होता हैं उतना एकांत में उपवास और व्रत करके तप करने से भी उतना लाभ नहीं होता जितना सत्संग से होता हैं। जितना एकांत में जप-तप से लाभ होता हैं उतना संसार में बड़े राज्य करने से लाभ नहीं होता हैं। संसार का वैभव संभालने और भोगने में उतना लाभ नहीं होता जितना एकांत में जप-तप करने से लाभ होता है और जप-तप करने से उतना लाभ नहीं होता जितना सत्संग से लाभ होता हैं और सत्संग में भी स्वरूप अनुसंधान से जो लाभ होता हैं वो किसी से नहीं होता। इसीलिए बार-बार स्वरूप अनुसंधान करता रहे। ॐ…

देखे हुए, भोगे हुए में आस्था हटा दो। जो देखा, जो भोगा- अच्छा भोगा, बुरा भोगा, अच्छा देखा, बुरा देखा.. सब मार गोली। सब सपना हैं। न पीछे की बात याद करके, वो बहुत बढ़िया जगह थी, ये ऐसा था, ये ऐसा था, तो बढ़िया में, ऐसा में ये वृत्तियाँ उठती हैं, वृत्ति व्याप्ति, फल व्याप्ति होते ही आप बाहर बिखर जाते हैं, अपने घर में नहीं आ सकते।

इकबाल हुसैन पीठावाला के पास गया।

पीठावाला माने शराब के पीठे होते थे, दारू के अड्डों को पीठा बोलते हैं। दारू का पीठा होता हैं कि नही?

तो महाराज। उसने पीया, खूब पीया और महाराज एकदम फुल्ल हो गया फुल्ल। फुल्ल समझते हो ना? नशे में चूर। गालियाँ बकता हुआ, लालटेन को गालियाँ देता हुआ, सड़क को गालियाँ देता हुआ, अपना घर खोजता-खोजता ठोकरें खाता-खाता महाराज बड़ी मुश्किल से कहीं थक के पड़ा और दैवयोग से वही उसका घर था।

सुबह हुई, सूरज ऊगा। नशेड़ी जब उठता है तब सुबह हुआ उसका तो। ऐसा नहीं कि ब्रह्मज्ञानियों का सुबह। नशेड़ी का सुबह, सुबह के नौ बजे।

सुबह हुआ तो देखा कि वो पीठावाला का नौकर हाथ में लालटेन लिए आ रहा हैं। लालटेन तो यार मेरा है, उसके हाथ में कैसे?

वह नौकर आया, उसने कहा कि महाशय रात को आप लालटेन भूल गए थे और हमारा तोते का खाली पिंजड़ा तुम लेकर आये लालटेन समझ कर।

घर के बाहर जो फेंक दिया था वो पिंजड़ा तो पडा था ।

वो पिंजड़ा तुम ले आये हमारा लालटेन समझकर। और वो समझता हैं मेरे हाथ में लालटेन हैं और घर क्यों नहीं मिलता? लालटेन के बदले पिंजड़ा था।

ऐसे ही अपनी वृत्ति जो हैं चैतन्य को नहीं देखती , वो लालटेन वृत्ति नही हैं। संसार का पिंजड़ा बना दिया वृत्ति ने।

भटक मुआ भेदु बिना पावे कौन उपाय ।

खोजत-खोजत युग गये पाव कोस घर आय।।

कोई कोई गरबा गाते हैं, ये बजाते हैं-वो बजाते हैं लेकिन पिंजड़ा हाथ में रखते हैं। लालटेन रखना चाहिए न? जाना चाहते हैं अपने घर में, सुखस्वरूप में लेकिन थककर बेचारे फिर वहीं। जब नशा उतरता हैं, जीवन की शाम होती हैं तब, अब तक क्या किया? अरे, कुछ नहीं किया। 

अरे, ये आदमी तो पहले अंगूठाछाप था,बड़ा पढ-लिखकर विद्वान हो गया। बड़ा काम कर लिया? अरे, कुछ नहीं किया।

ये आदमी निर्धन था, अभी करोड़पति हैं, बड़ा काम कर लिया? कुछ नहीं, चिंता और मुसीबत बढ़ाया और कुछ नहीं किया।

ये आदमी को कोई नहीं जानता था अब लाखों आदमी इसको जानते हैं, बड़ा नेता हो गया। अरे, कुछ नहीं किया, दो कौड़ी भी नहीं कमाई अपने लिये। हाय-हाय करके शरीर के लिये और वही शरीर जलाकर जायेगा।  क्या किया?

मूर्ख लोग भले ही कह  दे कि ये बड़ा विद्वान हैं, बड़ा सत्तावान हैं, बड़ा धनवान हैं मूर्खों की नजर में लेकिन ब्रह्मवेत्ताओं की नजर, शास्त्र की नजर, भगवान की नजर से देखो तो उसने कुछ नहीं किया, समय गँवाया समय। उम्र गँवाई उसने और क्या किया? मुसीबत मोल ली। ये सब इकट्ठा करने में जो समय खराब हुआ वो समय फिर वापस नहीं मिलेगा उसको और इकट्ठा किया इधर ही छोड़ के जायेगा। क्या किया इसने? लेकिन आजकल समाज में बिल्कुल उल्टी चाल है। मकान-गाड़ी, वाह भाई वाह, इसने तरक्की की। बस उल्टे मार्ग जाने वालों का पोषण हो रहा हैं। सच्ची बात सुनने वाले भी नहीं मिलते, सुनाने वाले भी नहीं मिलते इसीलिए सब पच रहे हैं अशांति की आग में। जगतनियंता ‘आत्मा’ अपने पास हैं और फिर भी संसारी दुःखी हैं तो उल्टी चीजों को पाने के लिए। सपने के हाथी…

मन बच्चा है इसको समझाना बड़ा… । युक्ति चाहिये।

एक बार बीरबल आये दरबार में। 

अकबर ने कहा देर हो गई क्या बात हैं?

“हुजूर। बच्चा रो रहा था, उसको जरा शांत कर रहा था।”

“बच्चे को शांत कराने में दोपहर कर दिया तुमने? कैसे बीरबल हो।”

“हुजूर, बच्चे तो बच्चे होते हैं। राजहठ, स्त्रीहठ, योग हठ और बालहठ। जैसे राजा का हठ वैसे ही बच्चों का होता हैं महाराज।”

“बच्चों को रीझाना क्या बड़ी बात हैं?”

“बड़ी कठिन बात होती हैं।”

“बच्चे को रिझाना क्या हैं? यूँ (चुटकी में) पटा लो।”

“नही पटता महाराज। बच्चा हठ ले ले तो फिर। आप तो मेरे माई-बाप हैं मैं बच्चा बन जाता हूँ।

“हाँ, तेरे को राजी कर देंगे।”

बीरबल रोया-” पप्पा, पिताजी…”

अकबर-“अरे, चाहिये क्या?”

बीरबल-“मेरे को हाथी चाहिये।”

अकबर-“ले आओ। हाथी लाकर खड़ा कर दो।”
राजा था, सक्षम था वो तो। हाथी लाकर खड़ा कर दिया।

फिर बीरबल ने रोना चालू कर दिया। ..”मेरेको देगड़ा ला दो।”
अकबर-“अरे, चलो एक देग मँगा दो।”
बीरबल-“हाथी देगड़े में डाल दो।”
अकबर-“कैसे? अरे, नही आयेगा।”
बच्चे का हठ और क्या? अकबर समझाने में लग गया। अकबर बोले कि भाई मैं तो नहीं तेरे को मना सकूँगा। अब मैं बेटा बनता हूँ, तुम बाप बनो।”
बीरबल ने कहा ठीक है।
अकबर रोया।
बीरबल-“अब तो मेरे को पिता बनने का मौका मिला, बोलो बच्चे, क्या चाहिये?”
अकबर बोले-“हाथी चाहिये।”
बीरबल ने नौकर को बुलाया, कहा-“चार आने के दो खिलौने वाले हाथी ले आ। एक नहीं दो ले आ।”
लाकर रख दिये- “ले बेटे हाथी।”
अकबर बोले-“देगड़ा चाहिये।”
बीरबल बोले-“लो।”
अकबर-“इसमें हाथी डाल दो।”
बीरबल-“एक डाल दूँ कि दोनों?”
अकबर-“दोनो रख दो।”
दोनों डाल दिये।


ऐसे ही मन बच्चा है। उसकी एक वृत्ति ऐसी उठी तो फिर वो क्या कर सकता हैं। इसीलिए उसको ऐसे ही खिलौने दो जो आप उनको सेट कर सको। उसको ऐसा ही हाथी दो जो देगड़े में रह सके। उसकी ऐसी ही पूर्ति करो जो तुम्हारे लगाम में रह सके, तुम्हारे कंट्रोल में रह सके। तुम अकबर जैसा करते हो लेकिन बीरबल जैसा करना सीखो। मन बच्चा हैं, उसके कहने में ही चलोगे तो वो गड़बड़ कर देगा। उसको पटाने में लगो ,उसके कहने में नहीं, उसको पटाने में। उसके कहने में लगोगे तो मन भी अशांत रहेगा, बाप भी अशांत , बेटा भी अशांत और उसको घुमाने में लगोगे तो बेटा भी खुश हो जायेगा, बाप भी खुश हो जायेगा। देगड़े में हाथी डाल दें खिलौने के, बस ठीक हैं।


ऐसे ही मन की कुछ ऐसी-ऐसी आकांक्षाएँ होती हैं, ऐसी-ऐसी माँगे होती हैं जो माँग पूरी करते-करते जीवन पूरा हो जाताहै और उस माँग से सुख मिला तो आदत बन जाती है और दुःख मिला तो उसका विरोध बन जाता है लेकिन उस वक्त मन को फिर और कोई बहलावे की चीज दे दो, और कोई चिंतन की चीज दे दो। हल्का चिंतन करता हो तो बढ़िया चिंतन दे दो। हल्का बहलाव करता हैं तो बढ़िया बहलाव दे दो, नॉवेल पढ़ता हैं तो शास्त्र दे दो, इधर उधर की बात करता हैं तो माला पकड़ा दो। वस्त्र अलंकार किसी का देखकर आकर्षित होता हैं तो शरीर की नश्वरता का ख़्याल करो। किसी के अपमान को याद करके जलता हैं तो जगत के स्वप्नत्व को याद करो। ऐसे, मन को ऐसे खिलौने दो जो आपको परेशान न करें। अपन लोग उसमें लग जाते हैं, मन में आया ये कर दिया, मन में आया फैक्ट्री कर दिया, मन में आया ये कर दिया। करते-करते फिर फँस जाओगे। संभालने की जवाबदारी बढ़ जायेगी। अंत में देखो तो कुछ नहीं। जिंदगी उसी में पूरी हो गई। अननेसेसरी नीड (Unnecessary  need) बिन जरूरी आवश्यकताएँ । इसीलिए कबीर ने कहा-

साँई ते इतना माँगिये जो नौ कोटि सुख समाय।

मैं भी भूखा न रहूँ, साधू भी भूखा न जाय।।

सियावर रामचंद्र की जय। ऐसी अपनी आवश्यकता कम करो। बाकी का समय जप में, आत्मविचार में , आत्मध्यान में, कभी-कभी एकांत में, कभी सत्कर्म में, कभी सेवा में। अपनी व्यक्तिगत आवश्यकता कम करो तो आप स्वतंत्र हो जायेंगे। अपने  व्यक्तिगत सुख-भोग की इच्छा कम रखो तो आपकी मन की चाल कम हो जाएगी। परहित में चित्त को, समय को लगाओ, वृत्ति व्यापक हो जायेगी। परमात्मा के ध्यान में लगाओ, वृत्ति शुद्ध हो जायेगी । परमात्मा के तत्व में लगाओ, वृत्ति के बंधन से आप निवृत्त हो जायेंगे। भाई, सत्संग में तो हम आप लोगों को कमी रखने की कोशिश नहीं करते।

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