लक्ष्मण मल्लाह की अनोखी साधना व दुर्लभ सिद्धि का रहस्य

लक्ष्मण मल्लाह की अनोखी साधना व दुर्लभ सिद्धि का रहस्य


जो दैवीय गुरु के चरणों में आश्रय लेता है वह गुरु की कृपा से आध्यात्मिक मार्ग में आने वाले तमाम विघ्नों को पार कर जायेगा । योग के लिए श्रेष्ठ एकांत स्थान गुरु का निवास स्थान है । जिस शिष्य को अपने गुरु के प्रति भक्ति-भाव है उसके लिए तो आदि से अंत तक गुरु सेवा मीठे शहद जैसी बन जाती है । गुरु माने सच्चिदानंद परमात्मा जिसने गुरुकृपा प्राप्त की है वही साधना का रहस्य जानता है । जो अपने गुरु की सेवा करता है वही परम सत्य के संपर्क में आने की कला जानता है । गुरुदेव की निरंतर सेवा करनी चाहिए क्यूंकि इससे सहज ही आत्मलाभ हो जाता है । अपने गुरुदेव के स्वरूप का थोड़ा सा चिंतन भी ईश्वर चिंतन के समान है । उनके नाम का थोड़ा सा कीर्तन भी ईश्वर के कीर्तन के बराबर है । सतगुरु का स्मरण और उन्हें ही समर्पण शिष्यों के जीवन का सार है । इस सरल किन्तु समर्थ साधना से शिष्य को सब कुछ अनायास ही मिल जाता है । भगवान कहते हैं कि *यत पादरेण उकानि का काअपी संसार वार्धे सेतू बध्यायते नाथम देशिकम तमोपास महे यस्मात नुग्रहदा लब्द्धवा महद ज्ञान मत्सृजेत तस्मय श्रीदेश केंद्राय नमश्चा भिश्ट सिद्धये* अर्थात गुरुदेव की चरण धूलि का एक छोटा सा कण सेतू बंध की भांति है, जिसके सहारे इस भव सागर को सरलता से पार किया जा सकता है और गुरुदेव की उपासना मैं करूंगा ऐसा भाव प्रत्येक शिष्य को रखना चाहिए, जिनके अनुग्रह मात्र से महान अज्ञान का नाश होता है । वे गुरुदेव सभी अभीष्ट की सिद्धि ही देने वाले हैं, उन्हें नमन करना शिष्य का कर्तव्य है । इन महामंत्रों के अर्थ शिष्यों के जीवन में प्रत्येक युग में, प्रत्येक काल में प्रकट होते रहे हैं । प्रत्येक समय में शिष्यों ने गुरु कृपा को अपने अस्तित्व में फलित हुए देखा है ऐसा ही एक उदाहरण लक्ष्मण मल्लाह का है, जो अपने युग के सिद्ध संत स्वामी भास्करानंद का शिष्य था । काशी निवासी संतों में स्वामी भास्करानंद का नाम बड़ी श्रद्धा से लिया जाता है । संत साहित्य से जिनका परिचय है वे जानते हैं कि अंग्रेजी के सुविख्यात साहित्यकार मार्क टवेन ने उनके बारे में कई लेख लिखे हैं । जर्मनी के सम्राट कैसर विलियम द्वितीय तत्कालीन प्रिंस ऑफ विल्हेम, स्वामी जी के भक्तों में से थे । भारत के तत्कालीन अंग्रेज सेनापति जनरल लोकार्ट तो उन्हें अपना गुरु मानते थे । इन सभी विशिष्ट महानुभावों के बीच भी स्वामी भास्करानंद जी का शिष्य था लक्ष्मण, जो मल्लाह जाति का था जो ना तो पढ़ा लिखा था और ना ही उसमें कोई विशेष योग्यता थी,लेकिन उसका ह्रदय सदा ही अपने गुरुदेव के प्रति विभल रहता था । भारतभर के प्राय सभी राजा, महाराजा स्वामी जी की चरण धूलि लेने में अपना सौभाग्य मानते थे । स्वयं मार्क टवेन ने उनके बारे में अपनी पुस्तक में लिखा था कि भारत का ताजमहल अवश्य ही एक विस्मय जनक वस्तु है जिसका महानिय दृश्य मनुष्य को आंनद से अभिभूत कर देता है, नूतन चेतना से उत्बुद्ध कर देता है । किन्तु मेरे गुरुदेव स्वामी भास्करानंद जी के सामने महान एवम् विस्मय कार्य जीवंत वस्तु के साथ, उसकी क्या तुलना हो सकती है । स्वामीजी के योग ऐश्वर्य से सभी चमत्कृत थे । प्रायः सभी को स्वामी जी संकट, आपदाओं से उबारते रहते थे लेकिन लक्ष्मण मल्लाह के लिए तो अपनी गुरु भक्ति ही पर्याप्त थी । गुरु के चमत्कारों से उसे कुछ विशेष प्रयोजन ना था गुरु को ही अपना इष्ट मानता और उनको ही अपना सर्वस्व मानता । गुरु चरणों की सेवा, गुरु नाम का जप यही उसके लिए सब कुछ था । श्रद्धा से विभोर होकर उसने स्वामी भास्करानंद जी की चरण धूलि इकट्ठा कर एक डिबिया में रख ली थी । स्वामी जी के खड़ाऊं उसकी पूजा बेदी में थे, इनकी पूजा करना, गुरु चरणों का ध्यान करना और गुरु चरणों की रज अपने माथे पर लगाना, उसका नित्य नियम था । इसके अलावा उसे किसी और योग विद्या का पता ना था । कठिन आसन, प्राणायाम की प्रक्रिया यें उसे कुछ नहीं पता था, मुद्राओं एवम् बंध के बारे में भी उसे बिल्कुल पता ना था । किसी मंत्र का उसे कोई ज्ञान ना था, अपने गुरुदेव का नाम ही उसके लिए महामंत्र था । इसी का वह जप करता, यदा-कदा इसी नाम धुन का वह कीर्तन करने लगता । एक दिन प्राय जब वह रोज की भांति गुरुदेव की चरण रज माथे पर धारण करके गुरुदेव का नाम जप करता हुआ, उनके चरणों का चिंतन कर रहा था तो उसके अस्तित्व में कुछ आश्चर्यकारी एवम् विस्मय जनक दृष्यावली प्रकट हो गई । उसने अनुभव किया कि दोनों भौहों के बीच गोल आकार का श्वेत प्रकाश बहुत ही सघन हो रहा है । यूं तो यह प्रकाश पहले भी कभी-2 झलकता था । यदा कदा सम्पूर्ण साधना अवधि में भी यह प्रकाश बना रहता था परन्तु आज उसकी सघनता कुछ ज्यादा ही थी । उसका आश्चर्य तो और भी ज्यादा तब हुआ जब उसने देखा कि गोल आकार के श्वेत प्रकाश में एक हल्का-सा विस्फोट सा हो गया है और उसमें श्वेत कमल की दो पंखुड़ियां खिल रही हैं । गुरु नाम की धुन के साथ ही यह दोनों पंखुड़ियां खुल गई और उसके अंदर से प्रकाश की सघन रेखा उभरी । इसी के पश्चात उसे अनायास ही अपने आश्रम में स्वामी भास्करानंद जी ध्यानस्थ बैठे हुए दिखाई देने लगे । योगविद्या से अनविघ लक्ष्मण मल्लाह को यह सब अचरज भरा लगा । दिन में जब वह गुरुदेव को प्रणाम करने गया तो उसने सुबह की सारी कथा कह सुनाई । लक्ष्मण की सारी बातें सुनकर स्वामीजी मुस्कुराए और बोले बेटा इसे आज्ञा चक्र का जागरण कहते हैं । अब से तुम जब भी भौहों के बीच में मन को एकाग्र करके जिस किसी स्थान, वस्तु या व्यक्ति का संकल्प करोगे वही तुम्हें दिखने लगेगा । स्वामी जी के इस कथन के उत्तर में लक्ष्मण मल्लाह ने कहा कि हे गुरुदेव मैं तो सदा-2 आपको ही देखते रहना चाहता हूं । मुझे तो इतना मालूम है कि मैं आपके चरणों की धूलि को भौहों के बीच में लगाया करता था । यह जो कुछ भी है आपकी चरण धूलि का ही कमाल है, अब तो यह नई बात जानकर मुझे विश्वास हो गया है कि गुरु चरणों की धूलि से शिष्य आसानी से भव-सागर पार कर सकता है । पहले तो सुना था लेकिन अब मैंने स्वयं अनुभव किया है । लक्ष्मण मल्लाह की यह अनुभूति हम सभी गुरु भक्तों की अनुभूति भी बन सकती है । बस उतना ही सघन प्रेम एवम् उत्कट भक्ति चाहिए, असंभव को संभव करने वाली गुरुवर की चेतना की महिमा अनंत ही है ।

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