वह अदभुत अनोखा प्रेमी भक्त

वह अदभुत अनोखा प्रेमी भक्त


जो नैतिक पूर्णता गुरु की भक्ति आदि के बिना ही गुरुभक्तियोग का अभ्यास करता है उसे गुरुकृपा नही मिल सकती। गुरुभक्तियोग का अभ्यास सांसारिक पदार्थों के प्रति वैराग्य और अनासक्ति पैदा करता है और अमरता प्रदान करता है । सद्गुरु के जीवन प्रदायक चरणों की भक्ति महापापी का भी उद्धार कर देती है । कल गुरु पुर्णिमा का पावन पर्व गुरु के श्री चरणों के पूजन का विशेष पर्व अहो श्री चरण ! पावन श्री चरण ! सुकोमल श्री चरण ! परन्तु इन श्री चरणों पर इतनी सूजन क्यूं बढ़ गयी है, २-३ जगहों पर तो कांटे भी चुभे हैं , एक अंगुठे पर, एक एड़ी पर और तलवे तो पथरीली राहों की फेरियां कर-२ के पत्थर से हो चले हैं । ये श्री चरण थे गौरांग महाप्रभु चैतन्य के और इनको हर क्षण निहारने वाली आँखें थी इनके एक शिष्य जगदानन्द की । बहुत ही अनोखी प्रीति थी जगत की, मतवाले भँवरे की तरह अपने गुरु महाप्रभु के इर्द-गिर्द मंड़राता रहता था । अब यूं तो गुरुदेव भक्ति की मिठाई होते हैं, उनके स्वरुप का दाना-२ मीठा और मधुर होता है पर इस भँवरे की लौ कुछ विशेष ही तौर पर अपने गुरु श्री चैतन्य के चरण कमलों से ही थी । कीर्तन में चैतन्य महाभाव का रस बरसाते, भक्तजन छक-२ कर रस पीते और मलंग हो जाते परन्तु जगत को रस चैतन्य के श्री चरणों से ही मिलता था । चैतन्य कोकिल कंठ से कृष्ण धुन छेड़ते, प्रेमी क्षुध-बुध खो कर धुन में बहने लगते परन्तु जगत की धुन वही चैतन्य के श्री चरण ! भरी मंडली मे वो अपलक गुरु देव के श्री चरणों मे समाया रहता था । महाप्रभु के चरण जगत के हृदय थे, महाप्रभु चलते तो जगत के हृदय में हलचल होती, महाप्रभु थिरकते तो जगत का हृदय थिरकता । उधर महाप्रभु कृष्ण-भाव में तल्लीन होकर नंगे पाव कंकरीले-कंटिले पथों पर दौड़ते पडते । इधर एक-२ कंटीला कांटा जगत के हृदय में बिध देता, चरण थकते तो बोझिलता जगत के हृदय में सौ-२ मन बोझ ड़ाल देता । चैतन्य महाप्रभु तो अक्सर महाभाव में तल्लीन रहते इसलिये देहिक कष्ट कुछ उन्हें खास नहीं व्याप्ते, परन्तु उनके चरणों पर लगे कंकर-कांटों का दर्द जगत के हृदय में टिसें उठाये रखता, थके-माँदे सूजे चरण प्रेमी हृदय को लहूलुहान किये रहते । *”तेरे ये चरण मेरी खुशियों का सबब है तेरे चरणों से बंधी मेरी जान कितना अजब है, दर्द इन चरणों का जिगर मेरा घायल किये जाता है क्योकि तेरे चरणों का हर अहसास मेरे दिल से हो कर जाता है ।”*बस बहुत हो गया, जगत खीझ चुका था । जो चरण भव रोग का उपचार करते हैं आज जगत उन चरणों के उपचार की युक्ति खोजने लगा, अहो ये भी प्रेम का बड़ा अटपटा और झटपटा सा भाव है इसी भाव से भावित हो जगत गोण देश पहुंच गया वहां से चंदन आदिक जड़ी-बूटी वाला तेल ले आया | गोविन्द देख तू रात्रि काल में निमाई (निमाई, महाप्रभु का दूसरा नाम था ।) के चरणों में ये तेल मल देना, पोर-२ में ये तेल रमेगा तो सूजन चुटकियों में उतर जायेगी, कड़े हाथों से मालिश ना करना होले-२ मलते जाना । मेरे निमाई को बहुत सुखद लगेगा, समझ गया ना भाई महाप्रभु की अंगद सेवा में नियुक्त गोविन्द को तेल कलश थमा कर जगत ने घंटा भर उसे हिदायतें दी कि किस प्रकार वो मालिश करे । अब रात्रि काल में गोविन्द ने महाप्रभु के आगे निवेदन किया कि गुरुदेव आज्ञा हो तो ये तेल पैरों में मल दूं, किसने लाया ? जी वो जगदानन्द ने गोण देश से । महाप्रभु तुरंत तुनक उठे आँखें तरेर कर बोले पागल हो गये हो क्या दोनों के दोनों, उस महापंडित जगदानन्द की पंडिताई पानी भरने चली गयी है जो ये चंदन-वंदन का तेल उठा लाया और वो भी सुगंधित तेल । अरे मैं संन्यास धारण कर चुका हूं, संन्यास, भला एक संन्यासी कभी इन सुगंधित प्रसाधनों का उपयोग करता है क्या ? पता नहीं उस मूर्ख को भी क्या सूझी, गोविन्द तो चुप-चाप तेल का कलश आले में रखने चला गया।सुबह-२ जगत ने बडी अधीरता से कलश में झांका, एक बूंद भी इधर से उधर ना हुई थी अब तो गोविन्द की खैर नहीं, कुछ इसी अंदाज में जगत ने आश्रम भर में गोविन्द को खोजा क्यों रे गोविन्द रात को तेल लगाना भूल गया क्या? गोविन्द ने हाथ जोड दिये बस भाई जी तुम और तुम्हारे अनोखे उपचार, पता है आपके उस शानदार तेल ने कल रात को मुझे फटकार का कैसा प्रसाद छकाया, मूर्ख नन्द कह रहे थे प्रभु आपको और मुझे भी, अरे वो तो यूहीं कहते थे रहेंगे तू हट मैं जाता हूं इतना कह कर जगत अपने महाप्रभु पर प्रेम का अधिकार जताने चल दिया । महाप्रभु जगत को आता देख कर पहले ही सतर्कता से बैठ गये, गुरुदेव ये तेल नहीं औषधि है भला एक औषधि लगाने में सन्यासी को क्या आपत्ति हो सकती है । महाप्रभु ने कहा समझ क्यों नही आती रे तुझको, कुछ नेम-धर्म भी होते हैं कि नहीं । तुम लोगों का क्या भरोसा आज तेल लाये हो, कल किसी बढ़िया मालिश करने वाले को ला खड़ा करोगे कि जी वैद्य है जाओ यहां से, अब जगत की हृदय फिर आंसुओं के साथ बह चली वह महाप्रभु की चारपाई तले बैठ गया । अपने प्राणाधार श्री चरणों को सहलाते हुये बोला गुरुदेव आपके चरणों की पीड़ा भले किस से छुपी है इतनी सूजन साफ बताती है कि इन्हें नियमित तेल मालिश की जरुरत है । प्रभु आप कहें या ना कहें, आप के ये चरण सब कुछ कह देते हैं, दिन-रात इनकी कराहट मेरा कलेजा चीरती रहती है । गुरुदेव बस कुछ दिनों के लिये अनुमति दे दें ये कैसा बालवत हट है रे जगत लगता है प्रेम के प्रकोप ने तेरी बुद्धि पूरी ही भ्रष्ट कर डाली है मेरी मान इस तेल को जगन्नाथ जी के मंदिर मे चढ़ा आ । वहां इससे दर्जन भर दिये जलेंगे तेरा कुछ पुण्य भी बढेगा, तेरा कुछ साध भी सधेगा, जा अर्पित कर आ जगन्नाथ जी को ये कहते-२ निमाई ने बेरुखि से हाथ भी हिला दिया बस ! अब उधर अब बडी धारदार प्रतिक्रिया हुई जगत कलश लेकर ठाह से खड़ा हुआ और धम-२ करते चल दिया मगर फिर पलटा और श्री चैतन्य के चरणों में पलके झुका कर नमन किया फिर जैसे सूर्य को जल अर्पित करते है,वैसे ही दूर से ही श्री चरणों में तेल अर्पित कर दिया सुगंधित चमकती धार आंगन में बह गयी, मैने जगन्नाथ जी को तेल अर्पित कर दिया मेरे जगन्नाथ तो आप ही हैं गुरुदेव ! बस इतना कह कर जगत रोता ठिनकता हुआ चला गया ये देख चैतन्य महाप्रभु मुस्करा दिये और प्यार से पलके झपका दी परन्तु उन्हे क्या पता था कि इस जिद्दी बच्चे की ठनक २-४ पल की नहीं है । घर पहुंचते ही जगत ने किवाड़ पर सांकल लगा ली, दो दिनों तक अन्न-जल त्याग कर चारपाई पर ही पडा रहा । चैतन्य के चरणों की पीड़ा हृदय की पीर बन कर सालति रही घायल श्री चरण आंखों के सामने से हटते ही नहीं थे, रह-२ कर वो रोता रहता श्री चरणों की याद में । जगत को जब गुरुदेव का प्यार भरा आंचल याद आता तो उनके पास जाने की खीज पडती तो हमारा धीर-वीर जगत मुठिया भींच-२ कर संकल्प उठाता कि नहीं जाऊंगा,भूल से भी नही जाऊंगा निमाई के पास बुलायेंगे जब भी नही जाऊंगा और बात भी नही करुँगा । कभी नहीं- कभी नहीं जिद्दी आंसुओं से प्रेम गली में ऐसी कीच मची कि सदा संभलकर कर चलने वाले प्रभुजी भी फिसल गये । *” बहा दो प्रेम के आंसू बस चला आऊं मैं, तुम्हें अपने रिझाने का सरल तरीका बताऊं मैं, मैं रहता मन के मंदिर में पता अपना बताऊं मैं “*तीसरे दिवस महाप्रभु ने भोर से पहले ही जगत के द्वार पर दस्तक दे दी । ममता से पुकारा जगत, मेरे जगदे, सुन तो जगदे द्वार तो खोल साक्षात भगवान ने द्वार खट-खटाया था । जगत का कलेजा तो खिल उठा खुशी के मारे उछल पड़ा दौड कर सांकल खोलने ही वाला था कि रुठाई ने पैरों में ताले जड़ दिये नहीं जगत तू तो रुठा हुआ था भूल गया क्या ? जगत ने जबरदस्ती ऐंठन ओढ ली, महाप्रभु का स्वर फिर से उभरा *” भिक्षाम देहि “* फकीर भिक्षा की याचना करने आया है सुना तुने । आज दोपहरी की भिक्षा तेरे यहां ही पाऊंगा नहीं तो तू नहीं खिलायेगा तो कुछ नहीं, आज दिन भर उपवास ही भला । बडा ही सम्मोहक प्रेम-पाश डाल कर गुरुदेव चले गये । अब जब जाल बिछा हो दाना भी डला हो चिडिया भूख से पगलायी जा रही हो तो वह फंसेगी ही फंसेगी ।जगत भी स्वेच्छा से फंस गया फटाक से खडा हुआ सारे कक्ष की धुलाई की । सब्जीमंडी से सारा बाजार ही उठा लाया फिर स्न्नान आदि कर के गुरुदेव के लिये सरस स्वादों, पकवानों की बारात सजा डाली । महाप्रभु निश्चित समय पर अपनी मनोहारी छवि लिये भीतर आ गये, संग में उनका अंगद सेवक गोविन्द भी आया था । प्रभु ने भिक्षापात्र आगे बढ़ा कर गुहार लगाई कि *” भिक्षाम देहि “* । जगत रसोई घर से बडा-सा थाल जिसमें दर्जनो कटोरियों में पकवान सजे थे ले आया । बिना कुछ बोले भिक्षा पात्र के उपर बस थाल रख दिया महाप्रभु ने फिर थाल पर दृष्टि डाली फिर जगत पर जो अब भी मुंह फुलाये खडा था । उसने अब तक एक बार भी निमाई के नैनों से नैन नहीं मिलाये थे भरपुर तौर पर नाराजगी जाहिर कर रहा था । भक्त का रुखा रुख देख निमाई कुछ भी अन्यथा कहने का साहस नही जुटा पाये । निमाई भिक्षा में सादा भोजन ही लेते थे, निमाई ने सोचा कि अब मैं इस पकवान को खाने से मना कर दूंगा तो इसका गुब्बारा और फुल जायेगा, इस लिये निमाई खिल-खिला कर हंस दिये । जगत को तिरछी कनखियों से देखते हुये गोविन्द से बोले जगत ने भिक्षा नहीं प्रीति भोज तैयार किया है लाओ भाई लाओ ! निमाई स्वयं ही पास रखी चौकी उठा कर बैठ गये लाओ भाई लाओ ! ये देख जगत को बडा आंनद हुआ परन्तु जाहिर नहीं होने दिया । कुछ इसलिये उसने अपनी बत्तीसी अपने होठों से बांधे रखी चुप-चाप थाली निमाई को परोस दी फिर रसोई से एक-२ दोने उठा लाया निमाई के थाल में जो भी सब्जी या पकवान जरा कम होता तो जगत कडछी भर उनका स्तर पहले से भी ज्यादा कर देता । महाप्रभु की उंगलियो को किसी भी प्याली की तली ना छुने देता परोसता जाता-परोसता जाता । उधर महाप्रभु जी आज पूर्ण तौर पर प्रेम के वश हो अपने शिष्य को समर्पित थे भक्त जो खिलायेगा जितना खिलायेगा, उन्हें खाना ही होगा मजबूरी है इसलिए प्रभु भोग लगाते जा रहे थे बाकि दिनों की अपेक्षा वो कई गुना ज्यादा भोजन कर चुके थे परन्तु जगत का प्रेम प्रवाह थमने का नाम ही नहीं लेता था । अब दीनानाथ गुरुवर खुद दीनता से बोले बाबा बस दया भी करो ! अब तो अगला निवाला ग्रीवा से नीचे भी नहीं उतरेगा तुम्हारे प्रेम से मैं आखंट भर चुका हूं । ये सुनते ही पंखा झालते गोविन्द की हँसी छूट गई, जगत भी मुस्कुराहट रोक नही पाया परन्तु अभी शीत युद्ध जो जारी रखना था इसलिये कुछ नही बोला बस चुप-चाप थाली समेट ली और महाप्रभु को मुक्त किया।मेरे जगदे तेरे अंदर समाया मेरा स्वरुप भी २ दिन से अन्न-जल के लिये व्याकुल है । उसे कब प्रीति भोज खिलायेगा अच्छा हम तब तक नहीं जायेंगे तेरे घर से, जब तक तू भोजन नहीं कर लेता । इतना कह कर महाप्रभु ने पांव खोल लिये और तनिक सुसताने लगे । जगत की आंखें आदतन श्री चरणों पर जा लगी हृदय के वही पुराने जख्म फिर हरे हो गये । वही श्री चरणों की सूजन देख कर जगत फिर से उदास हो गया, आत्मा से कराह उठी आँखों की प्यालियां लबालब भर आईं । महाप्रभु ने अधखुली आंखों से जगत को देखा और एक दम से अपने चरण धोती की ओंट मे दुबका लिये । गला खंखार कर गोविन्द से बोले गोविन्द ये हमारी आज्ञा है कि तू जगत को अपने सामने बिठा कर प्रसाद खिला देना । अभी हम आश्रम को जाते हैं बडी रुहानी-सी हडबडाहट में गुरुदेव चले गये। रात को जब जगत सो रहा था उसकी पलकों के भीतर एक दिव्य अनुभव उभरा कि प्रेममूर्ति गुरुदेव अपने शत-विशत चरण जगत की गोद में रखे बैठे हैं जैसे एक बालक मैया को अपनी चोट दिखाता है ठीक वैसे ही महाप्रभु नेत्रों मे आंसू लिये जगत को अपने चरण दिखा रहे थे । उनके पास वही तेल का कलश रखा था, उसे अपने दोनों हाथों से उठा कर उन्होंने जगत के आगे बढ़ा दिया प्रेम भरे शब्द मे बोले जगदे बहुत पीड़ा हो रही है, ये तेल मल दे ना । सच्ची गुरुदेव ! जगत चरण सहलाता हुआ उमंग से बोला परन्तु फिर एका-एक गंभीर हो गया और बोला, गुरुदेव शास्त्रों मे सन्यासियों के लिये तेल तो निषेध बताया गया है ना ? अरे पगले तेल निषेध है पर प्रेम तो निषेध नहीं है हम तो इस तेल की बूंद-२ मे समाये तेरे प्रेम को स्वीकार कर रहे हैं । सच गुरुदेव कहीं मेरे कारण आपके सन्यास का कोई नियम भंग तो नही होगा । हप ! मेरा शरीर जरुर सांसारिक नियमों में बंधा है परन्तु मेरा भगवत स्वरुप तो तेरे जैसे प्रेमी गुरुभक्तों की भावनाओं का दास है । पूरी रात अनुभव में जगत अपने गुरुदेव के श्री चरणों मे तेल मलता रहा जी भर के होले -२ हाथों से मालिश करता रहा । इतना संजीव था ये अनुभव कि सुबह आंखे खुलने पर जगत की आत्मा तृप्त थी हृदय की पीर शांत हो चुकी थी । एक नये अहसास और ताजगी के साथ जगत गुरु आश्रम पहुंचा महाप्रभु जगत को देखते ही धन्य-२ दिखे, क्या खिला गुलाब होगा । गुरुदेव तो उससे भी प्यारा मुस्कुराये फिर अचानक उनके नयन चंचल हो गये बडे कौतुक के साथ जगत को देख रहे थे, फिर अपने चरणों को, फिर जगत को मानो जगत की दृष्टि खींच कर अपने चरणों की तरफ लाना चाहते थे । जगत ने ज्यों ही चरणों की ओर देखा हुलस उठा! नजारा सुहाना था गुरुदेव के चरण गुलाबी कमल की पंखुड़ियों जैसे कोमल थे कोई सूजन, कोई घाव उन पर ना था ।बलिहारी-२ करते-२ जगत ने गुरु चरणों को हृदय से लगा लिया और राहत भरी ठंडी सांस भर कर महाप्रभु मुस्कुराते नैनों से जगत को देखते रहे । मानो नैनों की भाषा में ही कह रहे हों तेल ना सही प्रेम का लेप तो सदा ही करते रहना मेरे चरण सदा ही स्वस्थ मिलेंगे ।

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