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बाबा बुल्ले शाह कथा प्रसंग (भाग -1)


गुरूभक्तियोग के अभ्यास से अमरत्व, सर्वोत्तम शान्ति और शाश्वत आनन्द प्राप्त होता है। गुरु के प्रति भक्ति अखूट और स्थायी होनी चाहिए।गुरुभक्तों की शृंखला में एक नाम साँई बुल्लेशाह का भी आता है।जिसे लोग बड़े ही आदर से याद करते हैं। बड़े-2 संत-महापुरुष बुल्लेशाह की गुरुभक्ति की तारीफ करते हैं।बुल्लेशाह की महानता किसी मत-पंथ, मजहब, दौलत या जाति से नहीं थी। उनकी महानता, उनकी पहचान उनकी गुरुभक्ति से होती है। उनकी पहचान उनके गुरु के प्रति उनके समर्पण से होती है।पंडोके नाम के छोटे से गाँव में मौलवी शाह मोहम्मद के घर एक बालक का जन्म हुआ। नाम रखा गया अब्दुल्ला शाह। प्यार से लोग उसे बुल्लेशाह बुलाते थे। कोई उसे बुल्ला भी कहते।बालक को अपार ममता मिली परिवार के द्वारा। सुसंस्कारों की पर्याप्त खाद मिली। धार्मिक विचारों की किरणों की कभी कमी ना रही। परन्तु उस नन्हे फूल को सबसे ज्यादा प्रभावित करनेवाले थे, उनके पिता मोहम्मद शाह।शाहजी धार्मिक प्रवृत्तिवाले नेक दिल इन्सान थे। वे मौलवी तो थे ही और उनका गाँव में बड़ा रूतबा था। शाह का परिवार सय्यद जाति का था। जो उस समय मुस्लिम समाज में रईसी के लिए जानी जाती थी और इस जाति को बड़ा ही उच्च दर्जा दिया गया था।बालक बुल्ला को उच्च कोटि की शिक्षा का इंतजाम करवाया गया।जिसमें इस्लामिक शिक्षा प्रधान थी। घर में आध्यात्मिक संस्कारों के कारण बालक का रूझान धर्मग्रंथों की ओर अधिक रहता।इस कारण से उसने इस्लामी और सूफी धर्मग्रंथों का भी गहन और विस्तृत अध्ययन किया।इस अध्ययन से उसके अन्दर जिज्ञासा का अंकुर फूट पड़ा।एक-2 अक्षर हृदयद्वार पर दस्तक देने लगे। बुल्लेशाह ग्रंथों पर नजरें गड़ाये, विचार तरंगों पर झूलता रहता कि – “क्या हक़ीकत में खुदा है? यदि हाँ, तो कहाँ है?” सभी कामिल फकीर तो यही बयाँ करते हैं कि ,”अंदर रूहानी नूर झर रहा है!” परन्तु आज तलक उसका दीद क्यों नही हुआ? क्या करूँ? कैसे ईलाही रौशनी का दीदार करूँ?छोटी उमर में बुल्लेशाह की ईश्वर पिपासा बढ़ती ही जा रही थी। मन वैरागी सा हो गया। उसने ढेर सारे निवली कर्मों का सहारा लिया। हठयोग की क्रियाओं को भी आजमाकर देखा। इससे उसे चमत्कारिक रिद्धि-सिद्धियाँ हासिल हो गयी। दूर-2 तक ख्याती की खुशबू भी फैल गई। लोगों ने उसे *’शेखे-हरदो-आलम’* अर्थात दोनो लोकों का शेख जैसी सन्मान-सूचक उपाधियाँ भी दे डाली। परन्तु उसके भीतर का ईश्वर उसे नहीं प्राप्त हुआ। ईश्वर का साक्षात्कार नहीं हुआ। *आ की तुझ बिन इस तरह अकुलाता हूँ मैं।* *जैसे हर क्षय में किसी क्षय की कमी पाता हूँ मैं।।*हुबहू यही दशा बुल्लेशाह की थी। वैसे तो उसके चहुँ ओर बहुरंगी माया का पसारा था। नवाबी महल था। हर तरफ यश-कीर्ति के चमचमाते मोती बिखरे हुए थे।सय्यदी शानों-शौकत का रस बरस रहा था हर क्षय खुबसूरती से भरी थी परन्तु इनके बीच भी बुल्लेशाह का जी अकुलाता था।उसे खुदाई नूर की कमी जो खल रही थी। बुल्लेशाह की व्याकूल आत्मा उससे बार-2 यही कहती कि – “उस नूर के बिना हर क्षय कितनी बदरंग, कितनी बेमानी, कितनी बेरस है! सबकुछ कितना बदसूरत और अधूरा है!”सच में मोहब्बत के लिए कुछ खास दिल मख़सूस होते हैं। यह वो नगमा है जो हर साज पर गाया नहीं जाता। बुल्लेशाह के पास एक ऐसा ही खास दिल था। एक ऐसा साज था जिसे प्रभु ने अपने मोहब्बत का नगमा गाने के लिए चुन लिया था। यह उसी जादूगर का असाधारण कौतुक था, क्योंकि मायावी नगरी में रहते हुए मायापति की याद आना कोई साधारण बात नहीं!एक दिन बुल्लेशाह अपनी शाहाना हवेली में धार्मिक पुस्तकें खोलकर आसमाँ की ओर टिकटिकी लगाकर देखता हुआ उदास बैठा था। इतने में बुल्लेशाह का एक घनिष्ठ मित्र उससे मिलने आया। बचपन से जवानी तक का काफी सफर दोनों ने साथ-2 तय किया था।मित्र को देखते ही बुल्लेशाह में खुशी की लहर उमड़ गई। गंभीर चेहरे पर प्रसन्नता की रेखाएँ खींच गईं। उसने बाँह फैलाकर मित्र को गले लगाया। परन्तु मित्र बुल्लेशाह को बख़ूबी समझता था। आँखो में झाँककर उसका मन पढ़ सकता था। इसलिए बुल्लेशाह की बुझी आँखो को देखकर उसे भाँपते देर न लगी कि, वह किसी कश्मकश में उलझा हुआ है। किसी मुद्दे को लेकर अकुल-व्याकूल है। फिर यह मुद्दा भी तो उससे छिपा हुआ न था – वह भलीभाँति जानता था कि इन दिनों बुल्लेशाह में ईश्वर दर्शन की इच्छा जोर मार रही है।वह ग्रन्थों के अध्ययन में डूबा हुआ है।उसने पूछा कि,”मियाँ क्या आलम है? आजकल किस ग्रंथ पर नजरें करम हैं?”बुल्लेशाह ने मायूस स्वर में कहा कि,”अरे यार! क्या ग्रंथ और क्या शास्त्र! अब तो इनसे भी मन उचट सा गया है। पढ़ने में लुफ्त ही नहीं आता। ऐसा लगता है, मानो ज़हन में थोते उपदेश उड़ेले जा रहे हैं। रूह की प्यास तो ज्योंकि त्यों बनी हुई है। बस कोरे इल्म के ऊँचे-2 ढेर लग रहे हैं। कौनसी ऐसी पोथी, कृती या ग्रंथ है जिसे मैंने नहीं पढ़ा? सबको घोटकर पानी की तरह पी गया, लेकिन भीतर तो उजियारा हुआ ही नहीं।ग्रंथ जिस खुदाए नूर की बात करते हैं, उसकी एक झलक तक मुझे नहीं मिली अब भी जिगर में वही अमावस्या है, वही काली बदली छाईं है। सूफ़ी दरवेशों ने लिखा है कि,”एक इन्सान चाहे 70 वर्षों तक ग्रंथों के लफ़्जों से सिर टकराता रहे, उसके अंदर ज्योति प्रगट नहीं हो सकती, वह हक़ीकत का दर्शन नहीं पा सकता।मित्र ने कहा ,” बात तो सही है! परन्तु बुल्ले! तुम क्यों हवेली की दरों-दीवारों में कैद बैठे हो? कहीं तीर्थाटन पर जाओ? कही कुछ खोज करो?”ये सब भी करके देख चुका हूँ।तुम्हें क्या लगता है ? मैंने परवरदिगार को सिर्फ अपनी ख्याली दुनिया मे खोजा है? कौनसा वह रूहानी मुकाम अर्थात धार्मिक स्थल है, जिसकी दहलीज़ की धूल मैंने नहीं चूमी? कौनसा नामी मकबरा है, जिसकी छुवन से मेरा माथा महरूम रहा हो? हर नेम-धर्म का सहारा लिया, तहे दिल से पाँचो वक़्त नमाजें अदा करके देख ली परन्तु सच कहूँ, अब मैं थक गया हूँ! हताश, निराश हो चुका हूँ!मित्र ने चिंता जताते हुए कहा, “लेकिन बुल्ले! ऐसे कबतक चलेगा? कबतक तू यूँ सीने में आग और आँखों में बेइन्तहाँ प्यास लिए तड़पेगा? कहीं कोई तो तरीका होगा इन्हें बुझाने का?”बुल्लेशाह कुछ सोचते हुए बोले कि,”ग्रन्थों में एक बात तो है!”मित्र ने कहा,”क्या बात है?”जगह-2 कामिल मुर्शिद अर्थात सद्गुरु का ज़िक्र किया गया है।जैसे अभी हाल ही में मैं हजरत सुल्तान बाहू का एक फ़िकरा पढ़ रहा था। उसमें उन्होंने फरमाया है कि,”एक कामिल मुर्शिद अर्थात सद्गुरू अंतर में प्रियतम से मिलाप करने की वह तरकीब देते हैं, जिससे अन्दर ही खुदा के नाम का पौधा उग जाता है, अन्दर ही खुदा का दीदार हो जाता है और किसी प्रकार की बाहरी क्रिया करने की कोई जरूरत ही नहीं रह जाती। *जददा मुर्शद फ़ड़िया बाहू* *छुट्टी अब अज़ाबे हूँ*हुजुर तुलसी साहब की एक किताब में भी एक प्रसंग पढ़ने को मिला कि,”एक बार एक मुसलमान दरवेश मेरी ही तरह खुदा की खोज में दर-2 की खाक छान रहा था। तुलसी साहब की उसपर नजरें इनायत पड़ गईं। उसे दो शब्द सुना दिए। कहते हैं कि उसी हिदायत पर, उनके दो शब्दों पर चलकर दरवेश ला मुक़ाम अर्थात मंजिल पा गया।” ऐसी ग्रन्थों में सद्गुरु की महिमा है, मैने पढ़ी है। मित्र ने कहा कि, “वह हिदायत क्या थी? जो तुलसी साहेब ने दी थी?”बुल्लेशाह कहते हैं कि, *सुने तकि न जाइयों जिन हार देखना* *अपने में आप जलवाएँ दिलदार देखना*उन्होंने समझाया कि,”ए तकि दिलदार का जलवा देखने के लिए कहीं बाहर न जाना, अपने ही अन्दर उसका जलवा देख।”इसी रौ में आगे गाया उन्होंने कि, *तुलसी बिना करम किसी मुर्शिद रसिदा के,* *राहे निजाद दूर है उस पार देखना।*मतलब कि,”किसी सद्गुरु की मेहर के बिना अन्दर की इस रूहानी मुल्क में कदम नहीं रखा जा सकता, खुदा का जलवा देख पाना नामुमकीन है, नामुमकीन है।।”फिर शम्स तबरेज ने भी तो यही कहा, अंदाज चाहे अलग था परन्तु बात तो यही थी ना कि, *औलिया चष्मे ग़ैब बकु शायिन्द*अर्थात ,”एक औलिया ग़ैबी आँख अर्थात दिव्य दृष्टि खोल देता है।जिससे अपने अन्दर ही माशूक़ के नजारे दिखाई देते हैं।”एक या दो नहीं, सभी अव्वल फ़कीरो का यही कलाम हैं, यही कहना है कि,”सद्गुरु बिना उस ईश्वर का दीद नहीं हो सकता।”मित्र ने कहा, “मियाँ! ये सब तो गुज़रे ज़माने के फकीरों की कहानियाँ हैं। हमारे पूर्वजों के ज़माने में हुआ करते होंगे ऐसे पीर, औलिया, सद्गुरु जो ईश्वर का दीदार करा सकते हो। आजकल तो नुमाइशी ढोंगियों का दौर है। कहाँ होंगे ऐसे कामिल मुर्शिद? ऐसे पहुँचे हुए सद्गुरु?”बुल्लेशाह बोले यही शुबहा अर्थात संशय मेरे ज़हन में भी खटका था, परन्तु हाल ही में कुरान की एक हिदायत पढ़ने को मिली। उसमें कहा है कि, “उस ख़ालिक द्वारा हर समय में पैगम्बर भेजे जाते हैं।अपनी मति को छोड़कर खुदा के बनाए कानून के मुताबिक उसकी खोज करो। धरती कभी सद्गुरु से रिक्त नहीं होती। वह ईश्वर सदैव इस धरती पर सद्गुरु के रूप में मौजूद रहते हैं।”मित्र ने कहा,”लेकिन ज़नाब! आप इतनी बड़ी दुनिया में उनकी खोज कहाँ करेंगे? यह तो बिल्कुल ऐसे है, जैसे सागर के किनारे पर बिखरी बेशुमार ख़ोकि सीपियों के बीच एक मोती ढूँढना!”बुल्लेशाह बोले,”बात तो सही है, परन्तु मैने लाहौर के हजरत इनायत शाह का नाम बहुत सुना है। कहते हैं कि लोग दूर-2 से उनकी शागिर्दी पाने आते हैं। सोच रहा हूँ कि उनके अस्ताने अर्थात आश्रम पर भी एक बार हो ही आऊँ। जहाँ इतने दरवाज़े खटखटायें हैं, एक बार इनका भी खटकाकर देख लूँ। हो सकता है मेरे मर्ज की दवा वहाँ मिल जाए।”हम आगे देखेंगे कि किस प्रकार महलों के नवाब बुल्लेशाह सद्गुरु को ढूँढने निकल पड़ते हैं। उनको किन- 2 कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है और उनको कैसे सद्गुरु प्राप्त होते हैं।—————————————————आगे की कहानी कल के पोस्ट में दिया जायेगा …

सन 2011 ब्रह्मपुरी ऋषिकेश की यह मधुर घटना तब की है जब पूज्य बापूजी वहां पधारे थे


जिस प्रकार जब बालक धीरे-2 कदम रखता है और स्वतंत्र रीति से चलने की कोशिश करता है तब कभी-2 गिर पड़ता है और फिर खड़ा होता है तथा मां की सहायता की जरूरत पड़ने पर उसकी सहायता मांगता है । इसी प्रकार साधना के प्रारम्भ के स्तरों में शिष्य को करुणामयी गुरु की सहायता एवम् मार्गदर्शन की आवश्यकता पड़ती है, अतः उसे वह मांगना चाहिए । सच्चे शिष्य को मोक्ष के लिए तीव्र अकांक्षा होनी चाहिए,तथा संभव हो उतनी तमाम रीतियों से वह अकांक्षा प्रकट करनी चाहिए । तभी उसकी इच्छा की पूर्ति करने में गुरु उसे सहायभूत हो सकते हैं । इस अकांक्षा को प्रयत्न कह सकते हैं और गुरु की करुणामयी सहाय को माता की वात्सल्यमय कृपा कह सकते हैं । पूज्य बापूजी के प्रेरक जीवन प्रसंग…… लगभग दिसंबर 2011 की बात है संत श्री आशारामजी आश्रम ब्रह्मपुरी ऋषिकेश में पूज्य बापूजी एकांत हेतू पधारे थे । साधकों की प्रार्थना पर दिन में एक समय सत्संग के लिए निर्धारित किया गया था । साधकों की संख्या ज्यादा होने से सत्संग आश्रम के बाहर खुले में पेड़ों के नीचे होता था । हरिद्वार की अलका शर्मा एक दिन की घटना बताते हुए कहती हैं कि पूज्य बापूजी कुर्सी पर विराजमान थे । बहुत सारे बंदर और लंगूर पेड़ों पर बैठे थे । बापूजी ने उनके लिए मक्का उबालने को कहा और फिर सत्संग शुरू हो गया । सत्संग पूरा होने पर पूज्यश्री ने कुकर मंगवाया और स्वयं अपने हाथों से बंदरों और लंगूरों को मक्का खिलाने लगे । साथ ही साधकों को बता रहे थे कि यहां के बंदर बहुत भूखे होते हैं क्यूंकि यहां इन्हें पहाड़ों में खाने को नहीं मिलता । तभी सत्संगियों में बैठी एक बुजुर्ग महिला उठी और प्रसाद के लिए अपने साथ लाई हुई पांच किलो मूंगफली की थैली बापूजी की मेज पर रख दी । चारों तरफ बंदर थे, बापूजी ने पीछे खड़े सेवक को कहा यह थैली उठा ले नहीं तो बंदर इसे फाड़ देंगे, बिखर जाएगी । तभी 2-3 बंदर थैली की ओर झपटे । बंदरों ने जैसे ही थैली फाड़ने की कोशिश की । पूज्यश्री आगे होकर पूरी तरह थैली पर झुक गए और दोनों बाजुओं से थैली को ढक दिया । बंदरों से तो बापूजी ने मूंगफली बचा ली परन्तु थैली फटने से मूंगफली मेज व जमीन पर बिखर गई । बापूजी ने सामने बैठे सत्संगियों को मूंगफली का एक-2 दाना उठाने को कहा । तभी इस साधिका बहन के मन में एक प्रश्न उठा कि आत्मरस में डूबे रहने वाले इतने बड़े ब्रह्मज्ञानी संत जिनको लोक संपर्क में आने के लिए कितनी मुश्किल से मन को मनाना पड़ता है, और अभी स्वयं अपने हाथों से बंदरों को मक्का खिला रहे थे । चार-पांच सौ रुपए की मूंगफली बचाने के लिए खुद उस पर झुक गए और दोनों बाजुओं से उसे ढक दिया । आखिर उन्हें क्या आवश्यकता थी । साधिका बहन के मन की बात तुरंत अन्तर्यामी, करुणासिंधू बापूजी जान गए और बोले कि धर्म का एक-2 पैसा लोहे के चने चबाने के समान होता है । जो उसका दुरुपयोग करता है उसकी सात-2 पीढ़ियां तबाह हो जाती हैं । यह मूंगफली भक्तों में प्रसाद रूप में बांटने के उद्देश्य से अाई थी । बंदरों को उनका भोजन पहले ही मिल चुका था । हां हम उन्हें अपने हाथ से देते तो ठीक था परन्तु झपट्टा मारकर अगर वे इसे ले जाते या बिखेर देते तो मूंगफली के दुरुपयोग का दोष पड़ता, अतः इसकी रक्षा जरूरी थी । बात बहुत सूक्ष्म थी पता नहीं कितने लोगों को समझ में अाई । मगर साधिका बहन कहती हैं कि मुझे याद आया गुरुदेव सत्संग में बार-2 कहा करते थे कि धर्म के पैसे का बहुत सोच समझ कर उचित जगह पर ही उपयोग करना चाहिए । कभी भी उस पैसे का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए । ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों के प्रत्येक कार्य व लीला में गूढ़ रहस्य छुपा होता है इसलिए कहा गया है कि ज्यों केले के पात-पात में पात, त्यों संतन की बात-बात में बात । परन्तु यह सभी कार्य विश्व मांगल्य के लिए ही होते हैं । बापूजी कई बार विनोद भी ऐसा करते हैं कि हताश व्यक्ति भी आनंदित व उत्साहित हो जाता है । सन 2005-2006 के लगभग खेरालु गुजरात में बापूजी का सत्संग था । सत्संग स्थल से कुछ दूरी पर बापूजी का निवास था । बापूजी नित्य नियम के अनुसार घूमने निकले, पड़ोस के किसान के खेत में भैंस थी । बापूजी को भैंस की हूबहू आवाज निकालते हुए सत्संग में तो सभी ने देखा है । भैंसों को देखकर बापूजी को विनोद सूझा । पूज्यश्री ने भैंसों की आवाज रिकॉर्ड करवाई और उस ऑडियो ट्रैक को भैंसों के सामने ही चलवाया । भैंसें पहले तो रंभा रही थी परन्तु जब उन्होंने देखा गाड़ी में से उनकी तरह ही आवाज़ आ रही है तो वे अचंभित होकर इधर उधर देखने लगी । बापूजी ने थोड़ी देर के लिए आवाज़ बंद करवाके फिर चालू करवाई । इस प्रकार वह ट्रैक चलाते रहने के लिए बोलकर बापूजी चले गए । फिर तो भैंसों को गाड़ी से अपने तरह की आवाज सुनकर आंनद आने लगा और वे सभी भैंसें गाड़ी के नजदीक आ गई । सभी लोग वह नज़ारा देख रहे थे और प्रसन्न हो रहे थे । मनुष्य ही नहीं पशुओं को भी आनंदित करते हैं पूज्य बापूजी ।

पूज्य बापूजी की यह चमत्कारिक लीला आपको आंनद रस में विभोर कर देगी घटना 1975 की..


जो दैवीय गुरु के चरणों में आश्रय लेता है वह गुरु की कृपा से अध्यात्मिक मार्ग में आने वाले तमाम विघ्नों को पार कर जायेगा । योग के लिए श्रेष्ठ एकांत गुरु का निवास स्थान है । शिष्य के साथ गुरु रहते नहीं हों तो ऐसा एकांत सच्चा एकांत नहीं है । ऐसा एकांत काम और तमस का आश्रय स्थान बन जाता है । गुरु माने सच्चिदानंद माने परमात्मा । जिस शिष्य को अपने गुरु के प्रति भक्ति-भाव है, उसके लिए तो आदि से अंत तक गुरु सेवा मीठे शहद जैसी बन जाती है । गुरु के पवित्र मुख से बहते हुए अमृत का जो पान करता है वह मनुष्य धन्य है । जो सम्पूर्ण भाव से अपने गुरु की अथक सेवा करता है उसे दुनियादारी के विचार ही नहीं आते । इस दुनिया में वह सबसे अधिक भाग्यवान है । बस अपने गुरु की सेवा करो, सेवा करो, सेवा करो ! गुरुभक्ति विकसित करने का यह राजमार्ग है, अपने गुरु की महिमा का गुणगान, उनकी लीलाओं का ज्ञान और उनकी ही चर्चा हर सतशिष्य को हृदय गम्य होती है । सहज ही साधक के हृदय को पुलकित एवम् आनंदित कर देती है । आईये हम सुनते हैं पूज्य बापूजी के जीवन प्रेरक प्रसंग…..श्रीमती शारदा पटेल सन 1975 से बापूजी का सत्संग सानिध्य पाती रही हैं । वे बता रही हैं बापूजी के सानिध्य में उनके जीवन में हुए कुछ रोचक प्रसंग । मैंने शुरू से ही पूज्य बापूजी का बहुत ही सरल स्वभाव देखा है । सन 1975 में मैं पिताजी को लेकर आश्रम अाई थी । उनके पैर में काफी तकलीफ थी, उस समय आश्रम के चारों तरफ जंगल था । आश्रम तक आने के लिए यातायात का कोई साधन भी नहीं मिलता तो हम बड़ी मुश्किल से पैदल चलकर अाए । आश्रम पहुंचे तो एक ओजस्वी, तेजस्वी काली दाढ़ी वाले महाराज ने हमसे पूछा… आप लोग कहां से आए हैं ? मैं बोली ऊंझा, गुजरात से । किससे मिलना है ? बापू से, आशाराम बापू मिलेंगे । तब संस्कार नहीं थे तो हम ऐसा बोलते थे । हां मिलेंगे । आप लोग बैठो मैं उनको बताता हूं कि कोई आया है । थोड़ी देर बाद हमने देखा तो जिनसे हमारी बात हुई थी वे ही महाराज सत्संग मंडप में आकर व्यासपीठ पर बैठ गए और हमें बुलाया । हम गए तो वे बोले अभी देखा । मैंने पूछा आप आशाराम बापू हैं ? हां मैं आशाराम बापू हूं । पहले तो आपने बोला मैं भेजता हूं आशाराम बापू को । बापूजी मुस्कुराते हुए बोले यह तो ऐसे होता रहता है । मैं तो हैरान रह गई फिर बापूजी ने सत्संग किया । सत्संग में मैं थैला गोद में लेकर बैठी थी । पूज्यश्री बोले यह पोटला नीचे रखो, इसमें कोई सार नहीं, इसे छोड़ दो । मैंने थैला नीचे रखा । घुटने के दर्द का इलाज बताते हुए पूज्यश्री बोले गौझरन को मटके में भरकर तीन-चार सप्ताह तक गड्ढे में गाड़ देना । फिर उसको लगाकर मालिश करना । सत्संग के बाद बापूजी ने मेरे पिताजी को मोक्ष कुटीर में बुलाकर मंत्र दीक्षा दी । पिताजी को चलने में तकलीफ थी इसीलिए जब हम जाने लगे तो पूज्य श्री स्कूटर से सड़क तक छोड़ कर अाए । दूसरा प्रसंग बताते हुए वे कहती हैं कि ऊंझा में जब बापूजी पहली बार हमारे घर आए तो मुझे पता नहीं था कि कितने लोग आएंगे । मैंने बड़ी श्रद्धा व प्रेम से 14-15 लोगों की रसोई बनाई थी परन्तु 100 लोग आ गए । मैं तो घबरा गई, आश्रम के शंकर भाई को मैंने बोला इतने सारे लोगों को हम क्या खिलाएंगे । हमने तो 14-15 लोगों का भोजन बनाया है, अब 100 लोगों की रसोई तुरंत कैसे बना पाऊंगी । बापूजी को पता चला तो उन्होंने मुझसे पूछा तूने क्या बनाया है ? बापू दाल, भात, सब्जी, रोटी । अच्छा दिखाओ ढक्कन खोलकर दिखाया तो बापूजी ने सब्जी, दाल, चावल में चम्मच घुमाया फिर बोले परोसो नहीं खुटेगा । केवल 14-15 लोगों का भोजन था परन्तु आश्चर्य मैं परोसती गई और वह खुटा ही नहीं । सभी 100 लोगों के लिए पर्याप्त भोजन हो गया, कुछ भी कम नहीं पड़ा ।