श्रीमद्भागवत में गुरु महिमा का वर्णन करते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि, ज्ञानउपदेश देकर परमात्मा को प्राप्त करानेवाले गुरु…तो मेरा ही स्वरूप है । सभी महान ग्रंथों ने गुरू महिमा गाई है। जिस ग्रंथ में गुरू महिमा नहीं वह सद्ग्रन्थ ही नहीं है। श्रीरामचरित मानस में गुरू महिमा पग-पग पर देखने को मिलती है। रामजी का जन्म हुआ तो गुरुकृपा से। रामायण में आता है कि एक बार राजा दशरथ के मन में बड़ी ग्लानि हुई कि मुझे पुत्र नहीं है।*गुरू गृह गयो तुरत महिपाला* दशरथ जी अपने गुरु वशिष्ठ जी के आश्रम गए और उनके चरणों में प्रणाम कर विनय पूर्वक अपना सारा दुःख सुनाया।श्री वशिष्ठ जी ने उन्हें समझाया और कहा, तुम्हे चार पुत्र होंगे गुरुजी पुत्र का अनेष्ठी यज्ञ करवाया जिनके फलस्वरूप रामजी का जन्म हुआ ।दशरथ जी हर कार्य कार्य करने से पहले गुरुदेव से पूछते थे। गुरुकृपा के कारण ही राजा दशरथ देवासुर संग्राम में देवताओ की मदद करने सशरीर स्वर्ग गए थे। एक बार शनि देव रोहिणी का भेदन करने वाले थे जिससे पृथ्वी पर बारह वर्षो तक अकाल पड़ता, इस आपदा बचाने हेतु गुरूदेव की आज्ञा पाकर राजा दशरथ उस योग के आने के पहले ही शनिदेव से युद्ध करने हेतु चले गए और गुरुकृपा से प्रजा की रक्षा करने में सफल भी हुए। दशरथ जी कहते है, *नाथ सकल सम्पदा तुम्हारी मैं सेवक समेत सुतनारी ।* दशरथ जी का जीवन और राज्य व्यवस्था गुरु की परहीत परायणता, निस्वार्थता, परस्पर हित जैसे सिद्धांतो से सुशोभित थी, ऐसे महान गुरुभक्त के घर भगवान जन्म नही लेंगे तो किसके घर लेंगे ।रामजी की शिक्षा भी गुरुकृपा से हुई। विश्वामित्र मुनि राम लक्ष्मण को लेने दशरथजी के पास आए। वृद्धावस्था में तो संतान हुई और फूल जैसे कोमल कुमारो को जंगल में ले जाने के लिए मुनि मांग रहे थे, वह भी भयंकर राक्षसों को मारने हेतु। इतने खतरों के बीच राजा दशरथ कैसे भेज देते ? लेकिन जब गुरु वशिष्ठ जी ने कहा “महर्षि स्वयं समर्थ है किंतु ये आपके पुत्रों का कल्याण चाहते है इसलिए ये यहां आकर याचना कर रहे है।” तो दशरथ जी ने गुरुआज्ञा मानकर आदर से पुत्रों को विश्वामित्र जी के हवाले कर दिया। इससे प्रसन्न होकर विश्वामित्र जी बोले, “राजन् ! तुम धन्य हो, तुम्हारे दो गुण है… एक तो यह कि तुम रघुवंशी हो और दूसरा कि वशिष्ठ जी जैसे तुम्हारे गुरु है जिनकी आज्ञा में तुम चलते हो।”राजा दशरथ की गुरुवचनों मे ऐसी निष्ठा थी ऐसा आज्ञपालन का भाव था कि गुरुजी ने कहा तो प्राणों से भी प्रिय राम लक्ष्मण को दे दिया। इसी भाव ने राजा को विश्वामित्र जी के कोप से भी बचा लिया। राम जी को आत्मज्ञान की प्राप्ति गुरुकृपा से हुई। गुरु असीम धैर्य और दया के सागर होते है। वशिष्ठ जी ने रामजी को कभी प्रेम से समझाया, कभी डांटा, कभी प्रोत्साहन दिया, अनेक दृष्टांत देकर बताया और ज्ञानवान बना के ही छोड़ा।सबसे बड़ा पद है गुरुपद। ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी जिन्हे झुककर प्रणाम करते हैं वे गुरु अपने शिष्य को हाथ जोड़कर कहते है कि, “हे राम जी मैं तुम्हारे आगे हाथ जोड़ के प्रार्थना करता हूं कि जो कुछ मैं तुमको उपदेश करता हूं उसमे ऐसी आस्तिक भावना कीजियेगा कि इन वचनो से मेरा कल्याण होगा ।” जिस स्थिति को पाने में ऋषि मुनि पूरा जीवन लगा देते है वह स्थिति को गुरु वशिष्ठ जी ने सहज में रामजी को दिला दी।रामजी तो भगवान विष्णु के अवतार थे ज्ञातज्ञेय थे फिर भी मानव रूप में आने पर ज्ञान पाने के लिए गुरु की शरण में ही जाना पड़ा। रामजी का विवाह भी गुरुकृपा से हुआ।राजा दशरथ इतने बड़े गुरूभक्त थे तो रामजी पीछे कैसे रहते? रामजी भी कोई भी कार्य गुरुदेव को पूछे बगैर नहीं करते थे। लक्ष्मण जी को जनकपुरी देखने की इच्छा हुई तो रामजी गुरुजी की आज्ञा लेकर वहां गए। धनुष उठाने और तोड़ने का सामर्थ्य होते हुए भी जब गुरुदेव ने आज्ञा दी तब उनको प्रणाम कर धनुष तोड़ा परंतु अपने मे किसी विशेषता के अहंकार को फटकने नहीं दिया। रामजी ने धनुष तोड़ा तो गुरुआज्ञा से, विवाह किया तो गुरुआज्ञा से.. अगर कोई भी शिष्य अपने जीवन में सद्गुरु की आज्ञा ,गुरु के आदर्शो को ले आए तो उसका जीवन भी राम जी की तरह वंदनीय है और यशस्वी होगा। भगवान के चौबीस प्रमुख अवतारों में श्रीराम और श्रीकृष्ण अवतार मानव जाति के लिए विशेष प्रेरणाप्रद हो सके, क्योंकि इन दो अवतारों में भगवान ने यह दिखाया कि किस प्रकार मनुष्य गुरुकृपा से जीवन के महान लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। इसलिए स्वामी शिवानंदजी कहते है कि “सुई की छेद से ऊँट गुजर सके इससे भी अत्यधिक मुश्किल बात है गुरुकृपा के बिना ईश्वर प्राप्त करना।” जैसे छोटे छोटे झरने एवं नदियां महान पवित्र नदी गंगा से मिल जाने के कारण खुद भी पवित्र होकर पूजे जाते है और अंतिम लक्ष्य समुद्र को प्राप्त होते है… उसी प्रकार सच्चा शिष्य गुरु के पवित्र चरणों का आश्रय लेकर तथा गुरु के साथ एकरूप बनकर शाश्वत सुख को प्राप्त होता है।
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बंगाली बाबा की यह कथा आपकी गुरु वचनो मे निष्ठा बढा देगी…
स्वामी राम जिनका देहरादून में आश्रम है। उनके गुरु बड़े ही उच्च कोटी के संत थे। कई विद्यार्थी उनके पास आये और अपने को उनका शिष्य बनाने की प्रार्थना की। एक बार जब गुरु दक्षिण भारत में तुंगभद्रा नदी के तट पर निवास कर रहे थे तो एक दिन उन्होंने सभी विद्यार्थियों को बुलाकर कहा कि सब लोग मेरे साथ चलो, वे सभी विद्यार्थीयों को नदी तक ले गये, नदी भयंकर बाढ़ के कारण अत्यंत विस्तरीत तथा भयावह लग रही थी।उन्होंने कहा जो भी इस नदी को पार करेगा, वही मेरा शिष्य होगा। एक विद्यार्थी बोला गुरुजी आप तो जानते ही हैं कि, मैं पार कर सकता हूं किंतु मुझे शीघ्र ही लौटकर अपना काम पूरा करना है। दुसरा विद्यार्थी बोला, गुरुजी मैं तो तैरना ही नहीं जानता, पार कैसे करुंगा ? गुरुदेव के बोलते ही स्वामी राम अचानक नदी मे कूद पड़े नदी बहुत चौड़ी थी। उसमे अनेक घड़ीयाल थे,और कई लकड़ियां बह रही थी लेकिन स्वामी राम को उनका कुछ भी ध्यान नहीं रहा ।घड़ीयाल को देखकर वे भयभीत नहीं हुये, और लकड़ियां देखकर यह नहीं सोचा कि लकड़ी का सहारा लेकर पार हो जाऊंउनका मन तो गुरुदेव के कथन पर ही एकाग्र था। जब वे तैरते-तैरते थक जाते तो बहने लगते परंतु पुनः तैरने का प्रयास करते, इस प्रकार वो नदी को पार करने में सफल हो गये।गुरुदेव ने अन्य विद्यार्थियों को कहा इसने यह नहीं कहा कि मैं अापका शिष्य हुं, बल्कि आज्ञा सुनते ही बिना कुछ विचार किये ये कूद पड़ा।गुरु के प्रति श्रद्धा, आत्मज्ञान प्राप्ति में सबसे ज्यादा आवश्यक है। बिना श्रद्धा के किसी एक अंश तक बौद्धिक ज्ञान तो प्राप्त किया जा सकता है किंतु आत्मा के निगुढतम रहस्य का उदघाटन तो श्रद्धा के द्वारा ही संभव है ।शिष्य तो अनेक होते हैं किंतु जो अपनी जीवन रुपी पौधे को गुरु आज्ञा पालन रुपी जल से सींचते हैं उनके ही हृदय में आत्म ज्ञान रुपी फल लगते हैं। वे ही सच्चे शिष्य हैं।पन्द्रह वर्ष की आयु में जब स्वामी राम को उनके गुरु ने दीक्षा दी, तो गुरुदक्षिणा के रुप में देने के लिए उनके पास कुछ भी नहीं था, उन्होंने सोचा दूसरे शिष्य डलिया भरके फल, पुष्प, रुपये लेकर आते हैं और अपने गुरु को समर्पित करते हैं। परंतु मेरे पास तो समर्पित करने के लिए कुछ भी नहीं है। उन्होंने गुरुदेव से पूछा कि आपको समर्पित करने के लिए सबसे अच्छी चीज क्या है ?गुरुदेव ने कहा, मुझे कुछ सूखी लकड़ी के टुकड़े लाकर दो, उन्होंने सोचा यदि कोई सूखी लकड़ी के टुकड़े को गुरुदेव को भेंट करें तो वे रुष्ट होंगे, किंतु गुरुजी ने जैसा कहा उन्होंने वैसा ही किया।गुरुदेव बोले, अपने विशुद्ध चित्त से इन लकड़ी के टुकड़ों को मुझे समर्पित करो । स्वामी राम को असमंजस में देख गुरुजी ने समझाया कि जब तुम सूखी लकड़ी के टुकड़ों का ढेर समर्पित करते हो, तो गुरु समझते हैं कि अब तुम मोक्ष मार्ग के पथिक बनने को प्रस्तुत हो गये हो ।इसका तात्पर्य है कि कृपा करके मुझे अपने भूतकाल के कर्मो एवं आसक्तियों से मुक्त कर दीजिए। मेरे समस्त संस्कारों को ज्ञान अग्नि में दग्ध कर दीजिए। मैं इन लकड़ी के टुकड़ों को अग्नि में भस्म कर दूंगा।गुरुदेव ने कहा ताकी तुम्हारे विगत कर्म भविष्य को प्रभावित न कर सके। आज मैं तुम्हे एक नया जीवन दे रहा हूं । तुम्हारा जीवन भूतकाल से प्रभावित न रहेगा, तुम अब नवीन आध्यात्मिक जीवन का निर्माण करो। वास्तव में सद्गुरु अपने लिए कुछ भी नहीं चाहते। वे तो केवल ये चाहते हैं कि जो आत्म खजाना उन्हें मिला है, वही दूसरो को भी मिल जाय। इसलिए स्वामी शिवानंदजी कहते हैं कि गुरु के प्रति भक्ति अखूट और स्थायी होनी चाहिए। गुरु सेवा के लिए पुरे हृदय की इच्छा ही गुरु भक्ति का सार है। गुरु के प्रति भक्तिभाव ईश्वर के प्रति भक्ति भाव का माध्यम है, गुरु की सेवा अपने जीवन का एक मात्र लक्ष्य एवं ध्येय होना चाहिए। स्वयं की अपेक्षा गुरु के प्रति अधिक प्रेम रखो ।
स्वामी राम को बंगाली बाबा ने वह दिया जिसे देने का कोई सोच भी नहीं सकता
गुरू के दिव्य कार्य हेतु शिष्य को मन, वचन और कर्म में बहुत ही पवित्र रहना चाहिये। गुरुभक्तियोग एक स्वतंत्र योग है।सद्गुरू के पवित्र चरणों में आत्मसमर्पण करना ही गुरुभक्तियोग की नींव है। अगर आपको सद्गुरू के जीवनदायक चरणो में दृढ श्रद्धा एवं भक्तिभाव होगा तो आपको गुरुभक्तियोग के अभ्यास में अवश्य सफलता मिलेगी।जब स्वामी राम 7 वर्ष के थे तो बनारस के पंडित तथा ज्योतिषी लोग उनका भविष्य बताने के लिये उनके एक संबंधी के घर बुलाये गये। बालक राम द्वार के बाहर खडे़ होकर अपनी भविष्यवाणी सुनने को इच्छुक हो रहे थे।वे पंडित बोले यह बालक 28 वर्ष की अवस्था में मृत्यु को प्राप्त होगा तथा मृत्यु का निश्चित समय भी बता दिया। यह सुनकर राम सिसक-2 कर रोने लगे कि वह इनती अल्प आयु में ही मर जायेंगे और जीवन का लक्ष्य पूरा नहीं कर पायेंगे।इतने में सहसा उनके सद्गुरू बंगाली बाबा वहाँ पधारे और बालक राम के रोने का कारण पूछा। राम ने उन ज्योतिषियों की ओर इशारा करके कहा कि ये लोग कह रहे हैं कि 28 वर्ष की अवस्था में उनकी मृत्यु हो जायेगी। बाबा, राम का हाथ पकड़कर ज्योतिषियों के पास ले गये और बोले,”क्या आप लोग यह सच कह रहे हैं कि इस बच्चे की 28 वर्ष की अवस्था में मृत्यु हो जायेगी?” वे सभी पंडित एक स्वर में बोले,”हाँ ! 28 वर्ष के इस निश्चित समय पर इस बालक की मृत्यु होगी तथा कोई भी इसे नहीं बचा सकता।”बंगाली बाबा राम की ओर मुड़कर बोले कि, “राम, तुमसे पहले ये सभी ज्योतिषगण मृत्यु को प्राप्त हो जायेंगे और तुम दीर्घकाल तक जीवित रहोगे, क्योंकि मैं तुम्हे अपनी आयु देता हूँ।” ज्योतिषी बोलेेे,”यह कैसे संभव है?”बाबा ने कहा ,”आपकी भविष्यवाणी असत्य है, ऐसा नहीं है। परन्तु ज्योतिष से परे भी कुछ होता है। यदि सद्गुरू देने की ठान ले तो शिष्य को पूरी त्रिलोकी दे सकते हैं।” चिंता मत करो राम, किन्तु याद रखना, तुम्हे उस निश्चित समय पर मृत्यु का सामना करना पड़ेगा। उस समय मैं सहायता करूंगा।इसके बाद मध्य के वर्षो में स्वामी राम यह सब भविष्यवाणी की बाते भूल गये। जब स्वामी राम 28 वर्ष के हुए तो एक दिन बाबा ने ऋषिकेश से 60 मील दूर 11हजार फीट ऊंची एक विशिष्ट पहाड़ी पर जाकर राम को साधना करने के लिये कहा।उन दिनो राम के पास खड़ाऊ, लंगोटी और एक शॉल तथा करमंडल के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था। गुरू की आज्ञा को शिरोधार्य कर स्वामी राम स्रोतों का गान करते हुए निःस्वच्छंद रूप से पहाड़ो में विचरण करते हुए साधना करने लगे।पर्वत ही अब स्वामी राम के घर बन गये। 20 हजार फीट तक ऊंचे पर्वतों का आरोहण उन्होने किया था और बिना किसी आधुनिक उपकरण की सहायता से। किसी भी पर्वत का आरोहण करने का दृढ़ साहस उनमें था।एक दिन स्वामी राम सीधे खड़े उत्तन्ग शिखर के किनारे-2 स्त्रोत पाठ करते हुए, टहलते हुए चले जा रहे थे। अचानक वृक्षों के पत्तों पर से पैर फिसला और वे पहाड़ से नीचे गिरने लगे। राम ने सोचा कि जीवन का अब यही अवसान है, क्योंकि ज्यों ही वे लुड़कते-गिरते लगभग 500 फीट नीचे पहुंचे कि सहसा एक छोटी सी कटीली झाड़ी में जाकर फँस गये। झाड़ी की एक नुकिली शाखा उनके पेट में जा घुंसी और वे उसी में उलझ गए।उस झाड़ी के बाद सैकड़ों फीट गहरी खाई भी थी और उधर राम के भार के कारण झाड़ी नीचे झुकने लगी। उन्होंने पहाड़ और पुनः सैकड़ों फीट नीचे गंगाजी को देखा। अपने नेत्र बंद कर लिये और पुनः खोले तो पेट से रक्त बहता हुआ दिखाई दिया, किन्तु मृत्यु भय की तुलना से वह पीड़ा कुछ भी नहीं मालूम पड़ी। भयंकर मृत्यु की भावी घटना याद करके उन्होने उस घाव पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। उन्होने अपने सभी मंत्रो का उच्चारण किया।अपने धैर्य का परीक्षण करना उन्होने आरंभ किया कि सहसा उन्हे गुरू का ज्ञान याद आया कि,”वे तो नहीं मरते। वे शरीर नहीं वे आत्मा है और आत्मा तो अमर है। मृत्यु शरीर का धर्म है। वे नित्य एवं अमर है। तो भय क्यूँ?” वे स्वयं को शरीरभाव से परे देखने लगे। राम उस झाड़ी पर लगभग 20 मिनिट तक लटके रहे।उस समय उन्हे अपने गुरुदेव की यह बात याद आई कि, “वैसे यह आदत मत बना लो तथापि जब भी कभी आवश्यकता पड़े तो मुझे याद करना, किसी ना किसी रूप में, मैं तुम्हारे पास पहुंच जाऊंगा।” स्वामी राम ने सोचा कि मैं अपनी साहस की परीक्षा कर चुका। अब मुझे अपने गुरुदेव की परीक्षा कर लेनी चाहिये। यह बात बड़ी ही सूक्ष्म है कि,”शिष्य सदा ही अपने गुरू की परीक्षा लेना चाहता है।अपनी निर्बलता का सामना न करते हुए वह गुरू का ही छिद्रानुवेशन करता है।”अत्याधिक रक्तस्त्राव के कारण उन्हे मूर्च्छा आने लगी। आँखों के सामने अँधेरा छाने लगा और चेतना समाप्त होने लगी। उसी समय ऊपर मार्ग पर राम को कुछ स्त्रियों के शब्द सुनाई पड़े। वे पहाड़ो में घास और लकड़ियाँ इकठ्ठा करने आई थी। उन स्त्रियों ने राम को ऊपर खींचकर जमीन पर रख दिया और पूछा,”क्या तुम टहल सकते हो? चल सकते हो?” राम ने कहा ,”हाँ!”उन्होने पहले तो सोचा था कि इतना गंभीर घाव नहीं होगा। उन स्त्रियों ने सोचा कि ये साधु है, अतः बिना उनकी सहायता के ही अपनी देखभाल कर लेंगे। अतः उन्होने कहा कि,” यही मार्ग पकड़कर सीधे चलते जाओ जब तक गाँव ना आ जाए।” वे स्त्रियाँ वहाँ से चली गयी। स्वामी राम ने चलने का प्रयास किया परन्तु कुछ ही मिनिट में मूर्छित होकर जमीन पर गिर पडे़।उन्होने मन ही मन कहा कि, “मेरा जीवन समाप्त हो गया और वह अपने गुरुदेव को याद करते हुए सोचने लगे कि गुरुदेव आपने मेरा पालन-पोषण किया। मेरे लिए सबकुछ किया किन्तु आज मैं बिना आत्म अनुभूति के ही मर रहा हूँ। आपकी समस्त मेहनत को मैंने पानी में मिला दिया।”सहसा बंगाली बाबा वहाँ प्रगट हो गये। राम ने सोचा कि शायद उनका मन उनके साथ धोखा दे रहा है, उनका भ्रम है। वे बाबा से बोले,”क्या आप सही में यहाँ पर हैं? मैं तो सोच रहा था कि आपने मुझे त्याग दिया है। शायद आप मुझे भूल गये हैं।”बाबा ने कहा,”तुम चिंतित क्यों हो रहे हो? तुम्हे कुछ भी नहीं होगा।मैंने तुमको वचन दिया था कि मैं तुम्हारी इस घड़ी में सहायता करुँगा। क्या तुम्हे याद नहीं कि ज्योतिषियों के द्वारा बहुत पहले बताया गया तुम्हारी मृत्यु का यही दिन और समय है? इसके बाद तुम्हे अब कभी भी मृत्यु का सामना नहीं करना पड़ेगा। अब तुम पूर्णतया ठीक हो जाओगे।”स्वामी राम में धीरे-2 चेतना का संचार हुआ। बाबा कुछ पत्तियां लाकर, उन्हे कुचलकर राम के घावपर रख दिये और उन्हे एक पार्श्ववर्ती गुफा में ले गये और वहाँ कुछ लोगो को उनकी देखभाल करने को कह दिया।बाबा बोले कि,”यहां तक कि मृत्यु को भी टाला जा सकता है, शिष्य के कल्याणार्थ!” यह कहकर वहाँ से वे चले गये। दो सप्ताह में स्वामी राम के पेट का घाव ठीक हो गया।इस अनुभव से स्वामी राम लिखते हैं कि,”उन्हे ज्ञात हुआ कि किस प्रकार एक सच्चे, समर्थ एवं स्वार्थरहित गुरू दूर रहकर भी अपने शिष्य का ख्याल रखते हैं।उन्हे यह साक्षात अनुभव हुआ कि गुरू और शिष्य के बीच का संबंध एक उच्चतम एवं पवित्र संबंध होता है। यह संबंध अवर्णनीय है।”