बड़ी ही प्रचलित कथा है यह गुरु और शिष्य की, फिर भी मनन करने योग्य है।एक बार की बात है, गुरुकुल में जब शिष्य ने अपना अध्ययन संपूर्ण करने पर, अपने गुरु जी से यह बताने के लिए विनती की कि उन्हें गुरु दक्षिणा मे क्या चाहिए?। गुरुजी पहले तो मंद मंद मुस्कुराए और फिर बड़े ही स्नेह पूर्वक कहने लगे “मुझे तुमसे गुरु दक्षिणा में एक थैला भरके सूखी पत्तियां चाहिए… ला सकोगे ?” शिष्य मन ही मन बड़ा प्रसन्न हुआ क्योंकि उसे लगा कि वह बड़े ही आसानी से अपने गुरु की इच्छा पूरी कर सकेगा । सूखी पत्तियां तो जंगल में वैसे ही सर्वत्र बिखरी हीं रहती है। वह उत्साह पूर्वक गुरु जी से बोला “जैसी आपकी आज्ञा गुरुदेव”। अब वह शिष्य चलते चलते एक समीपस्त जंगल में पहुंच चुका। लेकिन यह देखकर कि वहां पर तो सूखी पत्तियां केवल एक मुट्ठी भर ही थी। उसके आश्चर्य का ठिकाना ना रहा। वह सोच में पड़ गया कि “आखिर जंगल से कौन सूखी पत्तियां उठाकर ले गया होगा ?” इतने में ही उसे दूर से आते हुए एक किसान दिखाई दिया। उसके पास पहुंचकर किसान से विनम्रता पूर्वक वह शिष्य याचना करने लगा कि वह उसे केवल एक थैला भर सूखी पत्तियाँ दे दे । अब उस किसान ने उससे क्षमा याचना करते हुए यह बताया कि वह उसकी मदद नहीं कर सकता, क्योंकि उसने सूखी पत्तियों का इंधन के रूप में पहले ही उपयोग कर लिया है। अब वह शिष्य पास मे ही बसे एक गांव की ओर इसी आशा से बढ़ने लगा कि हो सकता है उस गांव में उसकी कोई सहायता कर सके। वहां पहुंचकर उसने जब एक व्यापारी को देखा तो बड़ी उम्मीद से उससे एक थैला भर सूखी पत्तियाँ देने के लिए प्रार्थना करने लगा। लेकिन फिर.. एक बार निराशा ही हाथ आयी क्योंकि उस व्यापारी ने तो पहले ही कुछ पैसे कमाने के लिए सूखी पत्तियों के दोने बनाकर बेच दिए थे। लेकिन उस व्यापारी ने उदारता दिखाते हुए उन्हें एक बूढ़ी मां का पता बताया जो सूखी पत्तियाँ एकत्रित किया करती थी। परंतु भाग ने यहां पर भी उसका साथ नहीं दिया क्योंकि वह बूढ़ी मां तो उन पत्तियों को अलग-अलग करके कई प्रकार की औषधियां बनाया करती थी। अब निराश होकर वह शिष्य खाली हाथ ही गुरुकुल लौट गया। गुरुजी ने उसे देखते ही स्नेह पूर्वक पूछा, “पुत्र ले आए गुरू दक्षिणा?। उसने सिर झुका लिया।गुरु जी द्वारा दोबारा पूछने पर वह बोला, गुरुदेव! “मैं आपकी इच्छा पूरी नहीं कर पाया। मैंने सोचा था कि सूखी पत्तियां तो जंगल में सर्वत्र बिखरी ही रहती होंगी लेकिन बड़े ही आश्चर्य की बात है कि लोग उनका भी कितनी तरह से उपयोग कर लेते हैं।गुरुजी फिर पहले की तरह मुस्कुराते हुए प्रेम पूर्वक बोले “निराश क्यों होते हो, प्रसन्न हो जाओ और यही ज्ञान की सूखी पत्तियां भी व्यर्थ नहीं हुआ करते बल्कि उनके भी अनेक उपयोग हुआ करते।यही ज्ञान यही समझ मुझे गुरु दक्षिणा के रूप में दे दो।शिष्य गुरु जी की कथनी एकाग्र चित्त होकर सुन रहा था ।अचानक बड़े उत्साह से शिष्य ने कहा “गुरु जी अब मुझे अच्छी तरह से ज्ञात हो गया है कि आप मुझसे वास्तविक रूप में क्या कहना चाहते हैं। आपका संकेत वस्तुतः इसी ओर है कि जब सर्वत्र सुलभ सूखी पत्तियां भी निरर्थक या बेकार नहीं होती है तो फिर हम कैसे किसी भी वस्तु या व्यक्ति को छोटा या महत्वहीन मानकर उसका तिरस्कार कर सकते हैं? चीटी से लेकर हाथी तक, सुई से लेकर तलवार तक सभी का अपना अपना महत्व होता है। गुरूजी भी तुरंत ही बोले, “हां पुत्र मेरे कहने का भी यही तात्पर्य है कि हम जब भी किसी से मिलें तो उसे यथा योग्य मान देने का भरसक प्रयास करें, ताकि आपस में स्नेह, सद्भावना, सहानुभूति एवं सहिष्णुता का विस्तार होता रहे और हमारा जीवन संघर्ष की बजाय उत्सव बन सके। दूसरे यदि जीवन को एक खेल ही माना जाए तो बेहतर यही होगा कि हम निरविक्षेप स्वस्थ एवं शांत प्रतियोगिता में ही भाग लें और अपने निष्पादन तथा निर्माण को ऊंचाई के शिखर पर ले जाने का अथक प्रयास करें । शिष्य ने विनम्रता पूर्वक पूछा “गुरुदेव कुछ लोग कहते हैं कि जीवन एक संघर्ष है और कुछ कहते हैं कि जीवन एक खेल है और कई लोग कहते हैं कि जीवन को एक उत्सव समझना चाहिए इनमें सही क्या है?” गुरूजी ने तत्काल बड़े ही धैर्य पूर्वक उत्तर दिया, “पुत्र! जिन्हें गुरु नहीं मिला उनके लिए जीवन एक संघर्ष है। जिन्हे गुरु मिल गए उनका जीवन एक खेल है। खेल- खेल में वे अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेंगे और जो लोग गुरूद्वारा बताए गए मार्ग पर चलने लगते हैं मात्र वे ही जीवन को एक उत्सव का नाम देने का साहस जुटा पाते हैं।”स्वामी शिवानंद जी कहते हैं, “गुरु इस पृथ्वी पर साक्षात ईश्वर है सच्चे मित्र एवं विश्वास पात्र बंधु है। जो अपने गुरूके चरणों की पूजा निरपेक्ष भक्ति भाव पूर्वक करता है उसे गुरू कृपा सीधी प्राप्त होती है।