महान संकट की ओर बढ़ रहे थे कदम और बुल्लेशाह अनजान था (भाग – 2)

महान संकट की ओर बढ़ रहे थे कदम और बुल्लेशाह अनजान था (भाग – 2)


कल हमने सुना कि जैसे ही बुल्लेशाह से अपने गुरु भाई को देखा तो उसकी तरफ दौड़ पड़ा परन्तु अचानक रुक गया, उसके पैरो में अदृश्य जकड़न महसूस हुई कुछ बोझ का अहसास हुआ खैर यह सब झेलते हुए उसने फिर हिम्मत की आगे कदम बढ़ाए और गुरु भाई की ओर बढ़ा उधर गुरु भाई इस तारों जड़ी दुनिया की चकाचौंध अपनी इस आंखो से देख रहा था हैरानगी में उसका थोड़ा मुंह भी खुला हुआ था मगर साथ ही दिल तेज तेज धड़क रहा था।इस माया की ठंड और मायापोश लोगो की भीड़ भाड़ मे किसी अपने का गर्माइश भरा हाथ ढूंढ़ रहा था इसलिए जैसे ही अपना बुल्ला दिखा उसके खिचे चेहरे पर एकदम चैन पसर हो गया, वह बच्चे की तरह उसकी तरफ लपका मानो उसकी आड़ में दुबकना चाहता हो मगर आज यह हो क्या रहा था शायद बुल्लेशाह पर मायावी ठंड अपना असर कर चुकी थी गुरुभाई को उसके हाथ में चाही गरमाईश मिल नहीं पाई, बुल्लेशाह ने थोड़ा पीछे हटते हुए बोला और सुनाओ क्या हाल चाल है अफजल? अब अफजल को खटका हुआ परन्तु फिर सब नजर अंदाज़ करता हुआ बोला रहम है इनायत का।वैसे बुल्ले आज शायद पहली मर्तबा तूने इतनी तहजीब से अफजल कहकर पुकारा है नहीं तो तुम मुझे अफ़्जू अफ्जू कहकर तुम मुझे अपना नाम ही भूलवा दिया था, गुरु भाई की इस बात में एक शिकायती लहज़ा था, उसका आधे से ज्यादा बुल्लेशाह का आधे से ज्यादा दिमाग कहीं ओर उलझा हुआ था इसलिए बुल्लेशाह यह शिकायती लहज़ा समझ न सका, वह बस हल्का सा मुस्करा भर दिया फिर नज़रे अफजल के हुलिये पर दौड़ाता हुआ बोला क्या बात है सीधे चारगाह से आ रहे हो क्या?हा यार वो दरअसल चारगाह से लौटते वक्त रास्ते में ही गुरुजी ने यहां आने का बोल दिया तो मैं क्या करता? तो मैं वहीं से ही चल दिया, वैसे जनाब तुम तो हूबहू दूल्हे लग रहे हो, यह सुनकर बुल्लेशाह बस एक उपरी हंसी हंस दिया, अब तक बेशक वह अफजल के सामने खड़ा था मगर उसकी आंखे पंडाल के ओर छोर का मुआयना कर रही थी, कहीं कंटीली मुस्कानों के तीर भी झेल चुकी थी बहुत सी तंजिया नज़रों को अपनी ओर अफजल की तरफ घूरते हुए भी देख लिया था, उसकी किसी से कोई कहा सुनी नहीं हुई थी मगर फिर भी मेहमानों और परिवार वालों के सिले होंठो से नफ़रत के शोर उसे साफ सुनाई दे रहा था, इश्को उल्फत की लय में छेड़ उसे टूट जाए ना ज़िन्दगी का साज शोर ए नफ़रत है आज जोरों पर दब न जाए कहीं ज़मीर की आवाज़, मगर हुआ वहीं जिसका डर था इस तिलस्मगर माहौल का तेज शोर शराबा आखिर बाजी मार ही गया, बुल्लेशाह समझ नहीं पाया कि वह करें तो क्या करें? सब जाय भाड़ में ऐसा कहकर और अपने गुरु भाई का हाथ पकड़कर वह वापिस आश्रम भी नहीं लौट सकता था क्योंकि निकाह में शामिल होने का हुक्म गुरुजी ने ही उसे दिया था दूसरा उसे अपने पसीने से तर बत्तर, बदहाल गुरु भाई के साथ भी खड़ा नहीं हुआ जा रहा था लोक मर्यादा के कारण क्या बुल्लेशाह को लोक लाज का भूत चिपट गया था, तन के साथ साथ मन भी माया की पोशाक से ढक गया था या फिर आज अर्से बाद उसे सैय्यद खानदान की दिली हमदर्दी मिली थी और एक आस जगी थी शायद अब वे भी इनायत की मुर्शिदगी कबूल कर लेंगे इसलिए ये वह उन पर आश्रम की कोई ग़लत छाप नहीं पड़ने देना चाहता था या कोई फिर अलग ही वजह थी पता नहीं क्यों कि इस विषय में बुल्लेशाह का इतिहास एकदम मौन है, इतिहास के पन्ने सिर्फ इतना बयान करते हैं कि इस वक़्त बुल्लेशाह ने अपने गुरु भाई की अच्छी तरह खातिरदारी या मेहमान नवाजी नहीं की। एक बहाना बनाकर उसके पास से खिसक गया, अफजल तुम दो फकत, दो लम्हा यही रुको मैं कुछ इंतजामों को देखकर आता हूं, देखा जाय तो यह वहीं बुल्लेशाह है जिसने कभी गधे पर सवार होकर कस्बों में घूम घूमकर डंके की चोट पर ऐलान किया था कि चोली चुन्नी थे फोक्या जुग्गा, मैने अपनी चोली चुनरी सब फाड़ कर जला दिया है यानी सब लोक लाज शर्म हया बेच डाली है अपने सतगुरु के इश्क़ में यह वहीं दीवाना है जिसने एक दफा बीच चौराहे हिजड़ों के साथ बेताल नाचते हुए तराना छेड़ा था। *बुल्ला शोहदी जात न कोई, में शोर इनायत पाया है* इसी मर्जी बड़े आशिक ने कभी दुनियावी रस्मो रिवाज के खिलाफ बगावत का नगाड़ा बजाया था और सीना ठोक कर कहा था चलो देखिए उस मस्तानड़े नू यानी चलो मेरे मस्त मुस्तफा सतगुरु को आश्रम मे जिसके नाम की आसमानों पर धूम मची है जो जातपात के तंग दायरों से निकालता है, अद्वैत के रंग में रंग चढ़ा देता है, चलो उस मेरे सतगुरु के आश्रम में मगर आज अचानक इस तरानों और नगाड़ो को बुल्लेशाह के जहन का हाथ नहीं मिल रहा था उसके पुराने ऐलानो की गुंज हवाले के शानदार फाटक से टकराकर लौट गई थी इसलिए शायद वह अपने गुरु भाई के पास वापस ही न लौटा, कई लम्हे गुजर गए मगर बुल्लेशाह के तथाकथित इंतजामों को अंजाम नहीं मिला इधर अफजल मिया ने अपनो के लिए एक अंधेरा कोना ढूंढ़ लिया था, पेड़ो के झुरमुट तले शायद यह इकलौती ही ऐसी जगह होगी जो माया की चकाचौंध से आंख बचा गई थी इसलिए सबकी आंखो से बचने के लिए अफजल मियां भी इसी की ओर में जा छिपे मगर वहां से एक टक मायूस नज़रों से बुल्लेशाह को निहारते रहे कभी देखते की बुल्लेशाह बड़ी अदब से किसी को आदाब फरमा रहा है।कभी किसीको गले लगा रहा है कभी मौलवी साहब उसे बाह से पकड़कर किसी अजीज से मिलवा रहे हैं, कभी वह हवेली के मुनाजीमो को हाथ से इशारा कर रहा है जहां जहां बुल्लेशाह जा रहा था वहीं वहीं अफजल की आंखे घूम रही थी।इसी इंतजार में की बुल्लेशाह उसकी ओर रुख करें, आखिर ये मायूस आंखे थककर मिच गई और इनसे टपके दो आंसू और बुल्लेशाह को बिना खबर किए उल्टे पांव हवेली के बड़े दरवाज़े से बाहर निकल गया, देर रात तक आश्रम पहुंचा भूखा प्यासा जिस्म और दिमाग से थका हुआ इसलिए धीरे धीरे लंगड़ाते हुए उसने अपनी कुटिया में कदम रखा सुराही भर पानी पिया फिर घुटने पेट से लगाए सो गया अगली सुबह इनायत शाह के बुलावे ने ही इस थके मांदे बंदे को हिलाया और उठाया चल हाथ मुंह धोकर हुक्म बरदारी में हाज़िर हुआ इनायत शाह की पहली मर्तबा आज इतना खुश मिजाज पाया, उसने झुककर आदाब किया तो इनायत शाह प्यार से उसकी पीठ पर थपकी दी यह वहीं थपकी थी जो अक्सर बुल्लेशाह को ही मिलती थी और जिसे पाने के लिए वह बरसों से तरस रहा था मगर आज यह अचानक ही उसकी पीठ को निहाल कर गई।सच मे मालिक अगर दीनता की कद्र तू भी नही डालेगा तो इस जहां भर में उसे पूछेगा कौन? वह तो गुरूर या ना समझी के पाटो से पीसकर खत्म ही हो जाएगी इसलिए आज जहान के मालिक सदगुरु इनायत खुद अफ़ज़ल की दीनता को थपथपाकर हौसला दे रहे है इनायत शाह ने कहा और अफजल सब दुरुस्त रहा न कल? अफजल ने धीरे से हां में सिर हिला दिया अरे क्या हुआ सब खेरियत से तो है न अफजल ने फिर हां जाहिर करते हुए सिर को दायी तरफ झुका दिया वह बोला कुछ नहीं मगर उसके चेहरे से मायूसी साफ टपक रही थी और वैसे भी सामने अन्तर्यामी गुरु जो बैठे थे जिनकी रूहानी नज़रों पर पलकें ही नहीं होती है जो नज़रे कभी सपकती नहीं और कायनात के ज़र्रे ज़र्रे की हर हरकत की चश्मदीद गवाह हैं इन्हीं नज़रों में बेशुमार प्यार लिए इनायत ने अफजल की तरफ देखा मानो उससे कह रहे हो मै सब कुछ से वाकिफ हूं सब देख आया हूं।मगर एक मर्तबा तेरी जुबां से सच्चाई सुनना चाहता हूं सतगुरु की नज़रे पढ़कर अफ़ज़ल ने सारी बात बताई कि शाहजी शायद बुल्लेशाह को रईसी फिर से रास आने लगी है वह सेय्यदो की दुनिया मे इतना खो गया कि मुझ अरई जाति के लिए उसे वक़्त ही नहीं मिला और मैं इंतजार और ऐसे अफजल ने सब बाते गुरु के सामने कह दी सब सुनकर इनायत शाह की आंखे एकदम खुश्क हो गई, चेहरा सख्त आकार लेने लगा और कड़ी आवाज़ में बोले यकीनन बुल्लेशाह ने तुम्हारी ही नहीं हमारी तौहीन है, इसकी इतनी जुर्रत एक लम्हा रुके फिर यह प्रलयकारी ऐलान किया जो इतिहास के हर शिष्य के लिए किसी श्राप से कम नहीं ठीक है हमें भी इस नामाकुल से क्या लेना देना चलो आज से हम अपनी फ़ुहारों का रुख़ उसकी क्यारियों से हटाकर तुम्हारी तरफ कर देते है। इसी ऐलान के साथ शुरू होता है बुल्लेशाह की जिंदगी का एक रोमांचकारी रास्ता जिसके चप्पे चप्पे पर प्रलय का तांडव होगा अब बुल्लेशाह का पुराना सब तहस नहस हो जायेगा और एक नई शक्सियत का सृजन होगा I

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