महान संकट की ओर बढ़ रहे थे कदम और बुल्लेशाह अंजान था (भाग-1)

महान संकट की ओर बढ़ रहे थे कदम और बुल्लेशाह अंजान था (भाग-1)


गुरु के चरण कमल में आत्मसमर्पण करना यह शिष्य का आदर्श होना चाहिए, गुरु महान हैं विपत्तियों से डरना नहीं है, वीर शिष्यों आगे बढ़ो, शिष्य के ऊपर जो आपत्तियां आती है वे छुपे वेश मे गुरु के आशीर्वाद के समान होती है, कल हमने सुना कि इनायत शाह ने बुल्लेशाह को अहंकार से दूर रहने की हिदायत दी और उसे क्षमा भी किया।इन्हीं दिनों बुल्लेशाह के पिता मौलवी साहब आश्रम आए दरअसल बुल्लेशाह के किसी नजदीकी रिश्तेदार मौलवी साहब उसे कुछ दिनों के लिए अपने साथ ले जाने आए थे, इसके लिए उन्होंने शाह इनायत से मंजूरी ली, हुक्म देने के लिए गुरुदेव ने बुल्लेशाह को अपनी कुटिया में बुलवाया, बुल्लेशाह तुम्हारे वालिद आए हैं तुम्हे अपने किसी अजिज के निकाह में ले जाने की ख्वाहिश ले आए हैं इसलिए तुम चंद रोज़ के लिए इनके साथ चले जाओ।शाह जी वैसे तो आप कुल कायनात के कायदे बनाने वाले है मगर फिर भी मेरे जहां में एक बात उठ रही है, क्या बात है कहो, शाह जी *जिस दे अंदर वसिया यार, एवे बैठा खेड़े हाल*, गुरुदेव जिसके अंदर आप समा गए हो आपकी हर खबर, आपका ही ख्याल कैद हो फिर वह भला गैर की महफ़िल में क्यों जाए, जिसकी अंदरुनी में गुरुदेव आपके करम से इलाही नग्मे बज उठे हो उसे जश्नों निकाह के बाजो से क्या काम? गुस्ताखी हो तो माफ़ करना गुरुदेव मगर निकाह, टिकाह में जाकर क्या करूंगा? हम तेरे जज्बातों की कद्र करते हैं बुल्लेशाह लेकिन तेरे वालिद के जज्बातों को भी ऐसे दरकिनार करना वाजिब नहीं और फिर चंद रोजो कि तो बात है चले जा। जो हुक्म गुरुजी। लेकिन आपसे एक दरख्वास्त है कि इस निकाह के मौके पर आप भी जरूर तशरीफ़ लाए। इंशाअल्ला आपका नूरानी दर्शन पाकर सैय्यद खानदान में रूहानी इबादत की तरफ दिलचस्पी पैदा हो जाएगी, ठीक है बुल्ले हम इस पर जरूर गौर फरमाएंगे।बुल्लेशाह अपने गुरु के हुक्म से अपने पिता मौलवी के साथ चल दिया, आश्रम के फाटक पर ही शाही बग्गी उसका इंतजार कर रही थी, दोनों उसमे जा बैठे, इस वक़्त बुल्लेशाह पर खामोशी और संजीदगी का आलम छाया हुआ था, ना जाने कैसा अनजान सा खौफ दिल के किसी कोने को कुरेद रहा था, क्यों ये कैसा है खौफ? क्या गुरुजी से जुदा होने की बैचेनी है या कोई दूर अंदेशा है, आगे घटने वाले किसी हादसे की खबर है कहीं मुझसे कोई गलती तो नहीं होने वाली या फिर इतने समय बाद परिवार वालो से मिलना है इसलिए कुछ घबराहट सी हो रही है, बुल्लेशाह कुछ समझ नहीं पा रहा था खैर वह इन ख्यालों मे ज्यादा उलझा भी नहीं रहा, मन ही मन रास्ते मे बुल्लेशाह अपने गुरु से प्रार्थना करने लगा जो इतिहास के पन्नों में दर्ज है *आपने संग रलाई प्यारे, आपन संग रलाई, मै पाया कि तिद लाईया, आपणी ओर निभाई, भोंकड़ चित्ते चित्तम चिते भोंकड अदाई पार, तेरे जगात्तर चढ़ैया कंदी लख बधाई हौर दिले दा थर थर कंबदा पार लगाई,आपणे संग रलाई प्यारे,आपणे संग रलाई।* हे मेरे मालिक, मेरे गुरुदेव मुझे हमेशा अपनी कृपा के साये में चलाते रहना, इश्क़ की शुरुआत मैंने आपसे की या आपने मुझसे, इससे क्या फर्क पड़ता है परन्तु इस लगी का आखिरी मुकाम तो आपको ही निभाना है आपको ही बरकरार रखना है क्योंकि हे गुरुदेव इस प्रेम को निभाने की ताकत मुझमें नहीं है मैं जानता हूं कि इस रूहानी रास्ते पर चलना इतना आसान नहीं मुझे तो कभी कभी लगता है यह रास्ता एक उबड़, खाबड़, खौफ़नाक जंगल से जाकर गुजरता है जिसमें माया डाके डालती रहती हैं, यह माया अपनी तिलस्मी ताकत की कटार दिखाकर मेरी साधना की सारी कमाई लूट ले जाती हैं, विषय विकारों के खूंखार कुत्ते और शेर,चीत्ते यहां पर भौंकते और दहाड़ते रहते है सांसारिक वासनाओं की नदी भी इसमें उफन, उफन कर पूरी रवानगी से बहती है, इसके किनारे पर वासनाओं के भूत प्रेत घात लगाकर बैठे है, इसके किनारे पर तालाब है मुझे धोखे से इस नदी में धकेलने को यह तैयार रहते है।हे मेरे मालिक, मेरे गुरुदेव यह सब महसूस कर मेरा दिल थर, थर कांपने लगता है इसलिए आपसे प्रार्थना है कि आप ही मेरी नौका को इस नदी से पार करना रहम कर इस खौफ़नाक जंगल से मुझे सही सलामत गुजार देना, गुरुदेव मुझे अपने साए में चलाते रहना आखिरी मुकाम तक निभाना इस तरह रास्ते भर बुल्लेशाह प्रार्थना करता रहा अब तक बग्गी सैय्यदो के पुश्तैनी दरवाजों के अंदर मुड़ चुकी थी, बुल्लेशाह की आंखे खुली तो सामने हवेली को ऐसे सजा देखा मानो निकाह दुल्हन का नहीं हवेली का हो, मौलवी साहब बुल्लेशाह को कंधे से पकड़कर हवेली मे दाखिल हुए, कुछ इस अंदाज़ से लो देखो में ले आया अपने फकीर साहब जादे को इस खानदानी जश्न के मौके पर। जैसे ही परिवार वालों की नजर बुल्लेशाह पर पड़ी, चारों ओर से कई आवाजों ने एक ही लब्ज सुनने को मिला, खुशामदीन,खुशामदीन सुस्वागतम। मां और बड़े बुजुर्गो ने आगे बढ़कर बलाए ली, भाईयो ने गले लगाया और थपकी दी समस्त परिवार ने बुल्लेशाह को घेर लिया, हाल चाल पूछने के बाद हंसी मसकरी का दौर चला निकाह अगले दिन का तय था ऐसे मे आप सोच ही सकते है कि निकाह के एक दिन पहले का माहौल। जब सब परिवार एक छत तले इक्कठा हो दिल्लगी बाजी किस इम्तिहान होती है और वह भी किस दर्जे की एक दम सांसारिक दिल्लगी।दुनियावी मस्करी इसलिए महफ़िल का कोई सुर इस साधक के सुरो से मेल नहीं खा रहा था उसके इस हाले दिल को एक शायर ने कुछ यूं बया किया है कि कहीं जिकरे दुनिया कहीं जिक्रे उकबा। हाय कहां आ गया में मयकदे से निकलकर। खैर वह अपनी इस नापसंदगी को खुले तौर पर जाहिर भी नहीं कर सकता था इसलिए अपना पूरा जोर लगाकर एक बनावटी मुस्कान होठो पर चिपकाकर बैठा रहा शायद इसे ही आशिकों ने भरी महफ़िल तन्हा होना कहा है, रात जब उनकी महफ़िल में जाना पड़ा, नाज मजबूरियों का उठाना पड़ा उनकी महफ़िल में हम रसे महफ़िल बने मुस्कराते थे सब इसलिए मुझे भी मुस्कुराना पड़ा, किसी तरह मजबूरियों की यह रात ख़तम हुई मुकर्रर समय तक सैय्यदो की मिल्कियत का कोना कोना अपने जलाल में आ गया, बिल्कुल एक मायावी दुनिया की तरह जहां की हर चीज बढ़ चढ़कर अपने दाम गिना रही थी।चीजे ही नहीं इस दुनिया के बाशिंदे भी वे भी सिर से पांव तलक माया के कपड़ों से ढके थे, माया के सतरंगी रंगो मे रंगे थे भाईयो ने इसी रंग की होली बुल्लेशाह के संग भी खेली, उसका सीधा सादा सूत का कुर्ता, पायजामा उतरवा दिया उसकी जगह पहना दी एक रेशमी और कढ़ाईदार शेरवानी दुपट्टा, तिलेदार जूती, लाजवाब टोपी और इत्र छिड़क दिया। सो इस तरह बुल्लेशाह के तन को तो अपने रंग में रंग दिया, उधर बड़े दरवाजे से मेहमानों का आना शुरू हुआ, शहर की ऊंची ऊंची हस्तियां अपनी शानो शौकत के साथ तशरीफ़ लाने लगे, रईसी तो मानो उनके चेहरों, पोशाकों से टपक रही थी, बुल्लेशाह के भाई और घर वाले भी उनकी मेहमान नवाजी मे अपनी पलकें बिछा रहे थे मगर तभी इस आलीशान दरवाज़े से अलग ही तरह के मेहमान ने प्रवेश किया अकेले खाली हाथ फटे हाल फकीरी के लिबास में निहायत बदसूरत हुलिए में साफ अराई जाति के निशान लिये गोबर की बदबू आ रही थी उसे देखते ही भाई वगैरह समझ गए कि यह मेहमान बुल्लेशाह के आश्रम से है, मन ही मन सोचने लगे कि क्या चुना हुआ नमूना भेजा है, इनायत शाह ने क्या आश्रम भर में इससे बदसूरत शक्ल और फकड़ हालत का आदमी ओर कोई नहीं था उन्होंने हाथ, मुंह सिकोड़कर इस आगे बढ़ते मेहमान को दो एक पल तो घुरा फिर उसे नजर अंदाज़ करने के लिए स्वागत स्थल से ही खिसक गए उधर बुल्लेशाह को भी पता चला की आश्रम से उसका एक गुरु भाई आया है, गुरुजी खुद नहीं आए परन्तु अपने एवज में अपने एक शिष्य को भेजा है, बस अब क्या था यही है जिंदगी अपनी और यही है बंदगी अपनी की उनका नाम आया और गर्दन झुक गई अपनी अपनी गुरु का जिक्र उनकी चर्चा एक साधक के लिए इबादत का पैगाम है किसी मस्जिद से उठती आजान है।मंदिर में बजती घंटियों की मीठी खनखनांहटे है जिसे सुनते ही दिल खुद मुहब्बत की नमाज़ पढ़ने लगता है सांसे पूजा की धूप अगरबत्ती सी महक उठती हैं फिर आज बुल्लेशाह के पास तो उसके गुरुदेव का सिर्फ जिक्र ही नहीं बल्कि उनका जीता जागता प्रतिनिधि आया था, बुल्लेशाह रफ्तार भरे क़दमों से वह बड़े दरवाज़े की तरफ दौड़ पड़ा अभी अभी पच्चास साठ के रंग भरे होंगे की उससे दूर से ही गुरु भाई नजर आया वाह अफजू आया है, बुल्लेशाह के दिल की धड़कने फुदक उठी परन्तु यह क्या? बुल्लेशाह को अपने कदमों में किसी अदृश्य फंदे की जकड़न महसूस हुई सीने पर भारी बोझ का एहसास हुआ परन्तु क्या था इतना बोझिला या सख्त? जो बुल्लेशाह के क़दमों को रोक रहा था उसे अपने गुरु भाई से मिलने के लिए।

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