समन व मुसन की कथा (भाग-2)

समन व मुसन की कथा (भाग-2)


गुरुभक्तियोग एक स्वतंत्र योग है। कल हमने सुना कि समन-मुसन ने सेठ के घर चोरी करके सत्संग कार्यक्रम के लिए आवश्यक धन इकट्ठा करने का फैसला किया। साथ ही यह भी प्रण लिया कि बाद में मेहनत-मजदूरी करके सेठ की 1-1 पाई लौटा देंगे।

वे दोनों सेठ के घर की छत पर पहुँच गये और योजना के अनुसार पुत्र मुसन नीचे उतर गया। परन्तु यह क्या? मुसन के आश्चर्य की तो सीमा ही न रही। हैरानी से उसकी आँखें तिजोरी की तरफ देखने लगी। क्योंकि पता नहीं किस दैवी संयोग से आज सेठ चाबी तिजोरी पर लगी ही छोड़ गया था।

मुसन ने हिम्मत कर जैसे ही अपनी उंगलियों को चाबियों पर फेरा तिजोरी का ताला खुल गया। भीतर की सारी संपदा बाहर झाँकने लगी। मुसन ने इनती दौलत पहली बार देखी थी, जिसे देख कोई भी फिसल जाय। लेकिन मुसन नहीं फिसला। आवश्यक धनराशी ही उसने गठड़ी में बांधी। वह गठड़ी उठाने ही वाला था कि अचानक सेठ की नींद खुल गई।

इससे पहले कि कुछ अनहोनी घटती, मुसन ने फटाफट पोटली उठाई और ऊपर पिता समन की ओर फेंक दी। लेकिन दुर्भाग्य जब वह बाहर निकलने लगा तब पिता समन का हाथ फिसल गया और मुसन नीचे जा गिरा। गिरते ही ‘धम्म’ की आवाज हुई। इस आवाज ने सेठ को और सचेत कर दिया।

पुत्र मुसन सँभला और छत के छेद से निकलने के लिए ऊपर कूदा। पिता ने बस पकड़के बाहर निकाल ही लेना था, मुसन का आधा शरीर छत पर ही आ गया था। इससे पहले की मुसन पूरी तरह बाहर निकल पाता सेठ ने फूर्ति दिखाते हुए मुसन को नीचे टांगो से पकड़ लिया।

मुसन बुरी तरह से घबरा गया। उसने खुद को छुड़ाने की भरसक कोशिश की किन्तु छुड़ा न पाया। सेठ मुसन को खींचकर नीचे गिराने की कोशिश करने लगा। साथ ही जोर-2 से चिल्लाकर चौकीदार व नौकरों को बुलाने लगा।

मुसन ने कहा, “पिताजी! लगता है अब मैं नहीं बच पाऊँगा। मेरी सारी कोशिशें नाकाम हो गई।”

पिता समन ने कहा, “नही पुत्तर! नहीं। यह अनर्थ नहीं हो सकता। तू हिम्मत कर।”

“मैंने सब करके देख लिया पिताजी, लेकिन कोई फायदा नहीं।” बेटे के इन वाक्यों ने बूढ़े समन को और भी बुढ़ा बना दिया। उसकी आँखों के सामने भविष्य के डरावने चित्र घूमने लगे। उनमें लोगों के ताने दिखने लगी कि, “अरे! देखो , गुरु अर्जुनदेव जी के शिष्य चोरी करते पकड़े गये। अरे! शिष्य ऐसे हैं तो फिर गुरु कैसे होंगे?”

कमाल की बात है! समन को चिंता तो है, परन्तु खुद की या बेटे की नहीं। उसे यह डर नहीं लग रहा कि अब हम पकड़े जायेंगे, पूरे खानदान की इज्ज़त ख़ाक हो जायेगी। वह यह सोच तो दूर-2 तक नहीं थी। उसकी साँसों में तो बस एक ही बात अटकी थी कि अब गुरुजी की इज्ज़त का क्या होगा? हमारे नाम से जो गुरुदेव के पवित्र नाम को कलंक लगेगा, आखिर उसको हम कैसे चुका पायेंगे?

समन के भीतर जो ये प्रश्न उठ रहे थे वे पता नहीं कब शब्द बनकर होठों पे आ गये। उन्हें सुन छत में फँसा पुत्र मुसन और भी फँस गया। पिता को देखा मुसन अथाह बेबसी में भीगे आँसू उसकी आँखो से निकल पड़े।

शायद ये आँसू कह रहे थे कि , “हे भगवान! यह मुझसे क्या हो गया। जो भूल कभी सपने में भी नहीं होनी थी वह मैंने हकीकत में कर डाली। हो सके तो मुझे क्षमा कर देना गुरुदेव। मेरे कुकर्मों के कारण आपके दूध से भी ज्यादा उजले और गंगा से भी अधिक पवित्र नाम पर कालिक पुतने जा रही है। हाय! मेरा दुर्भाग्य। दाते! हो सके तो मुझे क्षमा कर देना, लेकिन नहीं क्षमा का तो मैं अब अधिकारी ही नही बचा। अब तो नरकों में भी मेरे लिए स्थान न होगा।”

बड़ी ही विचारणीय बात है कि शिष्य के दुष्कृत्यों से ही गुरुको समाज द्वारा लांछन सहना पड़ता है। व्यक्ति जब गुरूमुख होता है तब समस्त समाज उस व्यक्ति को उसके गुरु से जोड़कर उसे निहारता है,देखता है। समाज यह देखता है कि गुरुमुख व्यक्ति का आचरण कैसा है। इससे उसके गुरु को नापने की समाज कोशिश करता है। अतः शिष्य को इस बात का खूब खयाल रखना चाहिए कि उसके कृत्य ऐसे हो कि समाज उसके गुरु को लांछित करने का अवसर ही न पा सके। वह शिष्य बड़ा ही अभागा है, बल्कि बड़ा ही नीच है जो कोई भी कार्य बिना विचारे करता है। जिससे उसके गुरूपर समाज उँगलियाँ उठा पाता है।

परन्तु आज मुसन भी इसी दुविधा में है। सहसा ही उसे अंतःप्रेरणा हुई कि “मुसन! अपना सिर देकर अगर यार की शान सलामत रहे तो उसे बेझिझक कुर्बान कर डालो। यह तो तय ही है कि तू नीचे अब गिरेगा ही। परन्तु सेठ ने अभी तेरी शक्ल नही देखी है और तेरी पहचान तेरे धड़ से नहीं बल्कि शीश से है। इसलिए कह अपने पिता को कि वह तेरी पहचान काटकर साथ ले जाये और धड़ यही छोड़ जाये। बस यही एक रास्ता है। कर सकता है तो सदके कर, नही तो अब सोच क्या रहा है ? फैसला तेरे हाथ में है। एक तरफ गुरु का सिर है और एक तरफ तेरा। बता, किसे कुर्बान करेगा? कौन तुझे प्यारा है?”

अंतरआत्मा की आवाज सुनते ही पुत्र मुसन ने कहा, “पिताजी! जल्दी करे। जो छुरी आप साथ लाये थे, उससे मेरा शीश काट लें।”

पिता समन के सिर पर मानो एक पहाड़ गिरा। उसके मुँह से बस इतना ही निकला,”क्या?”

हाँ! पिताजी हाँ! चौकिये मत। अब बस यही एक रास्ता है। मेरे शीश के कटने से अगर गुरुदेव का मान-सम्मान बच रहा है तो इससे ज्यादा लाभ का सौदा और क्या हो सकता है? अब सोचिये मत। नहीं तो हमारे भाग्य में आजीवन सोचना ही रह जायेगा। मैं हैरान हूँ! आखिर आपकी छुरी किस शुभ मुहूरत का इंतजार कर रही है। लगता है पिताजी आपके हाथ काँप रहे हैं, लेकिन इन्हें समझाओ कि मेरे जैसे तो आपको हजारों मिल जायेंगे इस दुनिया में। लेकिन लाखो जन्म न्योछावर करके भी क्या गुरुदेव का ऋण आप चुका पायेंगे? गुरुदेव के दामन को कलंकित देखकर क्या आप जीवित रह पायेंगे?…नहीं! बिल्कुल नहीं। जल्दी करो पिताजी, जल्दी करो।

आप ही सोचिये कि एक पिता के लिए इससे भयंकर मुश्किल की घड़ी और क्या होगी कि जिस पिता ने पुत्र को अपने कंधों पर बिठाकर घुमाया, उसीका खुद अपने हाथों से शीश काटना पड़े। लेकिन समन ने मिसाल कायम की। इससे पहले कि पलक भी झपके समन ने फैसला कर लिया। फैसला भी इतना वजनदार कि उसे बयाँ करने के लिए इतिहास को वैसे वजनदार शब्द नहीं मिले।

पिता समन ने झट से तेजदार छुरी कसके अपने एक हाथ में ली और दूसरे हाथ में पुत्र मुसन का शीश। मुसन के शीश को समन ने यूँ पकड़ा मानो वह शीश अपने प्रिय पुत्र का न होकर महज दो टके में खरीदा नारियल हो। और इसके बाद पिता समन ने आँखे बंद कर गहरी लम्बी श्वास भरी और… पिता समन का पूरा चेहरा भर गया उन लाल बूंदों से जो मुसन की गर्दन कटनेपर फुहारों के रूप में निकली थी।

समन के काँपते हाथों में रह गई पलटी पुतलियों वाली वह शीश की जागीर! जिसे दुनिया का कोई पिता अपने नाम नहीं लिखवाना चाहेगा। परन्तु वह पलट चुकी पुतलियाँ अब भी कुछ कह रही थी कि “पिताजी!अब तो आपको फक्र होगा ना अपने लाडलेपर!”

पिता समन ने एक हाथ में धन की गठरी तो दूसरे हाथ में बेटे की खोपड़ी थामकर घर की डगर पकड़ ली।

इधर समन घर पहुँचनेवाला था और उधर सेठ की हालत खराब थी । सर कटी लाश को देखकर उसे चक्कर आ रहे थे। उसे लगा कि यह जरूर उसके दुश्मनों की चाल होगी। जो उसे हत्यारा सिद्ध कर जेल भिजवाना चाहते हैं। हवालात की पूरी उम्र चक्की पीसने और फाँसी के फंदे की कल्पना से सेठ काँप गया।

तभी उसे अचानक याद आया कि इस सिर कटी लाश को समन और मुसन ही ठिकानें लगा सकता है, क्योंकि उन्हें धन की आवश्यकता है। यही सोचकर सेठ पलभर की भी देरी किये बिना समन और मुसन कि घर की तरफ चल पड़ा।

पिता समन ने घर पहुँचते ही एक गीले कपड़े में मुसन का शीश लपेटा और चौबारे के एक कोने में रख दिया। वह अभी चौबारे से नीचे आ ही रहा था कि सामने सेठ को खड़ा पाया। समन के तो पैर तले से जमीन खिसक गई इससे पहले की वह कोई क्रिया करता, सेठ उसके आगे मिन्नतें करने लगा।

समन भाई मुझे तुम्हारी मदद की जरूरत है। कैसे भी करके मेरी हवेली में पड़ी एक लाश को ठिकाने लगा दो, वह भी सुबह होने से पहले-2 । किसी को इस बात की भनक तक भी नहीं लगनी चाहिए। इस काम की मैं तुम्हें मुँह मांगी रकम दूँगा। उस रकम से भी कई गुना ज्यादा जो आज सुबह तुम मुझसे उधारपर लेने आये थे। बस मेरा यह काम कर दो।

समन ने यह सुना तो मन ही मन गुरु को धन्यवाद किया कि “हे गुरुदेव! तुम्हें अभी भी मुसन की चिंता है। तुम्हें फिक्र है कि मुसन की लाश जगह-2 ना बिखरे, इसलिए तुमने उसे ठिकाने पहुंचाने का इंतजाम भी कर दिया।”

समन जल्दी ही मुसन की लाश घर उठा लाया और जहाँ उसका सिर रखा था वही धड़ भी बिल्कुल सटाकर रख दिया। आज पूरी प्रकृति भी मानो इस प्रक्रिया के घट जाने का ही इंतजार कर रही थी। क्योंकि इसीके पूरा होनेपर सूर्योदय हुआ।

सब कार्यक्रम की तैयारियों में जुट गये। समन को देखकर कोई रत्तीभर भी यह अनुमान नहीं लगा सकता था कि उसने रातभर इतने बड़े तूफान का सामना किया है। यह गुरुदेव के प्रेम का ही असर था कि समन की होठोंपर अब भी मुस्कुराहट थी। वरना जवान बेटा जहाँ खत्म हो जाये वहाँ महीनों चूल्हा नही जलता। जब कि समन तो एकसाथ भंडारे के लिए, सैकड़ों के लिए चूल्हा जलाने की तैयारी कर रहा था।

देखते ही देखते सब कार्य गुरुदेव की कृपा से समयपर सम्पन्न होने लगे और गुरुदेव का शुभ आगमन भी बिल्कुल निर्धारित समय पर हुआ। जैसे ही गुरु महाराज जी पधारे जयकारों की दुनदुमियो ने पूरा वातावरण जोशो-खरोश से भर दिया। हर जन की रोमावली आनंदित हो उठी। समन की भी कमर तोड़ देनेवाली थकान व सागर जैसा गहरा दुख गुरुदेव के दर्शन मात्र से मानो छूमंतर हो गया। वह भूल ही गया कि रात को कुछ हुआ भी था।

गुरुदेव ने ऐसी कृपा की, कि कार्यक्रम में खूब रँग जमा। खूब भजन भी हुए और काफी देर तक गुरुदेव के अमृतमय प्रवचन भी संगत को सुनने को मिला । इससे पहले की भंडारा शुरू हो श्रीगुरुदेव के लिए भोजन की थाली परोसकर लायी गई। अब गुरुदेव ने बड़ी सहजता से समन से पूँछा, “समन! क्या बात है मुसन दिखाई नहीं दे रहा? कहा है वो?”

समन ने यह सुना तो उसे लगा कि जैसे किसी ने उसे झंझोड़ कर नींद से उठा दिया हो और उसका अच्छा भला सपना टूट गया हो। उसे कुछ समझ नहीं आया कि वह आखिर क्या जबाब दे। गुरुदेव के इस प्रश्न का समन के पास कोई उत्तर नही था। सो उसकी आँखे गुरुदेव से एक ही प्रश्न पूँछने लगी- “क्या सचमें आप नहीं जानते कि मुसन कहाँ है गुरुदेव?”

फिर गुरुदेव ने कहा, “समन! तुम कुछ बोल क्यूँ नही रहे? मुसन कहाँ है? जाओ उसे बुला लाओ। कहो कि हम बुला रहे हैं।”

समन की दुविधा का अनुमान समन बनकर ही लगाया जा सकता है। “गुरुदेव! आप किसीको बुलाये और वह न आये, ऐसा तो प्रकृति का स्वभाव ही नहीं। आप की वाणी में तो वो असर है कि जन्मजात बहरे तो क्या, कब्रों में गड़े मुर्दे भी उसे सुन उसका पालन करते हैं। रही बात मुसन की तो उसको कहाँ जाना है,यही कही होगा आप ही की निगाह में। लेकिन कृपया पहले आप प्रसाद ग्रहण करें।”

समन! तुम आखिर बता क्यों नही रहे कि मुसन कहाँ है? हमारा भी आज हठ है कि हम तब तक प्रसाद ग्रहण नही करेंगे कि जब तक मुसन स्वयं आकर हमें थाली नहीं परोसेगा।

समन के दिल के बांध अब टूट गये, क्योंकि इस शर्त का भार उठाने के काबिल वे नहीं थे। बेबसी में बंधे उसके दोनों हाथ जुड़ गये और अबतक आँखों मे रोकी हुई अश्रु नदी बह निकली। “हे गुरुवर! मैं कैसे बताऊँ कि मुसन कहाँ है? बस इतना जानता हूँ कि अब वो यहाँ नहीं है। मैने उसे बहोत दूर भेज दिया है। इतनी दूर…इतनी दूर कि वहाँ से मैं उसे वापिस लौटाकर नहीं ला सकता। इसलिए हे समस्त दुनिया के मालिक! कृपया मुझे न कहे कि मैं उसे आवाज दूँ। लेकिन हाँ! अगर आवाज देनी ही है तो आप उसे आवाज दे, क्योंकि आपकी आवाज ही है जो वहाँ तक पहुँच सकती है। और देखियेगा महाराज! मुसन आपकी आवाज अनसुनी नहीं कर सकेगा। आपके बस एकबार आवाज देने की देर है फिर तो वह कब्र फाड़कर भी बाहर आ जायेगा।”

“गुरुदेव! सच कहता हूँ वह हर किसीका कहना काट सकता है, काटने को तो वह अपना शीश भी काट सकता है, लेकिन भूल से भी आपके वचनों को नहीं काट सकता। इसलिए गुरुदेव! उसे पुकारिये-2 । पुछिये उससे की वह कहाँ है? उसीसे पुछिये।” बस! समन के पास शब्दो का कोष खत्म हो गया और आँसुओ की नदी अपनी हदे तोड़कर गुरुदेव के चरणों के तरफ बहने लगी।

गुरुदेव मौन थे, क्योंकि जिस पवित्र प्रेमभरे आँसुओ की नदी में वे भीग रहे थे, वह सदियों में कभी-कभार ही नसीब होती है। समन व मुसन की मीठी प्रीत की यह मीठी सरिता केवल और केवल उन्हीं के चरणों की तरफ दौड़ना जानती थी और समाना भी।

गुरुदेव भी इस रसधारा में अपना रोम-2 तर कर रहे थे और फिर अचानक गुरुदेव मौज में आ गये। हाथ ऊपर उठाकर बुलंद आवाज में वे कुछ बोले। “मुसन तुम कहाँ हो? हम तुम्हें बुला रहे हैं, शीघ्र हमारे पास आओ।” इस एक आवाज ने किसी एक शहर या देश का कानून नहीं, बल्कि पूरी सृष्टि का कानून तोड़ दिया और शायद यह गुनाह तो ऐसा है जिसे गुरुदेव हर सतशिष्य के लिए कर देते हैं और बार-2 करते हैं।

जैसे ही गुरुदेव ने बाँहे उठाकर कहा, तो मुसन जो मर गया था चौबारे से जयकारा लगाते हुए नीच उतरा दिखाई दिया। मुसन सीढ़ियों को कूदता हुआ नीचे पहुँचा और फिर सीधा गुरु महाराज श्री के चरणों में लिपट गया।

गुरु महाराज, समन और मुसन के सिवा कौन जानता था कि कल रात क्या घटा और अभी क्या घट गया। कहाँ एक पल पहले तक कब्र की घुटन थी और अब इस पल जीवन का सुंदर राग। गुरुदेव मुसन के सिर को अपने दिव्य हाथों से सहलाने लगे। मानो कह रहे हो कि मुसन यही सिर था न तेरा,जो तूने मेरे लिए कटवा दिया था। दर्द भी हुआ होगा ना खूब! खूब खून भी बहा होगा। ला मैं तेरी सारी पीड़ा हर लूँ। मुसन तू कितना बड़ा चोर है कि तूने मुझे भी आज चोर बना दिया। देख! मैं यम से तेरे प्राणों की चोरी करके तुझे वापस लाया हूँ।

इसलिए स्वामी शिवानंदजी कहते हैं कि सदगुरु पैगम्बर और देवदूत हैं । विश्व के मित्र और जगत के लिए कल्याणमय है। पीड़ित मानवजाति के ध्रुवतारक है। सच्चे गुरु शिष्य का प्रारब्ध बदल सकते हैं।

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