Monthly Archives: June 2020

हे महापुरुषो ! विश्व में आपकी कृपा जल्दी से पुनः-पुनः बरसे- पूज्य बापू जी


उपनिषदों के ऋषियों का कहना हैः

यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ ।

तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः ।।

जिन्हें परमात्मा में परम भक्ति होती है, जैसी परमात्मा में वैसी ही भक्ति जिनको सदगुरु में होती है, ऐसे महात्मा के हृदय में ये (उपनिषदों में) बताये हुए रहस्यमय अर्थ प्रकाशित होते हैं (परमात्मज्ञान प्रकाशमान होता है ।) श्वेताश्वतर उपनिषद्- अध्याय 6, मंत्र 23

मत्स्येन्द्रनाथजी ने यह उत्तम साधन बताया गोरखनाथ जी को । गोरखनाथ जीने दी उत्तम प्रसादी गहिनीनाथ जी को, गहिनीनाथ जी ने निवृत्तिनाथ जी को और निवृत्तिनाथ जी की कृपा से ज्ञानेश्वर जी इतने महानपुरुष हुए । संत तोतापुरी जी ने प्रसादी दी श्री रामकृष्ण जी को, श्री रामकृष्ण जी ने विवेकानंद जी को दी । मुनि अष्टावक्र जी ने यह कृपाप्रसादी राजा जनक को दी और उन्होंने शुकदेव जी को दी । याज्ञवल्क्य ऋषि मैत्रेय को देते हैं यह कृपा प्रसादी । सनत्कुमार ने ब्रह्मज्ञान का उपेदश दिया और कृपादृष्टि की नारदजी पर । यमराज ने नचिकेता पर की, भगवान वसिष्ठ जी ने श्रीराम जी पर कृपा की । जनार्दन पंत, एकनाथ जी, संत तुलसीदास जी, साँईं श्री लीलाशाह जी – इन सभी महात्माओं को अपने-अपने सदगुरुओं से बहुत कुछ मिला था । यह गुरु-परम्परा बहुत जरूरी है । जिस देश में गुरु-शिष्य परम्परा हो, ऐसे ब्रह्मवेत्ताओं का आदर होता हो, जो अपने को परहित में झोंक देते हैं, अपनी ‘मैं’ को परमेश्वर में मिला देते हैं ऐसे महापुरुष अगर देश में सौ भी हों तो उस देश को फिर कोई परवाह नहीं होती, कोई लाचारी, परेशानी नहीं रहती ।

सच्ची सेवा तो उन महर्षि वेदव्यासजी ने की, उस सदगुरुओं, ब्रह्मवेत्ताओं ने की जिन्होंने जीव को जन्म-मृत्यु की झंझट से छुड़ाया… जीव को स्वतंत्र सुख का दान किया… दिल में आराम दिया…. घर में घर दिखा दिया… दिल में ही दिलबर का दीदार करने का रास्ता बता दिया । यह सच्ची सेवा करने वाले जो भी ब्रह्मवेत्ता हों, चाहे प्रसिद्ध हों, चाहे अप्रसिद्ध, नामी हों चाहे अनामी, उन सब ब्रह्मवेत्ताओं को हम खुले हृदय से हजार-हजार बार आमंत्रित करते हैं और प्रणाम करते हैं । हे महापुरुषो ! विश्व में आपकी कृपा जल्दी से पुनः – पुनः बरसे । विश्व अशांति की आग में जल रहा है । हे आत्मज्ञानी गुरुओ ! हे ब्रह्मवेत्ताओ ! हे निर्दोष नारायणस्वरूपो ! हम आपकी कृपा के ही आकांक्षी हैं । जिन देशों में ऐसे ब्रह्मवेत्ता गुरु हुए और उनको झेलने वाले साधक हुए वे देश उन्नत बने हैं । धन्यभागी हैं वे लोग, जिनमें वेदव्यासजी जैसे आत्मसाक्षात्कारी पुरुषों का प्रसाद पाने की और बाँटने की तत्परता है !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2020, पृष्ठ संख्या 4, अंक 330

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

स्वतंत्र सुख, दिव्य ज्ञान व पूर्ण जीवन की दिशा देता पर्व


हमारी माँग क्या है ? विचार करने पर समझ में आता है कि युग बदले, दृष्टिकोण बदले, साधन बदले किंतु मांग नहीं बदली । मनुष्य ही नहीं, प्राणिमात्र की अनंत युगों से एकमात्र मांग रही है – अमिट, स्वतंत्र, पूर्ण सुख ! यही माँग विभिन्न नामों से प्रकट होती रही जैसे – तृप्ति, संतुष्टि, प्रेम, रस, आनंद, शांति, विश्रांति की माँग । इसकी पूर्ति हेतु मानव के अपने अनंत-अनंत गलत प्रयासों के बाद जहाँ से सही रास्ता और सही प्रयास उसके जीवन में प्रारम्भ होता है  वह मोड़ है ब्रह्मवेत्ता गुरु की प्राप्ति । ‘सत्’ स्वरूप परमात्मा को जीवन का उद्देश्य बताने वाले, उस ‘चित्’ याने ‘ज्ञान’ के मार्ग पर चलाने वाले एवं उसी ‘आनंद’ स्वरूप को अपना ‘मैं’ अनुभव कराके शिष्य को शिष्यत्व से भी पार ले जाने वाले वे परम गुरु ही पूर्ण अर्थ में ‘गुरु’ होते हैं एवं ‘सदगुरु’ कहलाते हैं । भगवान कहते हैं- सः महात्मा सुदुर्लभः ।

उन सुदुर्लभ, ब्रह्मतत्त्व के अनुभवी महापुरुषों में वर्तमान में इस धरती पर विधमान एवं विश्व-मानव के जीवन को आत्मिक सुगंध से महकाने वाले महानतम सुरभित पुष्प, परम शीतल एवं शांत ज्ञान-प्रकाश, आनंद-उल्लास के असीम महासागर, बल, हिम्मत, उत्साह, आश्वासन, सांत्वना के अखूट भंडार हैं नित्य स्मरणीय सदगुरुदेव पूज्य संत श्री आशाराम जी बापू ।

कोई प्रशंसनीय होते हैं, कोई आदरणीय होते हैं, कोई वंदनीय होते हैं, कोई श्रद्धेय होते हैं किंतु तीनों तापों से बचाने वाले एवं सत्यस्वरूप में जगाने वाले साक्षात् परब्रह्म-परमात्मस्वरूप तत्त्ववेत्ता सदगुरु तो पूजनीय अनंत-अनंत उपकारों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का पर्व है गुरु-पूर्णिमा । गुरुपूर्णिमा का पर्व हमारी सोयी हुई शक्तियाँ जगाने को आता है । हम जन्म-जन्मांतरों से भटकते-भटकते सब पाकर सब खोते-खोते कंगाल होते आये । यह पर्व हमारी कंगालियत मिटाने एवं हमारे रोग शोक, अज्ञान को हर के भगवद्ज्ञान, भगवत्प्रीति, भगवद् रस, भगवत्सामर्थ्य भरने वाला पर्व है । हमारी दीनता-हीनता को छीनकर हमें ईश्वर के वैभव, प्रीति व रस से सराबोर करने वाला पर्व है । यह हमें स्वतंत्र सुख, स्वतंत्र ज्ञान, स्वतंत्र जीवन की दिशा देता है, हमें अपनी अमिट महानता का अनुभव कराता है । ऐसे ही महान उद्देश्य से गुरुपूर्णिमा के दिन ही आश्रम के मासिक प्रकाशन ‘ऋषि प्रसाद’ का भी शुभारम्भ हुआ था अतः इस दिन ऋषि प्रसाद जयंती भी है । ये दोनों पावन पर्व सभी को सदगुरु से मिलाने वाले एवं उनसे एकाकार होकर आत्मतृप्ति, आत्मसंतुष्टि, आत्मप्रीति, आत्मरस, आत्मानंद, आत्मविश्रांति के  प्रसाद से परिपुष्ट करने वाले साबित हों ।

हे सर्वहितैषी, सर्वेश्वर, प्यारे प्रभु जी ! हमें ही स्वीकार करें ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2020, पृष्ठ संख्या 2 अंक 330

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

विवेकी और वैरागी…. एक से बढ़कर एक ! – पूज्य् बापू जी


गुरु से दीक्षा लिये हुए दो साधक कहीं यात्रा करने जा रहे थे । उन्होंने दीक्षा लेकर साधुत्व स्वीकार कर लिया था । उनमें से एक था विवेकी और दूसरा था वैरागी । सत्संग सुना, विवेक जगाना है तो बन गये साधु । अब दोनों गुरुभाई यात्रा करते-करते 8वें दिन कहीं पहुँचे ।

विवेकी से वैरागी ने कहाः “मैं भिक्षा ले आता हूँ । तुम आज ज्यादा थके हो ।”

वह भिक्षा लेने गया तो इतने में विवेकी  के पास एक बड़ी खूबसूरत नटखटी आयी । विवेकी की दृष्टि पड़ीः “हे प्रभु ! बचाओ ।…..”

सिर नीचा करके वह रोने लगा । वह मीठी-मीठी बातें कहती जाय लेकिन विवेकी रोता चला जाय, रोता जाय । इतने में वैराग्यवान भिक्षा लेकर आ रहा था । उसको देखकर वह नौ दो ग्यारह हो गयी ।

उसने पूछाः “गुरुभाई ! क्यों रो रहे हो ? मैं आ गया हूँ भिक्षा लेकर, क्या भूख लगी है ? क्या रात को किसी जीव-जंतु ने काटा है ? क्या शरीर में पीड़ा हो रही है या किसी ने आपको सताया है ? बोलो न गुरुभाई ! बोलो न !”

गुरुभाई ने आँख उठायी, बोलाः “भिक्षा ले आये ?”

“हाँ ! क्यों रो रहे थे ?”

उसने फिर रोना चालू कर दिया और रोते-रोते टूटे-फूटे शब्दों में कहा कि ‘तुम गये और ‘माया’ माने जो दिखे और टिके नहीं, साथ सदा रहे नहीं, वह क्या-क्या रूप लेकर आयी थी ।

छोटी-मोटी कामिनी, सभी विष की बेल ।

वैरी मारे दाँव से, वो मारे हँस-खेल ।।

‘तुम बड़े सुंदर हो, तुम बड़े ऐसे हो, तुम्हारी आँखें ऐसी हैं, तुम्हारा ललाट ऐसा है, तुम्हारा यह ऐसा है….’ कहकर इस मरने-मिटने वाले शरीर की सराहना करके मुझे संसार-व्यवहार की तरफ और दुनियावी माया की तरफ घसीटने वाली भगवान की माया आयी थी । अभी तो मैं भगवान के रास्ते चला ही नहीं हूँ और यह मोहिनी माया आ गयी इसीलिए मैं रो रहा था ।”

इतना सुनता ही वैरागी भी रोने लग गया । पहला तो अभी ठीक से चुप नहीं हुआ और दूसरा रोने लग गया । विवेकी ने समझाया कि “भाई ! मेरा रोना तो तुमने चुप कराया । मैं तो अभी सिसकियाँ ले रहा हूँ और तुम्हें चुप कराता हूँ किंतु तुम चुप नहीं होते हो, क्या बात है ?”

“भैया ! तुम्हारे पास विवेक था । माया आयी तो तुमने सिर नीचा किया और रोने लग गये…. लग गये……लग गये तो लगे ही रहे । तुमने तो सिर नीचा किया और रोकर जान छुड़ायी । मेरे में तो उतनी भी अक्ल नहीं है, अगर मेरे पास आ जाती तो मैं क्या करता !”

विवेकीः “भैया ! मेरे पास वह माया आयी तब मैं रोया किंतु तुम इस बात को लेकर पहले ही रो रहे हो । तुम मेरे से ज्यादा विवेक-वैराग्यवान हो ।”

दोनों गुरु के द्वार पहुँचे । गुरु ने कहाः “बेटे ! तुम दोनों का ध्यान, जप सफल है । तुमने विवेक और वैराग्य का आश्रय लिया है । जिसने विवेक वैराग्य का आश्रय लिया है उसका थोड़ा सा जप भी भगवान बड़ा करके मानते हैं । बेटे ! अब तुम्हें मैं ईश्वर-साक्षात्कार के योग्य समझता हूँ, बैठो ।”

दोनों सत्शिष्यों पर गुरु का हृदय छलक गया ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2020, पृष्ठ संख्या 25 अंक 330

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ