गुरुभक्तों के अनूठे वरदान (बोध कथा)….

गुरुभक्तों के अनूठे वरदान (बोध कथा)….


मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ मांगो तुम मुझसे कोई एक वर मांग लो यदि आपको अपने गुरु से ऐसे वचन सुनने को मिले तो आप वरस्वरूप उनसे क्या मांगेंगे? यह प्रस्ताव कितना लुभावना सा है हमे सोचने को मजबूर कर ही देता है। भोगी से योगी तक सभी इस पर विचार करते है फ़र्क बस इतना ही है कि इसका जवाब गढ़ने के लिए एक सांसारिक अपनी बुद्धि की चतुराई लड़ाता है और एक साधक गुरुभक्त मन की भक्ताई लगाता है अर्थात भक्तिभावना लगाता है।

भागवत के एक ही प्रसंग में जब हिरण्यकश्यपु को मांगने का अवसर मिला तो उसने भरपूर बुद्धि भिड़ाई और बहुत ही टेढ़ी अंदाज में अमरता मांग ली मैं न पृथ्वी में मरु न आकाश में न भीतर मरु न बाहर मरु आदि आदि.. परन्तु हिरण्यकश्यपु वध के बाद जब भगवान नरसिंह ने भक्त प्रह्लाद को वर मांगने को कहा तो वह सजल आंखे लिए बोला- मेरी कोई कामना न रहे मेरी यही कामना है। मतलब की सांसारिक व्यक्ति की मांग मैं मेरे के स्वार्थी दायरों के बाहर नहीं आ पाती बड़ी छिछली सी होती है मगर एक शिष्य की एक गुरुभक्त की सोच व्यापकता को उपलब्ध होती है क्योंकि उसका प्रेम व्यापक से है व्यापकस्वरूप गुरुदेव से है।

कई भक्तों ने ऐसे अवसर पर अपने भक्तिभाव से सराबोर सुंदर और भक्ति वर्धिनी उद्गार व्यक्त किये है इस अवसर पर कि तुम मुझसे कुछ वर मांगो।

पहला गुरुभक्त कहता है कि- ऐसे में मैं गुरुजी से गुरुजी को मांग लूंगा। गुरुजी को मांगने का मतलब क्या है? यही कि गुरुदेव हमारे भीतर ऐसे समा जाए कि हमारे हर विचार हर व्यवहार हर कर्म पर वे झलके ताकि जब समाज हमे देखे तो समाज को गुरुमहाराज की ही याद आये उनकी ऊंचाई का भान हो और वह गदगद होकर कह उठे जब शिष्य ऐसे है तो साक्षात इनके गुरु कैसे होंगे।

इस अवसर पर दूसरा गुरुभक्त कहता है कि- जब भी श्री गुरुमहाराज इस धरा पर आए मैं भी उनके साथ ही आऊं और मैं उनकी आयु का ही होऊं और मेरी चेतना को यह ज्ञान हो कि मेरे गुरुवर साक्षात भगवान है और फिर मैं जी भर के उनकी सेवा करूँ और उनसे प्यार करूँ। तो भाई उनकी आयु के होने के पीछे क्या रहस्य है? गुरुदेव की आयु के होने से यह लाभ होगा कि मैं उनके अवतरण काल मे ज्यादा से ज्यादा जीवन बिता पाऊंगा और उनके सान्निध्य का आनंद लाभ उठा पाऊंगा उनसे पहले आया तो हो सकता है कि उन्हें छोड़कर मुझे इस धरती से जाना पड़े, उनके अवतरण के काफी बाद में मेरा जन्म हुआ तो हो सकता है कि वे मुझे इस संसार मे अकेले छोड़कर चले जाएं।

तीसरा गुरुभक्त कहता है इस अवसर पर कि अगर गुरुमहाराज जी मुझसे वरदान मांगने को कहेंगे तो मैं यही मांगूंगा कि- वे मुझे एक ईंट के समान बनाये और वह ईंट उनके आश्रम के नींव में लगाई जाए इसके पीछे मेरी भावना बस यही है कि जबतक मै जियूँ छिप के..प्रदर्शन, नाम, बड़ाई से अछूता रहकर गुरुदेव की सेवा करता रहूं और जैसे एक ईंट मिट कर मिट्टी हो जाता है अंततः मैं भी गुरुदरबार की मिट्टी बनू, गुरुचरणों की रज बन जाऊं अर्थात् सदा-सदा निमाणी भाव से उनका होकर रहूं।

इस अवसर पर चौथा गुरुभक्त कहता है कि-हे गुरुदेव! वर देना तो एक ऐसा दास बनाना जिसका अपना कोई मन मौजी सोच विचार न हो इस दास की बुद्धि में सिर्फ उन्ही विचारों को प्रवेश मिले जो गुरुदेव को पसंद हो जब विचार गुरुदेव के होंगे तो कार्य भी गुरुदेव के होंगे, कार्य गुरुदेव के होंगे तो जीवन भी गुरुदेव का होकर रह जायेगा इस दास को यह पता होगा कि मेरे मालिक अब क्या चाहते है जैसे महाराज जी हमारे कहने से पहले ही हमारे मन की बात जान जाते है वैसे ही दास को गुरुवर के कहने से पहले ही गुरुवर के मन की बात पता होगी। बात पता चलते ही वह सक्रिय होकर उन्हें पूरा करने लगेगा यदि मैं संक्षेप में कहूँ तो मुझे ऐसा दास बनने की चाह है जैसा गुरुदेव का हाथ जिसकी अपनी कोई मति नहीं, सोचते गुरुमहाराज जी है वही सोच हाथ तक पहुंच जाती है और बस हाथ उसे पूरा कर देता है। जो महाराज जी सोचे मैं भी अन्तर्वश उसे पूरा करता जाऊँ।

पांचवा भक्त इस अवसर पर कहता है कि- अगर गुरुमहाराज जी से मुझे कुछ मांगने का अवसर मिलेगा तो शायद मैं उस समय कुछ बोल ही नही पाऊंगा मेरी आँखों से बहते अश्रु गुरुदेव से अपनी इच्छा जरूर व्यक्त कर देंगे परन्तु मेरी वाणी मौन रहेगी।

इस अवसर पर छठा भक्त कहता है- जब आखिरी श्वास निकले तो गुरुदेव के श्री चरणों मे मेरा मस्तक हो उनका मुस्कुराता हुआ प्रसन्न चेहरा मेरी आँखों के सामने.. और वे गर्वोक्त स्वर में मुझसे कहें कि बेटे तुझे जो कार्य मैने सौंपा था वह पूर्ण हुआ चल अब यहां से लौट चले।

इस अवसर पर सातवां गुरुभक्त कहता है कि- हे गुरुदेव! सुंदर भावों से युक्त मन मुझे दे दो क्योंकि मेरे पास भाव का ही अभाव रहता है और गुरुदेव की दृष्टि अगर हमसे कुछ खोजती है तो भावों को ही खोजती है वैभव सौंदर्य, वाक पटुता अन्य कुछ नही यदि हम भावों द्वारा उनसे जुड़े है तो वे हमेशा हमसे हमारे लिए उपलब्ध है इसलिए हे गुरुदेव! मैं तो वरदान स्वरूप में भावों की ही सौगात माँगूंगा।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *