परमहंस योगानंद जी ने अपने एक शिष्य को कोई कार्य करने को कहा पर ‘यह कार्य मेरी क्षमता से परे है’ ऐसा सोचकर उसने उस कार्य को करने से मना कर दिया ।
परमहंस जी ने तुरंत दृढ़ स्वर में कहाः “इसे मैं कर सकता हूँ !”
शिष्यः “परंतु गुरुदेव ! आप योगानंद हैं । आप ईश्वर के साथ एक हैं ।”
शिष्य ने आशा की थी कि गुरुदेव कहेंगेः ‘हाँ ! तुम ठीक कहते हो । तुम जितना चाहो समय लो । अंत में सफल हो ही जाओगे ।’
योगानंद जीः “तुममें और योगानंद में केवल इतना ही अंतर है कि मैंने प्रयास किया, अब तुम्हें प्रयास करना है !”
जिन शिष्यों को योगानंद जी प्रशिक्षित करते थे उनसे दो उत्तर वे कभी भी स्वीकार नहीं करते थेः
1 ‘मैं नहीं कर सकता ।’ 2 ‘मैं नहीं करूँगा ।’
वे कहते थे कि “साधक को प्रयास करने का इच्छुक होना ही चाहिए ।”
परमहंस जी प्रायः कहते थेः “जीवन एक वेगवती नदी की भाँति है । जब आप ईश्वर की खोज करने लगते हैं तब आप उन सांसारिक प्रवृत्तियों के बलशाली प्रवाह की विपरीत दिशा में तैरने का प्रयास करते हैं जो आपके मन को सीमित सांसारिक इन्द्रिय-चेतना की ओर खींचती रहती हैं । आपको प्रतिपल प्रवाह के विरुद्ध तैरते रहने का प्रयास करना ही होगा । यदि आप प्रयास का को ढीला छोड़ देंगे तो माया का बलशाली प्रवाह आपको बहा ले जायेगा । आपका प्रयास निरंतर होना चाहिए ।”
स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2020, पृष्ठ संख्या 20 अंक 336
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