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उसने सोचा न था गुरु से किए कपट का इतना भयानक दंड भी हो सकता है…


गुरू भक्ति योग के निरन्तर अभ्यास के द्वारा मन की चंचल वृत्ति को निर्मूल करो। सच्चा साधक गुरु भक्ति योग के अभ्यास मे लालायित रहता है। गुरु की सेवा और गुरु के ही विचारो से दुनिया विषयक विचारो को दूर रखो। अपने गुरु से ऐसी शिकायत नही करना कि आपके अधिक काम के कारण साधना के लिए समय नही बचता। नींद तथा गपशप लगाने के समय मे कटौती करो। और कम खाओ तो आपको साधना के लिए काफी समय मिलेगा।

आचार्य की सेवा ही सर्वोच्च साधना है। जीवन थोड़ा है मृत्यु कब आएगी निश्चित नही है अतः गंभीरता से गुरु सेवा मे लग जाओ। अध्यात्मिक मार्ग तेज धार वाली तलवार का मार्ग है। जिनको इस मार्ग का अनुभव है ऐसे गुरु की अनिवार्य आवश्यकता है।

महाराष्ट्र के आपे नामक गांव मे संत ज्ञानेश्वर के पूर्वज ब्राह्मण जाति की पीढ़ीयो से पटवारी थे। उनके पिता विट्ठल पंत बचपन से ही सात्त्विक प्रवति के थे। जैसे जैसे विट्ठल बड़े होने लगे उनकी अध्यात्म मे रूचि बढ़ती गई। उन्होंने अनेक तीर्थ यात्राएं की जिससे उन्हे साधु संतो सनयासियों की संगति की। तीर्थ यात्रा पूरी करके वे पूणे के पास आलन्दी नामक गांव मे आये। उस समय एक सिध्दोपंत नामक एक सदाचारी ज्ञानी ब्राह्मण वहाँ के पटवारी थे।

वह इस अतिथि के ज्ञान सदाचारी भाव को देखकर प्रभावित हो गये। और उन्होंने अपनी पुत्री रुक्मणी का विवाह विट्ठल पंत से कर दिया। विवाह के पश्चात लम्बे समय तक विट्ठल को संतति प्राप्त न हो सकी। कुछ वर्षो के बाद विट्ठल के माता-पिता का देहांत हो गया। और अब परिवार की पूरी जिम्मेदारी विट्ठल के कंधो पर आ गयी। मगर परिवार के रहने के बावजूद भी विट्ठल का मन सांसारिक बातो मे नही लगता था उनका अधिकांश समय ईश्वर स्तुति मे ही गुजरता।  सिध्दोपंत ने यह जान लिया कि उनके दामाद का झुकाव दुनियादारी मे न होकर अध्यात्म मे है। इसलिए वो विट्ठल और रुक्मणी दोनो को अपने साथ आलन्दी ले आये। विट्ठल अब सन्यास गृहण कर वैवाहिक जीवन के बंधन से मुक्त होना चाहते थे। मगर इसके लिए पत्नी की सहमति जरूरी थी। उन्होंने रुक्मणी से सन्यास लेने के लिए अनुमति मांगना शुरू किया। रुक्मणी के कई बार मना करने और समझाने के बावजूद भी विट्ठल पंत बार बार उनसे अनुमति मांगते रहे ।

एक दिन तंग आकर रुक्मणी ने क्रोध मे कह दिया जाओ चले जाओ। विट्ठल तो सन्यास गृहण करने के लिए तो उतावले थे ही। इसलिए उन्होंने अपनी पत्नी के इन क्रोध पूर्ण शब्दो को ही उनकी अनुमति मान लिया। और तुरंत ही काशी की ओर रवाना हो गए। काशी मे उन्होंने महागुरू (यहाँ महागुरू रामानंद स्वामी को कह रहे है।) के पास जाकर उनसे आग्रह किया वे उन्हे सन्यास दीक्षा दें। यहाँ तक कि उन्होंने महागुरू से झूठ बोल दिया कि वे अकेले हैं और उनका कोई घर परिवार नही है क्योंकि उस समय किसी संसारी को सन्यासी बनाने की प्रथा नही थी।

महागुरू ने विट्ठल को अकेला जान अपना शिष्य बनाकर सन्यास की दीक्षा दी । अब यहाँ पर प्रश्न रहता है कि किसी बात की पात्रता पाने के लिए कपट करना जरूरी है, आवश्यक है! उस समय के समाज मे एक व्यक्ति के सन्यासी बनने की पात्रता थी कि उसका ग्रहस्थ न होना और यदि कोई ग्रहस्थ व्यक्ति सन्यास की दीक्षा लेना भी चाहता हो तो इस निर्णय मे पत्नी की पूरी सहमति होनी आवश्यक थी। और विट्ठल पंत इन दोनो की पात्रता पर खरे नही उतरे थे। उनकी पत्नी ने उन्हे सही मायने मे सन्यासी बनने की अनुमति नही दी थी। वे सिर्फ क्रोध मे निकले बोल थे जो सच्चे नही थे।

दरअसल विट्ठल पंत अपनी इच्छा पूरी करने के लिए इतने उतावले थे कि उन्होंने अपनी पत्नी के मुंह से वही सुना जो वे सुनना चाहते थे। वह नही जो रुक्मणी कहना चाहती थी।

यहाँ हमारा उद्देश्य भक्त हृदय विट्ठल पंत की आलोचना करना नही बल्कि मानव मात्र को समझना है कि वह कैसे अपना मनचाहा पाने के लिए उसकी पात्रता को एक तरफ रखकर अपनी चलाता है। और कपट करने से भी नही चुकता उसके कान वही सुनते है जो उसकी इच्छा पूर्ति मे सहायक हो। उसकी आंखो को वही दिखाई देता है जो वह देखना चाहता है। विट्ठल पंत सन्यास लेने की बाहरी पात्रता पर खरे नहीं उतरे थे। जब कि आंतरिक प्यास के अनुसार वे एक योग्य साधक थे। उन्होंने कपट किया लेकिन उनके भाव शुद्ध थे। वे भक्त थे । सन्यास लेकर सत्य प्राप्त करना चाहते थे । मगर सत्य और कपट दोनो विपरीत बातें हैं।

जिस तरह व्यक्ति के अच्छे कर्मो का फल आता है वैसे ही बुरे कर्मो का फल आता है। विट्ठल पंत की भक्ति का फल उन्हे मिला। उन्हे चार आत्मसाक्षात्कारी संतानो के मिलने का गौरव प्राप्त हुआ। ऐसी विलक्षण संतानो मे ज्ञान और भक्ति के बीज रोपने का अवसर मिला। जिसके बारे मे आगे हम जानेगे। मनुष्य अपने लाभ के लिए जाने अनजाने कपट करता है। सेवा मे अथवा आफिस मे पहुंचने मे देर हो गई तो फटाफट कोई झूठ बहाना गढ़ दिया। किसी दुसरे के कार्य का क्रेडिट खुद ले लिया। यह कपट कहाता है। यदि व्यक्ति अपने पूरे दिन की गतिविधियो पर कपट मुक्त होकर मनन करे तो उसे पता चलेगा कि वह दिनभर मे कितना कपट करता है। दुसरो के साथ भी और खुद के साथ भी । खुद के साथ इस तरह किया वह अपनी गलतीयो को छिपाने के लिए स्वयं से ही झूठ बोलता है मगर क्या आप जानते है कि सबसे बड़ा कपट कौन सा होता है। वह कपट जो उच्च चेतना के साथ किया जाता है। किसी सच्चे अच्छे व्यक्ति के साथ किया जाता है । फलतः जितनी ऊंची सामने वाले की चेतना कपट भी उतना ही बड़ा आता है सबसे उच्च चेतना तो सद्गुरु की होती है । इसलिए सद्गुरु के साथ किया गया कपट सबसे बड़ा कपट माना गया है इसलिए इसे महाकपट कहा गया है। और विट्ठल पंत से यही महाकपट हुआ। उन्होंने अपने महागुरू से अपने सद्गुरु से अपने विवाहित होने की बात छिपाई। इस महाकपट का प्रायश्चित आगे चलकर उन्हे अपने प्राण देकर करना पड़ा। हमारे पूर्वज संतों ने इसी बात को अनेक पौराणिक कथाओ के माध्यम से समझाया है।

महाभारत की कथा का पात्र कर्ण, अर्जुन की तरह एक महान योद्धा था। मगर उसने अपने गुरु परशुराम से शास्त्र विद्या सिखने के लिए कपट किया। और अपना छिलाया उसे इस महाकपट का फल एक श्राप के रूप मे मिला कि जिस दिन इसे इस विद्या की सबसे अधिक जरूरत होगी उसी दिन यह विद्या उसके काम नही आएगी।

श्री कृष्ण उच्चतम चेतना के स्वामी थे उनके गुरुकुल के सहपाठी मित्र सुदामा धर्म परायण और संतोषी स्वभाव के थे। मगर एक बार सुदामा ने भूख के वश होकर श्री कृष्ण से कपट किया था। उन्होंने अपने बाल सखा के हिस्से के चने उनसे झुठ बोलकर खा लिये थे। कथा के अनुसार श्री कृष्ण जैसे उच्च चेतना के संग कपट करने का परिणाम यह हुआ कि आगे चलकर सुदामा को अपने दिन बड़ी गरीबी और अभाव मे गुजारने पड़े। उनकी गरीबी तब दुर हुई जब उन्होंने अपनी समस्त सम्पति जो कि कुछ मुठ्ठी चावल थे। उन्होंने श्री कृष्ण को अर्पण कर दिये थे।

जिस तरह डाक्टर से रोग छिपाकर या बढ़ा चढ़ाकर बताने से रोगी का ही नुकसान होता है।ठीक ऐसे ही सद्गुरु से कपट करना साधक की अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारने के बराबर है इसलिए स्वयं को ही नुकसान से बचाने के लिए साधक को यह प्रण अवश्य करना चाहिए। कम से कम खुद से और गुरु से कपट न हो। कपट करके कुछ मिल भी गया तो क्या लाभ? क्योंकि वह जीवन को पतित कर देगा।

यदि साधक कपट कर रहा है तो इसका अर्थ यह है कि वह ज्ञान लेने का पात्र ही नही बना। अपनी कमियाँ छिपाने के लिए गुरु को चार बाते छिपाकर बताना यह अपनी श्रेष्ठता दिखाने के लिए चार बाते बढ़ाकर बताने की जरूरत ही नही है। क्योंकि गुरु सर्वज्ञ है।

एक बात और, गुरु यह आपसे आशा कभी नही रखते कि आप परफेक्ट बनकर उनके सामने आएं। यदि आप परफेक्ट होते तो आवश्यकता ही क्या रहती। गुरु मानव की कमजोरियां, चालाकियाँअच्छी तरह समझते हैं आपके मन के नाटक को वे अपना नाटक नही समझते बल्कि मन का नाटक समझते हैं और गुरु इसी मन को साधना सिखाते हैं इसी मन को कपट मुक्त करना चाहते हैं इसलिए गुरु के आगे गलतियाँ छिपाना व्यर्थ है वे आपको वही जानकर दिखते है जो आप वास्तव मे घटनाओ से घिरकर सम्भलकर गल्तीया करके और उन्हे सुधारकर ही परफेक्ट अवस्था की ओर साधक बढ़ता जाता है। इसलिए कपट की कोई आवश्यकता ही नही। जो है जैसा है उसे स्वीकार करे। और सब सीखकर आगे बढ़े। शायद हम सभी से हमारे गुरुदेव भी यही आशा रखते हैं।

गुरुभक्तों के अनूठे वरदान (बोध कथा)….


मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ मांगो तुम मुझसे कोई एक वर मांग लो यदि आपको अपने गुरु से ऐसे वचन सुनने को मिले तो आप वरस्वरूप उनसे क्या मांगेंगे? यह प्रस्ताव कितना लुभावना सा है हमे सोचने को मजबूर कर ही देता है। भोगी से योगी तक सभी इस पर विचार करते है फ़र्क बस इतना ही है कि इसका जवाब गढ़ने के लिए एक सांसारिक अपनी बुद्धि की चतुराई लड़ाता है और एक साधक गुरुभक्त मन की भक्ताई लगाता है अर्थात भक्तिभावना लगाता है।

भागवत के एक ही प्रसंग में जब हिरण्यकश्यपु को मांगने का अवसर मिला तो उसने भरपूर बुद्धि भिड़ाई और बहुत ही टेढ़ी अंदाज में अमरता मांग ली मैं न पृथ्वी में मरु न आकाश में न भीतर मरु न बाहर मरु आदि आदि.. परन्तु हिरण्यकश्यपु वध के बाद जब भगवान नरसिंह ने भक्त प्रह्लाद को वर मांगने को कहा तो वह सजल आंखे लिए बोला- मेरी कोई कामना न रहे मेरी यही कामना है। मतलब की सांसारिक व्यक्ति की मांग मैं मेरे के स्वार्थी दायरों के बाहर नहीं आ पाती बड़ी छिछली सी होती है मगर एक शिष्य की एक गुरुभक्त की सोच व्यापकता को उपलब्ध होती है क्योंकि उसका प्रेम व्यापक से है व्यापकस्वरूप गुरुदेव से है।

कई भक्तों ने ऐसे अवसर पर अपने भक्तिभाव से सराबोर सुंदर और भक्ति वर्धिनी उद्गार व्यक्त किये है इस अवसर पर कि तुम मुझसे कुछ वर मांगो।

पहला गुरुभक्त कहता है कि- ऐसे में मैं गुरुजी से गुरुजी को मांग लूंगा। गुरुजी को मांगने का मतलब क्या है? यही कि गुरुदेव हमारे भीतर ऐसे समा जाए कि हमारे हर विचार हर व्यवहार हर कर्म पर वे झलके ताकि जब समाज हमे देखे तो समाज को गुरुमहाराज की ही याद आये उनकी ऊंचाई का भान हो और वह गदगद होकर कह उठे जब शिष्य ऐसे है तो साक्षात इनके गुरु कैसे होंगे।

इस अवसर पर दूसरा गुरुभक्त कहता है कि- जब भी श्री गुरुमहाराज इस धरा पर आए मैं भी उनके साथ ही आऊं और मैं उनकी आयु का ही होऊं और मेरी चेतना को यह ज्ञान हो कि मेरे गुरुवर साक्षात भगवान है और फिर मैं जी भर के उनकी सेवा करूँ और उनसे प्यार करूँ। तो भाई उनकी आयु के होने के पीछे क्या रहस्य है? गुरुदेव की आयु के होने से यह लाभ होगा कि मैं उनके अवतरण काल मे ज्यादा से ज्यादा जीवन बिता पाऊंगा और उनके सान्निध्य का आनंद लाभ उठा पाऊंगा उनसे पहले आया तो हो सकता है कि उन्हें छोड़कर मुझे इस धरती से जाना पड़े, उनके अवतरण के काफी बाद में मेरा जन्म हुआ तो हो सकता है कि वे मुझे इस संसार मे अकेले छोड़कर चले जाएं।

तीसरा गुरुभक्त कहता है इस अवसर पर कि अगर गुरुमहाराज जी मुझसे वरदान मांगने को कहेंगे तो मैं यही मांगूंगा कि- वे मुझे एक ईंट के समान बनाये और वह ईंट उनके आश्रम के नींव में लगाई जाए इसके पीछे मेरी भावना बस यही है कि जबतक मै जियूँ छिप के..प्रदर्शन, नाम, बड़ाई से अछूता रहकर गुरुदेव की सेवा करता रहूं और जैसे एक ईंट मिट कर मिट्टी हो जाता है अंततः मैं भी गुरुदरबार की मिट्टी बनू, गुरुचरणों की रज बन जाऊं अर्थात् सदा-सदा निमाणी भाव से उनका होकर रहूं।

इस अवसर पर चौथा गुरुभक्त कहता है कि-हे गुरुदेव! वर देना तो एक ऐसा दास बनाना जिसका अपना कोई मन मौजी सोच विचार न हो इस दास की बुद्धि में सिर्फ उन्ही विचारों को प्रवेश मिले जो गुरुदेव को पसंद हो जब विचार गुरुदेव के होंगे तो कार्य भी गुरुदेव के होंगे, कार्य गुरुदेव के होंगे तो जीवन भी गुरुदेव का होकर रह जायेगा इस दास को यह पता होगा कि मेरे मालिक अब क्या चाहते है जैसे महाराज जी हमारे कहने से पहले ही हमारे मन की बात जान जाते है वैसे ही दास को गुरुवर के कहने से पहले ही गुरुवर के मन की बात पता होगी। बात पता चलते ही वह सक्रिय होकर उन्हें पूरा करने लगेगा यदि मैं संक्षेप में कहूँ तो मुझे ऐसा दास बनने की चाह है जैसा गुरुदेव का हाथ जिसकी अपनी कोई मति नहीं, सोचते गुरुमहाराज जी है वही सोच हाथ तक पहुंच जाती है और बस हाथ उसे पूरा कर देता है। जो महाराज जी सोचे मैं भी अन्तर्वश उसे पूरा करता जाऊँ।

पांचवा भक्त इस अवसर पर कहता है कि- अगर गुरुमहाराज जी से मुझे कुछ मांगने का अवसर मिलेगा तो शायद मैं उस समय कुछ बोल ही नही पाऊंगा मेरी आँखों से बहते अश्रु गुरुदेव से अपनी इच्छा जरूर व्यक्त कर देंगे परन्तु मेरी वाणी मौन रहेगी।

इस अवसर पर छठा भक्त कहता है- जब आखिरी श्वास निकले तो गुरुदेव के श्री चरणों मे मेरा मस्तक हो उनका मुस्कुराता हुआ प्रसन्न चेहरा मेरी आँखों के सामने.. और वे गर्वोक्त स्वर में मुझसे कहें कि बेटे तुझे जो कार्य मैने सौंपा था वह पूर्ण हुआ चल अब यहां से लौट चले।

इस अवसर पर सातवां गुरुभक्त कहता है कि- हे गुरुदेव! सुंदर भावों से युक्त मन मुझे दे दो क्योंकि मेरे पास भाव का ही अभाव रहता है और गुरुदेव की दृष्टि अगर हमसे कुछ खोजती है तो भावों को ही खोजती है वैभव सौंदर्य, वाक पटुता अन्य कुछ नही यदि हम भावों द्वारा उनसे जुड़े है तो वे हमेशा हमसे हमारे लिए उपलब्ध है इसलिए हे गुरुदेव! मैं तो वरदान स्वरूप में भावों की ही सौगात माँगूंगा।

वह घटना जिसने धर्मदास जी का जीवन ही बदल दिया….


संत कबीर जी मथुरा की यात्रा के लिये निकले बांके बिहारी के पास कबीर जी को एक आदमी दिखा। कबीर जी ने उसको गौर से देखा तो उस आदमी ने भी कबीर जी को गौर से देखा। कबीर जी की आंखो मे इतनी गहराई। कबीर जी की आत्मा मे भगवान का इतना अनुभव कि वह आदमी उनको देखकर मानो ठगा सा रह गया।

कबीर जी ने पूछा क्या नाम है तुम्हारा कहां से आये हो? उसने कहा मेरा नाम धर्मदास है। मैं माधवगढ़ जिला रीवा मध्य प्रदेश का रहने वाला हूँ। तुम इधर कैसे आये? मै यहाँ भगवान के दर्शन करने आया हूँ। कितनी बार आये हो यहां? हर साल आता हूँ। क्या तुम्हे सचमुच भगवान के दर्शन हो गये? तुमको भगवान नही मिले केवल मुर्ति मिली है।

मेरा नाम कबीर है कभी मौका मिले तो काशी आना। ऐसा कहकर कबीर जी तो चले गए। कबीर जी की अनुभव युक्त वाणी ने विलक्षण असर किया। धर्मदास गया तो था बांके बिहारी के दर्शन करने मंदिर मे जाने का अब मन नही कर रहा था। घर वापस लौट आये। लग गये कबीर जी के वचन अब घर मे ठाकुर जी की पूजा करता तो देखता कि अन्तर्यामी ठाकुर जी के बिना ये बाहर के ठाकुर जी की पूजा भी तो नही होगाी और बाहर के ठाकुर जी की पूजा करके शांत होना है अन्तररूपी आत्मरूपी ठाकुर मे। अब मुझे निर्दुख नारायण के दर्शन करने है और वह सदगुरु की कृपा के बिना नही होते। वे दिन कब आएंगे कि मैं सद्गुरु कबीर जी के पास पहुचूंगा।

एक दिन धर्मदास सब छोड़ छाड़ कर कबीर जी के पास पहुंच गये काशी। कबीर जी के पास जाते ही –

धर्मदास हर्षित मन कीन्हा।

बहुर पुरूष मौहे दर्शन दीन्हा।।

धर्मदास का मन हर्षित हो गया जिनको मथुरा मे देखा था काशी मे फिर उन्ही पुरूष के दर्शन हुए।

मन अपने तब कीन विचारा।

इनकर ज्ञान महा टकसारा।।

कबीर का ज्ञान महा टकसाल है। यहाँ तो सत्य की अशरफियाँ बनती हैं अनंत की गिन्नीया बनती है। मै कहाँ अब तक कीमती तिजोरी मे कंकर पत्थर इक्कठे कर रहा था आपका जीवन और आपका दर्शन सच्चा सुखदायी है ये संत अपने सत्संग से दर्शन से सुख शांति और आनंद की गिन्नीया हृदय तिजोरीयो मे भर देते है।

इतना कह मन कीन विचारा।

तब कबीर उन ओर निहारा।।

तब कबीर जी ने धर्मदास की ओर गहराई से देखा ऐसा लगा मानो बिछड़ा हुआ सत् शिष्य गुरुजी को आकर मिला। हर्षित मन से कबीर जी ने कहा आओ धर्मदास पग धारो। आओ धर्मदास अब काशी मे ही पैर जमाओ। मेरे सामने बैठो। चैहुक चैहुक तुम काहे निहारो। टकुर टकुर क्यो मेरे ओर देख रहे हो? धर्मदास हमने तुमको पहचान लिया तुम सत् पात्र हो , सत् शिष्य हो इसलिए मैंने तुमको यह बात कह दी थी। फिर भी तुमने बहुत दिन के बाद मुझे दर्शन दिये। छः महीने हो गये।

कबीर जी ने थोड़ी धर्मदास जी के उपर अपनी कृपा दृष्टि डाली। सत्संग सुना था धर्मदास गदगद हो गये। धन्य धन्य हो गये। सोचा कि मैने आज तक जो रूपयो पैसो के नाम पर नश्वर चीजे इक्कठी की है मै उन्हे खर्च करने के लिए जाऊंगा तो मेरे को समय देना पड़ेगा व्यवस्थापको को संदेशा भेजा गया जो भी मेरी माल सम्पति खेत मकान है गरीबों मे बांट दो भंडारा कर दो शुभ कार्यो मे लगा दो। मै फकीरी ले रहा हूँ।

संत कबीर जी की टकसाल मे मेरा प्रवेश हो गया है ब्रह्मज्ञानी संत मिल गया है। हृदय मेरे आत्मतीर्थ का साक्षात्कार करूंगा । इस सम्पति को सम्भालने या बांटने का मेरे पास समय नही है। मुनिमो ने तो रीवा जिले मे तो डंका बजा दिया कि जिनको भी जो आवश्यकता है ऐसे गुरबे और सात्विक लोग जो सामान की सेवा करते है आश्रम मंदिर वाले वे आकर धन ले जाये। जुटाने के लिए जीवन भर लगा दिया। लेकिन छोङने के लिए मृत्यु का एक झटका काफी है। अथवा छोड़ना ही है तो भर ले जाओ बस इतना ही बोलना है।


कबीर दास जी के चरणो मे धर्मदास लग गये तो लग गये। और अपने आत्मा और परमात्मा के पास अपने आत्मा और परमात्मा के परम सुख को पा गये। धर्मदास सन् 1423 मे जन्मे थे और कबीर जी 120 वर्ष तक धरती पर रहे। कबीर जी का कृपा प्रसाद पाकर लोगो को महसूस कराना है यह राख बन जाने वाले शरीर के लिए है बाहर का है। असली धन तो सद्गुरु का सत्संग है सत्गुरू ने जो भगवान का नाम दिया है और भगवान की शांति और प्रीति है। असली धन तो परमात्म प्रसाद है।