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कर्म करते हुए भी हम पास सकते हैं वही खजाना


प्राचीन काल की बात है । कुंदनपुर नगर का राजा बड़ा धार्मिक, सज्जन था । प्रजा का जीवन कर्म, उपासना और ज्ञान से ओतप्रोत हो जाये ऐसी उसकी राज व्यवस्था थी । उस राज्य से 3 प्रकार के आश्रमों की सेवा होती थी । पहला त्यागियों का आश्रम था । वहाँ नीरव शांति छायी रहती थी । वेद की ऋचाओं का पाठ, होम हवन होता था । दूसरा कवियों का आश्रम था । उसमें उपासना की पद्धतियों पर चर्चा होती थी । और तीसरा विरक्तों का आश्रम था । उसमें आत्मा-परमात्मा, जीव-ब्रह्म, ईश्वर-माया, जगत विषयक चर्चा होती थी, जिसे सुनते-सुनते व्यक्ति अपने आत्मविश्रांति स्वभाव में पहुँच जाता था । जब कोई पर्व होता तो कुंदनपुर और आसपास के लोग उन आश्रमों में उमड़ पड़ते थे । जो जैसा अधिकारी होता था उसको उनमें से वैसे आश्रमों में ज्यादा आनंद आता था । अपने अधिकार के अनुसार व्यक्ति को साधन में रुचि होती है ।

कुंदनपुर से थोड़ी दूर गंगा किनारे स्थित एक विरक्त आश्रम में ब्रह्मानंद में, आत्मानंद में तृप्त ब्रह्मवेत्ता, आत्मज्ञानी संत नित्यानंद स्वामी रहते थे । उन महापुरुष की एक जिज्ञासु युवक पर बार-बार दृष्टि रहती थी कि ‘कई लोग सत्संग सुनते हैं लेकिन सत्संग सुनते-सुनते इसके द्वारा कुछ अंदर की खबरें आती हैं ।’

कोई व्यक्ति पानी का प्याला पिलाता है तब भी अभिवादन करना पड़ता है, नहीं तो कृतघ्नता का पाप लगता है । तो सत्संग पूरा होता तब लोग संत को प्रणाम करके जाते । जब वह जिज्ञासु युव नित्यानंद स्वामी को वंदन करके रवाना होता था तो वे सोचते थे कि ‘इससे बात करें ।’ एक दिन उन्होंने उससे पूछाः “भाई ! तू कहाँ रहता है ? क्या करता है ?”

बोलेः “स्वामी जी ! आपके उपदेश से तो पता चल गया कि ‘मैं सब जगह रहता हूँ और सब कुछ करता हूँ और फिर भी मैं कुछ नहीं करता हूँ – हकीकत में तो यह बात है’ किंतु व्यवहार-दृष्टि से आप पूछते हैं तो मैं फलाने जमींदार की जमीन से आधा भाग लेकर उसे जोतता हूँ ।”

“तेरे चित्त में बड़ी शांति प्रतीत होती है और तुम्हें कुछ दिव्य समझ प्राप्त हो गयी है ऐसा लगता है ।”

“स्वामी जी ! जब मैं छोटा था तब हमारे गाँव में कोई संत आये थे । हम शाम को बाबा जी के पास जाते थे । वे हमें गीता का पाठ कराते थे और प्रसाद भी देते थे । स्वामी जी ! हमको गीता थोड़ी कंठस्थ हो गयी थी । समय पाकर गीता तो भूल गये लेकिन गीता का एक श्लोक हमें बहुत प्यारा लगाः

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।

सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ।।

जो अपना ही दृष्टांत रखकर (अपनी भाँति) समस्त प्राणियों के सुख या दुःख को समानरूप से देखता है, उससे प्रभावित नहीं होता वह परम योगी माना गया है ।

सुख आ जाय चाहे दुःख आ जाय, जो बुद्धिमान है वह दोनों में सम रहता है ।

महाराज ! घर में तो कुछ-न-कुछ होता रहता है, कभी जमींदार कुछ कह देता है, कभी बारिश से कुछ हो जाता है तो कभी आँधी से कुछ हो जाता है किंतु वह गीता के श्लोकवाली बात मुझे बार-बार याद आती है तो मैं सम रहने की कोशिश करता हूँ । सम रहने की कोशिश के कारण और आप संतों की कृपा से मेरी विज्ञानमय कोष और आनंदमय कोष में स्थिति हो गयी है । इसीलिए तत्त्वज्ञान की बात सुनने में अच्छी लगती है और जरा आपकी कृपा से स्वामी जी !…. अब क्या वर्णन करूँ ?”

“भाई ! तू जमींदार के यहाँ नौकरी करता है और हम  विरक्त हो के – बाबा जी हो के बैठे हैं लेकिन हम जहाँ कि खबरें पा रहे हैं वहाँ की ही खबर तेरे दिल से भी आ रही है । जहाँ कि खबरें, जहाँ कि विश्रांति, जहाँ का खजाना हम पा रहे हैं वहीं के खजाने पर तू भी पहुँचा है ऐसा लग रहा है ।”

बोलेः “महाराज ! ये सब बचपन के जो संस्कार हैं न, वे काम करते हैं । मैंने आप जैसे संतों से वेदांत सुना है । वेदांत का श्रवण और फिर एकांतवास…. खेत में कुछ काम करने के पहले थोड़ा अपने स्वरूप का चिंतन कर लेता हूँ, काम निपटाने के बाद स्वरूप का चिंतन कर लेता हूँ और काम करते हुए भी कहता हूँ कि ‘काम तो ये मेरे करण (साधन) कर रहे हैं, इन्द्रियाँ कर रही हैं, मन कर रहा है, बुद्धि से निर्णय हो रहा है लेकिन मैं इन सबसे परे हूँ । मैं असंग हूँ । हरि ॐ शांति…. सोऽहम्… शिवोऽहम्….’ ऐसा करके मैं श्रद्धा से भगवद्-तत्त्व में डुबकी मारता हूँ, जिसकी भगवान प्रशंसा करते हैं – योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मान ।

जो अंतरात्म-भाव से मुझे भजता है वह सब योगियों में मुझे विशेष मान्य है । तो कार्य के समय मैं बीच-बीच में अंतरतम आत्मा में गोता मारा करता हूँ और सुबह उठकर अंतर्यामी परमात्मा के ध्यान में मग्न होता हूँ ।”

जो स्थिति ज्ञानयोग, भक्तियोग, ध्यानयोग से प्राप्त की जाती है, वही कर्मयोग से भी प्राप्त की जाती है । ज्ञानयोग में विवेक, वैराग्य तथा भक्तियोग व ध्यानयोग में प्रेम और कर्मयोग में समता की विशेष महत्ता है ।

यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।

एकं साङ्ख्यं योगं च यः पश्यति स पश्यति ।।

‘ज्ञानयोगियों द्वारा जो परम धाम प्राप्त किया जाता है, कर्मयोगियों द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है । इसलिए जो पुरुष ज्ञानयोग और कर्मयोग को फलरूप में एक देखता है, वही यथार्थ देखता है ।’ (गीताः 5.5)

स्रोतः ऋषि प्रसाद सितम्बर 2020, पृष्ठ संख्या 16, 17 अंक 333

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…तो उसी समय आत्मसाक्षात्कार ! – पूज्य बापू जी


अधार्मिक लोग तो दुःखी हैं ही लेकिन धार्मिक भी परेशान हैं, रीति-रिवाज, रस्म में, किसी धारणा में, किसी मान्यता में इतने बँध गये कि हृदय में विराजता जो एकदम नकद आत्मानंद है उसका उनको पता ही नहीं । उनकी ऐसी कुछ मान्यता हो गयी कि ‘ऐसा होगा, ऐसा होगा… तब ज्ञान होगा । कुछ ऐसा-वैसा बनेगा, कोई समाधि लगेगी तब प्रभु मिलेगा ।’ अरे, प्रभु तेरे से एक पलभर भी दूर नहीं । कुछ लोग सोचते हैं कि ‘धड़ाक धूम होगा….. कोई घोर तपस्या करेगा तब ईश्वर मिलेगा….’ और महापुरुषों के जीवन-चरित्र पढ़ते हैं कि फलाने महाराज ने 12 वर्ष तप किया, बाद में आत्मसाक्षात्कार हुआ… फलाने बाबा जी 7 वर्ष घोर तपस्या की फिर उनको ईश्वर मिला… तो आप भी ऐसा मान बैठते हैं कि ‘कुछ घोर तपस्या करेंगे फिर ईश्वर मिलेगा….’ परन्तु ऐसी बात नहीं है । वह कभी तुम्हारे से बिछुड़ा नहीं । यदि समर्थ सदगुरु मिल जाते हैं और तुम्हारी तैलीय बुद्धि ( वह बुद्धि जिसमें संकेतमात्र ऐसे फैल जाता है जैसे पानी से भरी थाली में डली तेल की एक बूँद पूरी थाली में फैल जाती है । तैलीय बुद्धि वाले को सद्गुरु ने कोई संकेत किया तो उसकी बुद्धि में फैल जाता है । फिर वह एकांत में अभ्यास करके पूर्ण स्थिति में पहुँच जाता है । एकांतवास, अल्पाहार, भगवद्-चिंतन…. श्रीयोगवासिष्ठ महारामायण में महर्षि वसिष्ठ जी कहते हैं- “एक प्रहर (अर्थात् 3 घंटे) शास्त्र-विचार, एक प्रहर सद्गुरु-सेवा, एक प्रहर प्रणव (ॐकार) जप और एक प्रहर ध्यान करे । इन साधनों से हे राम जी ! उसे शीघ्र ही भगवत्प्राप्ति हो जाती है ।”) है तो चट मंगनी, पट ब्याह !

मूवा पछीनो वायदो नकामो, को जाणे छे काल ।

आज अत्यारे अब घड़ी साधो, जोई लो नकदी रोकड़ माल ।।

अर्थात् मरने के बाद का वादा व्यर्थ है, कल का किसको पता है ? साधो ! आज, अभी इसी क्षण देख लो नकद माल ।

मान्यताओं ने आपको परमात्मा से दूर कर दिया । ऐसा कुछ सुन बैठे हैं, ऐसा कुछ समझ बैठे हैं, ऐसा कुछ देख बैठे हैं कि जिससे सब समझा जाता है, जिससे सब देखा जाता है वह नहीं दिखता, बाकी सब दिखता है । ॐॐॐ… कुछ सोचो मत । भगवान की भी इच्छा मत करो । इच्छामात्र हट यी तो उसी समय आत्मसाक्षात्कार ! नेति नेति नेति नेति नेति…. यह नहीं, यह नहीं, यह नहीं, यह नहीं, यह नहीं करते-करते…. पुत्र तुम्हारा है ? बोलो, नहीं । पत्नी तुम्हारी है ? नहीं । पैसा तुम्हारा है ? नहीं । शरीर तुम्हारा है ? नहीं । मन तुम्हारा है ? नहीं । बुद्धि तुम्हारी है ? नहीं । चित्त तुम्हारा है ? नहीं । कार तुम्हारी है ? अरे, शरीर ही हमारा नहीं तो कार हमारी कैसे है ? दुकान तुम्हारी है ? नहीं । तुम्हारा यह नहीं, यह नहीं, यह नहीं, यह नहीं…. हटाते जाओ, हटाते जाओ…. हटा-हटा कर सब हटा दो, जो हटाने वाला बचेगा वह आत्मा है, वह नहीं हटता । देखे हुए को, सुने हुए को – दोनों को हटाते जाओ, देखे हुए – सुने हुए दोनों हट गये तो जिससे सब हट उसमें शांत….

वह ज्यों का त्यों हस्तामलकवत् (हाथ पर रखे आँवले की तरह सुस्प्ष्ट एवं प्रत्यक्ष) भासेगा । भासेगा किसको ? उसी को…. स्वयं को स्वयं भासेगा !

यह भगवान के दर्शन से भी ऊँची बात है । ठाकुर जी का दर्शन हो जाय, अल्लाह का दर्शन हो जाय तो भी व्यक्ति रोयेगा लेकिन आत्मसाक्षात्कार करेगा तो फिर रोना-धोना गया । फिर अल्लाह स्वयं बन जायेगा, ठाकुर जी स्वयं बन जायेगा । फिर तुम्हारे को छूकर जो हवा चलेगी न, वह भी लोगों के पाप नष्ट कर देगी । तुम्हारी जिन पर दृष्टि पड़ेगी वे भी प्रणाम करने के पात्र हो जायेंगे । तुम्हारी दृष्टि जिन पर बरसेगी उऩके आगे यमदूत कभी नहीं आयेगा तुम ऐसे पवित्र हो जाओगे ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2020, पृष्ठ संख्या 5, अंक 333

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इसी का नाम है ईश्वरप्राप्ति ! – पूज्य बापू जी


सदा सुखी रहने का नाम है ईश्वरप्राप्ति । दुःखों से, चिंताओं से और जन्म-मरण की पीड़ाओं से मुक्ति का नाम है ईश्वरप्राप्ति । मनुष्य की माँग का नाम है ईश्वरप्राप्ति ।

वास्तव में ईश्वरप्राप्ति के लिए किन्हीं लम्बे चौड़े नियमों की जरूरत नहीं है । किसी विशिष्ट काल या कालान्तर में प्राप्ति होगी ऐसा नहीं है । ईश्वर के सिवाय और कुछ सार न दिखे, उसको पाने के लिए तीव्र लगन हो बस, उसकी प्राप्ति सहज हो जायेगी ।

जितना हेत हराम से, उतना हरि से होय । कह कबीर ता दास का, पला न पकड़े कोय ।।

ईश्वरप्राप्ति की भूख लगेगी तो विवेक-वैराग्य बढ़ेगा, सत्त्वगुण की वृद्धि होगी तथा धीरे-धीरे सारे सदगुण आयेंगे । धीरे-धीरे सब उपाय अपने-आप आचरण में आ जायेंगे और शीघ्र परमात्मप्राप्ति हो जायेगी ।

लोग कहते हैं- “महाराज ! भगवान की प्राप्ति के हम अधिकारी नहीं हैं ।”

अरे भैया ! कुत्ते को सत्संग सुनने का, गधे को योग करने का, भैंस को भागवत सुनने का, चिड़िया को व्रत करने का अधिकार नहीं है…. किंतु सत्संग-श्रवण, योग, भक्ति, व्रत आदि करने का अधिकार आपको है । ये सारे अधिकार तो परमात्मा ने आपको ही दे रखे हैं, फिर क्यों आप अपने को अनधिकारी मानते हो ?

भगवत्प्राप्ति की सुविधा चौरासी लाख योनियों में से मनुष्य जन्म में ही है । देवताओं को भी अगर भगवत्प्राप्ति, आत्मसाक्षात्कार करना हो तो मनुष्य बनना पड़ता है । ऐसा मनुष्य जन्म आपको मिला है । ईश्वर ने ऐसा उत्तम अधिकार दे दिया है, फिर क्यों अपने को अनधिकारी मानते हो ? अपने को अनधिकारी मानना यही ईश्वरप्राप्ति में बड़े-में-बड़ा विघ्न है ।

ईश्वरप्राप्ति कोई अवस्था नहीं है । किसी परिस्थिति का सर्जन करके भगवान को पाना है या कहीं चलकर भगवान के पास जाना है ऐसी बात नहीं है वरन् वह तो हमसे एक सूतभर भी दूर नहीं है । लेकिन हम जिन विचारो से संसार की ओर उलझे हैं उन्ही विचारों को आत्मा की तरफ लगाना इसका नाम ही है ईश्वर की ओर चलना, साक्षात्कार की ओर चलना । ईश्वर हमसे अलग नहीं हुआ है, वह तो सर्वत्र है किंतु हम ही ईश्वर से विमुख हो गये हैं । अगर हम सम्मुख हो जायें तो वह मिला हुआ ही है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2020, पृष्ठ संख्या 2, अंक 333

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