कभी यूँ ही आओ मेरी आँखों में,कि मेरी नजर को खबर ना हो।मुझे एक रात नवाज दे,मगर उसके बाद सुबह ना हो।बुल्लेशाह को उर्स की उस एक रात का शिद्दत से इंतजार था। धड़कनो की सारी इबादत दाँव पर लगी थी। एक-2 श्वास शबरी बन चुकी थी। अगले दिन की सुबह खिल आई। रोजाना सुबह तो रोशनी की चटकते ही बुल्लेशाह गम के कड़वे घोट पीता था। मगर आज, आज सीने में जरा भी दर्द नहीं उठा। बल्कि अंदर एक खुशी की फुदक पड़ी। बुल्लेशाह ने झट कलाई पर बँधे रेशमी धागे को टटोला। बेसब्री से पहली गाँठ खोली। फिर राहत की श्वास ली और खुद से कहा, “40 में से एक दिन कम , 39 दिन।” लेकिन अगले ही पल बैचेनी की फुरेरी सिर से पाँव तलक दौड़ गई। बुल्लेशाह घबरा सा गया । उसमें कैसा एहसास जागा, यह उसने बड़े ही शायराना अंदाज में अपने पहले गंढ़े में दर्ज किया है -*गंढ़ पहलि नु खोल के मैं बैठी बरलावा,**ओढ़त जावन जावना होण में दाज रंगावा।*”जब मैंने पहली गाँठ खोली तो मेरी रूह बिलख उठी। बुल्लेशाह तुझे पी के देश जाना है। चल फौरन कुछ दहेज़ तो जोड़ ले। चुनरियाँ रंगाले , तैयारियाँ करले।”दरअसल सूफ़ी मुरीदों का हमेशा से यही कायदा रहा है- “उन्होंने रूह को एक कुँवारी कन्या माना और क़ाबिल मुर्शिद अर्थात सद्गुरु को इस रूह का ख़सम मतलब पति कहा।”आज बुल्लेशाह भी इसी तालपर गाँठे खोल रहा है। दूसरी और तिसरी गाँठे खोलते हुए उसने इसी काफ़िये को आगे सरकाया। बताया कि वह किस दहेज़ का ज़िक्र कर रहा है। कैसी चुनरियाँ उसको जोड़नी और रँगनी हैं।*दुजी खोलो क्या कहूँ दिन थोड़े रहेन दे,**झल्लवल्ली मैं होई तुम्ब कत्त न जाना।*मैं तो उतावली वे! ऐसी झल्लीवाली सी हो गई हूँ, कि मुझसे चरखे पर धागा तक नहीं काता जा रहा।”कैसा चरखा? कौनसा धागा?””शरीररूपी चरखा और श्वासों की धागा, सोहम की धागा।”श्वासों का धागा कातोगे तभी तो सुमिरन की चुनरी बनेगी। बड़ा ही गहरा इशारा है बुल्लेशाह का। देखिए ये सद्गुरु से मिलने की पूर्व की तैयारी बता रहे हैं बुल्लेशाह। सुमिरन ही नहीं इस अलबेले निक़ाह में, दूसरे तरह के दहेज़ भी जरूरी है। *तीजे खोलहु दुख से रौंदे नैन ना हटदे*अर्थात गुणों-सगुणों की सौगात भी इकठ्ठी होनी चाहिए। तीसरी गाँठ खोलते हुए बुल्लेशाह को यही चिंता है कि दूसरे सतशिष्यों की रूहें तो गुणों का श्रृंगार कर प्यारी-2 दुल्हनें बन गई। सिर्फ़ मेरी रूह बेगुण-बदसूरत रह गई।बुल्लेशाह नाम-सुमिरन और गुणों का दहेज़ जोड़ने में जी-जान से जुट गया। पल-2, छीन-2, साँस-2 में श्रृंगार। दिनों पे दिन गुजरते गये। मगर बुल्लेशाह के लिए हर घड़ी रिस रही थी।*हँसते-2, चलते-2 पूँछा पाँव के छालों ने।* -2*दुनिया कितनी दूर बसाली दिल मे रहनेवालों ने।**चंगी लगदी न ढोला तेरी दूरी,**तैनू तकना है मेरी मज़बूरी।**तेरे बिन जिंद है अधूरी,**ता अँखियों दी ज़िद्द कर पूरी।*आखिर बुल्लेशाह की तपस्या रँग लायी।उसकी तैयारियाँ पूरी हुई।सारा दहेज़ जुड़ गया। 40 वे दिन उसने रूह को दुल्हन सा सजा लिया।*कर बिस्मिल्लाह खोलियाँ मैं गंडा चाली,**जिस आपना आप बजया सो सुर्जनवाली।*ख़ुदा का नाम लेकर उसने 40 वी गाँठ खोली, तब पाया कि अपना आपा अर्थात मैं भाव रहा ही नहीं। आत्मा सुर्जन यानी फ़रिश्ते जैसी रौशन हो चली। *पिया ही सब हो गया अब्दुल्लाह नही!*अब तो इनायत ही इनायत रह गए, सद्गुरु ही सद्गुरु रह गए। बुल्लेशाह का 40 वे दिन खुद का अस्तित्व खो गया। बुल्लेशाह की हस्ती पूरी तरह से खत्म हो चुकी। बस यही मिलन का सबब है। मैं ही की तो दीवार थी। एक शायर ने ख़ूब कहा -*ये कसक दिल की दिल में चुभी रह गई,**जिंदगी में तुम्हारी कमी रह गई।**एक मैं, एक तुम, यही दीवार थी,**जिंदगी आधी-अधूरी बटी रह गई।*सद्गुरु इसी दीवार की ईंट से ईंट बजा देना चाहते हैं। तनकर खड़ी इस दीवार को निस्तानाबूद कर मलबे का ढेर बनाने का मनसूबा रखते हैं सद्गुरु।बुल्लेशाह की दुनिया में इस दीवार की ईंट तो क्या, अब मलबा तक भी न बचा था। वो अन्दुरुनी तौर पर सद्गुरु से इकमिक हो चुका था। फिर बाहरी दूरी भी कबतक बनी रहती। इसलिए आज वे ख़ुशगवार मिलन के लम्हें, उर्स का दिन आ ही गया।आज सुबह से ही कोठे पर खाँसी चहल-पहल थी। लाहौर के कुछ पखावज, सारंगी बजानेवाले गायक और शायर टोलियाँ बना-2 कर तवायफ़खाने पहुँच गए थे। सभी को इकठ्ठे होकर शाम के वक़्त आपा के साथ मज़ार पर जाना था।फ़नकारों ने बुल्लेशाह को देखा तो आदाब फ़रमाते हुए वे उन्हें पहचान गए। सभी फ़नकारों ने मिलकर बुल्लेशाह को काफ़िया सुनाने के लिए जोर दिया। इसीके साथ आपा ने भी सभी फ़नकारों के मुखातिब होकर कहा कि जानते हैं, आज भाईजाँ भी हमारे साथ महफिले उर्स में शरीक होने के लिए जा रहे हैं। क्योंकि वहाँ हजरत शाह इनायत भी मौजूद होंगे।यह सुनते ही एक उस्ताद ने कहा कि , “ख़ुशामुदिद! फिर आज क्या करने की हसरत रखते हैं बुल्लेशाह मियाँ?दूसरे ने कहा, “हाँ-2, कहिये ना मियाँ! उधर इनायत आपके रूबरू होंगे, इधर आपकी तरसती मुरीदी। आहाहा! क्या करेंगे आप?”तीसरे ने तीखे मिजाज से कहा कि, “अरे, क्या ख़ाक करेंगे? सुना है, हजरत ने इन्हें अपनी नजरों से दूर रखने का सख्त हुक़्म दे रखा है।”किसी ने कमान सँभालते हुए कहा, “अरे!मोहब्बत में बेरुखी भी एक मौसम है! मगर यह बारहो महीने थोड़े न रहता है, इनायत रूठे हैं तो मन भी जायेंगे। बुल्ले मियाँ ने जरूर कुछ तरक़ीब सोची होंगी। क्यों मियाँ! बताईये ना, क्या हौसले रखते हैं आप?”इधर -उधर से भी आवाजें आई, “हाँ -2! कहिये ना। चलिए इसी बातपर एक काफ़ी हो जाय।”बुल्लेशाह की आँखे बंद हो गई। बुल्लेशाह काफ़ी गाने लगे कि-*उनके दर पे पहुँचने तो पाए,**ये ना पूछो कि हम क्या करेंगे?**सर झुकाना अगर ज़ुल्म होगा,**हम निगाहों से सिजदा करेंगे।**बात भी तेरी रखनी हैं साकी,**सर्फ़ को भी न रुसवा करेंगे।**जाम दे या न दे आज हमको,**हम मैकदे में सबेरा करेंगे।**इस तरफ अपना दामन जलेगा,**उस तरफ उनकी महफ़िल सजेगी।**हम अँधेरे को घर में बुलाकर,**उनके घर में उजाला करेंगे।**आख़िरी साँस भी हम उनसे,**बेरुखी का न शिक़वा करेंगे।**उनके दर पे पहुँचने तो पाएँ,**ये न पूछो कि हम क्या करेंगे?*खैर! शाम ढल आई। सूरज पश्चिम की घाटी में डूब तो रहा था, मगर बड़ा मन मसोसकर। आँखे तो उसकी उर्स की दरगाह पर ही टिकी थी। तारे और चाँद भी उजाले में ही प्रकट हो आये। भला कौन इस तारीख़ी मंजर का नजारा चखने को बेताब नहीं था? आखिर तनहाइयों के आलम में यह तमाम क़ायनात ही तो बुल्लेशाह की हमदम थी। उन्होंने खुद बुल्लेशाह को कहते सुना था कि-*तरस रहा हूँ मैं एक लम्हाएँ सुकून के लिए,**ये जिंदगी तो नहीं, जिंदगी का मातम है।**तमाम आलमे फ़ानी ने साथ छोड़ दिए,**बस अब सूरज-चाँद ही मेरे हमदम हैं।*इधर ढलते सूरज के साथ आपा के कोठे पर जिंदगी ने रफ़्तार पकड़ ली। तमाम फ़नकार सजने-धजने में मशरूफ़ हो गए। लेकिन यहाँ एक शख़्स ऐसा था, जिसकी महफिले दुनिया फ़क़त उसका पीर, उसका मुर्शिद था। उसीकी निगाहें करम पाने की कोशिश में वह था।*आप की एक मोहब्बत की नज़र है दरकार,**इश्क़ हर दर्द, हर सर्द का इलाज होता है।**फ़क़त आपकी उल्फ़त का मैं दम भरता हूँ,**आप खुश हो तो रजामंद ख़ुदा होता है।*इसलिए बुल्लेशाह सिर्फ अपने हबीब इनायत की नज़रे मोहब्बत पाने के लिए सज रहा था। परन्तु कैसे? कोई नहीं जानता था।बाहर तमाम मण्डली रुख़सत होने की इंतजार में थी। अपने-2 साजो की तारे कस रही थी। आपा भी तैयार हो गई थी। मगर उधर बुल्लेशाह का दरवाजा अब भी चुप्पी साधे बन्द था। सभी बुल्लेशाह के लिए खड़े थे।अब आपा ने धीरे से दरवाजा खटखटाया, अंदर गई। सामने जो नजारा था, उसका चित्र तो कभी उसके सपनों की कलम ने भी नहीं उकेरा था।बुल्लेशाह की आँखों में सुरमा, होठों पे लाली, माथे पे बिंदियाँ और हाथों में चूड़ियाँ सजी थीं। बदन पर सुनहरे सलमे-सितारों से जड़ा गाढ़े हरे रंग का लहँगा था। वह सजा-धजा कमरे के कोने में सिमटासा खड़ा रहा।आपा तो उसे घूरती ही रह गई। इतनी अवाक थी, मानो चेहरे पर लकवा मार गया हो। फिर कुछ देर बाद आपा जोर-2 से हँसने लगी। ख़ूब हँसती ही रही। “भाईजाँ यह क्या हुलिया बना रखा है आपने? आप इस जनाना रँग-ढँग में?”पर सामने बुल्लेशाह गर्दन झुकाया खड़ा रहा। *आँखो में नमी , साँसों में रूमानी नाले,**वो क्या हँसे जिसके लबो पे लगाये इश्क़ ने ताले।*बुल्लेशाह सिलिसी मायूस आवाज में आपा से बोला, “आपा! मैं भी इनायत के लिए नाचूँगा, इसलिए ये सब। क्योंकि मर्दों की पोशाक में वहाँ कोई नाचने की इजाजत तो नहीं देगा।”यह सुनते ही आपा की हँसी बर्फ सी जम गई। हँसती पर बिल्कुल अलग हावभाव के काफिले छा गए। चेहरे पर नए जज्बात आ बिखरे।*सिर यार दे दवारे उत्ते धर लैन दे,**होवे यार जिवें राजी, ओय कर लैन दे।**मेरी शान विच फरक नई पैंदा,**जे नच के मनावा यार नु,**मन्ने यार नत्थी कुछवी नई या रहेंदा।**ते केवे मैं भुलावा यार नु।*बुल्लेशाह काँपती आवाज में फ़रयाद कर उठा, ” आपा! आज मत रोकना मुझे। जिस रस्म से मेरे इनायत रीझ जाए, उसे निभाने दो मुझे। मेरी आन, मेरी शान, मेरी जान , मेरा सबकुछ मेरे सद्गुरु की रज़ा है। अगर आज मैं अपनी शख्सियत को चूर-2 करके उनकी रज़ा को जीत सका, तो यह सौदा भी सस्ता होगा आपा।”यह बात आपा की रूह को छू गई। “माफ करदो भाईजाँ, माफ कर दो। मेरी जैसी बेअक्ल तवायफ़ रूहानी सतशिष्य की रिवायतें क्या जाने? आप तो फ़रिश्ते हैं भाईजाँ, जो इस नापाक दुनिया में पाक मुरीदी की मिसाल कायम करने आये हैं। जमाने को पाकीजा आशिक़ी का सबक सिखाने के लिए खुदा ने आपको चुना है।”*हे खुदा! बज़्म के हर शख्स को दे ऐसा जुनून!**अपने सद्गुरु की इश्क़ में सदा बेखुद, शरसार रहे।* *उसके पैग़ामों,रूहानियत को न कोई भूल पाए,**उसके इशारे से पहले बसर मरने को तैयार रहे।*सच्ची भाईजाँ! मेरी रूह कह रही है। आज अगर मुरीदी हारी, आप की भक्ति हारी तो मेरा ऐतबार सद्गुरु, मुर्शिद और उनकी मुर्शिदगी से उठ जाएगा।”नहीं-2, आपा ! सद्गुरु पर शक करने का कुफ़्र मत करो। उसकी राहे- इश्क़ बड़ी अलबेली होती है। *अगर वह सितम करता है, तो उसका सिला भी देता है।**रूठता है तो मुस्कुराकर अपना भी लेता है।* *अगर ग़मो से नवाज़ता है मुझे, तो ग़मो को सहने का हौसला भी सद्गुरु ही देता है।* *मुझीसे छुपाता है राजे-ग़म सरेशाम, मुझीको आख़िरी शब भी वही सद्गुरु तो बता देता है।”*”अच्छा! अब चलिए। वक़्त गुजर रहा है।”आपा कमरे में से एक बुरखा उठाकर बुल्लेशाह के पास लौटी। “भाईजाँ! आपकी इस मुरीदी के लिबास को दुनियावी आँखे नहीं समझ सकती। दुनिया तो बस मख़ौल कर हौसले गिराना जानती है। बेहतर होगा कि आप अपने इस रूहानी हुस्न को उन्हीं पाक निगाहों के आगे बेपर्दा होने दे, जिसके लिए यह आबाद हुआ है।जो इसकी क़दर जानती हो। अभी फ़िलहाल जमाने के नजरो के सामने तो आप बुरखापोश होकर चले।”बुल्लेशाह आपा का सादिक इशारा और खैरख्वाही समझ रहा था, इसलिए भूरे रँग का वह बुरखा पहन लिया। आपा खुद काले बुरखे में थी। दोनों साथ-2 कोठे से उतरे और बग्गी में बैठ गए।उन्हें देख कुछ फ़नकारों ने टोका, “क्या हुआ? बुल्लेशाह मियाँ नहीं आ रहे?””नहीं, उनकी तबियत नासाज़ है।” कड़े रुख़ में इतना कहकर आपा ने मुँह सील लिये। बग्गियों का कारवाँ अब मज़ार की तरफ कूच करने लगा।
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महान संकट की ओर बढ़ रहे थे कदम और बुल्लेशाह अनजान था (भाग- 8)
कल हमने पढ़ा कि किस प्रकार आश्रम मे मुर्शीद इनायत शाह अपने मुरीद बुल्लेशाह के हर एक तड़प पर तड़प रहे है आज हम फिर से बुल्लेशाह के पास वापस आते है आज बुल्लेशाह को अपने कमरे के बाहर खूब चहल पहल सुनाई दी आंसू पोछकर वह बाहर आया देखा कि आज तवायफ खाने मे संगीत के उस्तादों और नाचने वालो की बारात आयी हुई है बजाने वाले नए नए वाद्य यंत्र भी बंद पेटियो मे एक कोने मे रखे हुए आपा मेहमान नवाजी करती हुई फिरकी की तरह इधर से उधर घूम रही है इसी बीच उसकी आंखे बुल्लेशाह की सवालिया नज़रों से जा मिली आपा खुद करीब आई और बुल्लेशाह को बताया कि भाईजान पूरे लाहौर और उसके आसपास के इलाकों के फनकार इक्कठे होकर हर साल हमारे दौलत खाने पर तशरीफ लाते है।उर्स से पहले (उर्स एक त्योहार है) उर्स से पहले क्यों कि उर्स की रात हम सब मिलकर पीरो की महफ़िल मे रंग जमाते है इसलिए एक मर्तबा पहले मिलकर अपनी अपनी कव्वाली,नाच, गाना और ताफिया तय कर लेते है ताकि उर्स तक उनका रियाज कर सके इतना कहकर आपा फिर से शरबत का थाल घुमाने मे मशरूफ हो गई उर्स यह लब्ज सुनते ही बुल्लेशाह के जिस्म का तार तार झन्ना उठा उर्स पर तो शाहजी हर साल मौजूद होते है।ऊंचे तख्त पर बैठकर रातभर उस पीरी महफ़िल को रूहानियत बख्शते है बुल्लेशाह बेकाबू सा हो गया बेकरार नज़रों से आपा को ढूंढने लगा बड़ी मुश्किल से उसने दौड़ती भागती आपा को रोका धीरे से पूछा क्या मे भी आपके साथ उर्स मे शरीक हो सकता हूं क्यों नहीं भाईजान जरूर आपकी तालीम भी पूरी हो चुकी है क्यो न वहीं दिन इम्तिहान का दिन भी हो जाए बस यह सुनना था कि बुल्लेशाह थिरक उठा हर तरफ से रोशनी की धार धार किरने उसके अंधेरे को चीरने लगी मानो खुशनसीबी के आफताब ने उसके दरवाजे पर ज़ोरदार दस्तक दी बुल्लेशाह अपने कमरे मे बैठकर गाने लगा मेरे ढोलन माही आजा अपनी सोहनिया शक्ल दिखा दिखा जा अखिया तरस गई कोठे चड़के वाजा मारिया कदी सज्जड़ नज़रिया आजा की अखियां तरस गई मेरी उजड़ी जींद बसा जा तेरे सुतड़े लेख बुझा जा कि अखियां तरस गई आज बुल्लेशाह के इल्तज़ा मे कसक के साथ एक छनन छनन खनक भी थी।यह खनक उम्मीद की उन छोटी छोटी घंटियों से उठी थी जो उसके दिल के मंदिर मे उर्स के जिक्र पर बंधी थी अब तक आपा मेहमान नवाजी से फारिक हो गई थी बुल्लेशाह फौरन अपने कमरे से निकल कर बीच के बड़े कमरे मे दाखिल हुआ था बेसब्री से आपा को पुकारा आपा। आपा आप मुझे एक रेशमी धागा देंगी? हा क्यो नहीं आपा फीते ले आयी बुल्लेशाह ने लपककर एक फीता लिया और उस पर गांठे लगाने लगा आपा अब और हैरानगी नहीं समेट सकी भाई जान अब इबादत का कौन सा नया ढंग इजात कर रहे है आप? यह गांठे यह गांठे किसलिए? गांठे उसके इश्क़ की मार बैठा हूं सब कुछ उस पर वार बैठा हूं खुलेगी ये गांठे जिस रोज़ जिस पल मे ले जाएगी उसके पास उसकी महफ़िल उर्स मे। जिसको पाने मे बेकरार बैठा हूं जिसकी गांठे मार बैठा हूं बुल्लेशाह किसी पागल जुनूनी की तरह फिर से गांठे मारने लगा आपा की हैरानगी पर भी गांठे पड़ गई इश्क़ की गांठे। गांठे खुलेगी उर्स मे। भाईजान खुदा के वास्ते खुलासा कीजिए बुल्लेशाह खुशी से ठिठुरती आवाज़ मे बोला आप जानती है उसी के पाक मौके पर मेरे मोल्लाह का मेरे शाहजी मेरे हज़रत शाह इनायत का इलाही तख्त भी सजता है इनायत अपने पूरे नूरो जलाल मे वहां मौजूद होते है हा क्या कहा? वहां हज़रत इनायत के भी कदम बोसी होते है आपा भी गुलाब सी खिल गई दिल के रास्ते से अरमानों क की बाड़ उसकी आंखो से चड़ आये।वह अक्सर सोचा करती थी कि जिस आफताब के एक कतरे भर मे उसके जिंदगी की बदनुमा रात को चीरकर सवेरा कर दिया या खुदा वह आफताब खुद कैसा होगा? जिसे जुड़े अल्फाजों और अफसानों मे जिसके वास्ते निकली अश्क और आंहो मे इतनी कशिश है कि मुझ जैसी तवायाफ तक मुरीदी के मायने सीख़ गई वह मुर्शीद वह सतगुरु खुद कैसा होगा वह जरूर इस ज़मीन इस सारी कायनात का मालिक पाक परवरदीगार खुदा ही होगा हा खुदा ही होगा। आपा चहकती हुई कह उठी सच भाईजान इसका मतलब हम उर्स पर हज़रत शाहजी का रूहानी दीद नाजिल होगा हा आपा हा बुल्लेशाह कांपते हुए उंगलियों से दुबारा गांठे मारने लगा मगर भाईजान उर्स पर इनायत की दीद से इस रेशमी गांठे और धागो का क्या वास्ता? कैसी तुक? बुल्लेशाह ने कहा देखिए आपा उर्स पर हम गुज़रे जमाने के उन शाही फकीरों कि याद मे कलमा पड़ते है कि जिन्होंने अल्लाह से मिलाप किया उर्स के लफाजी मायने भी यही है कि वस्ल अर्थात मिलाप,निकाह। एक रूह का माशूक हकिकी से मिलाप आपा पता नहीं क्यों मगर उर्स का जिक्र आते ही मेरी रूह मे भी शहनाइयां बज उठी है में यह सब लफ्जो मे तो बया नहीं कर सकता लेकिन ऐसा लगता है जैसे मुकामे हक से नवाजिशे गिरी है जो मुझमें यकीन की रोशनी भर रही है वे मेरे माथे को चूमकर मानो कह रही है कि सुन बुल्लेशाह जुदाई की काली रात करने वाली है अब तेरी जिंदगी मे जश्न की सुबह खिलेगी उर्स तेरी रूह की निकाह का दिन है तेरे साहू इनायत तेरी तड़पती शागिर्दी पर उस दिन कर्म बख्शेंगे मुझपे नज़र होगी मंजिले कि हवा के रुख बदले से लगते है वस्ल के चलेंगे सिलसिले कि रूह मे चिराग जलते से लगते है अच्छा भाईजान तो इसलिए आप ये रेशमी गांठे बांध रहे है पुराने समय मे पंजाब और आसपास के इलाकों मे शादी से पहले गांठे बांधने का रिवाज था मुहूर्त निकालने के बाद लग्न पक्का करने के लिए निशानी के तौर पर लड़के वालो की तरफ से लड़की के घर एक रेशमी धागा भेजा जाता था उस धागे पर उतनी ही गांठे बांधी जाती थी जितने दिन अभी शादी मे बचे है फिर जैसे जैसे दिन घटते थे लड़की गांठे खोलती जाती थी इस हिसाब से बुल्लेशाह ने भी गांठे बांधनी शुरू की थी बुल्लेशाह ने कहा हा आपा पूरी चालीस गांठे बांधुगा वस्ल की रातें जश्न ए उर्स चालीस दिन दूर है ना भाई जान।आनेवाली तारीख अपनी सुनहरी कलम से जरूर आपकी दास्तानें लिखेंगे दास्तान ए इश्क़ जिसे पढ़कर जमाना नूर हासिल करेगा आपा ने बा अदब बुल्लेशाह की मुरिदी को सिजदा किया और चली गई इधर बुल्लेशाह अब भी रेशमी धागे पर चालीस गांठ लगाने मे मशरूफ था।चालीस गांठे लग तो गई बुल्लेशाह ने धागे को आंखो से चूम लिया लेकिन अचानक धड़कनों ने बेसब्र रफ्तार पकड़ ली एक अनजाने से डर ने दिल की आवाज़ ने दस्तक दी क्या अब भी मुझे शाहजी ने कबूल नहीं किया तो? अब कायदे से तो बुल्लेशाह को फिर से अश्कों के समंदर मे डूब जाना चाहिए था मगर नहीं थी अब नहीं मुर्शीद के देश से आए एक अलग पैग़ाम ने उसकी रूह को दुबारा थपथपाया नहीं उस दिन वे तुझे जरूर अपनाएंगे यही तो होता है कि मुर्शीद हंसाता है तो मुरीद खिलखिलाता है अर्थात सतगुरु हंसाता है तो सतशिष्य खिलखिलाता है मुर्शीद रुलाता है तो मुरीद अश्क बहाता है मुर्शीद के हाथ मे डोर है जैसे नचाता है वैसे मुरीद नाचता है आज इनायत ने ही हवाओं के रुख कुछ ऐसे बदले थे कि बुल्लेशाह मे उम्मीद और हौसलों की ठंडी ठंडी ताज़गी भर अाई थी वह यक़ीन की जमीं पर कुछ इस अदा मे तनकर खड़ा हुआ कि मुरिदि का एक और शौख जलवा देखने को मिला।बुल्लेशाह ने घुंघरू बांधकर नाचना शुरू कर दिया और गाने लगा इक टोना अचंभा गवांगी में रूठा यार मनावंगी इक टोना मे पड़ पड़कर फूंका सूरज अगन जलावांगी में कर मती टोना फूकुंगी अपने रूठे यार को मनाऊंगी ऐसा तिलिस्मी टोना जिसकी आग सूरज तक को जलाकर राख कर देगी।आंखी काजल काले बादल भवा से आंधी लावांगी सात समुंदर दिल के अंदर दिल से लहर उठावांगी मेरी आंख की काजल से काले बादल उमड़ घुमड़ आएंगे। भवे उठेंगी तो आंधी कोंध जाएगी क्या कहूं मेरे दिल में जज्बातों के सात समुंदर लहलहा रहे है।मैं उन्हें हिला कल इश्क़ की ऐसी लहर उठाऊंगी कि मेरे सतगुरु उसके तेज बहाव में बह जायेंगे बिजली होकर चमक डरावा बादल हो गिर जावांगी तो हो मकान की पटरी ऊपर बह के नाद बजावांगी मोहब्बत की ऐसी बिजली चमकाउंगी मेरा यार डर जायेगा अंतर जगत की दहलीज पर बैठकर ऐसा अनहद नाद बजाऊंगी सतगुरु को राजी होकर मुझे अपने गले लगाना ही पड़ेगा।देखें आपने मूरिदी के बेबाक हौंसले यह तीखा जायका है मुरीदि का बुल्लेशाह ने इस काफी से जता दी कि मुरिडी फक़्त मिमियाना नहीं जानती वह दहाड़ भी सकती है क्योंकि उसे यकीन है अपने हुस्न पर अपने ईमान और बंदगी पर अपने इश्क़ की खालिस चमक पर और सबसे बढ़कर अपने रहमान की इंसाफ पसंद सल्तनत पर।
महान संकट की ओर बढ़ रहे थे बुल्लेशाह के कदम और बुल्लेशाह अनजान था (भाग- 7)
बुल्लेशाह अपने गमो मे डूबा रहता बुल्लेशाह ने विरह मे अलग अलग मौसमों का जायका भी चखा। चखकर जो भी हाल हुआ उसमें अपने बारह माह नामक लोक काव्य मे दर्ज किया बारह महीनों की अलग अलग विरह गाथा के तौर पर बड़ी ही सुन्दर काफिया है।सतशिष्यों को तो हमने रोते बिलखते बहुत देख लिया आइए इस बार सतगुरु के दिल की थाह लेते है हालांकि यह बहुत मुश्किल है बल्कि नामुमकिन सा ही है कारण कि गुरु का हृदय एक बंद कक्ष है जिसमें किसी की भी दखलंदाजी नहीं होती।वह ऐसा रहस्यमई सागर है जिसकी तह तक गोता लगाना मानो बुद्धि के बस की नहीं यह बंद कक्ष तो कभी कुछ विशेष कृपा पात्र के लिए ही खुलता है यह सागर अपनी बंद सिपियो के मुंह मर मिट चुके प्रेमियों के लिए खोलता है इन्हीं कृपा पात्रों और प्रेमियों के अनुभव की बिसात पर खास कर बुल्लेशाह की काफियो के आधार पर।आइए जाने हाले अस्ताना और हाले इनायत। आज ही महफूज़ सोने दरो दीवार मे वो तराने कल जो उभरते थे उन होठो पर ज़र्रे ज़र्रे मे खटक महसूस होती है यहां ताजी ताजी सुबह खिली थी मगर आश्रम मे वहीं बासी सा गमगीन एहसास पसर रहा था सूरज की चमकती किरणे भी बुल्लेशाह की गैर मौजूदगी के सायो को धो नहीं पाई थी दरो दीवारें सूनी सूनी सी मुंह लटकाए खड़ी थी मगर आज भी उनके सीने मे वो तराने तर्रनम आबाद थे जगह जगह पर उसकी आशिकाना शरारतों के दस्तक आज भी दिखाई दे रहे थे लगता था मानो बुल्लेशाह कहीं से अभी कूदता फांदता आएगा और अपने जिंदादिल इश्क़ से माहौल को नाचने पर मजबुर कर देगा।इन्हीं परछाइयों के बीच इनायत शाह अपनी कुटीर से बाहर निकले चरगाह जाने की तैयारी थी रोजाना की तरह वे एक एक मुरीद की कुटीर के आगे से निकले और आवाज़ लगाई अफजल, सलीम, अब्दुल, बुल्ला। बुल्ला! यह सुन आश्रम चौक सा गया अब्दुल धीरे से फुसफुसाया शाह जी बुल्ला बुल्ला तो। शाह जी ने तीखी नज़र से साधकों की शक्लो को देखा फिर मुंह फेरकर फाटक की ओर बढ़ गए जो दिल मे बसा हो उसका नाम हलक से उछलकर जुबां तक आने मे देर ही कितनी लगती हैं? इनायत शाह ने बुल्लेशाह को जिस्मानी तौर पर आश्रम से बाहर बेशक निकाल दिया था मगर जिगर का टुकड़ा और उसे काटकर जिस्म से जुदा कैसे किया जा सकता है?बुल्लेशाह इनायत के वजूद का हिस्सा बन चुका था बुल्लेशाह को सुनना उसे पुकारना उसे महसूस करना उसकी खुराफाती मुरिदी पर चुपके चुपके गुदगुदाना यह सब इनायत की आदत हो गई थी अब आदत तो आसानी से जाती नहीं न। जैसा कि आश्रम का दस्तूर था शाम के वक़्त चबूतरों पर महफ़िल सजी सारे मुरीद अपनी अपनी कुटियो से निकलकर यहां जुटने लगे बाहर के गृहस्थी मुरीद भी आ पहुंचे सारंगी, ढोलकी, हारमोनियम, छैने, मंजीरे भी सिर से सिर जोड़कर इक्कठे हो गए मगर क्या सामान से समा बनता है ये सारा साजो सामान और मुरीद तो आज तक महफ़िल के बस शरीद जैसे ही थे इनायत शाह इस जिस्म की रूह थे तो बुल्लेशाह सांसे था इन सांसों के बिना शरीर मे कोई धड़कन ही नहीं थी सब जमे से बेजान से बैठे थे इतने मे इनायत शाह भी महफ़िल मे शरीक हुए मानो अब पोर पोर मे हरकत हुई सिर सिजदे मे झुक गए।इसी के साथ महफ़िल भरी पूरी हुई पर क्या सच मे फिर यह दिल मे अधूरा पन का एहसास कैसा? इनायत की इलाही नज़रे अंदर तक के हाल को जांच रही थी वे दिलो की हर लहर को पढ रहे थे साफ देख रहे थे कि हर जहन मे बुल्लेशाह की कमी खल रही है मुरीदों के खिले हुए होंठ भी इनायत से बुल्लेशाह के बारे मे गुफ्तगू कर रहे थे गुलशन मे सबको जुस्तजू तेरी है हर बंद जुबां पर गुफ्तगू तेरी है हर याद मे जलवा है तेरी मुरीदी का। जिस फूल को सूंघता हूं जिसमें खुशबू तेरी है इनायत बेहद अनखुली मुस्कान मुस्काए फिर चेहरे पर वहीं फाका मस्ती का रंग लाए जो वे अक्सर महफ़िल मे रवानगी की लहर उठाने के लिए किया करते थे मगर यह क्या? लहर तो उठी नहीं वजह की उस लहर का अगवा बुल्लेशाह ही हुआ करता था अब अगवाई के बिना उस लहर को कौन उठाएगा?यह देख इनायत ने खुद ही कमान संभाली पूरी जिंदा दिली के साथ उठाया अपना हाथ और मंडली के बीच बैठे साधक हीरा को पुकारा हीरे सुनो। हा में तुझे ही कह रहा हूं तू अपनी कोहिनुरी चमक दिखा गुरु के दरबार की रोशनी बुझनी नहीं चाहिए हीरे ने हुक्म पाते ही सिजदा किया गला खंखार आलाप उठाया उसी काफी का जो इनायत की पसंदीदा थी और हमेशा महफ़िल में ल अलमस्ती का ईंधन फूंक देती थी तजुर्बे दार साधक भी गुरु का इशारा समझ चुके थे गुरु के हुक्म की नफ़र्मानी न हो जाएं और उनकी ख्वाहिश पूरी हो इसलिए उन्होंने अपनी अपनी कोशिशें भी हीरे के साथ मिला दी गाजे बाजो ने भी सतगुरु के हुक्म की तामील मे खुद झोंक दिया तराने गूंज उठे धुंकारे थिरकने लगी बस किसी तरह से बुल्लेशाह की कमी पूरी हो जाय।इसी वजह से दोनों तरफ से कोशिशें जवा थी इधर सतगुरु अपना आला से आला अपना सुल्तानी जलवा लूटा रहे थे और उधर साधकों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी। गूंगे गले भी आज गा दिए वादकों ने दुगना जोर लगाया कई मुरीद मदमस्त हुए नाचने और फिरकने लगे। हर ओर सरगर्मी पुरजोर थी मगर फिर भी जितना कोशिशों की सुइयों से फटे दामनो को सिला जा रहा था उतनी ही फटे हाल कर सामने आ रही थी संगीत मे खूब धूम धड़ाका था मगर वो खनक नहीं थी जैसी तरानो मे सुर और बुलंदी तो थी मगर कहीं न कहीं वह सरसराती खींच नहीं थी जैसी। नाच तो बहुत रहे थे मगर किसी के लहू मे वैसी झूम नहीं थी जैसी हा वे जज़्बात और आंच नहीं थी बिल्कुल नहीं थी जैसी बुल्लेशाह की परवान चढ़ी रूह से उठा करती थी वहीं बात रूह की मौजूदगी से जिस्म जिंदा तो हो गया था मगर उसमें सांसों की जिंदा दिल थिरकन की कमी थी इनायत शाह आज थोड़ा पहले ही महफ़िल से उठकर कुटिया में चले गए।रात पूरी खिल चुकी थी पूनम का चांद भी आसमान मे पूरा था इनायत उसकी तरफ खिंचे से चले आए खिड़की की तरफ आ खड़े हुए और उसे निहारने लगे परन्तु यह खीचाव कैसा? ये डोरे कौन सी थी जिन्होंने इस जीते जागते खुदा को चांद से बांधकर खड़ा कर दिया था दरअसल आज यह चांद बुल्लेशाह के हाले दिल का डाकिया बना हुआ था आज तक तो वह चांद सूरज के घर से रोशनी लेकर दुनिया तक पहुंचाता रहा था मगर आज यह सतशिष्य की आहे सतगुरु तक पहुंचा रहा था इस दौरे जुदाई मे बुल्लेशाह रोजाना रात को कोठे की खिड़की पर बैठकर घंटो चांद से ही बाते किया करता था अपने जज्बातों के खत चांद को थमाया करता था।इस बात का जिक्र बुल्लेशाह की काफियों में जगह जगह मिलता है इधर इनायत चुपके चुपके इन खतो का एक एक लब्ज पढ़ते थे चांद को निहार निहारकर बुल्लेशाह के एक एक आंसू एक एक आह को अपने सागर से सीने मे जज्बा करते थे कुछ अनसुना नहीं रहता था तड़प की एक मचल तक उनसे छीपी नहीं थी यहां अफ़ज़ल हैरान था दूर अंधेरे मे खड़े रहकर इनायत को देखा करता था सोचता था आज कल गुरुदेव रोज रात को आसमान की तरफ आंखे उठाकर क्यों देखते है? इतना देखते है कि उनकी आंखे नम तक हो जाया करती है वे अचानक बेचैन से हुए कुटीर के चक्कर लगाने लगते है कभी आसन पर बैठते है फिर खिड़की से बाहर आसमान को निहारने लगते है यह क्या हो गया है गुरुदेव को? कहीं इबादत का कोई नया सलीका तो नहीं हा सच मे यह इबादत ही तो थी सतगुरु के द्वारा अपने सतशिष्य के मोहब्बत की इबादत। कोई कहा समझ सकता था कि रोता बुल्लेशाह उधर है लेकिन आंखे इधर नम होती हैं जैसे ही हुंक उधर उठती हैं कलेजा इधर फटता है अगर वो तवायफ खाने के जश्नो के बीच भी मातम मनाता है तो इनायत के जश्नो मे भी उनका असर होता है रोता तो तू है मगर आंखे मेरी नम है तपता तू है मगर सीने मे मेरे जलन है यू तो जश्न का आलम है हर रोज मगर तेरे बिन सूनी हरबार मेरी अंजुमन है।वैसे तो इनायत भी अपनी एकाध चिट्ठी चांद के जरिए बुल्लेशाह तक पहुंचाया करते थे कभी कभी तो इतने दीवाने हो जाते कि इस जरिए खुद ही बुल्लेशाह तक पहुंच जाते। बुल्लेशाह ने इस दौरे जुदाई मे कई बार चांद में अपने सतगुरु का दीदार किया इस बात का भी जिक्र उसकी काफ़ियो में मिलता है । कहते है कि ना घोर काली रात में एक दिए का सहारा भी बहुत होता है बुल्लेशाह के लिए यह चांद ही यह सहारा था उधर इनायत भी इस चांद के जरिए अपने दिल को सहलाते रहते उनका हाल भी नासाज था हरपल तेरे खातिर जलते रहा हूं मैं भी हर रोज तेरी चर्चा करता रहा हूं मैं न पूछो मेरी मजबूरी मेरी बेबसी का हाल हर आह तेरे साथ भरता रहा हूं मैं भी। कच्चे मुखौटे जैसी थी इनायत की सख्त बेरुखी देखने वाली आंखे देख सकती थी कि इस ठंडे बेजजज़्बाती मिजाज़ के नीचे इनायत कैसे हर लम्हा पिघलते रहते है अफ़ज़ल की आंखे भी कुछ ऐसी आंखे थी वे रोज़ रात काले पर्दे के पीछे अपने सतगुरु के बेनकाब चेहरे का दीद करती उनके ललाट पर परेशानी की लकीरें देखते उनकी आंखो में किसी की जुदाई के निशान देखती उनके उठने बैठने चलने फिरने हर हलचल में एक कसक का खींचाव एक अजीब सी बेचैनी पसरी देखा करते अफ़ज़ल के पास एक सतशिष्य का दिल भी तो था यह दिल उनकी खुदाई जज्बातों को भी महसूस करता जो सतगुरु की शक्सियत से किसी अपने खास के लिए ही उठा करते है यह खास कौन था अफ़ज़ल जानता था मगर एक राज था जिसे नहीं जान पा रहा था।इनायत से पूछने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाता था इसी कश्मकश ने काफी लंबा अरसा गुजर चुका था बुल्लेशाह को आश्रम से रुक्सत हुए करीबन एक साल होने वाला था मगर अफजल की आंखे और दिल अब भी इनायत के गमगीन आलम के चश्मदीद गवाह थे बल्कि यह गम के रोज बरोज हरा भरा और ताज़ा दिखने लगा था बस बहुत हो गया आज अफ़ज़ल खुद को रोक नहीं पाया हौसला बटोरकर इनायत की कुटीर मे पहुंच गया वहां उसने इनायत को खुशमिजाज पाया अफ़ज़ल ने सोचा कि हे मेरे औलिया कितनी जल्दी किस खूबसूरती से मुखौटा पहन लेते हो अभी बाहर से झांका था तब तो। कैसे आया अफ़ज़ल मिया? इनायत अलमस्त आवाज़ में बोले मगर इनायत की यह मलंग खंखनाहट भी आज अफ़ज़ल में जरा भी गुदगुदी न पैदा कर पाई अफ़ज़ल खरे तेवर में बोला कब तक मखोल करते रहोगे सांई कब तक पर्दा नशी रहोगे?इनायत आम इंसानों जैसी हैरानी ओढ़कर बोले कैसा मखोल कौन सा पर्दा अफज़ल? हम तो खुली किताब है जो आपकी मर्जी पढ ले। बेशक आप खुली किताब है साईं मगर इसके पन्नों पर आपने ऐसी रूहानी स्याही ऐसी रूहानी अल्फाजों में राज लिखे है कि उनके अर्थ अब हमें समझ में ही नहीं आते हैं साल भर से में इस खुली किताब के पन्ने पलट रहा हूं मगर वो रूहानी राज नहीं समझ पाता।इनायत खिलखिलाकर हंसने लगे मगर कुछ बोले नहीं परन्तु आज अफ़ज़ल भी अड़ा हुआ था लंबी इंतजार की साधना जो करके आया था बोला शाह जी पहले मैं सोचता था कि जरूर बुल्लेशाह ने कोई खौफ़नाक खुरफ किया है तभी आपने उसे आश्रम से बेदखल कर दिया उसे सजा दी मगर मैं गलत था आपने सजा उसकी नहीं खुद को दी है मैंने आपकी आहिस्ता आहिस्ता उसकी जुदाई में घुलते हुए देखा है आपकी इलाही हस्ती पर गमगीनी के साए देखे है इनायत ने यकायक रंग बदला ऐसे घबराए जैसे कि चोरी पकड़ी गई लड़खड़ाती आवाज़ में मानो अपना जुर्म नकारने लगे जब नहीं नहीं हम तो कबका अपने ख्यालातों से उसे भूल चुके है अफ़ज़ल के हाथ इबादत में उठ गए आंखे अपने मौला इनायत के अफताब चेहरे पर निसार हो गई उसने कहा खुदा के वास्ते करम करो मेरे नबी इस बंदे को अपनी बेनकाब हकीकत दिखाओ मैं पूछता हूं ऐसा कौन सा लम्हा है जब अपने बुल्लेशाह के ख्याल पर खाक डाली हो सुबह चारगाह जाते वक़्त न जाने कितनी बार आप सबसे पहले उसके नाम का कलाम पड़ते हो शाम को महफिलों में मैंने आपको हर हम सभी मुरीदों के चेहरे में बुल्लेशाह को ही ढूंढ़ते हुए पाया है और फिर रोज़ाना रात को कौन चांद की पालकी पर बैठकर बुल्लेशाह कभी हज करके आता है क्या यही भूलना है? बस अब सारे नकाब चटक गए सतगुरु अपनी खाली साकिकी में पेश हुए संजीदा आलम गम जदा चेहरा मगर इलाही सुरूर से नम आंखे धीरे से बोले मैं उसे अपने ख्यालों से गुम कैसे करें? अफ़ज़ल जो अपने हर ख्यालात मे मुझे ही आबाद किए बैठा है कैसे उसके शिष्यतवा पर खाक डाल दूं?जो अपनी हर सांस के साथ मुझे हजारों सिज़दे भेज रहा है अपनी निगाह से उसके हालात को कैसे न निहारू? यह फर्ज थोड़ी देर के लिए भी कैसे मैं विसारू? मेरी जुस्तजू मे वो तपकर कुश्ता हो रहा है फिर अपने मुकामे दिल से मैं वो आग कैसे न गुजारूं? वो हर लम्हा बढ़ रहा है मेरी हद की तरफ में अपनी हद को तोड़कर उसे कैसे न पुकारू? अफ़ज़ल ने कहा शाहजी।यही तो रहस्य है जिसमें में आज तक उलझा हूं उधर बुल्लेशाह गम के सफिने में तौर रहा है इधर आप भी गमजदा है उधर वो जुदाई का जहर पी पी कर बेजान हो रहा है इधर यह जुदाई आप पर भी फंदे कसती जा रही है फिर यह जुदाई खत्म क्यों नहीं होती? मिलन क्यों नहीं होता यह कैसी बेबसी है आपकी एक ना ने इस गम की दासता की शुरुआत कर दी आपकी सिर्फ एक हां इस गम की दास्तान को तमाम कर सकती है फिर इस हां में हर्ज क्यो? कुल कायनात के मालिक होते है सतगुरु ऐसा सुल्तानी सूरमा जो कायनात के कानूनों मे भी हेर फेर करने का दम रखता है अगर खुदा कायदों मे कैसा प्रधानमंत्री है तो सतगुरु राष्ट्रपति होते हैं जिसकी एक दस्तखत किस्मत के मारे की फांसी तक टाल सकता है ऐसी समर्थ शहंशाही होती हैं सतगुरु की।ऐसे बादशाह होते है सतगुरु मगर फिर भी आज बुल्लेशाह के किस्से में सतगुरु ने मजबूरी का पोश क्यों ओढ़ा हुआ है? ऐसी कौन सी बेबसी है कौन सी लाचारगी! अफ़ज़ल यही जानना चाहता था उसकी भौंहे सिकुड़ चुकी थी वह उम्मीद भरी नजरों से इनायत को ताक रहा था इनायत ने अपना चेहरा फेर लिया खामोश निगाहें कुटीर के बांसो पर टिका दी उनके ख्याल गहरा गए में इसे क्या बताऊं कि मैं क्यों सजा देने वाला और सजा पाने वाला दोनों बना बैठा हुआ बेबसी की वजह क्या है? मै इधर मौसमे खिजा में तप रहा हूं तभी तो उधर खिलेगी ऋतु बाहर की। खुलेगी उस रोज फिर सारी हकीक़ते जब सामने होगी पत्थर से मूर्ति तैयार की इनायत वक़्त के हाथो से ही इस हकीकत पर पर्दा उठना चाहते थे। मगर अफ़ज़ल के सब्र की चादर झीनी हो चुकी थी उसने फिर से गुजारिश की इनायत प्यारा सा मुस्करा दिए हाथ उठाकर बस इतना ही बोले तू नहीं समझेगा।एक रूहानी दस्तूर को एक नायाब बूत तराशा जा रहा है गम मेरे दिल का आराम ए जा हो रहा है मेरा गम ही आज किसी की दवा हो रहा है तराशकर मुझे उसे बनाना है खुदा। बस इसलिए उसके सब्र का इंतहा हो रहा है मेरे हाल का यह उदास धुंधला चेहरा किसी बन रही मूरत का निशान हो रहा है अफ़ज़ल ने आखरी सवाल किया कि यह खुदाई पूरा होने में और कितना वक़्त लगेगा इनायत शाह एक अजब खुशी के साथ चुटकी बजा उठे फिर नटखट अंदाज़ में पूछ उठे कि यह उर्स कबका है? उर्स एक त्योहार का नाम है उर्स कबका है आज से ठीक चालीस दिन बाद।इनायत की हस्ती में बेसब्र हलचल हुई वे उठकर रफ्तार भरे कदमों से बाहर चले गये अफजल को लगा कि इनायत उसका सवाल एक दफा फिर टाल गये मगर नहीं चुटकी बजाकर और उर्स का जिक्र कर वे जवाब ही दे गये थे।