“हे महान! परम सन्माननीय गुरुदेव ! मैं आदरपूर्वक आपको नमस्कार करता हूँ। मैं आपके चरण कमलों के प्रति अटूट भक्तिभाव कैसे प्राप्त कर सकूँ और आपके दयालु चरणों में मेरा मन हमेशा भक्तिभावपूर्वक कैसे सराबोर रहे? यह कृपा करके मुझे कहें।” इस प्रकार कहकर खूब नम्रतापूर्वक एवं आत्मसमर्पण की भावना से शिष्य को चाहिए कि वह गुरु को दंडवत प्रणाम करे और उनके आगे गिड़गिड़ाये।बाबा के पास कुछ गृहस्थी शिष्य आये और एक युवक की तरफ इंगित करते हुए बोले,” बाबा इसे लगन करना है।”इतना सुनते ही बाबा उनकी बात पूरी होने के पहले ही बोल उठे, “लगन करना है? वाह! देखो भाई, लगन तो सिर्फ प्रभू चरणों में होना चाहिये या फिर गुरु के चरणों में। इसे ही सच्ची लगन कहते है, बाकी तो सब बंधन है। संसार की लगन को तो हटाना है। क्या कम लगन है संसार में तुम्हारा कि एक और लगन बढ़ाने चले हो ?”बाबा कुछ देर शांत होकर फिर बोले कि, “देखो जब गुरु शिष्य को दीक्षा देते है, वही सच्चा विवाह है और वही सच्ची लगन है। उसी लगन को निभालो। यहाँ तो संसार से लगन काटने के लिए हम बैठे हैं। हम कोई लगन-वगन नहीं कराते, हम तो यहाँ लगन तोड़ते हैं। बस और क्या बोलूँ?”दूसरे शिष्य ने कहा : “बाबा शास्त्रों में वर्णन है कि गुरु अन्तर्यामी होते हैं, सबके घट-2 की जानते हैं। परन्तु गुरुदेव, हम सब तो यहाँ गुरुकुल में ढेर सारे लोग रहते हैं, कई गृहस्थी भी आपके शिष्य है, गुरु मानते हैं।फिर गुरुजी आपको एक-2 शिष्य के बारे में कैसे पता चलता होगा?”बाबा ने कहा : शिष्य जब गुरु को वरन कर लेता है अथवा गुरु उसे जब दीक्षित कर स्वीकार कर लेते हैं, तभी से गुरु उस शिष्य के अन्तरघट में विशेषरूप से विराजमान हो जाते हैं। गुरु प्रत्येक शिष्य के प्रत्येक मनःस्थिति के साक्षी होते हैं। शिष्य को उसके मनःस्थिति के अनुसार उसको कैसे उन्नत किया जाय यह गुरु बड़े ही ठीक ढंग से जानते हैं। जितना तुम स्वयं अपने बारे में नहीं जानते उससे कहीं अधिक गुरु तुम्हें जानते हैं।इस बात की पुष्टि के लिए एक सत्य घटना सुनाता हूँ। यह घटना महर्षी अरविंद और उनके शिष्य दिलीपकुमार राय के बारे में है।विश्वविख्यात संगीतकार दिलीपराय उन दिनों श्री अरविंद से दीक्षा पाने के लिए जोर- जबरदस्ती करते थे। वे ऐसी दीक्षा चाहते थे जिसमें श्री अरविंद दीक्षा के साथ ही उनपर शक्तिपात भी करे। उनके इस अनुरोध को महर्षी हर बार टाल देते थे। ऐसा कई बार हो गया। चलो इससे दिलीप निराश हो गये।निराश दिलीप ने सोचा कि इनसे कुछ काम बननेवाला नहीं है। चलो किसी दूसरे गुरु की शरण में जाये और उन्होंने एक महात्मा की खोज भी कर ली। यह संत पॉन्डिचेरी से काफी दूर एक सुनसान स्थान में रहते थे। दीक्षा की प्रार्थना लेकर जब दिलीप राय उन संत के पास पहुँचे। तो वह इसपर बहुत हँसे और कहने लगे, “तो तुम हमें श्री अरविंद से बड़ा योगी समझते हो। अरे! वह तुमपर शक्तिपात नहीं कर रहे , यह भी उनकी कृपा ही है। गुरु के हर कार्य में उनकी कृपा छुपी होती है, परन्तु उसे निम्न मनवाला, निम्न कोटि का शिष्य समझ नहीं पाता।”दिलीप राय को आश्चर्य हुआ! यह संत इन सब बातों को किस तरह से जानते हैं? वे महापुरुष कहे जा रहे थे कि,”तुम्हारे पीठ में भयानक फोड़ा है। अचानक शक्तिपात से यह फट सकता है और तुम्हारी मौत हो सकती है। इसलिए तुम्हारे गुरु पहले इस फोड़े को ठीक कर रहे हैं। इसके ठीक हो जाने पर वे तुम्हें शक्तिपात दीक्षा देंगे।”अपने इस कथन को पूरा करते हुए उन योगी ने दिलीप से कहा : “मालूम है, तुम्हारी यह बातें मुझे कैसे पता चली? अरे!अभी तुम्हारे आने से थोड़ी देर पहले सूक्ष्म शरीर से तुम्हारे गुरु स्वयं यहाँ आये थे। उन्होंने ने ही मुझे तुम्हारे बारे में सारी बातें बताई।”उन संत की बाते सुनकर दिलीप तो अवाक रह गया! अपने शिष्यवत्सल गुरु की करुणा को अनुभव कर उनका हृदय भर आया। परन्तु यह बातें तो महर्षी उनसे भी कह सकते थे, फिर कहा क्यूँ नहीं? यह सवाल जब उन्होंने वापस पहुँचकर अपने गुरुदेव श्री अरविंद से पूछा तो वे हँसते हुए बोले कि,”यह तू अपने आप से पूछ कि क्या तू मेरी बातों पर आसानी से विश्वास कर लेता? जब मुझपर भरोसा नहीं था, तभी तो तू वहाँ गया।”दिलीप को लगा, हाँ! यह बात भी तो सही है! निश्चित ही मुझे भरोसा नहीं होता, परन्तु अब भरोसा हो गया है। इस भरोसे का परिणाम भी उन्हें मिला। निश्चित समय पर श्री अरविंद ने उन्हें शक्तिपात की दीक्षा प्रदान की।”गुरु को अपने हर शिष्य के बारे में सबकुछ मालूम होता है। वह प्रत्येक शिष्य के जन्मों-2 का साक्षी और साथी होते हैं। किसके लिए क्या करना है, कब करना है? वह बेहतर जानते हैं। सच्चे शिष्य को अपनी किसी बात के लिए परेशान होने की आवश्यकता नहीं। उसका काम है सम्पूर्ण रूप से गुरु को समर्पण और उनपर पूर्ण भरोसा-विश्वास।” इतना कहकर बाबा हँसने लगें और कहा तुम यही करो। मैं तुम्हारे लिए उपयुक्त समय पर सब कर दूँगा। मुझे अपने हर बच्चे का ध्यान है।अपनी बात को बीच में रोककर अपने देह की ओर इशारा करते हुए बाबा बोले,”मेरा यह शरीर रहे या ना रहे परन्तु मैं अपने प्रत्येक शिष्य को पूर्णता तक पहुँचाऊँगा।समय के अनुरूप सबके लिए सबकुछ करूँगा। किसी को भी चिंतित-परेशान होने की जरूरत नहीं है।”गुरुदेव के ये वचन प्रत्येक शिष्य के लिए महामंत्र के समान है।अपने गुरु के आश्रय में बैठे किसी शिष्य को कोई चिंता और भय नहीं होना चाहिए।
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भक्त गुमानी की भक्ति अदभुत थी अदभुत है उनका जीवन प्रसंग…
जिसने गुरु प्राप्त किये हैं ऐसे शिष्य के लिए ही अमरत्व के द्वार खुलते हैं। साधको को इतना ध्यान में रखना चाहिए कि केवल पुस्तकों का अभ्यास करने से या वाक्य रटने से अमरत्व नहीं मिलता। उससे तो वे अभिमानी बन जाते हैं।जिसके द्वारा जीवन का कूट प्रश्न हल हो सके ऐसा सच्चा ज्ञान तो गुरुकृपा से ही प्राप्त हो सकता है।जिन्होंने ईश्वर के दर्शन किये है, ऐसे गुरु का संग और सहवास ही शिष्य पर गहरा प्रभाव डालता है।तमाम प्रकार के अभ्यास की अपेक्षा गुरु का संग सर्वश्रेष्ठ है।कुरुमाचल अभी जिसे हम उत्तराखंड कहते है, वहाँ एक प्रसिद्ध संत हो गये श्री मुनींद्रजी जो हौड़िया खानी बाबा के नाम से भी जाने जाते हैं। संत मुनींद्रजी का एक अनन्य भक्त था ठाकूर गुमानसिंग नौला। जिसे लोग भक्त गुमानी के नाम से पुकारते थे।गुमानी अत्यंत सरल व निष्कपट ह्रदय था। गुरुसेवा में गुमानी सदैव अनन्य प्रेम व श्रद्धा से लगा रहता था। उसने अपने गुरुजी के निवास के लिए एक सुंदर कुटिया बनाई और उसमें संत मुनींद्रजी रहने भी लगे। वह गुरुजी के लिए समय पर भोजन आदि का प्रबंध करता, उनकी कुटिया की साफसफाई करता और उनकी साधना के समय कोई विघ्न ना आये इन सब बातों पर खूब ख्याल रखता।संत मुनींद्रजी के दर्शन के लिए उनकी कुटिया पर जिज्ञासुओं, दर्शनार्थियों एवं भक्तों का तांता लगा रहता था। गुमानी के पास कोई विशेष धन-संपत्ति न थी फिर भी वह गुरुसेवा में कोई कसर नहीं रखता था। इसलिये शीघ्र ही उसका संचित धन व अनाज समाप्त होने लगा। उसकी पत्नी ने उसे बहुत समझाया परन्तु वह अपने निश्चय का पक्का था।लोग उसे बोलते कि, “मूर्ख है! अपनी जीवन की सारी कमाई गँवा रहा है।” परन्तु भक्त गुमानी जानता था कि गुरुकृपा से जो अध्यात्म धन मिलता है, उसके आगे सारी दुनिया की संपत्ति तो क्या इन्द्रपद भी बौना हो जाता है।गुमानी के लिए गुरुसेवा ही सर्वस्व थी। गुमानी की पत्नी नाराज होकर अपने पिता के यहाँ चले गई। उसकी समस्त खेती बरबाद हो गई और घर में एकत्र अनाज भी समाप्त हो गया।अचानक एक दिन गुमानी ने देखा कि एक व्यक्ति कंधे पर हल रखे चला आ रहा है। गुमानी उन्हें साक्षात बलरामजी समझकर बड़े आदर से घर लाया और उनकी सेवा की। उन हलधारी दिव्य तेजसम्पन्न व्यक्ति ने गुमानी से कहा कि, “आपने मुझे अतिथी बनाकर आसरा तो दिया है तो मैं आपकी भूमी जोत सकता हूँ क्या? मुझे खाली बैठना अच्छा नहीं लगता।”भक्त गुमानी बोला,”आपकी जो मर्जी। जैसे यह घर आपका है, वैसे यह खेत भी आपका है ?”उसने खेत जोतकर धान बो दिया।उस हलधारी पुरूष की शक्ति अतुलनीय जान पड़ती थी। वह अकेले ही खेत में इतना काम कर डालता कि 10-10 व्यक्ति भी उतना न कर सकें। बंजर से बने खेत में उस वर्ष अन्य वर्षों की तुलना में बहुत अधिक धान पैदा हुआ। अनाज से भंडार भर गये।जब भक्त गुमानी की पत्नी को यह पता चला तो वह वापस आ गई और क्षमा याचना कर संत एवं भक्तों की सेवा में गुमानी की छाया बनकर तत्पर रहने लगी।अब वे ओज-तेज सम्पन्न हलधर अतिथी यह कहकर विदा होने लगे कि, फिर कभी ऐसी विषम परिस्थिति उत्पन्न हो तो आप मेरा स्मरण कीजियेगा। आपका अतिथी बनने आ जाऊँगा। यह सुनते ही भक्त गुमानी के मुख से निकल पड़ा कि,*सुमिरन करूँ गुरुदेव का और सुमिरन नाहीं।**शुत्त-वित्त-दारा-संपदा चाहे सकल बह जाईं।*हलधर बोले,”धन्य है आपकी गुरुभक्ति!”और वे विदा हो गये।सद्गुरु की कृपा से गुमानी राजयोग, हठयोग भक्तियोग एवं ज्ञानयोग में निपुण हो गये और उन्हें स्वतः समाधी सिद्ध हो गई।इसलिये स्वामी शिवानंदजी कहते हैं कि,”गुरु का संग ही साधक को उसके चारित्र्य के निर्माण में उसकी चेतना को जागृत करके अपने स्वरूप का सच्चा दर्शन करने में सहाय कर सकता है। गुरु की सेवा, गुरु की आज्ञा का पालन गुरु की पूजा और गुरु का ध्यान ये चीजें बहुत महत्वपूर्ण है शिष्य के लिए आचरण करने योग्य उत्तम चीजें हैं।”
योगी की अजब अनोखी आज्ञा
गुरू के प्रति सच्चे भक्तिभाव की कसौटी, आंतरिक शांति और उनके आदेशों का पालन करने की तत्परता में निहित है । गुरुकृपा से जिनको विवेक और वैराग्य प्राप्त हुआ है, उनको धन्यवाद है । वे सर्वोत्तम शांति और सनातन सुख का भोग करेंगे । यह चबूतरे ठीक नहीं बने, इसलिए इनको गिराकर दोबारा बनाओ । श्री गुरू अमरदास जी ने यह आज्ञा तीसरी बार दी, शिष्यों ने यह आज्ञा शिरोधार्य की । चबूतरे गिराए गए और एक बार फिर से बनाने आरम्भ कर दिए । इस प्रकार कई दिनों तक चबूतरे बनाने और गिराने का सिलसिला चलता रहा । हर बार गुरू महाराज जी आते और चबूतरों को नापसंद करके पुनः बनाने की आज्ञा दे जाते । पर आखिर कब तक, धीरे-2 सभी शिष्यों का धैर्य टूटने लगा । मन और बुद्धि गुरू आज्ञा के विरूद्ध तर्क-वितर्क बुनने लगे । ठीक तो बने हैं क्या खराबी है इनमें, ना जाने गुरुदेव को क्या हो गया है । व्यर्थ ही हमसे इतनी मेहनत करवा रहे हैं, सभी की भावना मंद पड़ने लगी । लेकिन इतने पर भी चबूतरे बनवाने, गिरवाने का क्रम नहीं रुका । श्री गुरू अमरदास जी ने तो मानो परीक्षा रूपी छलनी लगा ही दी थी । जो कंकड़ थे वे सभी अपने आप छंटते चले गए, एक-2 करके इस सेवा से पीछे हटते चले गए । अंत में केवल एक ही खरा शिष्य रह गया, यह शिष्य थे श्री रामदास जी, सभी के जाने के बाद भी वे अकेले ही प्राणपन से सेवा कार्य में संलग्न रहे । पूरे उत्साह और लगन के साथ गुरू आज्ञा के अनुसार चबूतरे बनाते और गिराते रहे । ग्रंथाकार बताते हैं कि यह क्रम अनेकों बार चला, फिर भी रामदास जी तनिक भी विचलित नहीं हुए । अंततः श्री गुरू अमरदास जी ने उनसे पूछ ही लिया, रामदास ! सब यह काम छोड़ कर चले गए फिर तुम क्यूं अब तक इस कार्य में जुटे हुए हो । श्री रामदास जी ने करबद्ध होकर विनय किया हे सच्चे बादशाह सेवक का धर्म है सेवा करना, अपने मालिक की आज्ञा का पालन करना फिर चाहे आप चबूतरे बनवाएं, चाहें गिरवाएं मेरे लिए तो दोनों ही सेवाएं हैं । शिष्य के इन भावों ने गुरू को इतना प्रसन्न किया कि उन्होंने उसे अपने गले से लगा लिया । अध्यात्मिक संपदा से माला-माल कर दिया, समय आने पर गुरू पद पर भी आसीन किया । केवल सिख इतिहास ही नहीं, हम चाहे गुरू-शिष्य परम्परा के किसी भी इतिहास को पलट कर देख लें, हमें असंख्य ऐसे उदाहरण मिल जायेंगे जहां गुरुओं ने अपने शिष्यों की बहुत प्रकार से परीक्षाएं ली । कभी-2 कबीरदास जी हाथ में मदिरा की बोतल लेकर बीच चौराहे मदमस्त झूमे, कभी निजामुद्दीन औलिया अपने शिष्यों को नीचे खड़ा कर स्वयं वैश्या के कोठे पर जा चढ़े । कभी स्वामी विरजानन्द जी ने दयानन्द जी को अकारण ही खूब डांटा फटकारा, यह सब क्या था । गुरुओं द्वारा अपने शिष्यों की ली गई परीक्षाएं ही थी, परंतु इन परीक्षाओं को लेने से पूर्व इन सभी गुरुओं ने अपने पूरे होने का प्रमाण शिष्यों को पहले ही दे दिया था । एक पूर्ण गुरू पहले अपने शिष्य को यह पूर्ण स्वतंत्रता देते हैं कि वह उनकी गुरूता की परख करे । शास्त्र ग्रंथों में वर्णित कसौटी के आधार पर उनका परीक्षण करें और जब वे इस कसौटी पर खरे उतर जाएं तभी उन्हें गुरुरूप में स्वीकार करें । कहने का भाव है कि पहले गुरू अपने पूर्ण होने की परीक्षा देते हैं, तभी शिष्य की परीक्षा लेते हैं । इस क्रम में वे अपने शिष्य को अनेक परीक्षाओं के दौर से गुजारते हैं । कारण एक नहीं अनेक हैं सर्वप्रथम *खरी कसौटी राम की कांचा टिके ना कोए* । गुरू खरी कसौटी के आधार पर शिष्य को परखते हैं कि कहीं मेरे शिष्य का शिष्यत्व कच्चा तो नहीं है ठीक एक कुम्हार की तरह । जब कुम्हार कोई घड़ा बनाता है तो उसे बार-2 बजाकर भी देखता है टन-2 वह परखता है कि कहीं मेरा घड़ा कच्चा तो नहीं रह गया, इसमें कोई खोट तो नहीं है । ठीक इसी प्रकार गुरू भी अपने शिष्य को परीक्षाओं के द्वारा ठोक बजाकर देखते हैं । शिष्य के विश्वास,प्रेम, धैर्य, समर्पण, त्याग को परखते हैं, वे देखते हैं कि शिष्य के इन भूषणों में कहीं कोई दूषण तो नहीं, कहीं अहम की हल्की सी भी कालिमा तो इसके चित्त पर नहीं छायी हुई । यह अपनी मनमति को विसार कर पूर्णतः समर्पित हो चुका है या नहीं । क्यूंकि जब तक सुवर्ण में मिट्टी का अंश मात्र भी है उससे आभूषण नहीं गढ़े जा सकते । मैले, दागदार वस्त्रों पर कभी रंग नहीं चढ़ता, उसी तरह जब तक शिष्यों में जरा सा भी अहम, स्वार्थ, अविश्वास या अन्य कोई दुर्गुण है तब तक वह अध्यात्म के शिखरों को नहीं छू सकता । उसकी जीवन रूपी सरिता परमात्म रूपी सागर में नहीं समा सकती । यही कारण है कि गुरू समय-2 पर शिष्यों की परीक्षाएं लेते हैं । कठोर ना होते हुए भी कठोर दिखने की लीलाएं करते हैं । कभी हमें कठिन आज्ञाएं देते हैं तो कभी हमारे आस पास प्रतिकूल परिस्थितियां पैदा करते हैं क्यूंकि अनुकूल परिस्थितियों में तो हर कोई शिष्य होने का दावा करता है । जब सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा होता है,तो हर कोई गुरू चरणों में श्रद्धा और विश्वास के फूल अर्पित करता है । सभी शिष्यों को लगता है कि उन्हें गुरू से विशेष स्नेह है । *झंडा गडियो प्रेम का चहुं दिश पीयू-2 होय ना जाने इस झुंड में कोन सुहागिन होय* । प्रत्येक शिष्य अपने प्रेम का झंडा गाड़ता है, पर किसे पता है प्रेमियों के इस काफिले में कौन मंजिल तक पहुंच पाएगा । कौन सच्चा प्रेमी है इसकी पहचान तो विकट परिस्थितियों में ही होती है क्यूंकि जरा सी विरोधी व प्रतिकूल परिस्थितियां अाई नहीं कि हमारा सारा स्नेह, श्रद्धा और विश्वास बिखरने लगता है, शिष्यत्व डगमगाने लगता है जब श्री गुरू गोविंद सिंह जी ने अपने शिष्यों को कसौटी पर कसा तो हजारों के झुंड में से पांच प्यारे ही निकले ।जब लैला के देश में मजनू को मुफ्त में चीजें मिलने लगी थी तो एक लैला के कई मजनू पैदा हो गए थे, परन्तु जब लैला ने मजनू के जिगर का एक प्याला खून मांगा तो सभी नाम के मजनू फरार हो गए, केवल असली मजनू रह गया । स्वामी जी यदि आप खबर कर देते तो हम अवश्य ही आपकी सेवा में हाजिर हो गए होते फिर मजाल है कि आपको आनंदपुर छोड़ना पड़ जाता ।आप एक बार हमें याद करते तो सही, यह गर्वीले शब्द थे भाई डल्ला के । श्री गुरू गोबिंदसिंह जी ने भाई डल्ला को नजर भर कर देखा, मुस्कुराए और कहा अच्छा भाई डल्ला जरा अपने किसी सिपाही को सामने तो खड़ा करना । आज ही नई बंदूक अाई है इसे मैं आजमाना चाहता हूं, गुरू ने बन्दूक को क्या आजमाना था, आजमाना तो था भाई डल्ला को । डल्ला ने यह सुना नहीं कि उसके पैरों तले से जमीन खिसक गई, तभी श्री गुरुगोबिंद सिंह जी ने अपने शिष्यों को बुलावा भेजा, दोनों सरपट दौड़ते आए । इन्हें भी वही आज्ञा सुनाई गई, दोनों एक दूसरे को पीछे करते हुए कहने लगे महाराज निशाना मुझ पर आजमाइए । दूसरा कहता नहीं महाराज मुझ पर आजमाइए । श्रीगुरू गोविंद सिंह जी ने दोनों को आगे पीछे खड़ा करके बन्दूक की गोली उनके सिर के पीछे उपर से निकाल दी । गुरू को मारना किसे था केवल परीक्षा लेनी थी इसलिए सच्चा शिष्य तो वही है जो गुरू की कठिन से कठिन आज्ञा को भी शिरोधार्य करने का दम रखता है चाहे कोई भी परिस्थिति हो, उसका विश्वास व प्रीति गुरू चरणों में अडिग रहती है । सच, शिष्य का विश्वास चट्टान की तरह मजबूत होना चाहिए । वह विश्वास, विश्वास नहीं जो जरा से विरोध की आंधियों में डगमगा जाए । गुरू की परिस्थितियों को देखकर वह उन्हें त्याग जाए । गुरू की परीक्षाओं के साथ एक और महत्वपूर्ण तथ्य जुड़ा है वह यह है कि परीक्षाएं शिष्य को केवल परखने के लिए नहीं होती हैं, निखारने के लिए होती हैं । तभी कबीर दास जी ने कहा कि जहां यहां *खरी कसौटी राम की, कांचा टिके ना कोय ।* वहीं एक अन्य साखी में यह भी कह दिया *खरी कसौटी तौलता,* *निकसी गई सब खोंट।* अर्थात गुरू की परीक्षा एक ऐसी कसनी कसौटी है जो साधक के सभी दोष, दुर्गुणों को दूर कर देती है । परीक्षाओं की अग्नि में तप कर ही एक शिष्य कुंदन बन पाता है । बुल्लेशाह इसी अग्नि में तपकर साईं बुल्लेशाह बने, उनके गुरू शाह इनायत ने उन्हें इतने इम्तिहानों के दौर से गुजारा । एक समय तो ऐसा भी आया जब उन्हें प्रताड़ित कर आश्रम तक से बाहर निकाल दिया गया, उनके प्रति नितांत रूखे व हृदय हीन हो गए । बहुत समय तक उन्हें अपने दर्शन से भी वंचित रखा, परन्तु यहां हम सब यह याद रखें कि बाहर से गुरू चाहे कितने भी कठोर प्रतीत होते हैं किन्तु भीतर से उनके समान प्रेम करने वाला दुनिया में और कोई कहीं नहीं मिलेगा । उनके जैसा शिष्य का हित चाहने वाला और कोई नहीं । वे यदि हमें डांटते, ताड़ते भी हैं तो हमारे ही कल्याण के लिए, चोट भी मारते हैं तो हमें निखारने के लिए ।यही उद्देश्य छिपा था शाह इनायत के रूखेपन में, वे अपने शिष्य का निर्माण करना चाहते थे इसलिए उन्होंने बुल्लेशाह को वियोग वेदना की प्रचंड अग्नि में तपाया । जब देखा कि इस अग्नि परीक्षा में तपकर शिष्य कुंदन बन चुका है तब वे उस पर पुनः प्रसन्न हो गए, ममतामय, प्रेम भरे स्वर में उसे बुल्ला कह कर पुकारा । बुल्ला भी गुरू चरणों में गिर कर खूब रोया और बोला हे मुर्शीद ! मैं बुल्ला नहीं भुल्ला हूं । मुझसे भूल हुई थी जो मैं आपकी नज़रें इनायत के काबिल ना रहा । साईं इनायत ने उसे गले से लगाकर कहा नहीं बुल्ले तुझसे कोई भूल नहीं हुई । यह तो मैं तेरी परीक्षा ले रहा था, तुझे इन कटु अनुभवों से गुजारना आवश्यक था ताकि तुझमें कहीं कोई खोट ना रह जाए, कल को कोई विकार या सैयद होने का अहम तुझे भक्ति-पथ से डिगा ना दे और तू खुदा के साथ ईकमिक हो पाए । स्वामी रामतीर्थ जी प्रायः फ़रमाया करते थे कि यदि प्यारे के केशों को छूने की इच्छा हो तो पहले अपने को लकड़ी की भांति उसके आरे के नीचे रख दो जिससे चीर-2 कर वह तुमको कंघी बना दे । कहने का भाव है कि गुरू की परीक्षाएं शिष्य के हित के लिए ही होती हैं । परीक्षाओं के कठिन दौर बहुत कुछ सीखा जाते हैं, याद रखें सबसे तेज़ आंच में तपने वाला लोहा ही सबसे बढ़िया इस्पात बनता है । इसलिए एक शिष्य के हृदय में सदैव यही प्रार्थना के स्वर गूंजने चाहिए कि हे गुरुदेव ! मुझमें वह सामर्थ्य नहीं कि आपकी कसौटियों पर खरा उतर सकूं, आपकी परीक्षाओं में उत्तीर्ण हो सकूं परन्तु आप अपनी कृपा का हाथ सदैव मेरे मस्तक पर रखना,मुझे इतनी शक्ति देना कि मैं हर परिस्थिति में इस मार्ग पर अडिग होकर चल पाऊं । मुझे ऐसी भक्ति देना कि आपकी कठिन से कठिन आज्ञायों को भी पूर्ण समर्पण के साथ शिरोधार्य कर सकूं । आपके चरणों में मेरा यह विश्वास अटल रहे कि आपकी हर करनी मेरे परम हित के लिए ही है, मैं गुरू का गुरू मेरे रक्षक यह भरोसा नहीं जाए कभी जो करिहे हैं सो मेरे हित्त यह निश्चय नहीं जाए कभी ।