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सन 2011 ब्रह्मपुरी ऋषिकेश की यह मधुर घटना तब की है जब पूज्य बापूजी वहां पधारे थे


जिस प्रकार जब बालक धीरे-2 कदम रखता है और स्वतंत्र रीति से चलने की कोशिश करता है तब कभी-2 गिर पड़ता है और फिर खड़ा होता है तथा मां की सहायता की जरूरत पड़ने पर उसकी सहायता मांगता है । इसी प्रकार साधना के प्रारम्भ के स्तरों में शिष्य को करुणामयी गुरु की सहायता एवम् मार्गदर्शन की आवश्यकता पड़ती है, अतः उसे वह मांगना चाहिए । सच्चे शिष्य को मोक्ष के लिए तीव्र अकांक्षा होनी चाहिए,तथा संभव हो उतनी तमाम रीतियों से वह अकांक्षा प्रकट करनी चाहिए । तभी उसकी इच्छा की पूर्ति करने में गुरु उसे सहायभूत हो सकते हैं । इस अकांक्षा को प्रयत्न कह सकते हैं और गुरु की करुणामयी सहाय को माता की वात्सल्यमय कृपा कह सकते हैं । पूज्य बापूजी के प्रेरक जीवन प्रसंग…… लगभग दिसंबर 2011 की बात है संत श्री आशारामजी आश्रम ब्रह्मपुरी ऋषिकेश में पूज्य बापूजी एकांत हेतू पधारे थे । साधकों की प्रार्थना पर दिन में एक समय सत्संग के लिए निर्धारित किया गया था । साधकों की संख्या ज्यादा होने से सत्संग आश्रम के बाहर खुले में पेड़ों के नीचे होता था । हरिद्वार की अलका शर्मा एक दिन की घटना बताते हुए कहती हैं कि पूज्य बापूजी कुर्सी पर विराजमान थे । बहुत सारे बंदर और लंगूर पेड़ों पर बैठे थे । बापूजी ने उनके लिए मक्का उबालने को कहा और फिर सत्संग शुरू हो गया । सत्संग पूरा होने पर पूज्यश्री ने कुकर मंगवाया और स्वयं अपने हाथों से बंदरों और लंगूरों को मक्का खिलाने लगे । साथ ही साधकों को बता रहे थे कि यहां के बंदर बहुत भूखे होते हैं क्यूंकि यहां इन्हें पहाड़ों में खाने को नहीं मिलता । तभी सत्संगियों में बैठी एक बुजुर्ग महिला उठी और प्रसाद के लिए अपने साथ लाई हुई पांच किलो मूंगफली की थैली बापूजी की मेज पर रख दी । चारों तरफ बंदर थे, बापूजी ने पीछे खड़े सेवक को कहा यह थैली उठा ले नहीं तो बंदर इसे फाड़ देंगे, बिखर जाएगी । तभी 2-3 बंदर थैली की ओर झपटे । बंदरों ने जैसे ही थैली फाड़ने की कोशिश की । पूज्यश्री आगे होकर पूरी तरह थैली पर झुक गए और दोनों बाजुओं से थैली को ढक दिया । बंदरों से तो बापूजी ने मूंगफली बचा ली परन्तु थैली फटने से मूंगफली मेज व जमीन पर बिखर गई । बापूजी ने सामने बैठे सत्संगियों को मूंगफली का एक-2 दाना उठाने को कहा । तभी इस साधिका बहन के मन में एक प्रश्न उठा कि आत्मरस में डूबे रहने वाले इतने बड़े ब्रह्मज्ञानी संत जिनको लोक संपर्क में आने के लिए कितनी मुश्किल से मन को मनाना पड़ता है, और अभी स्वयं अपने हाथों से बंदरों को मक्का खिला रहे थे । चार-पांच सौ रुपए की मूंगफली बचाने के लिए खुद उस पर झुक गए और दोनों बाजुओं से उसे ढक दिया । आखिर उन्हें क्या आवश्यकता थी । साधिका बहन के मन की बात तुरंत अन्तर्यामी, करुणासिंधू बापूजी जान गए और बोले कि धर्म का एक-2 पैसा लोहे के चने चबाने के समान होता है । जो उसका दुरुपयोग करता है उसकी सात-2 पीढ़ियां तबाह हो जाती हैं । यह मूंगफली भक्तों में प्रसाद रूप में बांटने के उद्देश्य से अाई थी । बंदरों को उनका भोजन पहले ही मिल चुका था । हां हम उन्हें अपने हाथ से देते तो ठीक था परन्तु झपट्टा मारकर अगर वे इसे ले जाते या बिखेर देते तो मूंगफली के दुरुपयोग का दोष पड़ता, अतः इसकी रक्षा जरूरी थी । बात बहुत सूक्ष्म थी पता नहीं कितने लोगों को समझ में अाई । मगर साधिका बहन कहती हैं कि मुझे याद आया गुरुदेव सत्संग में बार-2 कहा करते थे कि धर्म के पैसे का बहुत सोच समझ कर उचित जगह पर ही उपयोग करना चाहिए । कभी भी उस पैसे का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए । ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों के प्रत्येक कार्य व लीला में गूढ़ रहस्य छुपा होता है इसलिए कहा गया है कि ज्यों केले के पात-पात में पात, त्यों संतन की बात-बात में बात । परन्तु यह सभी कार्य विश्व मांगल्य के लिए ही होते हैं । बापूजी कई बार विनोद भी ऐसा करते हैं कि हताश व्यक्ति भी आनंदित व उत्साहित हो जाता है । सन 2005-2006 के लगभग खेरालु गुजरात में बापूजी का सत्संग था । सत्संग स्थल से कुछ दूरी पर बापूजी का निवास था । बापूजी नित्य नियम के अनुसार घूमने निकले, पड़ोस के किसान के खेत में भैंस थी । बापूजी को भैंस की हूबहू आवाज निकालते हुए सत्संग में तो सभी ने देखा है । भैंसों को देखकर बापूजी को विनोद सूझा । पूज्यश्री ने भैंसों की आवाज रिकॉर्ड करवाई और उस ऑडियो ट्रैक को भैंसों के सामने ही चलवाया । भैंसें पहले तो रंभा रही थी परन्तु जब उन्होंने देखा गाड़ी में से उनकी तरह ही आवाज़ आ रही है तो वे अचंभित होकर इधर उधर देखने लगी । बापूजी ने थोड़ी देर के लिए आवाज़ बंद करवाके फिर चालू करवाई । इस प्रकार वह ट्रैक चलाते रहने के लिए बोलकर बापूजी चले गए । फिर तो भैंसों को गाड़ी से अपने तरह की आवाज सुनकर आंनद आने लगा और वे सभी भैंसें गाड़ी के नजदीक आ गई । सभी लोग वह नज़ारा देख रहे थे और प्रसन्न हो रहे थे । मनुष्य ही नहीं पशुओं को भी आनंदित करते हैं पूज्य बापूजी ।

पूज्य बापूजी की यह चमत्कारिक लीला आपको आंनद रस में विभोर कर देगी घटना 1975 की..


जो दैवीय गुरु के चरणों में आश्रय लेता है वह गुरु की कृपा से अध्यात्मिक मार्ग में आने वाले तमाम विघ्नों को पार कर जायेगा । योग के लिए श्रेष्ठ एकांत गुरु का निवास स्थान है । शिष्य के साथ गुरु रहते नहीं हों तो ऐसा एकांत सच्चा एकांत नहीं है । ऐसा एकांत काम और तमस का आश्रय स्थान बन जाता है । गुरु माने सच्चिदानंद माने परमात्मा । जिस शिष्य को अपने गुरु के प्रति भक्ति-भाव है, उसके लिए तो आदि से अंत तक गुरु सेवा मीठे शहद जैसी बन जाती है । गुरु के पवित्र मुख से बहते हुए अमृत का जो पान करता है वह मनुष्य धन्य है । जो सम्पूर्ण भाव से अपने गुरु की अथक सेवा करता है उसे दुनियादारी के विचार ही नहीं आते । इस दुनिया में वह सबसे अधिक भाग्यवान है । बस अपने गुरु की सेवा करो, सेवा करो, सेवा करो ! गुरुभक्ति विकसित करने का यह राजमार्ग है, अपने गुरु की महिमा का गुणगान, उनकी लीलाओं का ज्ञान और उनकी ही चर्चा हर सतशिष्य को हृदय गम्य होती है । सहज ही साधक के हृदय को पुलकित एवम् आनंदित कर देती है । आईये हम सुनते हैं पूज्य बापूजी के जीवन प्रेरक प्रसंग…..श्रीमती शारदा पटेल सन 1975 से बापूजी का सत्संग सानिध्य पाती रही हैं । वे बता रही हैं बापूजी के सानिध्य में उनके जीवन में हुए कुछ रोचक प्रसंग । मैंने शुरू से ही पूज्य बापूजी का बहुत ही सरल स्वभाव देखा है । सन 1975 में मैं पिताजी को लेकर आश्रम अाई थी । उनके पैर में काफी तकलीफ थी, उस समय आश्रम के चारों तरफ जंगल था । आश्रम तक आने के लिए यातायात का कोई साधन भी नहीं मिलता तो हम बड़ी मुश्किल से पैदल चलकर अाए । आश्रम पहुंचे तो एक ओजस्वी, तेजस्वी काली दाढ़ी वाले महाराज ने हमसे पूछा… आप लोग कहां से आए हैं ? मैं बोली ऊंझा, गुजरात से । किससे मिलना है ? बापू से, आशाराम बापू मिलेंगे । तब संस्कार नहीं थे तो हम ऐसा बोलते थे । हां मिलेंगे । आप लोग बैठो मैं उनको बताता हूं कि कोई आया है । थोड़ी देर बाद हमने देखा तो जिनसे हमारी बात हुई थी वे ही महाराज सत्संग मंडप में आकर व्यासपीठ पर बैठ गए और हमें बुलाया । हम गए तो वे बोले अभी देखा । मैंने पूछा आप आशाराम बापू हैं ? हां मैं आशाराम बापू हूं । पहले तो आपने बोला मैं भेजता हूं आशाराम बापू को । बापूजी मुस्कुराते हुए बोले यह तो ऐसे होता रहता है । मैं तो हैरान रह गई फिर बापूजी ने सत्संग किया । सत्संग में मैं थैला गोद में लेकर बैठी थी । पूज्यश्री बोले यह पोटला नीचे रखो, इसमें कोई सार नहीं, इसे छोड़ दो । मैंने थैला नीचे रखा । घुटने के दर्द का इलाज बताते हुए पूज्यश्री बोले गौझरन को मटके में भरकर तीन-चार सप्ताह तक गड्ढे में गाड़ देना । फिर उसको लगाकर मालिश करना । सत्संग के बाद बापूजी ने मेरे पिताजी को मोक्ष कुटीर में बुलाकर मंत्र दीक्षा दी । पिताजी को चलने में तकलीफ थी इसीलिए जब हम जाने लगे तो पूज्य श्री स्कूटर से सड़क तक छोड़ कर अाए । दूसरा प्रसंग बताते हुए वे कहती हैं कि ऊंझा में जब बापूजी पहली बार हमारे घर आए तो मुझे पता नहीं था कि कितने लोग आएंगे । मैंने बड़ी श्रद्धा व प्रेम से 14-15 लोगों की रसोई बनाई थी परन्तु 100 लोग आ गए । मैं तो घबरा गई, आश्रम के शंकर भाई को मैंने बोला इतने सारे लोगों को हम क्या खिलाएंगे । हमने तो 14-15 लोगों का भोजन बनाया है, अब 100 लोगों की रसोई तुरंत कैसे बना पाऊंगी । बापूजी को पता चला तो उन्होंने मुझसे पूछा तूने क्या बनाया है ? बापू दाल, भात, सब्जी, रोटी । अच्छा दिखाओ ढक्कन खोलकर दिखाया तो बापूजी ने सब्जी, दाल, चावल में चम्मच घुमाया फिर बोले परोसो नहीं खुटेगा । केवल 14-15 लोगों का भोजन था परन्तु आश्चर्य मैं परोसती गई और वह खुटा ही नहीं । सभी 100 लोगों के लिए पर्याप्त भोजन हो गया, कुछ भी कम नहीं पड़ा ।

दशरथजी की गुरुभक्ति व पूर्ण आज्ञापालन के अनोखे प्रसंग


श्रीमद्भागवत में गुरु महिमा का वर्णन करते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि, ज्ञानउपदेश देकर परमात्मा को प्राप्त करानेवाले गुरु…तो मेरा ही स्वरूप है । सभी महान ग्रंथों ने गुरू महिमा गाई है। जिस ग्रंथ में गुरू महिमा नहीं वह सद्ग्रन्थ ही नहीं है। श्रीरामचरित मानस में गुरू महिमा पग-पग पर देखने को मिलती है। रामजी का जन्म हुआ तो गुरुकृपा से। रामायण में आता है कि एक बार राजा दशरथ के मन में बड़ी ग्लानि हुई कि मुझे पुत्र नहीं है।*गुरू गृह गयो तुरत महिपाला* दशरथ जी अपने गुरु वशिष्ठ जी के आश्रम गए और उनके चरणों में प्रणाम कर विनय पूर्वक अपना सारा दुःख सुनाया।श्री वशिष्ठ जी ने उन्हें समझाया और कहा, तुम्हे चार पुत्र होंगे गुरुजी पुत्र का अनेष्ठी यज्ञ करवाया जिनके फलस्वरूप रामजी का जन्म हुआ ।दशरथ जी हर कार्य कार्य करने से पहले गुरुदेव से पूछते थे। गुरुकृपा के कारण ही राजा दशरथ देवासुर संग्राम में देवताओ की मदद करने सशरीर स्वर्ग गए थे। एक बार शनि देव रोहिणी का भेदन करने वाले थे जिससे पृथ्वी पर बारह वर्षो तक अकाल पड़ता, इस आपदा बचाने हेतु गुरूदेव की आज्ञा पाकर राजा दशरथ उस योग के आने के पहले ही शनिदेव से युद्ध करने हेतु चले गए और गुरुकृपा से प्रजा की रक्षा करने में सफल भी हुए। दशरथ जी कहते है, *नाथ सकल सम्पदा तुम्हारी मैं सेवक समेत सुतनारी ।* दशरथ जी का जीवन और राज्य व्यवस्था गुरु की परहीत परायणता, निस्वार्थता, परस्पर हित जैसे सिद्धांतो से सुशोभित थी, ऐसे महान गुरुभक्त के घर भगवान जन्म नही लेंगे तो किसके घर लेंगे ।रामजी की शिक्षा भी गुरुकृपा से हुई। विश्वामित्र मुनि राम लक्ष्मण को लेने दशरथजी के पास आए। वृद्धावस्था में तो संतान हुई और फूल जैसे कोमल कुमारो को जंगल में ले जाने के लिए मुनि मांग रहे थे, वह भी भयंकर राक्षसों को मारने हेतु। इतने खतरों के बीच राजा दशरथ कैसे भेज देते ? लेकिन जब गुरु वशिष्ठ जी ने कहा “महर्षि स्वयं समर्थ है किंतु ये आपके पुत्रों का कल्याण चाहते है इसलिए ये यहां आकर याचना कर रहे है।” तो दशरथ जी ने गुरुआज्ञा मानकर आदर से पुत्रों को विश्वामित्र जी के हवाले कर दिया। इससे प्रसन्न होकर विश्वामित्र जी बोले, “राजन् ! तुम धन्य हो, तुम्हारे दो गुण है… एक तो यह कि तुम रघुवंशी हो और दूसरा कि वशिष्ठ जी जैसे तुम्हारे गुरु है जिनकी आज्ञा में तुम चलते हो।”राजा दशरथ की गुरुवचनों मे ऐसी निष्ठा थी ऐसा आज्ञपालन का भाव था कि गुरुजी ने कहा तो प्राणों से भी प्रिय राम लक्ष्मण को दे दिया। इसी भाव ने राजा को विश्वामित्र जी के कोप से भी बचा लिया। राम जी को आत्मज्ञान की प्राप्ति गुरुकृपा से हुई। गुरु असीम धैर्य और दया के सागर होते है। वशिष्ठ जी ने रामजी को कभी प्रेम से समझाया, कभी डांटा, कभी प्रोत्साहन दिया, अनेक दृष्टांत देकर बताया और ज्ञानवान बना के ही छोड़ा।सबसे बड़ा पद है गुरुपद। ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी जिन्हे झुककर प्रणाम करते हैं वे गुरु अपने शिष्य को हाथ जोड़कर कहते है कि, “हे राम जी मैं तुम्हारे आगे हाथ जोड़ के प्रार्थना करता हूं कि जो कुछ मैं तुमको उपदेश करता हूं उसमे ऐसी आस्तिक भावना कीजियेगा कि इन वचनो से मेरा कल्याण होगा ।” जिस स्थिति को पाने में ऋषि मुनि पूरा जीवन लगा देते है वह स्थिति को गुरु वशिष्ठ जी ने सहज में रामजी को दिला दी।रामजी तो भगवान विष्णु के अवतार थे ज्ञातज्ञेय थे फिर भी मानव रूप में आने पर ज्ञान पाने के लिए गुरु की शरण में ही जाना पड़ा। रामजी का विवाह भी गुरुकृपा से हुआ।राजा दशरथ इतने बड़े गुरूभक्त थे तो रामजी पीछे कैसे रहते? रामजी भी कोई भी कार्य गुरुदेव को पूछे बगैर नहीं करते थे। लक्ष्मण जी को जनकपुरी देखने की इच्छा हुई तो रामजी गुरुजी की आज्ञा लेकर वहां गए। धनुष उठाने और तोड़ने का सामर्थ्य होते हुए भी जब गुरुदेव ने आज्ञा दी तब उनको प्रणाम कर धनुष तोड़ा परंतु अपने मे किसी विशेषता के अहंकार को फटकने नहीं दिया। रामजी ने धनुष तोड़ा तो गुरुआज्ञा से, विवाह किया तो गुरुआज्ञा से.. अगर कोई भी शिष्य अपने जीवन में सद्गुरु की आज्ञा ,गुरु के आदर्शो को ले आए तो उसका जीवन भी राम जी की तरह वंदनीय है और यशस्वी होगा। भगवान के चौबीस प्रमुख अवतारों में श्रीराम और श्रीकृष्ण अवतार मानव जाति के लिए विशेष प्रेरणाप्रद हो सके, क्योंकि इन दो अवतारों में भगवान ने यह दिखाया कि किस प्रकार मनुष्य गुरुकृपा से जीवन के महान लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। इसलिए स्वामी शिवानंदजी कहते है कि “सुई की छेद से ऊँट गुजर सके इससे भी अत्यधिक मुश्किल बात है गुरुकृपा के बिना ईश्वर प्राप्त करना।” जैसे छोटे छोटे झरने एवं नदियां महान पवित्र नदी गंगा से मिल जाने के कारण खुद भी पवित्र होकर पूजे जाते है और अंतिम लक्ष्य समुद्र को प्राप्त होते है… उसी प्रकार सच्चा शिष्य गुरु के पवित्र चरणों का आश्रय लेकर तथा गुरु के साथ एकरूप बनकर शाश्वत सुख को प्राप्त होता है।