आप
नित्य ज्ञान का आदर करने की गाँठ बाँध लो, अपने जीवन में व्रत ले लो । मृत्यु
जिसकी होती हैं वो हम नहीं हैं। जो मरनेवाला है, वह शरीर है। मरने के बाद भी जो
रहनेवाला है- ‘हम’, अपने ‘आप’, हर परिस्थिति के ‘बाप’। बचपन आया, बचपन की जरा-जरा गोली-बिस्किट, लॉलीपॉप, चॉकलेट, चीज-वस्तू, खिलौनों में ओ…हो…हो…हो…बड़ी राजी-नाराजी हो जाती थी लेकिन अब ये
राजी-नाराजी अनित्य है, उसको जाननेवाला नित्य है। है कि नहीं?
कितना सरल है? बहुत ऊँची बात सुन रहे हैं और
सरल है। फिर जवानी आई, पढना है, यह पेपर कठिन है, ऐसा है..
फलाना है, फलाना टेंशन है… पेपर अच्छे गए, हा..हा.. ये मेरे को आ गया, इसका ज्ञान हो गया, उसका ज्ञान हो गया… वो
भी भूल गये। पेपर आए, नहीं आए.. ये सब आ-आकर चला गया लेकिन उसको जानने वाला नित्य, ज्ञान-स्वरूप
वो सत-चेतन मेरा आत्मा अभी भी जैसा का तैसा हैं। …तो वह है सत्-स्वरूप। जो सत्-स्वरूप
है वह चेतन-स्वरूप है और जो चेतन-स्वरूप है वह आनंदरूप है, ज्ञान-स्वरूप
हैं। भगवान का एक नाम हैं सच्चिदानंद, भागवत में आता है–
सच्चिदानन्दरूपाय
विश्वोत्पत्यादि हेतवे।
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयम
नुमः।।
जो सत्-स्वरूप
हैं, चेतन-स्वरूप हैं,
आनंद-स्वरूप हैं उस परमेश्वर को हम प्रणाम करते हैं!
बोले-क्यों
प्रणाम करते हो?क्या चाहते हो?
बोले- तापत्रय
विनाशाय… ‘आदिदैविक’, ‘आदिभौतिक’ और ‘मानसिक’…
ये ताप, दुःख मिटाने के लिये…। यह जो दुःख हैं वह आदिदैविक जगत में है, आदिभौतिक में है, मानसिक जगत तक है। सच्चिदानंद-स्वरूप
में दुःख की दाल नहीं गलती। अपने जीवन में अगर व्रत नहीं है तो कच्चा घड़ा है,
कच्ची समझ है। शास्त्र कहते हैं कि जिनकी कच्ची समझ हैं उनके सारे
जीवन की जो भी उपलब्धि हैं, जैसे मिट्टी के कच्चे घड़े में सब-कुछ
बह जाता है ऐसे ही जीवन में सब-कुछ पा-पाकर उनका बह जाता है। ठनठनपाल हो जाते है क्योंकि अनित्य शरीर,
अनित्य मन, अनित्य बुद्धि, अनित्य इन्द्रियाँ, अनित्य वस्तुएँ और उसके अनित्य
ज्ञान में रमण कर-करके जिंदगी खत्म कर देते हैं लेकिन
अनित्य को जानने वाला जो है, नित्य वह सत है। बचपन बदल गया, जवानी
में क्या-क्या हुआ, बदल गया। स्वप्न में क्या-क्या आया, बदल
गया लेकिन उसको जाननेवाला नहीं बदला, वह सत है, वह चेतन है,
वह ज्ञानस्वरूप है और वह नित्य है। शरीर की अवस्था अनित्य, मन के संकल्प-विकल्प अनित्य, बुद्धि के निर्णय अनित्य
और इंद्रियों का ज्ञान अनित्य लेकिन इन सबकी गहराई में नित्य, चैतन्य, परमात्मा। उस
नित्य, ज्ञान-स्वरूप की हम उपासना करते है। कल्याण हो जायेगा। बेड़ा पार हो गया। बाहर
के धूम-धड़ाके, मंदिर के देवी-देवता सब अपनी-अपनी जगह पर हैं
लेकिन सारे मंदिरों का, सारी तपस्याओं का फल यह है कि हम
नित्य-स्वरूप, अपने सच्च्दिानंद में आएँ।
तीन बातें पक्की कर लो- मृत्यु से डरें नही-डराएँ नहीं, दूसरे को बेवकूफ बनाएँ नहीं और खुद अनित्य वस्तुओं में, अनित्य ज्ञान में बेवकूफ बनें नहीं। मैं इतना पढ़ा हूँ, मैं उतना पढ़ा हूँ लेकिन ये तो बुद्धि में है और
जरा-सा बुखार आ जाय तो भूल जाता है। मेरे पास इतना धन है, उतना
धन है, जरा-सी हवा निकल गई बाहर तो धन पड़ा रह जायेगा।
पड़ा
रहेगा माल खजाना, छोड़ त्रिया-सुत जाना है।
कर
सतसंग अभी से प्यारे, नहीं तो फिर पछताना है।।
उस
सत्-स्वरूप का संग कर जो पहले था,
अभी है, बाद में रहेगा। यह शरीर सौ वर्ष पहले
नहीं था, तीस वर्ष के बाद नहीं रहेगा लेकिन मैं इसके बाद भी रहूँगा, इसके पहले भी था। आँखों की देखने की ताकत पहले जैसी बुढ़ापे में सबकी नहीं होती,
मन की स्थिति भी पहले जैसी नहीं होती लेकिन उसको जाननेवाला तो वही का
वही है न! वही सत्-स्वरूप है। ॐ… उसमें शांत होते जाओ, फिर मन इधर-उधर जाय…
ॐ… । जितनी देर उच्चारण किया उतनी देर फिर शांत हो गये तो यह असत, जड़, दुःखरूप संसार में भटकने वाला मन, इन्द्रियाँ भी
सत्-स्वरूप में विश्रांति पाकर शुद्ध हो जायेगी।
माया के तीन गुण है। तमस गुण से शरीर की वस्तुएँ बनती है,
द्रव्य बनते है, रक्त-नस-नाडियाँ, यह-वह-सब।
माया के रजस गुण से शरीर में चेतना आती है। माया के सत्वगुण से ज्ञान इंद्रियों
में आता हैं लेकिन ये सब बदलने के बाद भी सच्च्दिानंद, ज्ञान-स्वरूप मेरा आत्मा
ज्यौं का त्यौं। छोटी-छोटी आँखे थी, नन्ही-नन्ही नाक थी, नन्ही-नन्ही उँगलियाँ थी, वह सब बदल गई। बड़ी-बड़ी दाढ़ी, बड़ी बड़ी ऑंख… बड़े-बड़े हाथ…। यह सब माया का खेल बदलता है, दिन बदलता हैं, रात बदलती है, सुख
बदलता है, दुःख बदलता है। यह सब जैसे गंगा के प्रवाह में सब बहता
है ऐसे ही सब बदलने वाला है, अनित्य है। सुख भी आ-आकर चले गये,
दुःख भी आ-आकर चले गये, चिंताएँ भी निगुरी आ-आकर
चली गई, खुशियाँ भी आ-आकर चली गई लेकिन उन सबको जाननेवाला सच्च्दिानंद
ज्यौं का त्यौं। दुःख, तब होता है जब असत शरीर में, असत
व्यवहार में, असत कल्पनाओं में सत्-बुद्धि करते है और सद्चिदानंद
के ज्ञान का पता नहीं अथवा अनादर करते हैं तभी आपको दुःख दबोचता है, तभी कर्म का बँधन दबोचता है, तभी ईश्वर से आप दूर
फेंके जाते है।
एक
बात और याद रखो कि ईश्वर दूर है, ऐसी बेवकूफी कभी स्वीकार ना करो। पराये है, दूर है, देर से मिलेंगे,
श्रम-साध्य है.. नहीं-नहीं, सो साहेब सदा हजूरे, अन्धा जानत ता
को दूरे…। वह आनंद-स्वरूप सदा हाजरा-हजूर है लेकिन उधर को बुद्धि जाती नहीं
न, विचार जाता नहीं। असत में रमण कर-करके थक जाते हैं, सो गये, फिर उसी में रमण
किया, फिर सो गये, ऐसे ही जीवन पूरा हो जाता है। सत में रमण
करने का, सत्य की तरफ आने का पक्का इरादा कर दो। सच्चिदानंद का
स्मरण करो। नित्य-ज्ञान तो है लेकिन नित्य-ज्ञान की स्मृति नहीं है। नित्य-ज्ञान
की अनुभूति दुःखों से पार कर देगी, कर्म-बँधनों से पार कर
देगी, चिंताओं से पार कर देगी, शोक से
पार कर देगी।
तरति शोकं आत्मवित… उस आत्मा को
जानने से आप शोक से पार हो जाएँगे, आकर्षणों से पार हो
जाएँगे। आप संसारी वस्तुओं से आकर्षित नहीं होंगे लेकिन संसार आपसे आकर्षित होगा
क्योंकि आप नित्य-सच्चिदानंद में रमण करने लग गये। कृष्ण, वस्तुओं पर आकर्षित नहीं
होते लेकिन कृष्ण को देखकर लोग और प्रकृति आकर्षित रहती है। आत्मा सबका अनन्य-स्वरूप
है, मूल-स्वरूप, चैतन्य।
मृत्यु से डरें नहीं-डराऍं नहीं, बेवकूफ बने नहीं-बनाऍं नहीं, दुःखी होवे नहीं और दूसरे को दुःखी करें नहीं। कौन चाहता हैं मैं ‘दुःखी’
होऊँ? कोई नहीं चाहता। कोई एक आदमी भी बोल दे कि मैनें फलाना
काम ‘दुःखी’ होने के लिए किया था अथवा करूँगा.. नहीं! फिर भी असत् शरीर में,
इंद्रियों में सुखी होने की भूल से बेचारे ‘दुःखी’ होते रहते हैं। सत
में आ जाएँ तो फिर दुःख यूँ मिटता है, चिंता-बँधन यूँ मिटता हैं, नहीं तो कितनी
डिग्रियाँ ले लो, कितनी नौकरियाँ कर लो, कितने प्रमोशन कर लो, दुःख नहीं मिटता। कभी न
छूटे पिंड दुःखों से जिसे ब्रह्म का ज्ञान नहीं। सच्चिदानंद ब्रह्म-स्वरूप
परमात्मा में आना ही पड़ेगा, हजार जन्म के बाद भी! जय-विजय वैकुंठ में थे, भगवान
नारायण का बाहर से दर्शन करते थे लेकिन नारायण-तत्व जो नित्य-ज्ञान है, उसमें नही
आए तो वैकुंठ से पतन हुआ। गोपियों को शरद-पूनम की रात को श्रीकृष्ण ने कृपा करके
सान्निध्य दिया, आनंदित तो किया लेकिन बाद में फिर गोपियॉं इस
नित्य-ज्ञान में न आई तो दुःख गया नहीं, गोपियाँ बिलख-बिलखकर रोती थी लेकिन
गोपियों में खानदानी थी कि हमारे कारण श्रीकृष्ण को तकलीफ न पड़े, यह उनमें बड़ा
भारी सदगुण था, नहीं तो बृज और मथुरा, क्या दूरी थी? लेकिन
गोपियों ने मर्यादा तोड़ी नहीं, गयी नहीं तंग करने कृष्ण को। हम जैसा चाहें ऐसा
कृष्ण करें, ऐसी गोपियों में नीच-वृत्ति नहीं थी, उनका बड़ा भारी सद्गुण था। फिर (श्रीकृष्ण
ने) उद्धव को भेजा कि नित्य का ज्ञान दे
आओ। गोपियों ने प्रेमाभक्ति की बात से उद्धव को ही प्रभावित कर दिया, ऐसी पवित्र
गोपियाँ थी।
जो दैवीय गुरु के चरणों में आश्रय लेता है वह गुरु की कृपा से आध्यात्मिक मार्ग में आने वाले तमाम विघ्नों को पार कर जायेगा । योग के लिए श्रेष्ठ एकांत स्थान गुरु का निवास स्थान है । जिस शिष्य को अपने गुरु के प्रति भक्ति-भाव है उसके लिए तो आदि से अंत तक गुरु सेवा मीठे शहद जैसी बन जाती है । गुरु माने सच्चिदानंद परमात्मा जिसने गुरुकृपा प्राप्त की है वही साधना का रहस्य जानता है । जो अपने गुरु की सेवा करता है वही परम सत्य के संपर्क में आने की कला जानता है । गुरुदेव की निरंतर सेवा करनी चाहिए क्यूंकि इससे सहज ही आत्मलाभ हो जाता है । अपने गुरुदेव के स्वरूप का थोड़ा सा चिंतन भी ईश्वर चिंतन के समान है । उनके नाम का थोड़ा सा कीर्तन भी ईश्वर के कीर्तन के बराबर है । सतगुरु का स्मरण और उन्हें ही समर्पण शिष्यों के जीवन का सार है । इस सरल किन्तु समर्थ साधना से शिष्य को सब कुछ अनायास ही मिल जाता है । भगवान कहते हैं कि *यत पादरेण उकानि का काअपी संसार वार्धे सेतू बध्यायते नाथम देशिकम तमोपास महे यस्मात नुग्रहदा लब्द्धवा महद ज्ञान मत्सृजेत तस्मय श्रीदेश केंद्राय नमश्चा भिश्ट सिद्धये* अर्थात गुरुदेव की चरण धूलि का एक छोटा सा कण सेतू बंध की भांति है, जिसके सहारे इस भव सागर को सरलता से पार किया जा सकता है और गुरुदेव की उपासना मैं करूंगा ऐसा भाव प्रत्येक शिष्य को रखना चाहिए, जिनके अनुग्रह मात्र से महान अज्ञान का नाश होता है । वे गुरुदेव सभी अभीष्ट की सिद्धि ही देने वाले हैं, उन्हें नमन करना शिष्य का कर्तव्य है । इन महामंत्रों के अर्थ शिष्यों के जीवन में प्रत्येक युग में, प्रत्येक काल में प्रकट होते रहे हैं । प्रत्येक समय में शिष्यों ने गुरु कृपा को अपने अस्तित्व में फलित हुए देखा है ऐसा ही एक उदाहरण लक्ष्मण मल्लाह का है, जो अपने युग के सिद्ध संत स्वामी भास्करानंद का शिष्य था । काशी निवासी संतों में स्वामी भास्करानंद का नाम बड़ी श्रद्धा से लिया जाता है । संत साहित्य से जिनका परिचय है वे जानते हैं कि अंग्रेजी के सुविख्यात साहित्यकार मार्क टवेन ने उनके बारे में कई लेख लिखे हैं । जर्मनी के सम्राट कैसर विलियम द्वितीय तत्कालीन प्रिंस ऑफ विल्हेम, स्वामी जी के भक्तों में से थे । भारत के तत्कालीन अंग्रेज सेनापति जनरल लोकार्ट तो उन्हें अपना गुरु मानते थे । इन सभी विशिष्ट महानुभावों के बीच भी स्वामी भास्करानंद जी का शिष्य था लक्ष्मण, जो मल्लाह जाति का था जो ना तो पढ़ा लिखा था और ना ही उसमें कोई विशेष योग्यता थी,लेकिन उसका ह्रदय सदा ही अपने गुरुदेव के प्रति विभल रहता था । भारतभर के प्राय सभी राजा, महाराजा स्वामी जी की चरण धूलि लेने में अपना सौभाग्य मानते थे । स्वयं मार्क टवेन ने उनके बारे में अपनी पुस्तक में लिखा था कि भारत का ताजमहल अवश्य ही एक विस्मय जनक वस्तु है जिसका महानिय दृश्य मनुष्य को आंनद से अभिभूत कर देता है, नूतन चेतना से उत्बुद्ध कर देता है । किन्तु मेरे गुरुदेव स्वामी भास्करानंद जी के सामने महान एवम् विस्मय कार्य जीवंत वस्तु के साथ, उसकी क्या तुलना हो सकती है । स्वामीजी के योग ऐश्वर्य से सभी चमत्कृत थे । प्रायः सभी को स्वामी जी संकट, आपदाओं से उबारते रहते थे लेकिन लक्ष्मण मल्लाह के लिए तो अपनी गुरु भक्ति ही पर्याप्त थी । गुरु के चमत्कारों से उसे कुछ विशेष प्रयोजन ना था गुरु को ही अपना इष्ट मानता और उनको ही अपना सर्वस्व मानता । गुरु चरणों की सेवा, गुरु नाम का जप यही उसके लिए सब कुछ था । श्रद्धा से विभोर होकर उसने स्वामी भास्करानंद जी की चरण धूलि इकट्ठा कर एक डिबिया में रख ली थी । स्वामी जी के खड़ाऊं उसकी पूजा बेदी में थे, इनकी पूजा करना, गुरु चरणों का ध्यान करना और गुरु चरणों की रज अपने माथे पर लगाना, उसका नित्य नियम था । इसके अलावा उसे किसी और योग विद्या का पता ना था । कठिन आसन, प्राणायाम की प्रक्रिया यें उसे कुछ नहीं पता था, मुद्राओं एवम् बंध के बारे में भी उसे बिल्कुल पता ना था । किसी मंत्र का उसे कोई ज्ञान ना था, अपने गुरुदेव का नाम ही उसके लिए महामंत्र था । इसी का वह जप करता, यदा-कदा इसी नाम धुन का वह कीर्तन करने लगता । एक दिन प्राय जब वह रोज की भांति गुरुदेव की चरण रज माथे पर धारण करके गुरुदेव का नाम जप करता हुआ, उनके चरणों का चिंतन कर रहा था तो उसके अस्तित्व में कुछ आश्चर्यकारी एवम् विस्मय जनक दृष्यावली प्रकट हो गई । उसने अनुभव किया कि दोनों भौहों के बीच गोल आकार का श्वेत प्रकाश बहुत ही सघन हो रहा है । यूं तो यह प्रकाश पहले भी कभी-2 झलकता था । यदा कदा सम्पूर्ण साधना अवधि में भी यह प्रकाश बना रहता था परन्तु आज उसकी सघनता कुछ ज्यादा ही थी । उसका आश्चर्य तो और भी ज्यादा तब हुआ जब उसने देखा कि गोल आकार के श्वेत प्रकाश में एक हल्का-सा विस्फोट सा हो गया है और उसमें श्वेत कमल की दो पंखुड़ियां खिल रही हैं । गुरु नाम की धुन के साथ ही यह दोनों पंखुड़ियां खुल गई और उसके अंदर से प्रकाश की सघन रेखा उभरी । इसी के पश्चात उसे अनायास ही अपने आश्रम में स्वामी भास्करानंद जी ध्यानस्थ बैठे हुए दिखाई देने लगे । योगविद्या से अनविघ लक्ष्मण मल्लाह को यह सब अचरज भरा लगा । दिन में जब वह गुरुदेव को प्रणाम करने गया तो उसने सुबह की सारी कथा कह सुनाई । लक्ष्मण की सारी बातें सुनकर स्वामीजी मुस्कुराए और बोले बेटा इसे आज्ञा चक्र का जागरण कहते हैं । अब से तुम जब भी भौहों के बीच में मन को एकाग्र करके जिस किसी स्थान, वस्तु या व्यक्ति का संकल्प करोगे वही तुम्हें दिखने लगेगा । स्वामी जी के इस कथन के उत्तर में लक्ष्मण मल्लाह ने कहा कि हे गुरुदेव मैं तो सदा-2 आपको ही देखते रहना चाहता हूं । मुझे तो इतना मालूम है कि मैं आपके चरणों की धूलि को भौहों के बीच में लगाया करता था । यह जो कुछ भी है आपकी चरण धूलि का ही कमाल है, अब तो यह नई बात जानकर मुझे विश्वास हो गया है कि गुरु चरणों की धूलि से शिष्य आसानी से भव-सागर पार कर सकता है । पहले तो सुना था लेकिन अब मैंने स्वयं अनुभव किया है । लक्ष्मण मल्लाह की यह अनुभूति हम सभी गुरु भक्तों की अनुभूति भी बन सकती है । बस उतना ही सघन प्रेम एवम् उत्कट भक्ति चाहिए, असंभव को संभव करने वाली गुरुवर की चेतना की महिमा अनंत ही है ।
इस प्रकार जन्मदिवस जो लोग मनाते हैं, मनवाते हैं, बहुत अच्छा है, ठीक है लेकिन उससे थोड़ा और भी आगे जाने की नितांत आवश्यकता है ।
कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु…
ऊँच और नीच योनियों में जन्म होने का कारण है गुणों का संग। ध्यान से सुनना। पौने दो करोड़ लोग का रोज धरती पर जन्म होता है। जन्मोत्सव मनाना चाहिए लेकिन विवेकपूर्ण मनाने से बहुत फायदा होता है और विवेक में अगर वैराग्य मिला दिया जाय तो और विशेष फायदा होता है। विवेक वैराग्य के साथ अगर भगवान के जन्म-कर्म को जानने वाली गति-मति हो जाय तो परम कल्याण समझो ।
कारणं
गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु… ऊँच और नीच योनियों में जन्म लेने का कारण है गुणों का संग। हम जीवन में कई बार जन्मते रहते हैं। शिशु जन्मा और शिशु की मौत हुई तो बालकपना आया । बालक का जन्म मरा तो किशोर बना, किशोर मरा तो युवक का जन्म हुआ,
युवक मरा तो वृद्ध का जन्म हुआ। मैं ‘सुखी’ हूँ तो आपका सुखमय जन्म हुआ। मैं ‘दुःखी’ हूँ, उस समय आपका दु:खमय जन्म हुआ। मैं ‘बीमार’ हूँ तो हमने अपनी बीमारी के साथ जन्म मान लिया। मैं ‘स्वस्थ’ हूँ तो स्वास्थ्य के साथ जन्म लिया। इन गुणों के साथ संग करने से सत-असत योनियों में जीव भटकता है। स्थूल शरीर को पता नहीं कि मेरा जन्म होता है और आत्मा का जन्म होता नहीं, बीच में है सूक्ष्म शरीर और सूक्ष्म शरीर जिस समय जिस भाव में होता है उसी समय उस भाव का उसका जन्म माना जाता है । मैं ‘पापी’ हूँ तो अभी पापमय जन्म है, मैं ‘पुण्यात्मा’ हूँ तो पुण्यमय जन्म है। मैं बीच में हूँ तो बीच का जन्म है और मेरे को पता ही नहीं कि क्या है सब?
कुछ समझ में नहीं आता तो अज्ञानता का जन्म है । श्रीकृष्ण सारे जन्मों से हटाकर हमको दिव्य जन्म की ओर ले जाना चाहते हैं।
गीता के चौथे अध्याय का नौवां श्लोक है:
जन्म कर्म च मे
दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः । त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन
॥ (गीता 4.9)
“अर्जुन, जो मेरे जन्म-कर्म को दिव्य और अलौकिक, ‘तत्व’ से जानता है वह शरीर त्याग कर फिर जन्मों को प्राप्त नहीं होता, मुझे ही प्राप्त हो जाता है।
भगवान में अगर जन्म और कर्म मानें तो भगवान का भगवानपना सिद्ध नहीं होता। अगर भगवान में जन्म और कर्म नहीं मानते हैं तो भगवान में क्रिया करना, आना-जाना, उपदेश देना, युद्ध करना, संधिदूत बनना अथवा हाय सीते! हाय लक्ष्मण! करना, यह संभव नहीं है। भगवान में जन्म-कर्म नहीं मानते तो क्रिया और दर्शन जो हो रहा है वह संभव नहीं है। अगर मानते हैं तो भगवान का भगवानपना सिद्ध नहीं होगा। भगवान को भी जन्म लेना पड़े और कर्म करना पड़े तो भगवान किस बात के? तो वेदांत सिद्धांत के अनुसार इसको बोलते हैं ‘विलक्षण लक्षण’। इसमें भगवान में जो जीव के लक्षण से भी मेल खाए और ईश्वर के लक्षण से भी मेल खायें और फिर भी दोनों में दिखे उसको बोलते हैं
‘विलक्षण’, अनिर्वचनीय ।
भगवान का जन्म और कर्म दिव्य कैसे हैं? बोले : अनिर्वचनीय ‘दिव्य’
है । न ईश्वर में जन्म-कर्म है न जीवत्व के बंधन और वासना है, इसलिए भगवान के जन्म
और कर्म दिव्य माने जाते हैं। भगवान के जन्म और कर्म दिव्य मानने से, जानने से
आपको भी लगेगा कि जो कर्म होते हैं तो पंचभौतिक शरीर में होते हैं, मन की मान्यता
से होते हैं। स्वरूप में उसको जानने वाला जन्म से और कर्म से ‘ज्ञान’ विलक्षण है। ‘मैं’
वह हूँ ज्ञानस्वरूप। मन में ‘दु:खीपने’ का भाव आया, उसी समय ‘मैं दुःखी’ का जन्म
हुआ। ‘सुखीपने’ का भाव हुआ तो सुख का जन्म हुआ। मैं ‘बालक हूँ’ तो ‘बालकपने’ का
जन्म हुआ, ‘मैं वृद्ध हूँ’ तो वृद्धत्व का जन्म हुआ लेकिन मैं इन सबको जानने वाला
हूँ।
संगो अयंपूरुषः केवल
निर्गुणस्य…मैं इन सब परिस्थितियों से असंग हूँ, ज्ञानस्वरूप हूँ,
प्रकाशमात्र हूँ, चैतन्यस्वरूप हूँ, आनंदस्वरूप हूँ। इस प्रकार भगवान अपने स्वत:
स्फुरित स्वभाव को जानते हैं, स्वत: सिद्ध स्वभाव को जानते हैं। ऐसे आप भी अपने
स्वत: सिद्ध स्वभाव को जान लें तो आपका जन्म और कर्म दिव्य हो जाएगा। शरीर को ‘मैं’
मानना और शरीर की अवस्था को ‘मेरी’ मानना यह जन्म है। हाथ, पैर, इंद्रियों से कर्म
होता है और उसमें कर्तृत्व मानना तो कर्म है लेकिन कर रहे हैं हाथ-पैर और ‘मैं’
उनको सत्ता देने वाला चैतन्य हूँ, इस प्रकार जानने वाले के जन्म और कर्म दिव्य हो
जाते हैं। वास्तविक में उत्तम साधक तो जानता है, हाथ-पैर काम करते हैं, आँख देखती
है, कान सुनता है, बुद्धि निर्णय करती है। इन
सब में बदलाहट होती है, देश में बदलाहट होती है। अभी हम यहां
बैठे हैं, थोड़ी देर के बाद और जगह बैठे होंगे। अभी हम 12:51 को यह बोल रहे हैं तो
12:50 भूतकाल हो गया और 12:55 भविष्य हो गया। …तो काल को भी हमारा ज्ञानस्वभाव देखता है। हम
देश से भी परे हैं, काल से भी परे हैं। यह वस्तुऍं आती है, जाती हैं, इन सब को
जानने वाले ज्ञानस्वरूप हम स्वत: सिद्ध हैं। इनके आने-जाने को भी हम देखते हैं, देश
को भी देखते हैं, काल को भी देखते हैं, वस्तु को भी देखते हैं। वह देखने वाला जो
अपने आप में स्मृति आ जाए, अपने आप में जाग जाए तो उसका जन्म-कर्म दिव्य हो जाएगा।
जिसने भगवान के जन्म और कर्म को दिव्य नहीं माना, नहीं जाना तो अपने जन्म और कर्म को दिव्य कैसे जानेगा? कैसे
मानेगा? कोई लोग बोलते हैं ‘मेरा जन्म होता है’, ‘हम मर जायेंगे’, ‘सुखी है-दुखी
है’, तो समझ लो निगुरा है निगुरा, उसको गुरु के ज्ञान का, श्रीकृष्ण के ज्ञान का
पता ही नहीं। संगात… यह संगात जो है, गुणों का संगात, सात्विक-राजस-तामस,
सात्विक-राजसमिश्रित, राजस तामस मिश्रित, सात्विक-तामसमिश्रित, इनसे जो भी विचित्र-विचित्र
कर्म बनते हैं, विचित्र-विचित्र भाव बनते हैं, यह सब बदलता
है फिर भी जो नहीं बदलता वह दिव्य स्वरूप का अधिष्ठान है, बदलाहट को जानने वाला है।
जैसे तरंग हुए, बुलबुले हुए, झाग हुए, भँवर हुए लेकिन पानी ज्यों का त्यों। ऐसे ही
मन में स्फुरणा हुआ, बुद्धि में निर्णय हुए, शरीर में बदलाहट हुई, सुखाकार-दुखाकर
वृत्तियाँ हुई लेकिन वो सब वृत्तियाँ जिस परमात्मा सत्ता से जानी जाती है, वह मैं ‘आत्मा’
हूँ, ऐसा जो जान लेता है वह मरने के बाद नीचयोनि या उच्चयोनि में भटकता नहीं है।
भगवान के स्वत:स्वभाव में, सिद्धस्वभाव में स्थित हो जाता है।
जन्म कर्म च मे
दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः । त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन
॥
अर्जुन जो मेरे जन्म-कर्म को दिव्य और अलौकिक जानता है… । लौकिक
कर्म वह होते हैं जिसमें फल की वासना होती है, कर्तृत्व का भाव हो और देह में अहं
हो तो लौकिक है लेकिन ज्ञान में ‘मैं’ है, कर्तृत्व का भान नहीं है, फल आकांक्षा नहीं है… उसके जन्म और कर्म दिव्य हो जाते हैं। महापुरुषों का जन्मोत्सव मनाने से महापुरुषों को तो कोई
फायदा-नुकसान का सवाल नहीं है लेकिन हम लोगों को फायदा होता है कि उस निमित्त हम भी
अपने जन्म को, कर्म को दिव्य बनाएँ, कर्म बंधन से छूट जाए।
अष्टावक्र मुनि ने कहा- कर्तृत्वं-भोक्तृत्वं जब तक रहेगा तब तक जीव जन्म-मरण में भटकेगा। अकर्तृत्वमभोक्तृत्वं स्वात्मनो मन्यते यदा… अपने आत्मा को अकर्ता-अभोक्ता जब मानता है उसी समय वो कर्मबंधन से छूट जाता है । वास्तविक में शुभ कर्म तो करें लेकिन शुभ कर्म का कर्ता अपने को न मानें, प्रकृति ने किया और परमात्मा की सत्ता से हुआ। अशुभ कर्म से बचें और कभी गलती से हो गए तो अशुभ कर्म के कर्तापन में न उलझें और फिर-फिर से न करें। हृदयपूर्वक उसका त्याग कर दें, प्रायश्चित हो गया। शुभ-अशुभ में अपने को न उलझाऍं। सुख और दुख में अपने को न उलझाएँ। पुण्य और पाप में अपने को न उलझाएँ। अपने ज्ञान-स्वभाव में जग जाए तो उसका जन्म-कर्म दिव्य हो जाता है।
‘बाबा हम तो संसारी हैं.. हम तो
ऐसे हैं.. हम तो वैसे हैं’।
‘अरे संसार मैं आये हैं तो संसारी है । संसारी मानकर सरकनेवाला
अपने को मत जानो, कई ऐसे संसार में रहनेवाले लोगों ने अपने जन्म-कर्म
को दिव्य बना दिया। ठाकुर मेघसिंह बड़े जागीरदार थे। जागीरदार तो थे, साथ-साथ में बड़े
सत्संगी भी थे और सत्संग के प्रभाव से वे जानते थे कि जो कुछ होता है, मंगलमय विधान
में होता है, हमारे विकास के लिए होता है, हमें जन्म और कर्म की कर्तृत्व भाव से बचना है, मंगलमय विधान-ईश्वर के विधान
में विश्वास रखना है।
अब सब दिन, सब के एक जैसे नहीं आते। ठाकुर मेघसिंह जागीरदार
थे, कोई वादा करते तो जल्दबाजी में नहीं करते। विचार करके हाँ बोलते और बोली हुई हाँ को निभाते
अथवा तो कभी अवसर मिलता तो बोले- ‘अच्छा जो ईश्वर की मर्जी होगी प्रयत्न करेंगे’ ताकि
झूठ न बोलना पड़े और अपना वचन झूठा न पड़े। मंगलमय विधान में विश्वास होने के कारण
कोई भी परिस्थिति उन्हें डावाँडोल नहीं कर सकती थी।
शारिरिक तितिक्षा सहने की योग्यता होनी चाहिए और मन में जो शास्त्रीय
नियम से ठान लिया है उसको करवाने में बुद्धि को बलवान बनाना चाहिये और जो परिस्थितियाँ
आये उसमें क्षमता आ जाये, इस प्रकार जन्म और कर्म दिव्य बनाने में सभी लोग कुशल है
सभी लोग सक्षम है, जो भी कौशल्य, चाहे उन्हें सहज में ही परमात्मा तरफ से कुशलता मिलती
है ।
मेघसिंह जागीरदार का एक सेवक था- मेरुदान चारण। सेवा तो बड़ी
तत्परता से करता था और अपने स्वामी का विश्वास भी पा लिया था लेकिन उस चारण ने कुसंग
के कारण, कुछ कर्मयोग के अनुसार समझो, उसके मन में जागीरदार
के प्रति द्वेष पैदा हो गया। रात्रि को जागीरदार रनिवास की तरफ जा रहा था और उस सेवक
मेरुदान ने खँजर निकाला, पीछे से अपने स्वामी पर प्रहार करने के लिए। मगलमय विधान मंगल
ही करता है, इस प्रकार का दृढ़ विश्वास रखने वाले, निश्चिंतता से जागीरदार जा रहे थे
लेकिन एकाएक पीछे से सेवक के हाथ में खँजर… सामने नजर डाली तो बैल भागा आ रहा है।
आगे-पीछे का सोचे इतनी देर में तो बैल आया दौड़ता-दौड़ता और ऐसा जोरों का सिंग, मेरुदान चारण की छाती में सिंग घोष दिया। धड़ाक से
गिरा, हाथ का खँजर ऐसा घूमा कि उसी की नाक कट गई, चारण की। करनी
आपो आप नी, के नेड़े के दूर… ये मंगलमय विधान है। बैल का प्रेरक कौन है?
स्वामी आ गये हैं, स्वामी को छूता नहीं है और सेवक के अंदर में गद्दारी
है तो सेवक को बैल छोड़ता नहीं है, कैसा मंगलमय विधान है? अगर
स्वामी का आयुष्य इसी ढँग से पूरा होनेवाला होता तो ऐसा भी हो सकता था। अब बेहोश…
गिरा चारण। उसके सामने रनिवास था। सेवकों को बुलाया, स्वयं भी
लगा, उठाया, अपने महल में, अपने मकान में
ले गए।
पत्नी ने देखा, चीखी ‘आपके सेवक के हाथ में इतने जोरो से पकड़ा
हुआ खंजर, मालूम होता है कि इसने आप की हत्या करने की नीच वृत्ति ठानी और भगवान ने
आपको बचाया’
बोले : ‘तू ऐसा क्यों सोचती
है? हम उसमें संदेह क्यों करें?’
लेकिन अनुमान और वार्तालाप से पत्नी को तो यह बात समझ में आ
गई थी, पति पहले ही समझे थे लेकिन ‘उसका क्या दोष है? बिचारे का ऐसा नहीं हो सकता है, तुम्हारी गलती हो सकती
है उसको गद्दार मानने की, तुम ईश्वर से माफी ले लो’।
ईश्वर से माफी मांगी। कटार के द्वारा नाक कटे हुए उस सेवक की
सेवा, चाकरी कराकर स्वस्थ तो किया लेकिन बेहोशी हालत
में से होश आया तब पति-पत्नी आपस में जो बात कर रहे थे, उस चारण ने सुनी कि हमारे लिये
इनको संदेह गया और स्वामी ने मेरे को देखा भी था और पत्नी को भी कहते हैं- ‘ऐसा तो
मैंने भी देखा था लेकिन हो सकता है कि मेरी रक्षा के लिए उन्होंने कटार पकड़ी हो, तो
तुम कभी भी इसमें संदेह नहीं करना, मेरुदान मेरा ईमानदार, वफादार सेवक है, वह मुझे खँजर मारे यह संभव नहीं। अगर मारे तभी भी ऐसा कोई विधान होगा।’
इस उदार वचनों ने… और ईश्वर की विधान में आस्था रखनेवाले वचनों
ने मेरूदान का शरीर तो नकटा रहा लेकिन मद उसका बदल गया कि मैंने इतनी-इतनी नीचता की
और स्वामी मेरी इज्जत रख रहे हैं। फूट-फूटकर
रोया कि ‘मुझ अभागे ने आपको नहीं पहचाना, आप मंगलमय विधान में सम रहने वाले सत्पुरुष
हैं, आपके कर्म दिव्य है, आपका जन्म दिव्य है! मैं तो आपका यश
देखकर जलता था। पहले तो आप के प्रति वफादारी थी, बाद में फिर आप के प्रति नफरत हुई
और मैनें तो सचमुच आप की हत्या करने के लिए खँजर पकड़ा था लेकिन मेरे को मेरी करनी
का फल मिला। अब मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ लेकिन क्षमा के साथ दंड भी चाहता हूँ, नहीं
तो मेरी आत्मा मुझे कोसेगी।’
‘चारण तुझे दंड दूँ, बिना
दंड के नहीं मानोगे?
‘नहीं स्वामी! आपके
द्वारा मुझे दंड मिलना ही चाहिये!’
‘तो मैं तीन प्रकार के दंड देता हूँ, शरीर से किसी का बुरा नहीं करना, मन से किसी का बुरा ना सोचना, बुरा ना मानना और बुद्धि से
‘कोई बुरा है’ ऐसा निश्चय ना करना, जो कुछ है मंगलमय विधान की लीला है। यह त्रिदंड साधेगा तो तू भी जन्म-कर्म की दिव्यता को पा लेगा।’ ऐसी औदार्य वाणी सुनकर मेरूदान तो चरणों में गिर पड़ा । स्नेह से उसको पकड़ कर उठाया, प्रेरित किया… ‘कर्म करने में सावधान, होने में प्रसन्न रहो।’
ऐसे पुरुषों की जीवन में केवल एक बार ही कोई घटना आकर चुप हो जाये, ऐसा नहीं है। सभी के जीवन में सभी प्रकार की घटनाएँ घटती रहती है। उनका बेटा सोलह साल का…। तीन महीने पहले शादी की थी, घोड़े से गिर पड़ा और जख्म तो आया शरीर को, वो ठीक हो गया लेकिन मस्तक को जो चोट लगी, कई इलाज करने के बाद भी वह चोट भीतर ही भीतर शरीर में जहर फैलाने में सक्षम हो रही थी। हकीम डॉक्टरों ने कहा कि कुछ घंटों का मेहमान है। उदास पुत्र को देखकर पिता बोलता है, मेघसिंह जागीरदार कि बेटा उदास क्यों है?
मैं जागीरदार हूँ, सारी जागीरी की मालकियत अब तेरी है लेकिन यह मालकियत सँभालने की
अगर तेरी प्रारब्ध नहीं है तो तू उसकी मालकियत संभालेगा जो
विश्व का जागीरदार है। जैसे कोई छोटा काम छोड़कर, छोटा ओहदा छोड़कर बड़े ओहदे की तरफ जाता है, ऐसे ही तू यह मेरी जागीरी छोड़कर परमात्मा की जागीरी का पुत्र होने जा रहा है, इसमें उदास होने की क्या जरूरत है?
जन्म तो दिखता हैं, वास्तव में जन्म है नहीं, कर्म भी दिखते हैं लेकिन कर्तापने की तुच्छ भावना से अगर तुम इस शरीर को ‘मैं’ नहीं मानो और कर्म ‘मैं कर रहा हूँ’, ऐसा अहं नहीं पालो तो तुम्हारे कर्म
और जन्म दिव्य
हो जाएंगे। अभी-अभी तुम दिव्यस्वरूप का चिंतन करो। भगवान के दिव्य मंगलमय विधान में शरीर जैसे ऐसी बुलबुले पैदा होकर, तरंग पैदा होकर मिट जाते हैं तो पानी का क्या बिगड़ा? गहने बनकर मिट जाते हैं तो सोने का क्या बिगड़ा? शरीर बन कर मिट जाये तो भी तुझ आत्मा का क्या बिगड़ा? तू तो परमात्मा का सनातन सपूत है। बात रही पुत्रवधू की… वह भी इस घर की है, लाडली है और वह भी पवित्रता से जीएगी और वह भी पति के लोक को प्राप्त होगी। तू अपने जन्म-कर्म दिव्य करके अपने दिव्य-स्वभाव में, दिव्य-स्वरूप में विलय होगा और यह भी पीछे से… । ऐश आराम भोग-विलास का जीवन इसका जल्दी से पूरा हो गया, तो इसका योग का जीवन पूरा होता है तो इसकी भी तुझे चिंता नहीं है और यह भी खानदान की संतान है। बहू को भी उपदेश दिया और बेटे को भी उपदेश दिया। देखते-देखते बेटे ने आँख बंद कर ली सदा के लिए..। बहू ने, सास ने,पिता ने और लोगों ने, यथा योग्य उसकी अंत्येष्टि की लेकिन मानों कुछ दुर्घटना नहीं घटी। ईश्वर की करनी में, ईश्वर के विधान में जब हम खड़े होते हैं ना तब छाती ठोककर रोते हैं, छाती पीटते हैं। बेटा जीना चाहिए था, मर गया… हाय-हाय! पति जीना चाहिए था चला गया..
हाय-हाय! ऐसा होना चाहिए था लेकिन नहीं हुआ.. हाय-हाय! मंगलमय विधान में, ना जाने क्या-क्या हमारी उच्च गति करने के लिए भगवान की लीलाएँ हैं। जोथारीमर्जीवोम्हारीमर्जी, जोथारीदृष्टिवोम्हारीदृष्टि…
ऐसा करनेवाले व्यक्ति के जन्म और कर्म दिव्य हो जाते हैं।
जन्मदिवस बधाई हो….. वास्तव में यह दिवस विवेक करने का दिवस है। 71 साल कैसे गये, उनमें क्या गलतियाँ हुई। 70 साल कैसे गये, उनमें क्या गलती हुई अथवा क्या अहंता आ गई । अब 71 वॉं साल
आता है तो उसमें यह गलती और अहंता न आए, इस प्रकार का सोचना, यह तो दिव्यता की तरफ है लेकिन मैं इतना धन कमाऊँगा, ऐसा करूँगा… वैसा बना कर दिखाऊँगा, ऐसा करके दिखाऊँगा, अगले साल डेढ़ करोड़ नफा निकाला था मेरी कंपनी ने,
अभी दो करोड करूंगा। अगले साल हमने 1500 करोड नफा किया था अब स्टील प्लांट बोकारो ने… हमने 2000 करोड नफा किया था । हम आपके चरण में पड़े हैं तो हमारा बोकारो स्टील प्लांट और प्रगति करेगा… तो यह न जन्म दिव्य है न
कर्म दिव्य है यह
तो अपने को उलझानेवाले प्लानिंग है। मैं अभी इतना पढ़ा हूँ , अगले साल इतना बन जाऊँगा, ऐसा बनकर दिखाऊँगा, वैसा बनकर दिखाऊँगा… तो आप कर्म के दलदल में, जन्म के दलदल में अपने को फैंकते हैं । श्रीकृष्ण के नजरिये से आप जन्म-कर्म से अपना पल्ला झाड़कर और तत्परता से करें लेकिन कर्तृत्व भाव, भोक्तृत्व भाव, फल लोलुपता, फलाकांक्षा आदि नहीं रखें । ज्ञानस्वभाव का तो कभी जन्म होता ही नहीं और उसकी मृत्यु भी नहीं होती, शरीर मर गया फिर भी मरने को जानता है। जो जानता है तो उसकी मौत कैसे होगी? शरीर का जन्म हुआ और मृत्यु हुई। अगर मृत्यु से मृत्यु हो जाती होगी तो करोड़ों बार शरीर की मृत्यु हुई तो तुम तो नहीं मरे…
तो तुम्हारे ज्ञानस्वभाव की तो कभी मृत्यु होती नहीं। केवल मैं दुखी हूँ .. मैं सुखी हूँ .. कर्म का करता हूँ .. मैं बच्चा हूँ ..मैं जवान हूँ ..मैं बुढ़ा हूँ .. मैं फलानी जाति का हूँ ..फलानी जाति का हूँ,
यह व्यवहारिक भ्रमणाऍं है । अगर भ्रमणाऍं समझ
कर बाहर से करें, जैसे रंगमंच में अपना-अपना पार्ट अदा करते हैं बाहर से करे लेकिन अंदर से जाने ‘सोहम’… मैं वो ही हूँ।सत चित आनंद
। जो पहले था, अभी है, बाद में रहेगा वह सच्चिदानंद आत्मा मैं हूँ। कर्म, हाथ से,
पैर से, शरीर से, मन से हुए । ये सारा जगत जो दिख रहा है इसको शास्त्रीय भाषा में कहा
‘विश्व’। स्थूल शरीर आपका विश्वरूप से एकाकार है,
सूक्ष्म शरीर तेजस है और कारण शरीर पारतत्व है, वो प्राज्ञ है। स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर..। कारण शरीर में नींद आती है,
सूक्ष्म शरीर में चिंतन और सपना आता है, स्थूल शरीर में कर्म होते हैं लेकिन यह अपने में मानने की गलती से आदमी के कर्म बंधनकारक होते हैं।
गुणसंग में लग जाते हैं, सत और असत योनियों में भटकाते हैं। सत्संग समझ में आ जाए तो बेटे को जन्म देने वाला, बहु को सांत्वना देने वाला और मेरूदान चारण की गद्दारी सहने वाला मेघसिंह निर्लेप नारायण के पद में स्थित हो गया तो आपको क्या घाटा है?
आपको क्या देर है? केवल विवेक जगा दो। जो नहीं है उसको नहीं मानो और जो है वह है, बस…! बचपन सच्चा नहीं है, चला गया। जो इदं बोलते हैं ना, वह सच्चा नहीं है लेकिन इदं जिससे प्रकाशित होता है वह सत्य है। यह बचपन था,
वह जवानी थी, वह किशोरावस्था थी, वह दुखद अवस्था थी, सुखद अवस्था थी,
था.. थी… जो देख रहा है,
होगा, होगी, जो दिखेगा.. वह जिससे दिखेगा वह ज्यों का त्यों है। दिखनेवाला प्रकृति का विलास है,
खिलवाड़ है, मायामात्र है।
बाबा! मेरा
मन ठीक नहीं होता, ऐसा नहीं होता… ।
बाबा ने कहा कि दुनिया में कई मन है और मेरा कुत्ता ठीक नहीं है… दुनिया में कई कुत्ते हैं उसकी चिंता नहीं है लेकिन मेरा कुत्ता है, ऐसे ही यह मेरा मन है, यह मत सोचो। मेरा भगवान है, भगवान का मैं हूँ तो फिर मन अपने-आप ठीक होता है। बे-ठीक जितना ठीक करने पडोगे उतना कूदेगा। जितना बे-ठीक की तरफ उसको जाने दोगे उतना वह ले डूबेगा। ना बे-ठीक की तरफ जाने दो,
ना ठीक करने की चिंता में पड़ो। जो ठीक है उसमें आप आ बैठो।
बोले : चाहते हैं कि सुख-दुःख, मान-अपमान में सम रहें लेकिन…..
…लेकिन क्या? जब कूड़े-करकट पर बैठोगे और चाहते हो कि मक्खियाँ नहीं भिनभिनाए तो मक्खियाँ तो भिनभिनाएगी..। मच्छर, मक्खियाँ, जीव-जंतु शरीर को ना काटे लेकिन आप बैठे हो म्युनिसिपल्टी का सारा
कूड़ा-करकट जहां पड़ा है उस ढेर पर बैठे हो और चाहते हो कि ऐसा ना हो। ऐसे ही अपने को देह में, अपने को कर्म में, अपने को गुणों में लगाकर फिर सोचते हैं कि ऐसा ना हो-ऐसा हो, वैसा ना हो-वैसा हो.. तो श्रीकृष्ण कहते हैं कि:
जन्म कर्म च मे
दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः । त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन
॥
हे अर्जुन! जो मेरे जन्म-कर्म को दिव्य और अलौकिक ‘तत्व’ से जानता है वह शरीर त्यागने पर फिर जन्म को प्राप्त नहीं होता, मुझे ही, मुझ ज्ञानस्वभव में, मुझ
चैतन्यस्वभाव में एकाकार
हो जाता है।
शास्त्र कहते हैं कि
: कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु… गुणों के साथ, परिस्थितियों के साथ हम जुड़ जाते हैं। जैसे दुख आया तो दुख के साथ जुड़े, हम दु:खी हैं, हम बच्चे हैं,
हम बीमार हैं,
हम जवान हैं… तो इनके साथ जुड़ गए न…। हम तो ज्यौं के त्यौं हैं, ये तो आते-जाते हैं
तो जुड़ने की जो आदत है कई जन्मों की, उस आदत को विवेक से उखाड़ के हटा दो। यह आदत है तो मन में है,
शरीर में है,
मुझ चैतन्य में ये कोई आदतें नहीं, मैं ज्ञान-स्वभाव, परमात्मा-सत्ता में हूँ। ॐ… तंनमामीहरिं परं ।
सभी को आज के दिन यह बात पक्की कर लेनी चाहिए कि अवतार भगवान के होते हैं,
स्फूर्ती अवतार भी होता है,
नित्य अवतार भी होता है,
नैमित्तिक अवतार भी होता है,
आवेश अवतार भी होता है,
प्रवेश अवतार भी होता है। यह भगवान के अवतारों को तुम थोड़ा जान लोगे ना तो…. अवतरति ईति अवतार:। जो ऊपर से नीचे की और आए। जैसे चक्रवर्ती राजा, बाबू के ऑफिस में आए और बाबू के कार्यालय में काम करने लगे। ऐसे ही वास्तविक में आपका भी अवतार ही है। यह अवतार है, ऐसा मनुष्य जीवन में ही समझ में आएगा। आप अकर्ता, अभोक्ता, चैतन्य है लेकिन शरीरों से जुड़ते-जुड़ते,
जुड़ते-जुड़ते
मनुष्य देह में आए। अब समझो कि मनुष्य-देह से मेरा कोई विशेष संबंध नहीं है, जैसे और देह छूट गया ऐसा यह भी छूट जाएगा। जैसे आप गाड़ी में,
बस में, ऑटो में बैठते हैं, यात्रा पूरी करते ही छोड़ देते हैं, ऑटो को, बस को, जहाज को रसोई घर में या स्नानागार में नहीं ले जाते हैं, अपने साथ नहीं रखते हैं ऐसे ही, इस शरीर को और शरीर के संबंधों को, सदा साथ में नहीं रख सकते लेकिन जो सदा साथ है उसको कभी छोड़ नहीं सकते। जिस को छोड़ नहीं सकते उसको ‘मैं’ मानने में क्या आपत्ति है। जिसको कभी छोड़ नहीं सकते उसको आप ‘मैं’ मानिये। जिसको रख नहीं सकते उसकी आसक्ति छोड़ दीजिये। रख नहीं सकते उसकी ममता-आसक्ति छोड़ दीजिये और छोड़ नहीं सकते उसको ‘मैं’ मानिये। आप ज्ञानस्वभाव को छोड़ सकते हैं क्या? दुख को जानेवाला है। ये भगवान है, भगवान हैं कि नहीं उसको जानने वाला भी मेरा ज्ञानस्वभाव चाहिए। सुख को जानने वाला भी ज्ञानस्वभाव चाहिए, तो अपना ज्ञानस्वभाव, चैतन्यस्वभाव नित्य अवतरित होता रहता है सभी परिस्थितियों में। उसीसे परिस्थितियों का पता चलता है,
परिस्थितियाँ बदल जाती है लेकिन परमात्म-सत्ता
ज्यौं
की त्यौं रहती है।
आवेश अवतार, स्फूर्ति अवतार…, जैसे परशुराम का आवेश अवतार स्फूर्ति अवतार..। जब तक राम नहीं मिलु थे, रामजी के दर्शन नहीं हुए थे तब तक उनका आवेश अवतार रहा,
रामजी मिल गए तो रामजी के साथ उनका अवतार तत्व रामजी में समा गया फिर सामान्य रहे । सदा के लिए कृष्ण के नाईं अवतार नहीं रहे। नित्य अवतार, नैमित्तिक अवतार, रावण और कंस का निमित्त लेकर जो अवतरण हुआ वह नैमित्तिक अवतार है और संतों के हृदय में जो ज्ञान-स्वभाव का, आनंद-स्वभाव का, चैतन्य-स्वभाव का लोक-मांगल्य स्वभाव का अवतरण होता रहता है उसे बोलते हैं ‘नित्य अवतार’। ऐसे ही अर्चनावतार होता है। भक्त ने हनुमानजी की उपासना की,
अब उस भक्त को कोई विरोधी शत्रु ने… हनुमान जी के ध्यान में मग्न है,
पीछे से जाकर रामपुरी… ‘आर-पार कर दूंगा लेकर तो वो मिट जाएगा। वह रामपुरी लेकर आ रहा है और भक्त की पीठ में पीछे से छुरा भोंकना है चाकू का…
हनुमानजी की मूर्ति के दो टुकड़े हो गए और गुर्राते हुए आवेशमय अवतार हुआ। हनुमानजी ने मारनेवाले को ही मारकर यमपुरी पहुँचा दिया। हनुमानजी कहीं से भागकर आए, ऐसी बात नहीं है अथवा उस भक्त ने हनुमानजी को बोला, वो नहीं है लेकिन कण-कण में जो ज्ञानसत्ता, चैतन्यसत्ता व्याप्त रही है, वह आवेश अवतार के निमित्त कभी रक्षा करने के लिए प्रगट भी हो जाती है। नृसिंह अवतार… आवेश अवतार अथवा द्रौपदी की साड़ी में प्रवेश अवतार तो इस प्रकार भगवान की सत्ता अन्तर्यामी अवतार, प्रेरणा अवतार…। आप अच्छा करते हैं फिर शांत होकर क्या करूँ, करूँ ना करूँ, मन तो कहता है करो, बुद्धि ने भी समर्थन दिया, लोगों ने भी समर्थन किया लेकिन हृदय में खटका और अंदर से आवाज आई कि नहीं करना है.. नहीं जाना है। बाद में पता चला कि अरे! बाप रे बाप!
अगर मैं उसी बस की यात्रा करता, प्रेरणा नहीं मानता, बस से नीचे नहीं उतरता तो बस मोरबी पहुँची और मोरबी का बाँध टूटा तो कई लोग बहकर मर गए, हजारों…। बाईस
हजार लोग
तो सरकारी आँकड़ा है लेकिन कितने और ज्यादा मरे होंगे, भगवान जाने। ऐसे ही भोपाल गैस कांड हुआ । तो कभी-कभी ऐसे समय में अन्तर्यामी अवतरण होता है। रेलवे स्टेशन पर बैठे थे जम्मू कश्मीर में और बापू ने प्रेरणा दी- उठो! उठो!
बाहर जाओ! बाहर जाओ! बाहर जाओ! वो बाहर गए, थोड़ी देर में धड़ाधड़ गोलियॉं आतंकवादियों ने आकर बरसाई कई लोग मर गए लेकिन वो जप-ध्यान करता था तो उसके अन्तर्यामी ने अवतरित होकर उसको बचा दिया। पूजा-पाठ, जप-ध्यान से विवेक जगता है तो अन्तर्यामी के संकेत मिलते रहते हैं। कभी-कभी तो अपना मन बदमाश होता है तो अन्तर्यामी का रूप लेकर अपने को संकेत देता है, जिसमें अहंकार हो, वासना हो,
वो संकेत अन्तर्यामी के नहीं होते।
जैसे एक लड़का गया, गुरु ने बोला- जाओ बेटा नर्मदा किनारे अनुष्ठान करो।
तप करने को नर्मदा है,
ज्ञान साधने को गंगा है,
ध्यान करने को भगवान विष्णु आदि उनके रूप हैं, वह अनुष्ठान छोड़कर आ गया।
बोले- क्यों अनुष्ठान हो गया
40 दिवस पूरा?
बोले- अरे गुरुजी, भगवान ने प्रेरणा किया कि जाओ बेटा जाओ, जल्दी से अच्छी, फलानी लड़की है, अच्छे खानदान की। उसके साथ शादी कर लो। दोनों मिलकर भजन करना, मैं राजी हो जाऊँगा।
हरामी, यह तेरा मन ही भगवान का रूप लेकर तेरे को कहता है। तो जब ऐसी प्रेरणा मिले तो आप अन्तर्यामी की प्रेरणा मत समझना। ऐसे वल्लभाचार्य ने ग्रंथ लिखा तो बोले- मेरे प्रभु अन्तर्यामी की प्रेरणा से मैंने लिखा और बिल्कुल सच्चाई से उनको अंतर-प्रेरणा हुई होगी । रामानुजाचार्य ने
भी यह ईश्वर की प्रेरणा से लिखा लेकिन दोनों में फिर संस्कार भेद से ग्रंथों में कुछ भेद दिखता है तो प्रेरणा, सत्ता तो भले भगवान की है लेकिन संस्कार अपने भी काम करते हैं। शराबी को अन्तर्यामी प्रेरणा कर रहा है कि जाओ आज ईद मनाओ, दिवाली मनाओ, बोतल लो, बाँटो और पीयो.., शराबी का मन अन्तर्यामी ऐसा बन जाएगा। भक्तों का अन्तर्यामी बन जाएगा कि चलो आज उत्सव है, कुंभ चल रहा है, जाओ गोता मारो और बापू का सत्संग सुनो… तो ये अन्तर्यामी नहीं, अंतर-संस्कार होते हैं।