शिष्य को घास के तिनके से भी अधिक नम्र होना चाहिए तभी गुरु की कृपा उस पर उतरेगी । जब शिष्य ध्यान नहीं कर सकता हो, जब आध्यात्मिक जीवन का मार्ग नहीं जान सकता हो तब उसे गुरु की सेवा करनी चाहिए, उनके आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए, उसके लिए केवल यही उपाय है । पूर्णत्व की प्राप्ति ही मानव जीवन का लक्ष्य है किन्तु मनुष्य के पर्यटन बहुत ही सीमित हैं । आंतरिक प्रसन्नता एक मात्र मानव प्रयास से नहीं अपितु गुरु कृपा से प्राप्त होती है । वे साधक धन्य हैं जिन्हें ईश्वर और गुरु कृपा प्राप्त है। भारत वर्ष में गुरु शब्द बहुत ही सम्मानित है तथा इसके साथ पवित्रता तथा उच्च ज्ञान का अर्थ संबद्ध है । इसका प्रातः अकेले प्रयोग ना करके देव शब्द के साथ प्रयोग किया जाता है । देव का अर्थ है प्रकाशित प्राणी, अतः आत्मज्ञान से सम्पन्न गुरु को गुरुदेव कहते हैं । एक सामान्य अध्यापक तथा आध्यात्मिक गुरु में महान अंतर है । गुरु के समस्त शिष्य चाहें अस्सी वर्ष के ही वृद्ध क्यूं ना हों, किन्तु अपने गुरु के समक्ष बच्चे के सदृश्य ही होते हैं । गुरुदेव अपने शिष्यों की सब प्रकार से रक्षा करते हैं एक बार एक शिष्य ने बंगाली बाबा से पूछा कि आप यह सब क्यूं करते हैं लोगों को शिष्य बनाना, उनकी रक्षा करना यह सब किस लिए । बाबा ने कहा कि योग्य विद्यार्थियों को पढ़ाने के अतिरिक्त मेरी कोई इच्छा नहीं है, मैं केवल यही करना चाहता हूं । शिष्य अपने हाथों में शुष्क समिधा को लेकर आता है वह श्रद्धा और सम्मान से प्रणाम करते हुए कहता है यह आपके चरणों में समर्पित है इस समिधा समर्पण का तात्पर्य है कि उसने उच्चत्तम ज्ञान की प्राप्ति के लिए मनसा, वाचा और कर्मणा स्वयं को श्री गुरु के चरणों में समर्पित कर दिया है । गुरु उस शुष्क समिधा को अग्नि में प्रज्जवलित करके कहते हैं कि अब मैं पथ प्रदर्शन करते हुए भविष्य में तुम्हारी रक्षा करूंगा । तदनंतर वह शिष्य को विभिन्न स्तरों की उसकी साधना और अनुशासन का मार्ग प्रशस्त करते हैं यह एक गुरु शिष्य का ऐसा विशुद्ध सम्बन्ध है जिसकी किसी भी अन्य सम्बन्ध से तुलना नहीं की जा सकती । गुरु का सर्वस्व यहां तक की शरीर, मन और आत्मा सब कुछ शिष्य का हो जाता है । गुरु मंत्रदान करते हुए कहते हैं कि यह तुम्हारा आध्यात्मिक और शाश्वत मित्र है । नित्य इस मित्र का स्मरण करो । संसार में कहीं भी रहो, कुछ भी करो हर कर्म में अपने इस मंत्र रूपी मित्र का स्मरण बनाए रखो । इसे सदैव साथ रखो, यह तुम्हारी सदा सहायता करेगा । शिष्य चाहे जितना भी चाहे किन्तु गुरु के लिए कुछ भी नहीं कर सकता क्यूंकि गुरु को किसी भी लौकिक या परलौकिक चीज की आवश्यकता नहीं होती । ऐसे करुणा मूर्ति गुरु ही भ्रांत शिष्य पर कृपा करते हैं । शिष्य कभी-2 सोचता है कि यह मेरे लिए इतना क्यूं कर रहे हैं, यह मुझसे क्या चाहते हैं । वे शिष्य से कुछ नहीं चाहते, वे कर्तव्य भावना से ही सब कुछ कर रहे हैं यही उनके जीवन का लक्ष्य है । अपने पथ-प्रदर्शन के लिए वे आपके आभार तक की कामना नहीं करते, वे केवल अपना कार्य करते हैं प्रेम की खातिर । ऐसे ही महापुरुष गुरु कहे जाते हैं वे निखिल मानवता के पथ प्रदर्शक हैं जिस प्रकार सूर्य इतनी दूर रहते हुए भी प्रकाश प्रदान करता है, उसी प्रकार से सच्चा गुरु भी अनासक्त भाव से अपना अध्यात्मिक प्रेम प्रदान करते हैं । पूज्य बापू जी के भानजे श्री शंकर भाई ने पूज्य श्री का एक संस्मरण बताते हुए कहा कि जब बापूजी आबू की नल गुफा में रहकर साधना करते थे तो मैं वहां जाता रहता था । एक बार उपवास पूरा होने के बाद बापूजी मुझे बोले, मुझे बहुत भूख लगी है तू कुछ ले आ । मैं ढूंढ़ते हुए दुकान पर गया तो केवल तीन ही केले मिले, मैं ले आया । बापूजी ने उनमें से एक केला मुझे दिया और दो केले अपने लिए रख कर दोपहर का साधना का नियम पूरा करने लगे । नियम पूरा हुआ तो सामने गौमाता आ रही थी, बापू जी ने एक केला गाय को खिला दिया । बापूजी को बहुत भूख लगी थी फिर भी उन्होंने एक केला मुझे और एक केला गाय को दे दिया, स्वयं एक ही केला खाया । बापूजी का ऐसा करुणामय हृदय, दयालु स्वभाव कि मैं तो देखता ही रह गया । दरअसल पूज्य बापूजी के लिए प्राणीमात्र उनका ही आत्मस्वरुप है इसलिए उनका यह स्वभाव सहज व स्वभाविक है । आज जो कुछ भी मानवीय संवेदना, जीवदया, परदुख कातरता, सदभाव, गव सौहार्द्रता धरती पर देखने को मिलती है वह स्वयं कष्ट सहकर दूसरों को सुख देने वाले ऐसे सर्वभूत हिते रतः महापुरुषों की तपस्या, श्रेष्ठ समझ व सत्संग का ही तो फल है ।
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गुरु से अपनी गलतियों की माफी माँगते बुल्लेशाहजी के जज्बात-ए-दिल (भाग-2)
कल हमने सुना कि कैसे इनायत शाह बुल्लेशाह से बिना बात किए ही अपने कुटीर की तरफ चल देते हैं । बुल्लेशाह भी रोता हुआ गुरु के कुटीर के सामने जा खड़ा होता है । बुल्लेशाह की एक-2 धड़कन अपनी नादानी को कोस रही थी । बिल्कुल हिम्मत नहीं थी गुरुदेव के करीब जाने की, मगर एक हौंसला बार-बार उसकी पीठ थपथपा कर क़दमों को आगे बढ़ा रहा था कि रहमत का तेरी मेरे गुनाहों को नाज है । बंदा हूं जानता हूं तू बंदा नवाज है । इन्हीं मिली-जुली और रंग-बिरंगी भावनाओं को संजो कर बुल्लेशाह इनायत शाह की कुटिया में दाखिल हुआ । प्रणाम कर उनके सामने चुप-चाप से सिमट कर बैठ गया, अब तो इनायत ने अपनी नाराजगी बिल्कुल साफ तौर पर जाहिर की । बुल्लेशाह को आया देखकर एकदम निगाहें फेर लीं । इस वक़्त उनके नयन-नक्ष निहायत किसी गहरी सोच के सांचे में ढले हुए थे । बुल्लेशाह आहिस्ते से मिमियाती आवाज़ में बोला, गुस्ताखी माफ़ कर दो गुरु जी ! आईंदा ख्याल रहेगा परन्तु गुरु जी का तख्त अडोल रहा । कोई जवाब नहीं आया, निगाहें अब भी किसी अतल गहराई को टटोलती रहीं । यह गहराई बुल्लेशाह के जज्बात-ए-दिल की ही थी, मानों इनायत की रूहानी नज़र इस गहराई की ईमानदारी परख रही हो । बुल्लेशाह समझ गया इसलिए उसने सच्चे दिल से इजहार की आवाज़ उठाई, गुरु जी ! अब मैं वाकिफ हो गया हूं कि आपके आश्रम की तामीर फकत मौहब्बत की इंटों से हुई हैं । यह आशिकी की दुनिया है, यह सबसे ऊंचा मुकाम आपके पाक कदमों में है । यहां गुरूर से तनते नहीं हैं सिर्फ सिजदे में गिरते हैं, अपनी हस्ती की मोहर को गाढ़ा नहीं करते, उसे फीका करते-करते पोंछ डालते हैं । ईमान से गुरु जी आईंदा इसी सबक की बुनियाद पर चलूंगा । बस एक बार, एक बार माफ़ कर दो , सारी बेरुखी और नाराजगी दर किनार कर बस एक बार माफ़ कर दो । संसारियों की दृष्टि से यह कैसे अजीब रिश्ता है इस दुनिया का, इधर बुल्लेशाह फिर से गलती ना करने की कसमें खाए जा रहा है, नाक रगड़ कर मिन्नतें कर रहा है और उधर हुजूर इनायत अखड अदा में तख्त पर चढ़ कर बैठे हैं । अपनी हेकड़ी में एक लफ्ज़ नहीं बोल रहे, अजी यह शिष्य है या बंधुआ मजदूरी, ये गुरु हैं या तानाशाह । संसारी ऐसे सोच सकता है, मगर ज़रा सोचिए सागर के खारेपन में आखिर ऐसी कौन सी कशिश होती है जो गंगा की मीठी धाराएं उसमें समाने को बेकरार रहती हैं । क्यूं बदहवास होकर उसकी ओर दौड़ती हैं अपना वजूद उसमें खोने के लिए । खुद को बूंद-बूंद निचोड़ कर उसमें लुटाने के लिए जैसा एक शायर ने भी कहा कि उसके खारेपन की भी कोई कशिश होगी जरूर वरना क्यूं सागर में यूं जाके गंगा मिली । आज बुल्लेशाह के जज्बात ऐसी मीठी गंगा हैं और इनायत की बेरुखी सागर का खारापन । यह बेरुखी इतनी खरी क्यूं है इसमें कशिश कैसी है यह खुद इनायत शाह ने अपने लफ़्ज़ों में बयान किया । बुल्लेशाह हम खफा इतने नहीं जितने कि तेरे लिए फिक्रमंद हैं तेरा अहंकार करना हमें नाराज नहीं चिंताग्रस्त कर देता है। अब तो इनायत शाह के माथे पर लकीरें भी उभर आई थी अपने शाह जी से निकलती इतनी संजीदगी की लू बुल्लेशाह ने पहली मर्तबा महसूस की थी वह कटघरे में खड़े किसी गुनहगार की तरह इनायत को निहारता रहा । इनायत शाह ने फिर कहा कि हम क्यूं चाहते हैं कि हमारे साधक पर गुरूर के बदनुमा दाग ना पड़ें, गुमान की काली स्याही उसे बदसूरत ना करे । क्या पता है तुझे दरअसल बुल्ले वह खुदा हमावस्त है अर्थात ईश्वर से पृथक कुछ भी नहीं । कुल कायनात में उसका नूर जज़्ब है और उसके नूर में कुल कायनात, उससे जुदा कुछ भी नहीं । यह तो फख्त इंसान की अज्ञानता है जो वह खुद को इस इलाही वजूद से जुदा समझता है उसकी बेखुदी और बेखबरी की दीवार ही मैं और तू में फर्क पैदा करती है । बुल्ले हमारी तमन्ना है कि हमारे समस्त साधक इस अहंकार की दीवार को निस्ता नावूद कर डालें । ब्रह्मज्ञान की बुनियाद पर मैं से तू तक का सफ़र तय करें । अपनी हस्ती को खत्म करते-करते उस अद्वैत ईश्वर से अभेदता प्राप्त करें, मगर बुल्ले गौर कर ! गुरुर की गढ़त इस दीवार को और पुख्ता बना देती है मैं को तू से और दूर कर देती है इसलिए जब यह गर्त तुझे नापाक करने लगी तो हम फिक्रमंद हो गए । तुझे इस कुफ्र से आगाह करने के लिए ही हमें बेरुखी के नाकाब से पोश होना पड़ा । यही है गुरु के खारेपन की कशिश, उनकी बेरुखी भी, साधक की खैर और बेहतरी के लिए उनका डांटना , खफा होना, सजा देना सब कुछ । वे साधक को इसलिए मिटाना नहीं सिखाते, इसलिए मिटना नहीं सिखाते कि उसे एक बेजुबान नुमाइंदा बना कर उस पर अपनी सल्तनत कायम कर सकें बल्कि इसलिए वे साधक को मिटना सिखाते हैं ताकि उसकी रूह इलाही सुरूर में डूब सके । इसी रूहानी राज से पर्दा उठाकर इनायत खामोश हो गए लेकिन इस वक़्त बुल्लेशाह में अलग-2 जज्बातों के तेज तर्रार उफान सबल हो उठे । एक तरफ गुरु की सुल्तानी ऊंचाई जांच कर गदगदता का ख्याल और दूसरी तरफ अपने नीच गुमान को याद कर गमगीनी का अहसास । तौबा और अफसोस के भाव, मलाल से सना, खुद के खिलाफ गुस्सा भी । गुरुजी मैं बेहद बेहूदा, बदसलूक और वाहियात किस्म का व्यक्ति हूं । गुस्ताख हूं जो अपने प्यारे शाह जी पर फिक्र मंदी का बोझ डाला । मेरे हबीब, मेरे गुरुदेव कसम है आपको परवरदिगार की अगर आज के बाद इस बेगैरत, जूतीखोर शिष्य ने आपकी नाफरमानी की या अहंकार से अकड़ कर बेवफ़ाई की तो आप इसे मनमर्जी सजा दोगे मगर अपनी पेशानी पर परेशानी की एक लकीर नहीं आने दोगे । प्रार्थना कुबूल करो गुरुजी आप मुझे मार लेना, जूते की नोक पर रखकर लताड़ देना, अपनी एडी से मसल कर खाक में दफना देना, मगर अपनी लाठी से मेरे मगरुर सिर को फोड़ना, मेरी बददिमाग शेखीखोर को सख्त से सख्त सबक सिखाना और तब तक जब तक उसका मकबरा ना तैयार हो जाए । मगर ख्वाब में भी मेरी वजह से खुद को तकलीफ मत होने देना, मेरे मौला अपने नूरानी चेहरे पर किसी परेशानी, किसी संजीदगी का आलम मत छाने देना मेरे कारण । तेरी आवाज़ में जो कहीं कमी आती है देख मेरी।आंखों में नमी आ जाती है, तेरी पेशानी पर जब कभी शिकन छाती है मेरी रूह को गमों की लकीरें छेद जाती हैं । हे मेरे रब, हे गुरुदेव हो नाराज कभी तो नाराजगी जाहिर कर देना, डांटना, मारना चाहे मुझे खत्म कर देना । परेशान हो जाओ तुम बस ऐसी सजा मत देना, तेरा गमगीन चेहरा मैं बर्दाश्त ना कर पाऊंगा । जो तू फ़िक्र में डूबा, सही मान मैं मार जाऊंगा । इसके बाद ना जाने कब तक बुल्लेशाह अपने गुरुदेव की गोद में सिर रखकर रोता ही रहा । अपनी गीली आहों और आंसुओं से उनका दामन भिगोता रहा, उधर इनायत की ममता भी पुरजोर हो उठी, दुलार भरा हाथ सहला-सहला कर प्यार लुटाने लगे । कौन कहता है कि जज़्बात महज इंसानी कौम की कमजोरी है और इसलिए सदगुरु कभी जज्बाती नहीं होते, कौन कहता है ? अरे जो एकाध नहीं समस्त इंसानी रिश्तों का दर्द अपने सीने में जज्ब किए रहते हैं जरा सोचो ऐसे सदगुरु, वह इतने रूखे-सूखे कैसे हो सकते हैं । समस्त कायनात का प्यार, समस्त कायनात की मोहब्बत एक सदगुरु के हृदय में होती है आज इनायत शाह की आंखें भी नम थी । आज गुरु के अश्रु भी कातिर होकर बुल्लेशाह के सिर पर हाथ फेरे जा रहे थे, उसकी उलझी लटें सुलझा रहे थे गुरूर के चक्कर में बुल्लेशाह उन्हें कई दिनों से अपनी मोहब्बत का प्रसाद चढ़ाना भूल गया था, इसलिए आज वे बेहद भूखे थे । बुल्लेशाह के दीवानगी भरे जज्बातों का तबीयत से भोग लगा रहे थे । उसकी अाहों को पूरी दिलचस्पी से पी रहे थे, लूट भी रहे थे और लुटा भी रहे थे यह कैसा आली और रूहानी रिश्ता है गुरु और शिष्य का ।
दिव्य श्रद्धा – 2
ध्रुव को, प्रह्लाद को पिता ने भजन करने से रोका था, लेकिन प्रह्लाद की भगवान में प्रीति थी, सत्संग सुना था। कयाधू के गर्भ में थे, 5 महीने का प्रह्लाद था माँ के गर्भ में, तो उसकी मॉं नारदजी के आश्रम में रही थी, माँ तो सत्संग सुनते झोंका खा लेती थी लेकिन वह माँ के अंदर बैठा हुआ जो प्रह्लाद था, उसको सत्संग के संस्कार पड़े। 11 वर्ष का हुआ तो पिता ने उसे रात को निगरानी करने के लिए सिपाहियों के साथ भेजा तो देखा किसी कुंभार ने निंभाडा.. आग लगाई थी.. घड़े पका रहा था.. मटके ..। अग्नि देखकर वहां गये कि क्या हुआ? आग लगी है क्या? देखा तो कुम्हार प्रार्थना किये जा रहा है कि ‘है परमात्मा! अब मेरे हाथ की बात नहीं और तू चाहे तो तेरे लिए कठिन नहीं, भगवान मैं तो नादान हूँ। मैंने तो भूल की लेकिन उस भूल को तू सुधार दे, तू दया कर, मैं जैसा हूँ, तैसा हूँ लेकिन तेरा हूँ, तू अगर चाहे तो सब हो सकता है, उन निर्दोष बच्चों को तू ही बचा सकता है।’
प्रह्लाद ने कहा: क्या बात है? क्या बोल रहे है?
बोले: हमने मटके बनाए थे, उन मटको में बिल्ली ने बच्चे दे रखे थे, सोचा कि जब मटके पकायेंगे तो ये बिल्ली के बच्चों को निकाल देंगे, उचित जगह पर रख देंगे, लेकिन भूल गये और बीच निंभाडे के बिल्ली के बच्चे रह गए और निंभाड़े को आग लगा दी गई। अब याद आया है कि अरे! वो बिचारे नन्हे-मुन्ने मासूम जल के मर जायेंगे, अब हमारे हाथ की तो बात नहीं। चारों तरफ आग ने लपटें ले ली लेकिन वह अगर चाहे तो हमारी गलती को सुधार सकता है, बचा सकता है उन बच्चों को।
प्रह्लाद ने कहा: यह क्या पागलपन की बात है? चारों तरफ आग और बिल्ली के बच्चे बच सकते हैं?
बोले: वह परमात्मा ‘‘कर्तुं शक्यं अकर्तुं शक्यं अन्यथा कर्तुं शक्यं’’। वह जो चाहे वह कर सकता है, उससे अलग भी कर सकता है और नहीं भी कर सकता है, किसी वस्तु को थाम भी सकता है।
एक जरा सा बीज देखो कैसे हरा-भरा कर देता है और कैले कैसे लगा देता है ये कैल में । एक पानी की बूँद में से कैसे राजा- महाराजा खड़ा कर देता है, वही पानी की बूँद मनुष्य बनकर रोती है, हँसती है, गाती है, आती है । और बॉयकट होता है, लेडिजकट बनता है, क्या-क्या कट बनता है। वही मनुष्य और वही कभी अच्छा-कभी बुरा, कभी अपना-कभी पराया, ऐसे करके मेरा-तेरा करके ढंगले लगा करके राख की मुट्ठी छोड़ कर भाग जाता है, यह क्या उसकी लीला का परिचय नहीं है? उसका चमत्कार नहीं है? समुद्र में बड़़वानल रहती है, वह पानी से बुझती नहीं और पेट में जठरााग्नि रहती है, वह शरीर को जलाती नहीं। गाय सूखा घाँस खाती है और चिकना-चिकना मक्खन, घी-दूध और दही बन जाता है, उसी घाँस का रूपांतरण होकर…। सर्प दूध पीता है, जहर बना देता है, मॉं रोटी खाती है और बच्चे के लिए दूध बन जाता है और जब बच्चा बड़ा हो जाता है तो दूध बंद हो जाता है, क्या यह ऑटोमेटिक सिस्टम… उसकी कितनी लीला अपरंपार है, उसकी महिमा अपरंपार है!
‘वह अगर रहमत कर दे तो यह बालक, बिल्ली के बच्चे बच सकते हैं।’
बोले : कैसे बचते हैं जरा? जब यह निंभाडा खोलो ना तब मुझे बुलाना।
कुम्हार ने कहा कि ‘राजकुमार निंभाड़ा खोलूँ तब क्या तुम्हे बुलाऊँ, मेरा तो मटके का निंभाड़ा है, कोई ईंट का ईंटवाडा नहीं कि तीन दिन चाहिए। आप सुबह आना, आप आऍंगें फिर मैं खोलूँगा।
सुबह को प्रहलाद आये और उसने भगवान का स्मरण करके अन्तर्मुख होकर अन्तर्यामी परमात्मा को प्रार्थना करते हुए निंभाड़े के चहुँ ओर से मटके हटाये और जब बीच के मटके तक पहुंचा तो देखा कि चार मटके कच्चे रह गये और उनमें से बच्चे म्याऊँ-म्याऊँ करके छलाँग मारते जिंदे बाहर निकले।
प्रहलाद ने सत्संग तो सुन रखा था, अब स्मृति आ गई। सार तो वही है। प्रहलाद का मन भगवान में लग गया, संसार से वैराग्य हो गया, मन भजन में लग गया। मन भजन में लग गया तो महाराज, विरोध हुआ लेकिन विरोध होते हुए भी भजन करता है, फिर पिता हिरण्यकश्यप ने उसे धमकाया, डाँटा, जल्लादों से धमकवाया, पर्वतों से धकेलवाया फिर भी प्रहलाद की श्रद्धा नहीं टूटी।
श्रद्धा होना कठिन है लेकिन श्रद्धा हो जाए तो टिकना कठिन है और श्रद्धा टिक गई तभी भी तत्वज्ञान होना कठिन है, जय…जय…। बिना तत्वज्ञानी गुरुओं के, महाराज प्रहलाद को पिता ने पानी में फिंकवाया तब भी देखा कि जो हरि बिल्ली के बच्चों को बचा सकता है, क्या मैं उसका बच्चा नहीं हूँ? भगवान के शरण हो गये। पानी में फिंकवाया, डूबा नहीं। पहाड़ों से गिरवाया लेकिन मरा नहीं।
आखिर लोहे के खंबे को तपाकर हिरण्यकश्यप ने कहा कि ‘तू बोलता है वो मेरा भगवान सर्वसमर्थ है, सर्वत्र है’ तो कहॉं है तेरा भगवान, दिखा? सब जगह है सर्वत्र है और चाहे जहाँ से भी प्रकट हो जाये तो जा यह लोहे के खंबे में तेरा भगवान् है तो इसको आलिंगन कर ।
और प्रह्लाद ने सच्ची भावना से तीव्र भावना से आलिंगन किया और बड़ा घोष करके खंबा फाड़ निकला और उसमें से नृसिंह अवतार का प्राकट्य हुआ। ‘यदा यदा ही धर्मस्य…’
जब भोगी का प्रभाव भक्त के प्रभाव को दबाता है और भोगियों का प्रभाव बढ़ जाता है.. जोर-जुलम बढ़ जाता है तब-तब भगवान चाहे कहीं से, किसी भी रूप में से प्रकट होने को समर्थ है। भगवान तो प्रकट हो गए लेकिन भगवान के तत्व को जानना कठिन है महाराज! जय-जय… ।
नृसिंह भगवान का अवतार हुआ, नृसिंह भगवान प्रकट हुए और हिरण्यकश्यप को गोद में लेकर बोले: बोल दिन है कि रात है? सुबह है कि शाम? न दिन है न रात है, न सुबह है न शाम है, संध्या है। मनुष्य हूँ कि राक्षस हूँ? न मनुष्य न पशु।
जो भी वरदान माँग रखे थे, इससे ना मरूँ उससे ना मरूँ, सब के सब वरदान के बावजूद भी ऐसा रूप भगवान ने धारण कर लिया कि नखों से.. न अस्त्र से शस्त्र से मरूँ, न पुरुष से मरूँ न स्त्री से मरूँ, न पुरुष न स्त्री, न नर न नारी, एकदम नृसिंह अवतार। एकदम एक्स्ट्रा वीआईपी कोटा का अवतार वह प्रगट कर सकते हैं । ऐसा जिस भक्तों के लिए भगवान अवतार धारण कर सकते हैं, ऐसे भक्त पहलाद को देखो। तत्वज्ञान नहीं हुआ तो देखो उसकी श्रद्धा कैसे डाऊन हो जाती है अब देखना…
आध्यात्मिक विष्णु पुराण की कथा में से मैं तुम्हें सुना रहा हूँ। हिरण्यकश्यप को फाड़कर भगवान ने सद्गति दे दी, राज प्रहलाद को मिला। भगवान अंतर्धान हो गए।
समय जाने के बाद शुक्राचार्य, असुरों के जो आचार्य थे, उन्होंने प्रहलाद को बोला कि ‘अरे प्रहलाद, क्या तूने बोला था विष्णु को, कि मेरे पिता को मार डालो।’
बोले: मैंने पिताजी को मारने के लिए तो नहीं कहा था, वह तो उनके जैसे वरदान दिये गये थे..
बोले: तूने तो कहा नहीं, फिर तेरे बाप को क्यों मारा उन्होंने? अगर उनकी तुम्हारे में पूरी प्रीति थी तो तेरे बाप की बुद्धि सुधार देते, तेरे बाप को मारा क्यों?
देखो श्रद्धा तो है प्रहलाद की तीव्र लेकिन श्रद्धा को हिलानेवाले लोग जब मिल जाते हैं ना तो श्रद्धा छू हो जाती है और ऐसे हजारों-हजारों मिलते ही रहते हैं। यह दुर्भाग्य है हम लोगों का कि ऐसे हमको हिलानेवाले मिलते ही रहते हैं। साधन में से श्रद्धा हिलाना, भगवान में से, गुरुमंत्र में से, गुरु में से श्रद्धा हिलाने का कोई ना कोई अभागा आदमी हमको मिलता ही रहेगा नहीं तो हमारा मन ही विरोध करेगा, तर्क-वितर्क करेगा, श्रद्धा को हिलायेगा। इसलिए श्रद्धा टिकना कठिन है ।
प्रहलाद को, जो दैत्यों का गुरु कहता है, वह तत्वज्ञानी नहीं है लेकिन व्यवहार कुशल है, संजीवनी विद्या जानता हैं। प्रभाव तो है लेकिन ब्रह्मज्ञान के सिवाय का प्रभाव किस काम का?
‘तूने जब कहा नहीं तो तेरे बाप को मार डाला और फिर भी तू उसको पूजता है, कैसा मूर्ख है? कितनी श्रद्धा, अंधश्रद्धा।’
किसी को कह दो- ‘कितनी श्रद्धा, अंधश्रद्धा’ । वो बोलेगा- ‘नहीं अंधश्रद्धा नहीं, मेरी सच्ची श्रद्धा है।’
सच्ची श्रद्धा तो बोलेगा लेकिन तुम्हारा अंधश्रद्धा बोलना भी उसकी श्रद्धा की नींव को तो जरा झकझोर देगा। शब्द असर करते हैं, देर-सवेर असर करते हैं ।
फिर दो दिन बीते, फिर बातचीत में.. ‘अच्छा तेरी श्रद्धा है? विष्णु भगवान ने मार डाला पिता को तो पिता की मृत्यु होने के बाद भी तेरे को ऐसा नहीं होता है कि उन्होंने ठीक नहीं किया? इतनी भी तेरे पास अकल नहीं, हें? इतनी भी तेरी समझ नहीं है।’
देखो, कैसे-कैसे उलट रहे हैं खोपड़ी को।
बोले- ‘हाँ, ठीक तो नहीं हुआ लेकिन अब क्या करें…।’
हिला, भीतर से हिला, जय रामजी की..
‘हॉं ठीक तो नहीं किया लेकिन अब क्या करें भगवान हैं, अच्छा तो नहीं हुआ लेकिन अब क्या करें भगवान है।’
समझो श्रद्धा के परसेंटेज डाऊन हो गये।
‘क्या करें अब भगवान छे ,गुरु छे ने चाले छे…। चाले है, गुरु है, शूँ करे बापू छे………… शूँ करे, आपणा गुरु छे जावा दो, जावा दो’ तो क्या तुम बड़ी कृपा कर रहे हो। अपने अहम के दायरे को मजबूत करके क्षमा कर रहे हो गुरु को, तुम मिट नहीं रहे हो गुरु की दृष्टि में, भगवान की दृष्टि में तुम अपने मैं को मिटा नहीं रहे हो लेकिन तुम ‘मैं’ को सुरक्षित रखकर भगवान या गुरु को माफ कर रहे हो। जय रामजी की !
ध्यान देना, यह सूक्ष्म बातें हैं । तत्वज्ञान में, साक्षात्कार में कौन सी बातें आकर हमारे… । जैसे घुन लग जाती है ना, लगती जरूर बारीक है लेकिन कितनी भी मजबूत लक्कड़ को मिट्टी में मिला देती है, ऐसे ही यह जो बातें हैं ना हिलाने वाली, लगती तो है छोटी-छोटी लेकिन परब्रह्म परमात्मा के साक्षात्कार करने के सामर्थ्य को खा कर नष्ट कर देती है । ये बेवकुफी ऐसी होती है इसलिए साक्षात्कारी महापुरुष जल्दी से तैयार नहीं हो पाते हैं क्योंकि साधक है बेचारा बाज पक्षी और लोग हैं शिकारी। किसी ना किसी भाव से, किसी ना किसी वातावरण से उसको गिरा देते हैं।
महाराज! फिर एक-दो दिन बीता कि ‘अच्छा विष्णु ने ठीक नहीं किया, कि अभी भी तेरे को लगता है कि विष्णु ने बाप को मार डाला तो ठीक हो गया । मेरा बाप मर गया विष्णु के हाथ से तो अच्छा हुआ, ऐसा लगता है क्या तेरे को ।
…कि नहीं, यह तो ठीक नहीं हुआ… उनकी बुद्धि बदल देते तो ठीक था। मार डाला, यह ठीक नहीं था।
तो अब देखा शुक्र ने कि हूँ, अब हिला है तो और थोड़ी कटु बात। श्रद्धा हिलाने वाले पहले तो गोल-गोल थोड़ी सी हिलाएंगे फिर जितने तुम हिलते जाओगे ना… बोधु होय न त्यां वाग्ये.. जे श्रद्धा हाँलवा नी वातो सांभणे ऐने ज बीजा संभावें पण जो सुनने को तैयार नहीं वो तो बोले कि हूँ अमज तो केतो थो कि बापू महारे आगण फलाणो तमारी बहु निंदा करतो थो पण मैं एने डाँट नाख्यों… हाउ हाउ केतो थो, हाउ हाउ केतो थो पण साभणवा नी थारा में योग्यता हती ऐटले तु सांभली गयो । ऐटलु बोधु हतु ने मुंडामां हलवावता तने…। गुरु महाराज यह तो आपके लिए ऐसा-ऐसा कहता था पर मेरे को बड़ा दुःख हुआ, ऐसा-ऐसा बोला, ऐसा बोला-ऐसा बोला कि सुनने में तो तेरे में कचास थी इसलिए वह सुना सका।
रामकृष्ण परमहंस के दर्शन करने कोई साधक गया, उसका चेहरा सुकड़ा हुआ था । रामकृष्ण देव उसी समय समाधि से उठे थे, निर्विकल्प समाधि से । पूछा कि क्यों मुरझाया हुआ है? क्या बात है?
…कि गुरु महाराज, मैं नाव में बैठकर आ रहा था न तो कुछ लफँगे लोग आपके लिए बुरा-बुरा बोलते थे।
बोले: क्या बोले?
सब बोलते थे कि लगन किया, बाल-बच्चा नहीं है, पत्नी से बात नहीं करते । नान्यतर जाति में… ऐसा-ऐसा गंदा-गंदा बोलते तो मेरे को बड़ा दुख हुआ ।
रामकृष्ण ने कहा कि धिक्कार है तेरे को। शास्त्रों ने कहा कि गुरु की, माता-पिता की जो निंदा करे तो उसकी जीभ काट लेना । या तो सुनना नहीं चाहिए, कान में उँगलियाँ डाल देना चाहिए और तू मेरी निंदा सुन कर फिर मेरे दर्शन करने को आया! तेरे को धिक्कार है! तेरे को क्या लाभ होगा!
अब रामाकृष्णदेव जैसे निर्विकल्प समाधि से उतरे हैं, उन महापुरुषों को क्या अपनी निंदा-प्रशंसा की परवाह लेकिन साधक का तो अहित हो जाता है। उन महापुरुषों कों निंदा और प्रशंसा की परवाह नहीं होती वह अपनी निंदा से डरते नहीं, डरते हैं तो महापुरुष बन नहीं पाते।
तो साधक अवस्था में कितने हिलाने वाले प्रसंग सहे, मान-अपमान सहा, साधक अवस्था में मान-अपमान, विरोध आप नहीं चाहते। ऐसे सब प्रक्रियाओं से जब आदमी गुजरता है तब साधक में से सिद्ध बनता है। मैं नहीं चाहता हूँ कि दाढ़ी-मूँछ रखूँ, गुरुदेव कहेंगे- दाढ़ी-मूँछ रखो। मैं चाहता हूँ कि दाढ़ी-मूँछ रखुँ, गुरुदेव कहेंगे- काटो… जय रामजी की! जिसमें हमारी ममता होगी वो तो तोड़ेंगे। मैं नहीं चाहता हूँ कि पेंट और शर्ट पहनना छोड़ दॅँ लेकिन गुरुदेव बोलेंगे- छोडो, बदलो और मैं चाहूँगा कि नहीं पहरूँ, गुरूदेव कहेंगे कि इसी में रहो…जय रामजी की! जो-जो मेरी पकड़ होगी, गुरुदेव अगर कृपा करेंगे तो जहाँ-जहाँ मेरी पकड़ होगी वहाँ ठोकर लगाएँगे। अगर श्रद्धा सात्विक होगी तो मैं अहोभाव से स्वीकार करुँगा लेकिन श्रद्धा अगर तामसी या राजसी है तो मैं विरोध करूँगा। अंदर से विरोध करूँगा, इसमें क्या? पेंट और शर्ट बदल के धोती पहनने से भगवान का दर्शन होता होगा? नहीं… धोती पहनने से भगवान का दर्शन तो नहीं होता लेकिन पकड़ छोड़ने से भगवान के दर्शन में सहाय मिलती है। श्रीराम !
उड़िया बाबा बड़े अच्छे महापुरुष हो गए । अभी तो ब्रह्मलीन हो गए, आनंदमयी माँ, उड़िया बाबा और हरि बाबा तीनों मित्र संत थे, समकालीन और वर्षों तक साथ में रहे। आनंदमयी माँ इंदिरा की गुरु। नेहरूजी भी उनको मानते थे। तो महाराज! उड़िया बाबा जो थे, एक साधक ध्यानमग्न था, जाकर उसको हिला दिया, बेवकूफ कहीं का… आश्रम में आया, चुपचाप बैठा रहता है, ध्यान करके, आँखें बंद करके भगवान के ध्यान में बैठा रहता है, क्या आँख खोलने से तेरा भगवान भाग जाता है? आश्रम की सेवा करने से क्या तेरा भगवान भाग जाता है क्या? जा, जरा खेती-वेती कर। और दूसरा हल चला रहा था तो उसको बुलाया, जब हल ही चलाना था तो घर में क्यों नहीं रहा? आश्रम में आया और फिर हलविद्या चालू कर दी, हल ही चलाना था तो घर में तेरा हल था कि?
बोला- हॉं, था।
बोले- फिर घर छोड़कर इधर आया और इधर हल चला रहा है। बैठ आंख बंद करके भजन कर।
जो हल चला रहा था उसको धमकाकर हल छुड़ा दिया और जो ध्यान में था उसको धमकाकर ध्यान छुड़ा दिया। अब हल वाला ध्यान में सफल नहीं हो रहा और ध्यान वाला हल में सफल नहीं हो रहा।
मित्र संतो ने कहा कि स्वामी जी उसका विषय था हल चलाना तो सेवा मिलती तो वह करता और इसको ध्यान में रुचि थी तो ध्यान करता।
बोले- रुचि तो बाँधती है, मैं रुचियों से पार करके जहाँ से रुचियाँ अरुचियाँ सब फीकी लगती है वहाँ पहुँचाना चाहता हूँ। मुझे हल चलाना या बिठाना लक्ष्य नहीं है, मेरा तो जीव को जगाना लक्ष्य है।
अब बताओ वो ध्यान में मग्न हो रहा है उसको हिला दिया, ध्यान छुड़ा दिया और वो हल चलाने में मग्न है लेकिन मगन महाराज एक देश में, एक वस्तु में हुआ तो ध्यान में, तत्वज्ञान में, ध्यान में एक जगह की स्थिति भी तत्वज्ञान के साक्षत्कार में बाधा है। जो ध्यान नहीं करते उनके लिए ध्यान जरूरी है लेकिन जो ध्यान की किसी स्थिति में पड़े रहते हैं तो जिंदगी पूरी हो जाएगी, साक्षात्कार नहीं होगा। इसलिए गुरुओं की बड़ी ऊँची कृपा है, गुरुओं को बड़ी ऊँची निगाहें रखनी पड़ती है, गुरुओं को ना जाने कितना-कितना ख्याल रखना पड़ता है। आप लोग जब गुरुतत्व में पहुँचेंगे ना तो पता चलेगा कि गुरु का कितना उत्तरदायित्व हो जाता है। गुरु बनना कोई बच्चों का खेल नहीं है, जैसा-तैसा आकर गुरु बन गया, कान्या मान्या कुर्र, तुम हमारे चेले हम तुम्हारे गुर्र… श्री राम।
स्वामी विवेकानंद बोलते थे कि गुरु बनना माने अपने तपस्या के कोष में से कुछ ना कुछ दान करना। आज हर भिखारी सहस्त्र (हजारों) अशर्फियाँ दान करना चाहता है, उसकी साधना का कोष तो होता नहीं, उसके पास अध्यात्मिक कोष का खजाना पूरा भरा हुआ होता नहीं, कुछ थोड़ी बहुत सूचनाएँ सुनकर, थोड़ी बहुत कथाएँ-वार्ताएँ सुनकर सब गुरु बनने लग जाते हैं।
महाराज, शुक्र ने हिलाया, किसको… प्रहलाद को । पर्वतों से गिराने पर जिसकी श्रद्धा नहीं गिरी, भगवान के प्रति श्रद्धा नहीं गिरी, पानी में फिंकवाने से जिसके जीवन की रक्षा कर दी जीवनदाता ने, उस जीवनदाता के प्रति प्रहलाद को थोड़ा हुआ कि इन्होंने यह ठीक नहीं किया! जब ईष्ट में लग जाता है कि यह ठीक नहीं किया तो तुम्हारी श्रद्धा का यह प्रदर्शन है कि नहीं? मेरी भगवान में इतनी श्रद्धा फिर भी मेरे बाप को मार डाला, यह तो अच्छा नहीं किया।
बोले- जब अच्छा नहीं किया तो ऐसे आदमी को जरा खबर पड़नी चाहिए कि…क्या किया उन्होने?
बोले कि खबर मैं कैसे पाडुं? वो भगवान है, विष्णु है!
बोले- विष्णु किसको बोलते हैं? व्हाट आर द मीनिंग आफ विष्णु? विष्णु भगवान का मतलब क्या होता है?
बोले- “वासं करोति इति वासुदेव” जो सब में बस रहा है वह वासुदेव है ।
बोले- जो सब में बस रहा है वह वासुदेव है तो वैकुण्ठ वाले को ही वासुदेव मानना बेवकूफी है कि नहीं, तेरे हृदय में भी तो वासुदेव हैं, तो हृदय के वासुदेव को मानना है कि वैकुण्ठ के वासुदेव को मानना है?
यह बात भी सच्ची है।
बोले- सच्ची बात है, तो शास्त्र में तो यहां तक लिखा है कि जब तक पिता के हत्यारे को ठीक नहीं किया जाए तब तक पुत्र को खाना, पानी पीना भी विष है, हराम है और तू मजे से राज्य कर रहा है। ऐ प्रहलाद! तेरे जैसा… ऐ, ऐ… इतनी अकल नहीं। हिप्नोटाईज कर दिया बेचारे को।
बोले- गुरु महाराज, ऐसे तो मैं ठीक करना तो चाहता हूँ लेकिन अब क्या करूँ उनकी तो बड़ी पहुँच है।
श्रद्धा तो मरी परवारी ने, ‘ठीक करना तो चाहता हूँ लेकिन अब ठीक नहीं कर सकता’ श्रद्धा हिल गई कि नहीं? महाराज! प्रहलाद को जब राज मिल गया, इंद्रियों को छुटी छोड़ दी, रजोगुण बढ़ गया, तमोगुण-रजोगुण बढ़ गया। अब वह श्रद्धा की सात्विकता से नीचे उतर आए और बहकाने वाले मिल गए।
बोले- ऐसे तो मैं विष्णु को ठीक करना चाहता हूं लेकिन वह तो है वैकुण्ठाधिपति।
बोले- क्या है? आवाहन करो। पहले तो तेरे पास कुछ था नहीं, तू अनाथ था तो उसका सहारा ले लिया, अब तो तू राजा बन गया है, इतनी फौज तेरे पास है, हिम्मत रख! अपने शास्त्रों में तो लिखा है- निर्भय बनो!
और वह निर्भय… जिन्होंने बनाया है उन्हीं के साथ वो निभर्य …. फाइटिंग के लिए तैयारी हो रही है ऐसे लोग बड़े अभागे होते हैं।
ऐसे एक महिला थी, जो सब कुछ छोड़कर घाटवाले बाबा के चरणों में पहुँच गयी थी, दिल्ली में वह शिक्षिका थी, आचार्य थी। उसका नाम था पुष्पा बहन। उसने हरिद्वार में अपना मकान खरीदा क्योंकि गुरु महाराज के रोज दर्शन करना है। ऐसे ज्ञानी के दर्शन… सारे तीर्थो का फल, सारे यज्ञों का फल, सारे तपों का फल सहज में मिल जाए ऐसे ज्ञानवान के दर्शन छोड़कर मैं दिल्ली में कब तक रहूँगी। मकान ले लिया, धीरे-धीरे वह दिल्ली से छुट्टियाँ लेकर आती रहती थी और रिटायरमेंट जल्दी लेना था उसको। मैंने एक बार देखा कि वह खट्टी आम होती है ना… केरी, कच्ची केरी। खट्टे आम के पकौड़े बनाकर घाट वाले बाबा को बोलती है- स्वामीजी मैंने बड़े प्यार से, बड़ी मेहनत से पकोड़े बनाये हैं आपके लिए, खाओ।
उन्होंने कहा- मैंने अभी दूध पिया है, दूध के ऊपर पकौड़े नहीं खाये जाते।
‘मैंने मेहनत करके बनाया है उसका क्या?’
ये श्रद्धा है? श्रद्धेय की चाहे मर्जी हो या ना हो लेकिन तुम जैसा चाहो वैसा श्रद्धेय करे तो तुम्हारी श्रद्धा है या तुम्हारी नालायकी है?