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…..तो 33 करोड़ देवता भी उसके आगे हो जायें नतमस्तक – पूज्य बापू जी


मैंने एक पौराणिक कथा सुनी है । एक बार देवर्षि नारद जी ने किसी बूढ़े को कहाः “काका ! इतने बीमार हो । संसार तो संसार है, चलो मैं तुम्हें स्वर्ग ले चलता हूँ ।”

बूढ़े ने कहाः “नारदजी ! मैं स्वर्ग दो जरूर आऊँ लेकिन मेरी एक इच्चा पूरी हो जाय बस ! मेरे दूसरे बेटे ने खूब सेवा की है । मैं जरा ठीक हो जाऊँ, बेटे का विवाह हो जाय फिर चलूँगा ।”

नारद जी ने आशीर्वाद दिया व कुछ प्रयोग बताये । काका ठीक हो गया, बेटे का विवाह हो गया । नारदजी आये, बोलेः “काका ! चलो ।”

काकाः “देखो, बहू नयी-नयी है । जरा बहू के घर झूला बँध जाय (संतान हो जाय) फिर चलेंगे ।”

महाराज ! झूला बँध गया । नारदजी आये, बोलेः “चलो काका !”

काका बोलाः “तुम्हें कोई और मिलता नहीं क्या ?”

नारदजीः “काका ! यह आसक्ति छुड़ाने के लिए मैं आ रहा हूँ । जैसे बंदर सँकरे मुँह के बर्तन में हाथ डालता है और गुड़-चना आदि मुट्ठी में भरकर अपना हाथ फँसा लेता है और स्वयं मुठ्ठी खोल के मुक्त नहीं होता । फिर बंदर पकड़ने वाले आते हैं और डंडा मार के जबरन उसकी मुठ्ठी खुलवाते हैं तथा उसके गले में पट्टा बाँध के ले जाते हैं । ऐसे ही मौत आयेगी और डंडा मारकर गले में पट्टा बाँध के ले जाय तो ठीक नहीं क्योंकि संत-मिलन के बाद भी कोई व्यक्ति नरक जाय तो अच्छा नहीं इसलिए पहले से बोल रहा हूँ ।”

“मैं नरक-वरक नहीं जाऊँगा । फिर आना, अभी जाओ ।”

नारदजी 2-4 वर्ष बाद आये, पूछाः “काका कहाँ गये ?”

“काका तो चल बसे, ढाई वर्ष हो गये ।”

नारद जी ने देखा कि वह लालिया (कुत्ता) हो के आया है, पूँछ हिला रहा है । नारदजी ने शक्ति देकर कहाः “क्या काका ! अभी लालिया हो के आये हो ! मैंने कहा था न, कि संसार में मजा नहीं है ।”

वह बोलाः “अरे ! पोता छोटा है, घर में बहू अकेली है, बहू की जवानी है, ये सुख-सुविधाओं का उपभोग करते थक जाते हैं तो रात को रखवाली करने के लिए मेरी जरूरत है । मेरा कमाया हुआ धन मेरा बेटा खराब कर देगा, बहू नहीं सँभाल सकेगी इसलिए मैं यहाँ आया हूँ और तुम मेरे पीछे पड़े हो !”

आसक्ति व्यक्ति को कैसा कर देती है ! नारदजी कुछ वर्षों के बाद फिर आये उस घर में । देखा तो लालिया दिखा नहीं, किसी से पूछाः “वह लालिया कहाँ गया ?”

“वह तो चला गया । बड़ी सेवा करता था ! रात को भौंकता था और पोता जब सुबह-सुबह शौच जाता तो उसके पीछे-पीछे वह भी जाता था तथा कभी पोते को चाट भी लेता था ।”

ममता थी पोते में । मर गया, एकदम तमस मे आया तो कौन-सी योनि में गया होगा ? नारदजी ने योगबल से देखा, ‘ओहो ! नाली में मेंढक हो के पड़ा है ।’

उसके पास गये, बोलेः “मेंढकराज ! अब तो चलो ।”

वह बोलाः “भले अब मैं नाली में रह रहा हूँ और मेरे को बहू, बेटा, पोता नहीं जानते लेकिन मैं तो सुख मान रहा हूँ कि मेरा पुत्र है, पोता है, मेरा घर है, गाड़ी है…. यह देखकर आनंद लेता हूँ । तुम मेरे पीछे क्यों पड़े हो ?”

संग व्यक्ति को इतना दीन करता है कि नाली में पड़ने के बाद भी उसे पता नहीं कि मेरी यह दुर्दशा हो रही है । अब आप जरा सोचिये कि क्या हम लोग उसी के पड़ोसी नहीं हैं ? जहाँ संग में पड़ जाता है, जहाँ आसक्ति हो जाती है वहाँ व्यक्ति न जाने कौन-कौनसी नालियों के रास्ते से भी ममता को पोसता है । आपका मन जितना इन्द्रियों के संग में आ जाता है, इन्द्रियाँ पदार्थों के संग में आ जाती है और पदार्थ व परिस्थितियाँ आपके ऊपर प्रभाव डालने लगते हैं उतना आप छोटे होने लगते हैं और उनका महत्त्व बढ़ जाता है । वास्तव में आपका महत्त्व होना चाहिए । हैं तो आप असंगी, हैं तो आत्मा, चैतन्य, अजन्मा, शुद्ध-बुद्ध, 33 करोड़ देवता भी जिसके आगे नतमस्तक हो जायें ऐसा आपका वास्तविक स्वरूप है लेकिन इस संग ने आपको दीन-हीन बना दिया ।

निःसङ्गो मां भजेद् विद्वानप्रमत्तो जितेन्द्रियः । (श्रीमद् भागवतः 11.25.34)

जितना आप निस्संग होते हैं, जितना आपका मनोबल ऊँचा है, मन शुद्ध है उतना आपका प्रभाव गहरा होता है । जो उस ब्रह्म को जानते हैं, अपने निस्संग स्वभाव को जानते हैं उनका दर्शन करके देवता लोग भी अपना भाग्य बना लेते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल-मई 2020, पृष्ठ संख्या 29,30 अंक 328-329

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धर्म के लिए कितना समय देना चाहिए ?


पूज्य बापू जी के साथ प्रश्नोत्तरी

प्रश्नः महाराज श्री ! जीवन में धर्म के लिए कितना समय देना चाहिए ?

पूज्य बापू जीः धर्म क्या है ? जो सारे ब्रह्माण्डों को धारण कर रहा है और जो तुम्हारे शरीर को धारण कर रहा है । उसके लिए कितना समय देना चाहिए ? अरे ! मनुष्य जन्म मिला है मुक्त होने के लिए और उसी के लिए समय नहीं है तो फिर काहे के लिए समय है, बंधन के लिए समय है । धर्म के लिए थोड़ा समय…. धर्म कोई स्नानागार है कि थोड़े समय में नहा धो के बाहर आ जायें । धर्म के लिए कितना समय…. नहीं, सारा समय धर्ममय हो जाय । भोजन भी धर्ममय हो जाय, भगवान को भोग लगे । निद्रा भी धर्ममय हो जाय…. भगवच्चिन्तन करते-करते । पति-पत्नी का, परिवार का पालन भी भगवान के नाते धर्ममय हो जाय । धर्म के लिए कितना समय दें, यह सवाल ही उचित नहीं है । धर्म को छोड़कर जितना समय आप जी रहे हैं, वास्तव में उतना समय आप मर रहे हैं । उतना समय आप अपने दुश्मन हो रहे हैं । धर्म को छोड़ेंगे तो अधर्म होगा, अधर्म होगा तो दुःख होगा । जहाँ-जहाँ सुख है, शांति है, आनंद वह धर्म का फल है और दुःख है, बेचैनी, अशांति वह वह बेवकूफी, अज्ञान, मूढ़ता का फल है । दैनिक जीन धर्ममय होगा तो ही वास्तव में जीवन होगा और दैनिक जीवन को धर्म में अलग करेंगे तो वह पशु-जीवन हो जायेगा । इसलिए जो कुछ भी करो, इस भाव से करो ।

 खाऊँ पिऊँ सो करूँ पूजा, हरूँ फरूँ सो करूँ परिकरमा, भाव न राखूँ दूजा ।

भोजन करें तो भी ‘अंतर्यामी परमात्मा मेरे हृदय में विराजमान हैं, उनको भोजन करा रहा हूँ… उनको भोग लगा रहा हूँ….’ इस भाव से करें । भोजन करें. चलें-फिरें…. जो भी करें, इच्छा-वासना से प्रेरित हो के नहीं, कर्ताभाव से प्रेरित हो के नहीं अपितु भगवान की प्रसन्नता के लिए और भगवद्भाव से सराबोर होकर करें तो यह प्रभु की पूजा बन जाता है ।

सृष्टि आदि में ईश्वर-सत्ता थी, अब भी है और बाद में भी रहेगी । उसके साथ तालमेल करके जो भी हरकत करेंगे, जो भी व्यवहार करेंगे वह सब धर्म है । इससे आप तो उठते जाओगे, अपने सम्पर्क में आने वालों को भी ऊँचा उठाने में सक्षम हो जाओगे । माला घुमाने अथवा मंदिर में जानेमात्र से ही भजन, धर्म पूरा नहीं हो जाता । आपका प्रत्येक व्यवहार आपकी वास्तविक उन्नति, शाश्वत उन्नति करने वाला हो, इसका नाम धर्म है ।

जीवन जीना एक कला है । कला दो मिनट के लिए ही थोड़ी सीखी जाती है । कला व्यवहार में लायें तभी तो उसका लाभ है । इसलिए जीवन का पूरा समय धर्ममय होना चाहिए । तो परमात्म-सत्ता से एकाकार होकर उसका अधिक से अधिक लाभ उठाने की व्यवस्था का नाम है ‘धर्म’ । इसलिए धर्म के लिए कुछ समय नहीं, पूरा समय देना चाहिए ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल-मई 2020 पृष्ठ संख्या 2 अंक 328-329

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एकादशी को चावल खाना वर्जित क्यों ?


पूज्य बापू जी एकादशी के बारे में एक वैज्ञानिक रहस्य बताते हुए कहते हैं- “संत डोंगरेजी महाराज बोलते थे कि एकादशी के दिन चावल नहीं खाने चाहिए । जो खाता है समझो वह एक-एक चावल का दाना खाते समय एक-एक कीड़ा खाने का पाप करता है । संत की वाणी में हमारी मति-गति नहीं हो तब भी कुछ सच्चाई तो होगी । मेरे मन मे हुआ कि ‘इस प्रकार कैसे हानि होती होगी ? क्या होता होगा ?’

तो शास्त्रों से इस संशय का समाधान मेरे को मिला कि प्रतिपदा से लेकर अष्टमी तक वातावरण में से, हमारे शरीर में से जलीय अंश का शोषण होता है, भूख ज्यादा लगती है और अष्टमी से लेकर पूनम या अमावस्या तक जलीय अंश शरीर में बढ़ता है, भूख कम होने लगती है । चावल पैदा होने और चावल बनाने में खूब पानी लगता है । चावल खाने के बाद भी जलीय अंश उपयोग में आता है । जल से बने रक्त व प्राण की गति पर चन्द्रमा की गति का प्रभाव बहुत अधिक पड़ता है क्योंकि सभी जल तथा जलीय पदार्थों पर चन्द्रमा का अधिक प्रभाव पड़ता है । अतः यदि एकादशी को जलीय अंश की अधिकतावाले पदार्थ जैसे चावल आदि खायेंगे तो चन्द्रमा के कुप्रभाव से हमारे स्वास्थ्य और सुव्यवस्था पर कुप्रभाव पड़ता है । जैसे कीड़े मरे या अशुद्ध खाया तो मन विक्षिप्त होता है, ऐसे ही चावल खाने से भी मन का विक्षेप बढ़ता है । तो अब वह वैज्ञानिक समाधान मिला कि अष्टमी के बाद जलीय अंश आंदोलित होता है और इतना आंदोलित होता है कि आप समुद्र के नजदीक डेढ़-दौ सौ किलोमीटर तक के क्षेत्र के पेड़-पौधों को अगर उन दिनों में काटते हो तो उनको रोग लग जाता है ।

अभी विज्ञानी बोलते हैं कि मनुष्य को हफ्ते में एक बार लंघन करना (उपवास रखना) चाहिए लेकिन भारतीय संस्कृति कहती हैः लाचारी का नाम लंघन नहीं… भगवान की  प्रीति हो और उपवास भी हो । ‘उप’ माने समीप और ‘वास’ माने रहना-भगवद्-भक्ति, भगवद्-ध्यान, भगवद्-ज्ञान, भगवद्-स्मृति के नजदीक आने का भारतीय संस्कृति ने अवसर बना लिया ।

उपवास कैसे खोलें ?

आप जब एकादशी का व्रत खोलें तो हलका फुलका नाश्ता या हलका फुलका भोजन चबा-चबा के करें । एकदम खाली पेट हो गये तो ठाँस के नहीं खाना चाहिए और फलों से पेट नहीं भरना चाहिए अन्यथा कफ बन जायेगा । मूँग, चने, मुरमुरा आदि उपवास खोलने के लिए अच्छे हैं । लड्डू खा के जो उपवास खोलते हैं वे अजीर्ण की बीमारी को बुलायेंगे । एकदम गाड़ी बंद हुई और फिर चालू करके गेयर टॉप में डाल दिया तो डबुक-डबुक…. करके बंद हो जायेगी ।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल-मई 2020, पृष्ठ संख्या 22 अंक 328-329

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