मनुष्य-जीवन में सुख-दुःख का कारण स्वस्वरूपविस्मरण है । इसका ही नाम अज्ञान, अविद्या या माया है, जिसके कारण मनुष्य को नाना प्रकार के कष्ट भोगने पड़ते हैं । इससे छूटने का उपाय है आत्मदर्शन । आत्मदर्शन याने आत्मज्ञान अंतःशक्ति जागने से होता है । इसके लिए ऐसे गुरु की शरण जाकर उनके कृपापात्र बनना चाहिए जो शिष्य से संसार का नहीं बल्कि जीवत्व का त्याग कराते हैं, उसके वित्त और द्रव्य को नहीं बल्कि उसकी चिंता और पाप को हर लेते हैं, घर में ही गुहा (गुफा) की शांति और एकांत का अनुभव ला देते हैं और प्रपंच में ही परमार्थ दिखाते हैं ।
गुरु परम दैवत (देवता) हैं । गुरु मंत्र चैतन्यकारक हैं । गुरु ‘पारमेश्वरी अनुग्राहिका शक्ति’ है, गुरु नव-नव उन्मेषशालिनी (नये-नये ढंग से अपने-आपको व्यक्त करने वाली) प्रतिभा है, गुरु स्वयं पराशक्ति चिति याने माँ कुण्डलिनी हैं । ऐसे सिद्ध गुरुजन से दीक्षा पाना परम सौभाग्य है । वह पाने के लिए गुरुध्यान सर्वश्रेष्ठ साधन है । गुरु ने मंत्र दिया, अंतःशक्ति जगायी, जप का विधान बताया फिर उन्हीं गुरु का ध्यान चरमप्राप्ति का कारण बनता है । श्रीगुरुदेव ने गुरुध्यान की अपूर्व विधि भी बतलायी है । उल्लसित गुरुचिंतन सिद्धयोग का प्राण है, शक्तिपात की साधना है, परमप्राप्ति का रहस्य है । गुरु के पुण्यस्मरण से श्रीगुरु चितिमय शक्तिरूप से शिष्य में अंतर-कार्य करने लगते हैं, उसके अंतर-मल को धोकर उसे शुद्ध बनाते हैं, जीव को शिव बनाते हैं । इसलिए शिष्य का कर्तव्य है – गुरुसंगत, गुरुसेवा, गुरु-आज्ञापालन । यही है सिद्धमार्ग या सिद्धयोग ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2021, पृष्ठ संख्या 10 अंक 338
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