Monthly Archives: March 2021

स्त्री इसी साधन से अपने जीवन को धन्य बना सकती है – पूज्य बापू जी


देवर्षि नारदजी को धर्मराज युधिष्ठिर ने प्रार्थना कीः “स्त्रीधर्म क्या है ? स्त्री संसार में रहते हुए, गृहस्थ-जीवन जीते हुए कैसे परम पद पा सकती है ? उसके लिए हे देवर्षि ! आपकी वाणी सुनना चाहता हूँ ।”

देवर्षि नारदजी ने परमात्मा – सनातनस्वरूप ईश्वर में, शांति में तनिक गोता मारा । ‘नारायण नारायण…’ स्मरण किया और कहाः “स्त्री को मधुर भाषण करना स्वाभाविक है । वे मधुरभाषिणी हों और पति में नारायण को देखकर पतिपरायणा हो के उनकी सेवा में अपनी वासनाओं का त्याग करके वे परम पद आसानी से पा सकती हैं ।

स्त्री लोलुपतारहति, संतुष्ट स्वभाव की हो और आलस्य-त्याग करके अपने गृहस्थोचित कार्यों में चतुर रहे । कटु वाणी और कपट से अपने को बचाये और परिस्थितियों की प्रतिकूलता हँसते-खेलते सहकर भी पति को और पति के परिजनों को पालन-पोषण में सहयोग दे तो उसका हृदयकमल खिल जाता है ।

अधिकार की लोलुपता छोड़कर कर्तव्य का आग्रह रखने वाली नारी नारायणीरूप हो जाती है । जो पत्नी पवित्रतापूर्वक पति की वाचिक, मानसिक और शारीरिक सेवा करती है तथा कोमल स्वभाव रखती है, वह भगवान नारायण की लक्ष्मीस्वरूपा अपने स्वभाव को शुद्ध बना लेती है । ऐसी नारी गृहस्थ-जीवन को देदीप्यमान करके दिव्य संतानों को और दिव्य वातावरण को जन्म देने वाली हो जाती है । साध्वी स्त्री इसी साधन से अपने जीवन को धन्य बना सकती है ।”

अपना राग किसमें मिलायें ? – पूज्य बापू जी

पतिव्रता स्त्री में सामर्थ्य कहाँ से आता है ? वह अपनी इच्छा नहीं रखती, अपना राग नहीं रखती । पति के राग में अपना राग मिला देती है । भक्त भगवान के राग में अपना राग मिला देता है । शिष्य गुरु के राग में अपना राग मिला देता है । पति का राग कैसा भी हो लेकिन पतिव्रता पत्नी अपना राग उसमें मिटा देती है तो उसमें सामर्थ्य आ जाता है । भगवान का राग यह होता है कि जीव ब्रह्म हो जाय, सद्गुरु का राग यह होता है कि जीव अपने स्वरूप में जाग जाय । जब भगवान के राग में अपना राग मिला दिया तो फिर चिंता और फरियाद को रहने की जगह ही नहीं मिलती ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2021, पृष्ठ संख्या 21 अंक 339

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जीवन में दोष किस तरह आते हैं ?


दोषों से बचना है तो जीवन में दोष किस तरह आते हैं यह बात समझना बहुत आवश्यक है । इस संदर्भ में एक घटित प्रसंग बताते हुए भी हनुमान प्रसाद पोद्दार जी कहते हैं कि ‘मेरे एक मित्र कलकत्ता (कोलकाता) में रहते थे । वे घुड़दौड़ में जाते थे । धीरे-धीरे वे क्लब में जाने लगे । कुछ दिनों बाद उनके मित्रों ने कहाः “तुम यहाँ आते हो, बातचीत करते हो, हम लोग खाते हैं पर तुम कुछ खाते-पीते नहीं, यह अच्छा नहीं लगता । तुम घर से खाना लाया करो और अपने बर्तन में निकालकर खा लिया करो ।”

यह बात उनको जँच गयी, वे ऐसा करने लगे । कुछ दिन बाद मित्रों ने समझायाः “भाई ! यह तो पक्की बनी हुई चीज है, 5-7 दिन के लिए एक साथ लाकर अलमारी में रख दो और यहाँ से ले के खा लिया करो ।” उन्होंने ऐसा ही किया ।

थोड़े दिन के बाद मित्र पुनः बोलेः “तुम जो चीज खाते हो वह यहीं अलग से बनवा लिया करो ।” ऐसा होने लगा, वे वहीं खाने लगे । होते-होते वे फिर अंडा खाने लगे । फिर मांस खाने लगे । वे बिल्कुल निरामिषभोजी (शाकाहारी) थे । अंडे, मांस से बड़ी घृणा करते थे । पर होता यही है, पहले उपेक्षा-बुद्धि होती है, फिर घृणा निकलती है, फिर उसमें यथार्थ-बुद्धि हो जाती है, फिर वह आवश्यक लगने लगता है – उसके बिना काम नहीं चलता । इस तरह जीवन में पाप आ जाता है ।”

विषयी लोगों के संग से बचने के लिए भगवान कहते हैं-

सङ्गं न कुर्यादसतां शिश्नोदरतृपां क्वचित् ।

तस्यानुगस्तमस्यन्धे पतत्यन्धानुगान्धवत् ।।

‘साधारण लोगों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जो लोग विषयों के सेवन और उदर-पोषण में ही लगे हुए हैं, उन असत् पुरुषों का संग कभी न करें क्योंकि उनका अनुगमन करने वाले पुरुष की वैसी ही दुर्दशा होती है जैसे अंधे के सहारे चलने वाले अंधे की । उसे तो घोर अंधकार में ही भटकना पड़ता है ।’ (श्रीमद्भागवतः 11.26.3)

साधकों को संगदोष से बचने के लिए सावधान करते हुए पूज्य बापू जी कहते हैं- “संयमी-सदाचारी सज्जनों, साधुपुरुषों का संग जीव को ऊर्ध्वगामी बनाता है जबकि विषयी पुरुषों का संग अधोगामी बना देता है । जो साधक हैं, पवित्र लोग हैं वे भी अगर विषयी और विकारी लोगों के बीच बैठकर भोजन करें, विषयी पुरुषों के साथ हाथ मिलावें, उनकी हाँ में हाँ करें तो साधक की साधना क्षीण हो जाती है । साधक के सात्त्विक परमाणु नष्ट हो जाते हैं ।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2021, पृष्ठ 20 अंक 339

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भगवान उसी पर खुश होते हैं – पूज्य बापू जी


भगवान उसी पर खुश होते हैं जो माता-पिता को देव समान मानता है – ‘सर्वतीर्थमयी माता, सर्वदेवमयः पिता’ और गुरु में ब्रह्मा जी को देखता है, गुरु में विष्णु जी को देखता है, गुरु को शिवजी में देखता है तथा शिवजी को गुरु में देखता है ।

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।

गुरुर्साक्षात्परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ।।

ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोः पदम् ।

मन्त्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा ।।

ऐसा जो जानता है उस पर भगवान और गुरु जो कि एक ही आत्मा है किंतु दो दिखते हैं, गुरु ज्ञान के देवता हैं एवं भगवान प्रेम के देवता हैं, अतः दोनों की प्रसन्नता से – गुरु का ज्ञान और भगवान का प्रेम एक साथ जब जीवन में आता है तो जीवन भगवान के लिए उपयोगी, समाज के लिए उपयोगी और अपने लिये भी उपयोगी हो जाता है ।

चार चीजें

मोक्ष के चारों द्वारपालों से मित्र भावना करो । जब उनसे मित्रभाव होगा तब वे मोक्षद्वार में पहुँचा देंगे और तुमको आत्मदर्शन (आत्मानुभव) होगा । उनके नाम हैं शम, संतोष, विचार एवं सत्संग । संतोष परम लाभ है । विचार परम ज्ञान है । शम (मन को रोकना) परम सुख है । सत्संग परम गति है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2021, पृष्ठ संख्या 19 अंक 339

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