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सेवा पराधीनता नहीं, स्वातंत्र्य का एक विलक्षण प्रकाश है


जब तक सेवा के लिए किसी उद्दीपन (प्रोत्साहन) की अपेक्षा रहती है तब तक सेवा नैमित्तिक है, नैसर्गिक नहीं । वह दूर रहकर भी हो सकती है और जो भी सम्मुख हो उसकी भी हो सकती है । जैसे सूर्य का प्रकाश, चन्द्रमा का आह्लाद उनकी सहज स्फूर्ति है वैसे ही सेवा आत्मा का सहज उल्लास है । आलम्बन (साधन, आश्रय) चाहे कोई भी हो, उसमें परम तत्त्व का ही दर्शन होता है । आलम्बन बनाने में अपने पूर्व संस्कार या पूर्वग्रह काम करते हैं परंतु सब आलम्बनों में एक तत्त्व का दर्शन करने से शुभ ग्रह एवं अशुभ ग्रह दोनों से प्राप्त इष्ट-अनिष्ट की निवृत्ति हो जाती है और सब नाम-रूपों में अपने इष्ट का ही दर्शन होने लगता है । अभिप्राय यह है कि सेवा न केवल चित्तशुद्धि का साधन है, प्रत्युत शुद्ध वस्तु का अनुभव भी है । अतः सेवा कोई पराधीनता नहीं है, स्वातंत्र्य का एक विलक्षण प्रकाश है, दिव्य ज्योति है ।

आप जो कुछ होना चाहते हैं, अभी हो जाइये

आप जो पाना चाहते हैं या जैसा जीवन बनाना चाहते हैं उसे आज ही पा लेने में या वैसा बना लेने में क्या आपत्ति है ? अपने जिस भावी जीवन का मनोराज्य करते हैं वैसा अभी बन जाइये । उस जीवन को प्राप्त करने के लिए अभ्यास की पराधीनता क्यों अंगीकार करते हैं ? आप जैसा जो कुछ होना चाहते हैं, अभी हो जाइये । अपने जीवन को भविष्य के गर्भ में फेंक देना कोई बुद्धिमत्ता नहीं ।

क्या आप सेवापरायण होना चाहते हैं ? तो हो जाइये न ! आपका जीवन क्या अपने से दूर है ? क्या उसके प्राप्त हो जाने में कोई देर है ? फिर दुविधा क्यों है ? सच्ची बात यह है कि आपके जीवन में कोई ऐसी वस्तु घुस आयी है, आपके अंतर्देश में किसी वस्तु या व्यक्ति की आसक्ति ने ऐसा प्रवेश कर लिया है कि आप उसका परित्याग करने में हिचकिचाते हैं । इसी से जैसा होना चाहते हैं वैसा हो नहीं पाते । आप मन के निर्माण के चक्रव्यूह में मत फँसिये, शरीर को ही वैसा बना लीजिये । मन भी वस्तुतः एक शारीरिक विकार ही है । शरीर अपने अभीष्ट स्थान पर जब बैठ जाता है तो मन भी अपनी उछल-कूद बंद कर देता है । पहले मन ठीक नहीं होता, मन को ठीक किया जाता है । आप जो सेवाकार्य कर रहे हैं वह आपकी साधना है । सम्पूर्ण जीवन को उसमें परिनिष्ठित करना है । अतः साध्य स्थिति को बारम्बार अनुभव का विषय बनाना ही साध्य में स्थित होना है ।

अमृतबिंदुः पूज्य बापू जी

छोटा काम करने से व्यक्ति छोटा नहीं होता, बड़ा काम करने से व्यक्ति बड़ा नहीं होता; बड़ी समझ से व्यक्ति बड़ा होता है और छोटी समझ से छोटा होता है ।

व्यर्थ का बोलना, व्यर्थ का खाना, व्यर्थ के विकारों को पोषण देना – जिस दिन यह अच्छा न लगे उस दिन समझ लेना कि भगवान, गुरु और हमारे पुण्य – तीनों की कृपा एक साथ उतर रही है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2021, पृष्ठ संख्या 17 अंक 342

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परिस्थितियों के असर से रहें बेअसर – पूज्य बापू जी


अनुकूलताएँ और प्रतिकूलताएँ आयें तो तुम उनमें फंसो मत, नहीं तो वे तुम्हें ले डूबेंगी । जो दुनिया की ‘तू-तू, मैं-मैं’ से प्रभावित नहीं होता, जो दुनियादारों की निंदा-स्तुति से और दुनिया के सुख-दुःख से प्रभावित नहीं होता, वह दुनिया को हिलाने में और जगाने में अवश्य सफल हो जाता है ।

सुविधा-असुविधा यह इन्द्रियों का धोखा है, सुख-दुःख यह मन की वृत्तियों का धोखा है और मान-अपमान यह बुद्धिवृत्ति का धोखा है । इन तीनों से बच जाओ तो संसार आपके लिए नंदनवन हो जायेगा, वैकुंठ हो जायेगा । वास्तव में तुम वृत्तियों, परिस्थितियों से असंग हो, द्रष्टा, चेतन, नित्य, ज्ञानस्वरूप, निर्लेप नारायण हो । कहीं जाना नहीं है, कुछ पाना नहीं है, कुछ छोड़ना नहीं है, मरने के बाद नहीं वरन् आप जहाँ हो वहीं-के-वहीं और उसी समय चैतन्य, सुखस्वरूप, ज्ञानस्वरूप में सजग रहना है बस ! ॐकार व गुरुमंत्र का जप, सजगता व सत्कर्म और आत्मवेत्ता पुरुष की कृपा एवं सान्निध्य से परम पद में जगना आसान है ।

लौहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल एक बार रेल के दूसरे दर्जे में यात्रा कर रहे थे । डिब्बे में भीड़भाड़ नहीं थी वरन् वे अकेले थे । इतने में स्टेशन पर गाड़ी रुकी और एक अंग्रेज माई आयी । उसने देखा कि ‘इनके पास तो खूब सामान-वामान है ।’ वह बोलीः “यह सामान देकर तुम चले जाओ, नहीं तो मैं शोर मचाऊँगी । राज्य हमारा है और तुम ‘इंडियन’ हो । मैं तुम्हारी बुरी तरह पिटाई करवाऊँगी ।”

जो व्यक्ति परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होता वह परिस्थितियों को प्रभावित कर देता है । सरदार पटेल को युक्ति लड़ाने में देर नहीं लगी । उऩ्होंने माई की बात सुनी तो सही किंतु ऐसा स्वाँग किया कि मानो वे गूँगे-बहरे हैं । वे इशारे से बोलेः “तुम क्या बोलती हो वह मैं नहीं सुन पा रहा हूँ । तुम जो बोलना चाहती हो वह लिखकर दे दो ।”

उस अंग्रेज माई ने समझा कि ‘यह बहरा है, सुनता नहीं है ।’ अतः उसने लिखकर दे दिया । जब चिट्ठी सरदार के हाथ में आ गयी तो वे खूब जोर से हँसने लगे । अब माई बेचारी क्या करे ? उसने धमकी देना चाहा था (किंतु अपने हस्ताक्षर वाली (हस्तलिखित) चिट्ठी देकर खुद ही फँस गयी ।

ऐसे ही प्रकृति माई से हस्ताक्षर करवा लो तो फिर वह क्या शोर मचायेगी ? क्या पिटाई करवायेगी और क्या तुम्हें जन्म-मरण के चक्कर में डालेगी ? इस प्रकृति माई की ये ही तीन बातें हैं- शीत-उष्ण, सुख-दुःख और मान-अपमान । इनसे अपने को अप्रभावित रखो तो विजय तुम्हारी है । किंतु गलती यह करते हैं कि साधन भी करते हैं और असाधन भी साथ में रखते हैं । सच्चे भी बनना चाहते हैं और झूठ भी साथ में रखते हैं । भले बने बिना भलाई खूब करते हैं और बुराई भी नहीं छोड़ते हैं । विद्वान भी होना चाहते हैं और बेवकूफी भी साथ में रखते हैं । भय भी साथ में रखते हैं और निर्भय भी होना चाहते हैं । आसक्ति साथ में रखकर अनासक्त होना चाहते हैं इसीलिए परमात्मा का पथ कठिन हो जाता है । कठिन नहीं है, परमात्मा दूर नहीं, दुर्लभ नहीं, परे नहीं, पराया नहीं है ।

अतः अपने स्वभाव में जागो । ‘स्व’ भाव अर्थात् ‘स्व’ का भाव, ‘पर’ भाव नहीं । सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख, मान-अपमान आदि ‘पर’ भाव हैं क्योंकि ये शरीर, मन और बुद्धि के हैं, हमारे नहीं । सर्दी आयी तब भी हम थे, गर्मी आयी तब भी हम हैं । सुख आया तब भी हम थे और दुःख आया तब भी हम हैं । अपमान आया तब भी हम थे और मान आया तब भी हम हैं । हम पहले भी थे, अब भी हैं और बाद में भी रहेंगे । अतः सदा रहने वाले अपने इसी ‘स्व’ भाव में जागो ।

शरीर की अनुकूलता और प्रतिकूलता, मन के सुखाकार और दुःखाकार भाव, बुद्धि के रागाकार और द्वेषाकार भाव – इनको आप सत्य मत मानिये । ये तो आने जाने वाले हैं, बनने मिटने वाले हैं, बदलने वाले हैं लेकिन अपने ‘स्व’ भाव को जान लीजिये तो काम बन जायेगा । जितना-जितना व्यक्ति जाने-अनजाने ‘स्व’ के भाव में होता है उतना-उतना वह परिस्थितियों के प्रभाव के अप्रभावित रहता है और जितना वह अप्रभावित रहता है उतना ही आत्मस्वभाव में विश्रांति पाकर पुनीत होता है ।

अमृतबिंदु – पूज्य बापू जी

जब विघ्न बाधाएँ आयें तो अपने को दीन-हीन और निराश नहीं मानना चाहिए बल्कि समझना चाहिए कि वे अंतर्यामी परमात्मा हमारे हृदय में प्रकट होना चाहते हैं, हमारी छुपी हुई जीवन की शक्तियाँ खोलकर वे जीवनदाता हमसे मिलना चाहते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2021, पृष्ठ संख्या 12, अंक 342

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ऐसा होता है उत्तम श्रद्धालु


सात्त्विक, शुद्ध श्रद्धावाले व्यक्ति ही सर्वोत्तम श्रद्धालु हैं । उत्तम श्रद्धालु का पथ-प्रदर्शन सद्गुरुदेव ही करते है और ये श्रद्धालु सर्वभावेन (सब प्रकार से) सद्गुरुदेव के ही आश्रित होकर रहते हैं इसीलिए श्रद्धालु सदा निर्भय, निश्चिंत होते हैं ।

श्रद्धालु के हृदय में सद्गुरुदेव के अतिरिक्त और किसी को स्थान नहीं मिलता । वह सरलता एवं सद्भाव पूर्वक अपना पूरा जीवन सद्गुरु के हाथों में देकर अपना सब कुछ सुरक्षित और सार्थक समझता है ।

गुरुदेव की वाणी सुनने के लिए श्रद्धालु की सभी इन्द्रियाँ मौन (चंचलतारहित) रहती हैं, मन भी शांत रहता है और बुद्धि सावधानी से गुरुप्रदत्त ज्ञान को ग्रहण करती है । श्रद्धालु अपने हानि-लाभ, पतन-उत्थान की चिंता नहीं करता । जो कुछ आता है उनकी इच्छा समझकर स्वीकार करता है, जो कुछ जाता है उसे भी  उनकी इच्छा समझ के जाने देता है और जो कुछ नहीं भी मिलता उसे भी उन्हीं के रुचि में छोड़ते हुए संतुष्ट रहता है ।

श्रद्धालु निरंतर अपने श्रद्धास्पद की अदृश्य शक्ति को अपने साथ अनुभव करता है और अपनी रक्षा के विषय में निश्चिंत रहता है । श्रद्धालु का शरीर कहीं भी रहे परंतु वह हृदय से अपने आराध्य को दृढ़ता से पकड़े रहता है । उसकी बुद्धि में उन्हीं का ज्ञान रहता है, मन में उन्हीं के सद्भाव रहते हैं, तदनुसार प्रत्येक क्रिया सद्भावानुरक्षित होने के कारण सुंदर फल देती है परंतु श्रद्धालु प्रत्येक प्राप्त फल को श्रद्धास्पद की सेवा में निवेदित करते हुए ही संतुष्ट रहता है ।

श्रद्धालु अपने प्रभु के प्रेम से इस प्रकार धनी होता है और कुछ चाहता ही नहीं, उसमें अभाव का ही अभाव हो जाता है । वह अटूट धैर्य एवं सुंदर भाव की गम्भीरता में दृढ़ रहकर श्रद्धास्पद के दर्शाये हुए सत्य लक्ष्य (परमात्मप्राप्ति) की ओर बढ़ता जाता है । श्रद्धालु पग-पग पर अपने प्रभु की दया का अनुभव करता है, वह दया की याचना नहीं करता । वह जिधर देखता है, उनकी दया से ही अपने को सुरक्षित पाता है । जिस प्रकार भीतर से संसार से पूर्ण विरक्त और सत्य से पूर्ण अनुरक्त संत-सत्पुरुष कहीं-कहीं दिखाई देते हैं, उसी प्रकार संसार में उत्तम श्रद्धावाले प्रेमी, जिज्ञासु भी कहीं-कहीं मिलते हैं ।

जिसका अंतःकरण सरल एवं शुद्ध है उसी में सात्त्विक श्रद्धा प्रकाशित होती है । संत-सद्गुरु की समीपता में रहकर जो उनकी आज्ञानुसार सदाचरणरूपी सेवा करता है, उसी की श्रद्धा सात्त्विक होती है । जो स्वच्छंद, स्वेच्छाचारी नहीं होता, जो अपने श्रद्धेय प्रभु की सेवा में अपनी रुचि-विरुचि कुछ भी नहीं सोचता, उसी की सर्वोत्तम श्रद्धा होती है ।

अपनी सेवाओं का मूल्य नहीं चाहना, फल की आशा नहीं रखना – यही उत्तम श्रद्धालु में त्याग होता है । अपने प्रभु के संकेतानुसार चलने में कही भी आलस्य न करना और कर्तव्यपालन में प्रमादी न होना, सदा प्रसन्न रहकर सेवा-धर्म में तत्पर रहना – यही उत्तम श्रद्धालु का तप है । इस प्रकार के त्याग और तप से उत्तम श्रद्धालु पवित्रता एवं शक्ति से सम्पन्न होता है ।

जो उत्तम श्रद्धालु अपनी बुद्धिमत्ता का गर्व नहीं करते और सदा अपने प्रभु के सम्मुख अपनी बुद्धि को निष्पक्ष रख सकते हैं, जो विनम्र और दयालु हो के, क्षमावान और सहनशील हो के सभी प्राणियों पर हितदृष्टि रखते हुए शुद्ध व्यवहार करते हैं, वे ही यथार्थ ज्ञानी होते हैं । उत्तम श्रद्धालु जगत की वस्तुओं के वास्तविक रूप को जान लेते हैं अतएव वे मोही नहीं होते । वे स्वार्थलोलुप भी नहीं होते इसीलिए रागी अथवा द्वेषी नहीं होते वरन् पूर्ण प्रेमी होते हैं और इसी कारण उत्तम श्रद्धालु पूर्ण तृप्त होते हैं ।

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।

ज्ञानं लब्धवा परां शांतिमचिरेणाधिगच्छति ।।

‘श्रद्धावान, आत्मज्ञानप्राप्ति के साधनों में लगा हुआ और जितेन्द्रिय पुरुष आत्मज्ञान को प्राप्त करता है तथा आत्मज्ञान को प्राप्त करके वह शीघ्र ही परम शांति को प्राप्त हो जाता है ।’ (गीताः 4.31)

आप जितना चाहें उतने महान हो सकते हैं – पूज्य बापू जी

आपके अंदर ईश्वर की असीम शक्ति पड़ी है । वटवृक्ष का बीज छोटा दिखता है, हवा का झोंका भी उसको इधर-से-उधर उड़ा देता है किंतु उसी बीज को अवसर मिल जाय तो वह वृक्ष बन जाता है और सैंकड़ों पथिकों को आराम कराने की योग्यता प्रकट हो जाती है, सैंकड़ों पक्षियों को घोंसला बनाने का अवसर भी वह देता है । ऐसे ही जीवात्मा में बीजरूप से ईश्वर की सब शक्तियाँ छुपी हैं, यदि उसको सहयोग (ब्रह्मवेत्ता महापुरुष का सत्संग-सान्निध्य आदि) मिले तो जितन ऊँचा उठना चाहे, जितना महान होना चाहे उतना वह हो सकता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2021, पृष्ठ संख्या 12 अंक 342

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