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….इसी का नाम मोक्ष है ।


हिमालय की तराई में एक ब्रह्मनिष्ठ संत रहते थे । वहाँ का पहाड़ी राजा जो धर्मात्मा. नीतिवान और मुमुक्षु था, उनका शिष्य हो गया और संत का पास आकर उनसे वेदांत-श्रवण किया करता था  । एक बार उसके मन में शंका उत्पन्न हुई । उसने संत से कहाः ″गुरुदेव ! माया अनादि है तो उसका नाश होना किस प्रकार सम्भावित है ? और माया का नाश न होगा तो जीव को मोक्ष कैसे प्राप्त होगा ?″

संत ने कहाः ″तेरा प्रश्न गम्भीर है ।″ राजा अपने प्रश्न का उत्तर पाने को उत्सुक था ।

वहाँ के पहाड़ में एक बहुत पुरानी, कुदरती बड़ी गुफा थी । उसके समीप एक मन्दिर था । पहाड़ी लोग उस मन्दिर में पूजा और मनौती आदि किया करते थे । पत्थर की चट्टानों से स्वाभाविक ही बने होने से वह स्थान विकट और अंधकारमय था एवं अत्यंत भयंकर मालूम पड़ता था ।

संत ने मजदूर लगवाकर उस गुफा को सुरंग लगवा के खुदवाना आरम्भ किया । जब चट्टानों का आवरण हट गया तब सूर्य का प्रकाश स्वाभाविक रीति से उस स्थान में पहुँचने लगा ।

संत ने राजा को कहाः ″बता, यह गुफा कब की थी ?″

राजाः ”गुरुदेव ! बहुत प्राचीन थी, लोग इसको ‘अनादि गुफा कहते थे ।″

″तू इसको अनादि मानता था या नहीं ?″

″हाँ, अनादि थी ।″

″अब रही या नहीं रही ?″

″अब नहीं रही ।″

″क्यों ?″

″जिन चट्टानों से यह घिरी थी उन चट्टानों के टूट जाने से गुफा न रही ।″

″गुफा का अन्धकार भी तो अनादि था, वह क्यों न रहा ?″

राजाः ″आड़ निकल जाने के कारण सूर्य का प्रकाश जाने लगा और इससे अन्धकार भी न रहा ।″

संतः ″तब तेरे प्रश्न का ठीक उत्तर मिल गया । माया अनादि है, अन्धकारस्वरूप है किन्तु जिस आवरण से अँधेरे वाली है उस आवरण के टूट जाने से वह नहीं रहती ।

जिस प्रकार अनादि कल्पित अँधेरा कुदरती गुफा में था उसी प्रकार कल्पित अज्ञान जीव में है । जीवभाव  अनादि होते हुए भी अज्ञान से है । अज्ञान आवरण रूप में है इसलिए अलुप्त परमात्मा का प्रकाश होते हुए भी उसमें नहीं पहुँचता है ।″

जब राजा गुरु-उपदेश द्वारा उस अज्ञानरूपी आवरण को हटाने को तैयार हुआ और उसने अपने माने हुए भ्रांतिरूप बंधन को खो के वैराग्य धारण कर अज्ञान को मूलसहित नष्ट कर दिया, तब ज्ञानस्वरूप का प्रकाश यथार्थ रीति से होने लगा, यही गुफारूपी जीवभाव का मोक्ष हुआ ।

माया अनादि होने पर भी कल्पित है इसलिए कल्पित भ्रांति का बाध (मिथ्यापन का निश्चय) होने से अज्ञान नहीं रह सकता और जब अज्ञान नहीं रहता तब अनादि अज्ञान में फँसे हुए जीवभाव का मोक्ष हो जाता है । अनादि कल्पित अज्ञान का छूट जाना और अपने वास्तविक स्वरूप-आत्मस्वरूप में स्थित होना इसी का नाम मोक्ष है । चेतन, चिदाभास और अविद्या इन तीनों के मिश्रण का नाम जीव है । तीनों में चिदाभास और अविद्या कल्पित, मिथ्या हैं, इन दोनों (चिदाभास और अविद्या) का बाध होकर मुख्य अद्वितीय निर्विशेष शुद्ध चेतन मात्र रहना मोक्ष है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2021, पृष्ठ संख्या 24, 25 अंक 343

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अभागे आलू से सावधान !


″आलू रद्दी से रद्दी कन्द है । इसका सेवन स्वास्थ्य के लिए हितकारी नहीं है । तले हुए आलू का सेवन तो बिल्कुल ही न करें । आलू का तेल व नमक के साथ संयोग विशेष हानिकारक है । जब अकाल पड़े, आपातकाल हो और खाने को कुछ न मिले तो आलू को आग में भून कर केवल प्राण बचाने के लिए खायें ।″ – पूज्य बापू जी ।

आचार्य चरक ने सभी कंदों में आलू को सबसे अधिक अहितकर बताया है । आलू को तेल में तलने से वह विषतुल्य काम करता है । आधुनिक अनुसंधानों के अनुसार उच्च तापमान पर या अधिक समय तक आलू को तेल में तलने से स्वाभाविक ही एक्रिलामाइड का स्तर बढ़ता है, जो कैंसर-उत्पादक तत्त्व सिद्ध हुआ है । कुछ शोधकर्ताओं ने तले हुए आलू के अधिक सेवन से मृत्यु दर में वृद्धि होती पायी । इसका सेवन मोटापा व मधुमेह का भी कारण बन सकता है ।

हाल में सूरत आश्रम के हमारे गुरुभाई रूपाभाई का देहावसान हुआ तब पूज्यश्री ने उनके लिए कहा कि ″वह कर्मयोगी, बहादुर एवं आखिरी साँस तक निभाने वाला था, उसने ऊँचे लोक की प्राप्ति की ।″ ऐसे हमारे समाज हितैषी गुरुभाई रूपाभाई तथा राजूभाई दिलखुश, राजूभाई गोगड़, अशोक जी जाट एवं और भी कई भक्तों को अभागे आलू की वानगियों ने हमारे बीच से छीन लिया ।

आलू का भूल कर भी सेवन न करें । पहले के खाये हुए आलू का शरीर पर कुप्रभाव पड़ा हो तो उसे निकालने के लिए रात को 3-4 ग्राम त्रिफला चूर्ण या 3-4 त्रिफला टेबलेट पानी से लेना हितकारी होगा ।

पूज्य बापू जी को पहले फालसीपेरम मलेरिया हुआ था जो एलोपैथिक दवाओं से मिटा लेकिन उन दवाओं से 5 साइड इफेक्ट्स हुए तब पूज्यश्री  ने भी त्रिफला रसायन बनवा के 40-40 दिन का प्रयोग किया था । इससे 5 में से 4 साइड इफेक्ट्स – आँखों का तिरछापन, कानों का बहरापन, यकृत (लिवर) व गुर्द (किडनी) की समस्या ये ठीक हुए । 20-22 साल पुराना ट्राइजेमिनल न्यूराल्जिया, जिसे ‘सुसाइड डिसीज़’ भी कहते हैं (इसकी भयंकर पीड़ा का विवरण इंटरनेट पर भी देख सकते हैं ), वह भी त्रिफला रसायन से नियंत्रण में है । पूज्यश्री अब भी कभी-कभी त्रिफला लेते रहते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2021, पृष्ठ संख्या 32, अंक 343

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यह संस्कृति मनुष्य को कितना ऊँचा उठा सकती है !


वेद-वेदांगादि शास्त्रविद्याओं एवं 64 कलाओं का ज्ञान प्राप्त करने के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने अपने गुरुदेव सांदीपन जी से निवेदन कियाः “गुरुदक्षिणा लीजिये ।”

गुरुदेव ने मना किया तो श्रीकृष्ण ने विनम्र निवेदन करते हुए कहा कि “आप गुरुमाता से भी पूछ लीजिये ।” तब पत्नी से सलाह करके आचार्य ने कहाः “हमारा पुत्र प्रभास क्षेत्र में समुद्र में स्नान करते समय डूब गया था । हमारा वही बेटा ला दो !”

भगवान समुद्र तट पर गये तो समुद्र ने कहा कि “पंचजन नामक एक असुर हमारे अंदर शंख के रूप में रहता है, शायद उसने चुरा लिया होगा ।”

भगवान ने जल में प्रवेश करके उस शंखासुर को मार डाला पर उसके पास भी जब गुरुपुत्र को न पाया तो वह शंख लेकर वे यमपुरी पहुँचे और वहाँ जाकर उसे बजाया ।

यमराज ने उनकी पूजा की और बोलेः “हे कृष्ण ! आपकी हम क्या सेवा करें ?”

श्रीकृष्णः तुम्हारे यहाँ हमारे गुरु का पुत्र आया है अपने कर्मानुसार । उसको ले आओ हमारे पास ।”

यमराज बोलेः “यह कौन सा संविधान (कानून) है ?”

“वह हम कुछ नहीं जानते, हमारा आदेश मानो । अरे, हमारे गुरु ने हमसे माँगा है । हमने कहाः ‘मांगिये’ और उन्होंने माँगा । इसके बाद संविधान की पोथी देखते हो ? संविधान कुछ नहीं, हमारी आज्ञा । …मत् शासनपुरस्कृतः – तुम मेरी आज्ञा स्वीकार करो ।” (श्रीमद्भागवतः 10.45.45)

यमराज ने वह गुरुपुत्र वापस दे दिया । भगवान ने उसे ले जाकर गुरुजी को दे दिया और बोलेः “गुरुदेव ! यह तो गुरुमाता ने माँगा था । आपने तो माँगा ही नहीं है । अब आप अपनी और से कुछ माँग लीजिये ।”

गुरु जी बोलेः “बेटा ! महात्माओं को माँगना पसंद नहीं है ।”

माँगना तो वासनावान का काम है । ‘हमको यह चाहिए और यह चाहिए ।’ वासना भगवान के साथ जुड़ गयी, वासना का ब्याह भगवान के साथ हो गया तो वह उनकी हो गयी और यदि वह भी अपने अधिष्ठान में बाधित (मिथ्या) हो गयी तो वह निष्क्रिय हो गयी । प्रतीयमान होने पर भी उसको कोई प्रतीति नहीं है ।

गुरुजी बोलेः “आपका मैं गुरु हो गया । अब भी क्या कुछ माँगना बाकी रह गया ? अब हम देते हैं, तुम हमको मत दो ।”

“आप क्या देते हैं ?”

“अपने घऱ जाओ, तुम्हारी पावनी कीर्ति हो, तुम लोक-परलोक में सर्वत्र सफल होओगे । वेद-पुराण-शास्त्र जो तुमने अध्ययन किये हैं, वे बिल्कुल ताजे ही बने रहें । जब हम तुम्हारे गुरु हो गये तो तुमने हमें सब दक्षिणा दे दी । अब हमारे लिये क्या बाकी है ?”

यह भारतीय संस्कृति का मनुष्य है जो भगवान का बाप, भगवान का गुरु बनने तक की यात्रा कर लेता है और भगवान को भी लोक-परलोक में सफल होने के लिए आशीर्वाद देने की योग्यता रखता है । हमारा सौभाग्य है कि हम भारतीय संस्कृति में जन्मे हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2021, पृष्ठ संख्या 10 अंक 343

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