Monthly Archives: September 2021

आरती क्यों करते हैं ?


हिन्दुओं के धार्मिक कार्यों में, संध्योपासना तथा किसी भी मांगलिक पूजन में आरती का एक विशेष स्थान है । शास्त्रों में जो आरती को ‘आरात्रिक’ अथवा ‘नीराजन’ भी कहा गया है ।

पूज्य बापू जी वर्षों से न केवल आरती की महिमा, विधि, उसके वैज्ञानिक महत्त्व  आदि के बारे में बताते रहे हैं बल्कि अपने सत्संग-समारोहों में  सामूहिक आरती द्वारा उसके लाभों का प्रत्यक्ष अनुभव भी करवाते रहे हैं ।

पूज्य बापू जी के सत्संग-अमृत में आता हैः ″आरती एक प्रकार से वातावरण में शुद्धिकरण करने तथा अपने और दूसरे के आभामंडलों में सामंजस्य लाने की व्यवस्था है । हम आरती करते हैं तो उससे आभा, ऊर्जा मिलती है । हिन्दू धर्म के ऋषियों ने शुभ प्रसंगों पर एवं भगवान की, संतों की आरती करने की जो खोज की है वह हानिकारक जीवाणुओं को दूर रखती है, एक दूसरे के मनोभावों का समन्वय करती है और आध्यात्मिक उन्नति में बड़ा योगदान देती है । शुभ कर्म करने के पहले आरती होती है तो शुभ कर्म शीघ्रता से फल देता है । शुभ कर्म करने के बाद आरती करते हैं तो शुभ कर्म में कोई कमी रह गयी हो तो वह पूर्ण हो जाती है । स्कंद पुराण में आरती की महिमा का वर्णन है । भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-

मन्त्रहीनं क्रियाहीनं यत्कृतं पूजनं मम ।

सर्वं सम्पूर्णतामेति कृते नीराजने सुत ।।

‘जो मंत्रहीन एवं क्रियाहीन (आवश्यक विधि-विधानरहित) मेरा पूजन किया गया है, वह मेरी आरती कर देने पर सर्वथा परिपूर्ण हो जाता है ।’ (स्कंद पुराण, वैष्णव खंड, मार्गशीर्ष माहात्म्यः 9.37)

सामान्यतः 5 ज्योत वाले दीपक से आरती की जाती है, जिसे ‘पंचप्रदीप’ कहा जाता है । आरती में या तो एक ज्योत हो या तीन हों या पाँच हों । ज्योत विषम संख्या (1, 3, 5…) में जलाने से वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा का निर्माण होता है । यदि ज्योत की संख्या सम (2, 4, 6…) हो तो ऊर्जा-संवहन की क्रिया निष्क्रिय हो जाती है ।

अतिथि की आरती क्यों ?

हर व्यक्ति के शरीर से ऊर्जा, आभा निकलती रहती है । कोई अतिथि आता है तो हम उसकी आरती करते हैं क्योंकि सनातन संस्कृति में अतिथि को देवता माना गया है । हर मनुष्य की अपनी आभा है तो घर में रहने वालों की आभा को उस अतिथि की नयी आभा विक्षिप्त न करे और वह अपने को पराया न पाये इसलिए आरती की जाती है । इससे उसको स्नेह-का-स्नेह मिल गया और घर की आभा में घुल मिल जाने के लिए आरती के 2-4 चक्कर मिल गये । कैसी सुंदर व्यवस्था है सनातन धर्म की !″

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 22 अंक 345

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ईश्वर से आँख-मिचौनी का खेल !


ईश्वर से आँख-मिचौनी का खेल हो रहा है । वह छिपा हुआ है, तुम ढूँढ रहे हो । प्रलयकाल में तुम छिपते हो, वह ढूँढ निकालता है । सृष्टिकाल में वह छिपता है, तुम ढूँढ रहे हो । वह कहाँ छिपा है ? वह ढूँढने वाले में छिपा है । ईश्वर है, यहीं है, अभी है । इस शरीर के भीतर जो सबसे स्थायी चीज है, उससे मिलकर रहता है । ईश्वर छिपेगा कहाँ ? जो चीज क्षण-क्षण में बदलती है, यदि ईश्वर उसमें छिपेगा तो पकड़ा जायेगा । जो चीज क्षण-क्षण में नहीं बदलती है, उसमें ईश्वर छिपा हुआ है । ईश्वर ने अपने छिपने के लिए जो लिहाफ (रजाई) बनाया है, जो खोल बनाया है,  वह तुम स्वयं हो । अपने-आप में ढूँढो ।

एक सेठ था । वह यात्रा कर रहा था । उसके पास बहुत रुपया था । एक चोर ने भाँप लिया कि सेठ के पास बहुत रुपया है । वह रेलगाड़ी में उसके साथ हो गया । सेठ के डिब्बे में ही चोर ने अपनी सीट रिजर्व करा ली ।  सेठ भी समझ गया था कि यह चोर है । अब सेठ ने दिन में तो रुपये निकाल के उसके सामने गिने और अपने तकिये के नीचे रख दिये । शाम को जब चोर शौचालय में गया तब उसके तकिये में रुपये घुसेड़ दिये । रात को जब सेठ शौचालय में गया, तब चोर ने सेठ के तकिये के नीचे रुपये ढूँढे किंतु कुछ भी हाथ नहीं लगा । जब सेठ सो गया तब चोर ने रुपये खोजे परंतु तब भी नहीं मिले । चोर बड़ा ही परेशान था । उसने सेठ को बेहोश करके बहुत देर तक रुपये ढूँढे लेकिन निराशा ही हाथ लगी । सेठ के पास रुपये हों तब मिलें, रुपये तो चोर के तकिये में छिपाये गये थे । कोलकाता-मुंबई का लम्बा सफर बीत गया, रेलगाड़ी से उतरने का समय हुआ ।

चोर ने कहाः ″सेठ मैंने तुम्हें मान लिया । मैं हूँ चोर । रुपये चुराने के लिए तुम्हारे साथ लगा था । दिन में तो तुम्हारे पास हजारों रुपये देखे और रात में कुछ भी नहीं मिला । बात क्या है ? आखिर तुम ये रुपये रखते कहाँ हो ?″

सेठ हँसने लगा । वह बोलाः ″भैया ! मैं कोलकाते में ही समझ गया था कि तुम चोर हो । बात कुछ नहीं है । मैंने सारे-के-सारे रुपये शाम को जब तुम शौचालय में गये थे, तब तुम्हारे तकिये में रख दिये थे । फिर जब सुबह गये थे तब निकाल लिये थे और अपने तकिये में रख दिये थे ।″ चोर ने लम्बी ठंडी साँस लेते हुए कहाः ″राम राम ! मेरे तकिये में हजारों रुपये आये और चले भी गये । मुझे नहीं  मिले । वाह ! सेठ तुमने छिपाने में कमाल कर दिया ।″

ईश्वर अपने को कहाँ छिपाता है ? ईश्वर अपने को तुम्हारे में छिपाये हुए है । ईश्वर अपने को आँख में नहीं छिपाता, नाक में नहीं छिपाता । वह अपने को तुम्हारे मैं में छिपाता है । तुम ढूँढते हो कि ‘ईश्वर कहीं मिल जाये’ और वह तुम्हारे हृदय में छिपा हुआ है । तुम अपने हृदयस्थ ईश्वर को ढूँढ नहीं सके । उसे प्राप्त नहीं कर सके । तुम ऐसे कच्चे खिलाड़ी हो कि अपने ही हृदय में विराजमान ईश्वर को पहचान नहीं सके । क्या खेल है तुम्हारा ? जरा उसका खेल तो देखो । अद्भुत खिलाड़ी है । गजब का खेल है ।

आप ही अमृत (आत्मा), आप अमृतघट(शरीर), आप ही पीवनहारी (आत्मरस का पान करने वाली वृत्ति)

आप ही ढूँढे (ढूँढने की क्रिया), आप ढूँढावे (ढूँढने वाला), आप ही ढूँढनहारी (परमात्मा को ढूँढने वाली वृत्ति)

आपन खेलु (खेल) आपि करि देखै ।

खेलु संकोचै (समेटे) तउ (तब) नानक एकै (एक परमात्मा ही रह जाता है) ।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 24,26 अंक 345

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…तो परमात्मा स्वयं बेपरदा होने को राजी हो जाते हैं – पूज्य बापू जी


यह पक्का कर लें कि हमारे पास जो कुछ योग्यता है वह किसी की दी हुई है, आपकी अपनी नहीं है । प्रकृति के द्वारा आयी है, परमात्मा के द्वारा आयी है, वातावरण के द्वारा आयी है । आपकी जो योग्यता है वह किसी की दी हुई है और किसी के लिए दी हुई है । वह ईश्वर की प्रसन्नतार्थ संसार की सेवा में लगाने के लिए दी हुई है । जब ईश्वर की दी हुई चीज अपने मानकर लगाते हो तो फिर नश्वर चीजें मिलती हैं । योग्यता को अपनी मान कर उसको अच्छे कामों में लगाते हो तो कई गुना हो के ऐहिक नश्वर चीजें मिलती हैं लेकिन ईश्वर की मान के, ईश्वर की समझ के ईश्वर की प्रसन्नता के लिए लगाते हैं तो ईश्वर स्वयं मिलता है । आप बेपरदे हो जाते हैं । आप निर्दुःख, निर्द्वन्द्व हो जाते हैं, निरहंकारी हो जाते हैं । जब आप किसी वस्तु का, किसी योग्यता का अहं करते हैं तो ईश्वर भीतर देखता है और ईश्वर की जो पराशक्ति है वह आपको दबाती है, थप्पड़ मारती है । जैसे पतिव्रता स्त्री का पुत्र अगर अपने पिता का अपमान करता है तो माँ उसको सबक सिखाती है, दंडित करती है । ऐसे ही मिली हुई योग्यताएँ पारमात्मिक योग्यताएँ हैं, परमात्मा की ओर से मिली हैं, जब जीव उनको अपनी मानता है तो प्रकृति उसको थप्पड़ मारती है, दबाती है किंतु मिली हुई योग्यता देने वाले की मानकर जीव उसकी प्रसन्नता के लिए उसका सदुपयोग करता है तो प्रकृति माता भी प्रसन्न होती है और परमात्मा स्वयं बेपरदा होने को राजी हो जाते हैं । संत कबीर जी ने कहाः

मेरो चिंत्यो होत नहिं, हरि को चिंत्यो होत ।

हरि को चिंत्यो हरि करे, मैं रहूँ निश्चिंत ।।

गुरु नानक जी ने कहा हैः

जो तुधु भावै साईं भली कार ।

तू सदा सलामति निरंकार ।।

(हे निराकार परमात्मा ! जो तुझे अच्छा लगे वही श्रेष्ठ है और वही हो । तू सदा शाश्वत है ।)

संत तुलसीदास जी ने रामायण में भगवान शिवजी से कहलवायाः

उमा दारु जोषित की नाईं । सबहि नचावत रामु गोसाईं ।।

‘हे उमा ! (सर्वव्यापक, रोम-रोम में रमने वाले) स्वामी श्रीराम सबको कठपुतली की तरह नचाते हैं ।’

भगवान श्रीकृष्ण ने कहाः

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।

अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ।।

‘कर्म सब प्रकार प्रकृति के गुणों द्वारा किये जा रहे हैं किंतु अहंकार से जिसका अंतःकरण अत्यंत मूढ़ है वह ‘मैं कर्ता हूँ’ ऐसा मानता है ।’ (गीताः 3.27)

ये गुण और कर्म सब प्रकृति में हो रहे हैं परंतु अहंकार से जो विमूढ़ हो गया, ठीक ढंग से बेवकूफ हो गया है वह बोलता हैः ‘मैंने किया, मैंने किया, मैंने किया… ।’ क्या अन्न पचाना तेरे हाथ की बात है ? क्या बालों को उगाना तेरी मेहनत है ? क्या श्वास चलाने का काम तूने किया ? क्या सब्जी और रोटी में रक्त, मन और बुद्धि बनाना तेरी प्रक्रिया है ? क्या किशोर में युवान तूने बनाया ? यह प्रकृति की और परमात्मा की लीला से हो रहा है । जन्म लेना तेरे हाथ की बात नहीं, मर जाना तेरे हाथ की बात नहीं, अमर रहना तेरे हाथ की बात नहीं । जब मुख्य काम उसके हाथ में हैं तो छोटे-छोटे काम अपने अहं के सिर पर रखकर क्यों बोझीला बनना ?

ॐ ॐ शांति… ॐ ॐ प्रभु जी ! ॐ ॐ प्यारे जी ! ॐ ॐ मेरे जी ! ॐ ॐ मधुर शांति… हरि शरणम्…. हरि शरणम्… हरि शरणम्… ॐ शांति शांति शांति… कुछ समय मधुमय शांति में, माधुर्य में मस्त…. ॐ शांति…

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 21 अंक 345

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