सबसे ऊँची विद्या क्या है ? – पूज्य बापू जी
आप अपने आत्मा-परमात्मा में बैठो ।
आत्मलाभात् परं लाभं न विद्यते ।
आजकल लोग बोलते हैं कि ‘उच्च शिक्षा-प्राप्त’ – विज्ञान में, कोई
डॉक्टरी में, कोई किसी में उच्च शिक्षा-प्राप्त… । ऊँची शिक्षा का अर्थ तो
यह है कि वह विद्या जिसके द्वारा प्राप्त ऊँचाई से बढ़कर फिर और
कोई ऊँचाई देखने को न मिले । ब्रह्मविद्या विद्यानाम्…
सारी विद्याओं में ऊँची विद्या है ब्रह्मविद्या, आत्मविद्या । इससे
बढ़कर कोई ऊँची विद्या नहीं है । आजकल जो पढ़ायी जाती है वह
संसारी विद्या है, पेटपालू विद्या है लेकिन व्यास भगवान या ब्रह्मज्ञानी
संतों के पास जो मुक्त कराने वाली विद्या मिलती है वह ब्रह्मविद्या है
। ब्रह्मविद्या ही वास्तव में ऊँची विद्या है । जो सुख-दुःख की चोटों से
छुड़ा दे, जो जन्म-मरण के चक्कर से छुड़ा दे, जो मान-अपमान के
प्रभावों से आपको विनिर्मुक्त कर दे, जो काल के प्रभाव से आपको पार
कर दे, जो कर्म-बंधन के प्रभाव से पार कर दे वही उच्च विद्या है
वास्तव में ।
आजकल तो जिस किसी के नाम में जोड़ देते हैं ‘उच्च शिक्षा-प्राप्त’
। यह लौकिक विद्या तो पेटपालू विद्या है । ऊँचे-में-ऊँचा जो सार तत्त्व
है उसको जानने की विद्या उच्च विद्या है । इस विद्या को पाने के
लिए राजे-महाराजे राजपाट छोड़ देते थे और गुरुओं के द्वार पर रहने के
लिए भिक्षा माँगकर खाना स्वीकार करते थे । पहले यह उच्च विद्या
गुरुकुलों में मिलती थी । रंक का पुत्र और राजा का पुत्र एक ही
बिछायत पर बैठते, एक ही कक्ष में बैठते और ऐहिक विद्या, जिसको
गणित, विज्ञान आदि कहते हैं, के साथ-साथ उच्च विद्या भी पाते थे ।
जैसे श्री रामचन्द्र जी महर्षि वसिष्ठ जी के आश्रम में ऐहिक विद्या
के साथ-साथ उच्च विद्या भी पाते थे । धनुर्विद्या आदि सीखते थे तब
भी उसमें से समय निकालकर आत्मविद्या, उच्च विद्या पाने में लगते
थे । जीवात्मा को परमात्मा के स्वरूप के साथ स्वतःसिद्ध एकत्व का
अनुभव करा दे ऐसी यह ऊँची विद्या है । इस उच्च विद्या का श्रवण
करने का सौभाग्य भी बड़े पुण्यों से मिलता है । इस उच्च विद्या को
सुनने-सुनाने वाला, समझने-समझाने वाला भी देवताओँ से सम्मानित
होता है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2022, पृष्ठ संख्या 21 अंक 357
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