All posts by admin

गुरु में स्थिति करो


चरणदास गुरुकृपा केणी उलट गई मेरी नैन पुतरिया… गुरु की कृपा हुई मेरे नैन, देखने की दृष्टि बदल गई! तन सुकाय पिंजर किये…तुलसीदास ने कहा…धरे रैन दिन ध्यान। तुलसी मिटे न वासना बिना विचारे ज्ञान ॥तो ज्ञानी गुरु में स्थिती किए बिना , ज्ञानतत्व का विचार किए बिना चाहे सौ साल की समाधि लगा दो…समाधि लगाना अच्छा है, ध्यान करना बहुत अच्छा है बहुत जरूरी है लेकिन ध्यान के साथ अगर स्थिती की तरफ , अविद्या मिटाने की तरफ  दृष्टि महि रही तो वो हाल हो जाएँगे

वसिष्ठ जी बताते हैं कि-एक बहुरूपिया आया राजा दिलीप के पास ..रामजी प्राचीन इतिहास कहता हूँ… इस अयोध्या के प्राचीन काल में तुम्हारे काल के जो दिलीप राजा राज्य करते थे रघुकुल के , दिलीप राजा के पास बहुरूपिया आया। उसने ऐसा रूप बनाया कि दिलीप राजा खुश हो गए,इनाम देना चाहा तो कहने लगा तुम जो देते हो वो इनाम नही जो मुझे चाहिए वो दीजिए….आपकी जो तेज भगनेवाली घोड़ी है न वो मुझे इनाम में दीजिए। अब वो प्यारी घोड़ी थी दिलीप की , दिलीप ने कहा’ये तो नही दूँगा!’ बहुरूपिया ने कहा ‘देखो, फिर मैं दूसरा तुमको एक खेल दिखाता हूँ । तुम मुझे लोहे की संदूक में डाल दो और संदूक को जमीन खोदकर अंदर डाल दो। और मैं समाधि करके बैठूँगा , ६ महीने के बाद तुम जमीन खुदवाना और वो बैग खुदवाना। अगर मैं तुम्हें ६ महीने बिना अन्न जल के एक ही पद्मासन पर बैठा हुआ मिलूँ फिर यो तुम इतना इनाम दे दोगे न? फिर तो घोड़ी दोगे? दिलीप को आश्चर्य हुआ कि ६ महीना बिना अन्न जल और बिना श्वास लिए हुए धरती में गड़ा हुआ आदमी फिर जीवित रहेगा ? बोले- “हाँ!”ऐसा ही किया गया।

६ महीने पूरे हुए। मंत्रीयों ने कहा कि “राजन ! ६ महीने तो हो गए पूरे। उसको निकाला जाए।”बोले-“निकलेंगे..जीवित होगा तो घोड़ी माँगेगा ! वो मुझे देनी नही है ! और मर गया तो फिर से गाड़ना पड़ेगा !अगर मरा मिला तो फिरसे खोद के डालना पड़ेगा! इससे भले रहा!”समय बीतता गया। रघु राजा का राज्य समाप्त हुआ। दूसरे राजाओं का राज्य समाप्त हुआ। रामजी! अब दशरथ नंदन ! अब देखो तुम्हारा राज्य है और वो अब भी वहाँ गड़ा हुआ है। चलो देखते है उसको। खुदवाया..और वो निकाला..तो उसकी जिव्हा तो तालू में थी,प्राण दसवे द्वार चढ़े हुए थे। वसिष्ठ ने सर पे धीरे धीरे थपलियाँ मारी और जीभ नीचे उतारी , तो उसने आँख खोली और पहला उसका वचन था – “लाओ घोड़ी! घोड़ी दे दो, अब तो घोड़ी दे दो! “हे रामजी! वासना लेकर जो बैठा समाधि में, अज्ञान ,अविद्या लेकर…समाधि उठी तो वही अविद्या और वही अज्ञान निकला! गुरुतत्व में स्थिति नही किया न! मैं एकांत में जाकर तप करूँगा…बहुत अच्छी बात है सुंदर बात है लेकिन तप करते हो स्थिती करने के लिए, तप करते हो कुछ बनने के लिए ….कुछ बनने के लिए तप किया तो बिगड़ना भी पड़ेगा! क्योंकि तप का फल जो मिला वो फिर नष्ट हो जाएगा। लेकिन गुरु में स्थिती की तो वो नष्ट होनेवाली चीज नही मिलती! कुर्सी की सत्ता भी नष्ट हो जाती है, शरीर का सौंदर्य भी नष्ट हो जाता है,पति पत्नी का सबंध भी नष्ट हो जाता है,सेठ नौकर का  सबंध भी नष्ट हो जाता है, और तो क्या कहे भैया! अष्ट सिद्धियों का सामर्थ्य भी नष्ट हो जाता है! इसलिए बुद्धिमान हनुमान जी के अष्ट सिद्धियाँ थी उसमे रुके नही, रामजी की शरण गए और रामजी तत्व में उन्होंने स्थिती की और हनुमानजी धन्य-धन्य हो गए! अष्ट सिद्धि नौ निधियों के धनी, संयम की मूर्ति, बुद्धिमानों में अग्र ! फिर भी जबतक श्रीराम तत्व में, गुरुतत्व में स्थिती नही हुई तबतक वो दास है, सेवक है! तो हमारा लक्ष्य ये होना चाहिए -अपना दोष निकालने में तत्पर,दूसरी बात ..अच्छा! दोष निकालने में एक युक्ति और बता देता हूँ..अपना दोष मैं निकाल रहा हूँ ऐसा करके निकालोगे तो बहुत देर लगेगी और मेहनत होगी और फिर खतरा भी होगा।

देखो सत्संग में कितना आसानी से रस्ता मिल जाता है! अनुभव से जो लोग गुजरे है न बड़े-बुजुर्गों का अनुभव बड़ा काम आता है। अपना दोष निकालने को आप निकालोगे तो देर लगेगी ,अपना दोष समझ के निकालोगे तो देर लगेगी और निकलेगा तब भी खतरा हो सकता है और नही निकलेगा तब भी खतरा हो सकता है!  मेरे में फलाना दोष है और मैं निकाल रहा हूँ ..अगर निकालते-निकालते दोष निकल गया तो “मैं इस बात में निर्दोष हूँ”…ये लोग दारू पीते हैं मैंने छोड़ रखा ह! ये लोग बड़े लोभी है मैंने धन को छूना छोड़ दिया है! ये लोग गृहस्थी कीड़े है, ग्रहस्थ में मर रहे हैं!… हमने तो शादी की और घर छोड़ के चले गए सात साल बाद में थोड़ा बहुत संसार में आए अब फिर हम बिल्कुल .…अगर दोष निकल गया काम दोष,क्रोध दोष , लोभ दोष, शराब का दोष, कोई दोष निकल गया अपने पुरुषार्थ से तो “मैं इस बात में निर्दोष हूँ ” ऐसे लोग मिलेंगे तो अंदर से अहं स्फुरेगा कि ये लोग तो पी रहे है मैंने छोड़ दिया और वो दोष निकालने में महनत होगी। दोष निकालते तभी भी महनत होगी और निकला तभी भी खतरा होगा अहं का! तो महाराज क्या करे दोष पड़ा रहे? ना, कभी नही! दोष निकालेंगे जरूर! लेकिन निकालने की युक्ति समझ लो- ‘दोष मुझमें है ऐसा न सोचो..दोष शरीर में है,दोष बुद्धि में है,दोष मन में है, दोष मेरे संस्कारों में है …इन संस्कारों का दोष निकल रहा है, मैं तो चैतन्य निर्दोष नारायण का सद्गुरु का सनातन पुत्र हूँ!’तो दोष निकालने का अहंकार नही चोटेगा और दोष निकालने में आसानी होगी। नही तो क्या ? नही निकाल सकेंगे तो विषाद होगा और निकल गया तो अहंकार होगा। विफलता में विषाद और सफलता में अहंकार …लेकिन दोष को जहाँ है दोष वहाँ जानना और आपको अपने ईश्वर में अथवा गुरुतत्व में स्थिती करके दोष निकालना बड़ा आसान हो जाएगा। जैसे दूसरे का दोष जल्दी दिखता है, अपना दोष नही दिखता। दूसरे के दोष निकालने के लिए अकल जल्दी काम करती है और अपने दोष निकालने के लिए डबला छाप हो जाती है अकल! वकीलों से पूछ के देखो! अपना नीजी केस वकील नही लड़ेंगे , दूसरा वकील रखेंगे। डॉक्टरों से पूछो- अपना निजी ..कुटुंब की अथवा अपनी नीजी ट्रीटमेंट नही करेंगे, इलाज नही करेंगे, दूसरे से कराएँगे। तो ऐसे ही दोष को मेरे में दोष है समझ के नही ,मन में दोष है ,बुद्धि में दोष है या आदतों में दोष है और उनको निकालो.. अपने को गुरुतत्व में, आत्मतत्त्व में स्थिती कराओ तो दोष निकलने में सफलता हो जाएगी और सफलता का अहंकार नही आएगा! और  कभी थोडी देर के लिए विफलता रही तो आप हार कर , थक कर दीन नही होंगे।ये दोष निकालने की तरकीब सुबह, दोपहर, श्याम जब भी मौका मिले तब अपने दोषों को चुन-चुन के …जैसे पैर में काँटा घुसा है तो निकालते हैं युक्ति से ..दबा के निकालो, सुई से निकालो नही तो फिर छोटे मोटे चिमटे से निकालो..अगर नही निकलता तो गुड़ और नमक या हल्दी मिलाकर उसकी पोटिस बनाकर बांधो, फूलेगा फिर निकलेगा। ऐसे ही फिर कोई नियम की ,व्रत की पोटिस बाँधकर दोष निकालने की  कोशिश करो निकलेगा! तो दोष निकालने में तत्पर! बैठे है…मानो गुरुजी हजार माईल दूर है लेकिन ध्यान के प्रभाव से वो हजार माईल की दूरी नही रहेगी। श्रीकृष्ण को पाँच हजार वर्ष बीत गए लेकिन मीरा इतना तदाकार होती कि पाँच हजार वर्ष की दूरी मीरा के आगे नही रहती! मीरा के आगे तो कृष्ण नाँच रहे है, कृष्ण बंसी बजा रहे है, कृष्ण भोजन कर रहे है! कृष्ण अर्जुन को गीता सुना रहे है! कृष्ण आए तो मीरा हर्षित हो जाती है और आ नही रहे है तो मीरा समझती है- क्या कारण है? मीरा रो रही है! रोना विरह भक्ति होती है और आना हो तो मीरा का प्रसन्नता से मुखड़ा खिलता है तो कभी विरह अग्नि से मीरा का ह्रदय शुद्ध होता है!  आपके पास दो बड़ी भारी योग्यताएँ है.. एक योग्यता है हर्ष और दूसरी योग्यता है विषाद। ईश्वर की स्थिति में, गुरु की स्थिति में अगर स्थिति हो रही है तो हर्ष  करते- करते आनंद उत्सव ..भगवान को गुरुदेव को…मैंने तो गुरुदेव को स्नेह करते हुए बहुत पाया ! गुरुदेव को स्नेह करते- करते मन ही मन गुरुदेव से बात करते- करते हृदय पुलकित होता है, हर्षित होता है और गुरुतत्व की जो प्रेरणा होती है गजब का लाभ होता है! तो हर्ष की सरिता बहाकर आपके कर्मों को और पाप-ताप को, बेवकूफी को बहा दो अथवा तो कभी-कभी विरह की अग्नि जलाकर आपके जीवत्व को अथवा आपके संस्कारों को जल जाने दो। विरह अग्नि से भी तुम्हारे पुराने संस्कार जलते जाएँगे, सिकते जाएँगे…सिकते जाएँगे मतलब जैसे मूँगफली सेंक दी खारी सिंग बन गई, अब वो सिंग खा सकते हो, देख सकते हो , बेच सकते हो लेकिन उसको बो नही सकते, उसकी परंपरा नही बढ़ा सकते..ऐसे ही तुम्हारे जो भी जन्म-जन्मांतर के संस्कार है वो अगर विरह अग्नि में सेंक लिए जाए तो वे संस्कार फिर सत्य बुद्धि से तुम्हारे पास रहेंगे नही और वो दूसरे जन्मों का कारण नही बनेंगे! जैसे सेंका हुआ अनाज नही उगता है ऐसे ही विरह अग्नि में सेंका हुआ चित्त, उसके अंदर पड़े हुए संस्कार वे जन्मों का कारण नही बनते है ! तो गुरु में स्थिति करने से , भगवदतत्व में स्थिति करने से अंतःकरण सिक जाएगा, विरह अग्नि में बाधित हो जाएगा !

तत्परता वाला विफल नही होता


भक्ति में गलती हो तो आदमी पागल बन जाता है, योग में गलती हो तो आदमी रोगी हो जाता है और ज्ञान में गलती हो तो आदमी विलासी बन जाता है। और ज्ञान के रास्ते कभी चलते-चलते थोडासा झलक मिल और वाहवाही हो तो मनुष्य को तुष्टि …हाँ मेरे को बहुत कुछ मिल गया, मेरे पास बहुत कुछ है… जैसे चूहे को हल्दी का टुकड़ा मिल जाए और अपने को गाँधी मान लेवे ऐसे भी आता है…एकांत है,भजन करता हूँ तो इसको बोलते है तुष्टि। ये मन धोखा देता है, छोटी मोटा कुछ मिल गया उसमें तुष्ट हो जाते है, संतुष्ट हो जाते है

लेकिन जबतक परमात्मा का साक्षात्कार नही होता तबतक सद्गुरुओं का सहयोग बहुत जरूरी है। और परमात्मा का साक्षात्कार हो जाए तो जो मिला है उसे याद करते करते वो वफादार बना रहेगा।

विवेकानंद अपने गुरु के लिए आजीवन वफादार थे। ऐसा कोई महापुरुष नही हुआ जिसने अपने सद्गुरु के लिए कभी कुछ गलत कहा या सोचा हो , अगर कहा या सोचा है तो वो महापुरुष भी नही बना है। जय रामजी की! वो फिसल गया है! नरक का अधिकारी हो गया वो!
तो वो माई थी तो सज्जन लेकिन उसको थोडासा साधन भजन करते करते कोई अनुभव नही हो रहा था तो एकदम मन उसका नास्तिक जैसा हो गया। और गाँव में संत आए और उसके चेलियों ने कहा कि महाराज आए है,बोली “हमने देख लिए सब महाराज। जिसने जो साधन कहा हमने सब करके देख लिया। कोई भगवान-वगवान का अनुभव नही हुआ, साक्षात्कार का अनुभव नही हुआ।” ऐसा करके वो नही जाना चाहती थी। फिर भी पहले का किया हुआ पुण्य उसको महापुरुष का दर्शन करने ले गए। और महापुरुष ने देखा कि अधिकारी जीव है…अपना सामर्थ्य बरसाया, तो वही उसकी चित्त शक्ति जागृत हो गई।

जिनकी आत्म शक्ति जगी होती है वो जो टोपी पहनते है उस टोपी में भी वेव्ज आते है, वो जो करमंडल पकड़ते है उसमें भी! और जिस वस्तू पर देखते है वो आध्यात्मिक वेव्ज वहाँ भी बरसते है। जैसे सूरज की किरण है धरती पर पड़ते है, लेकिन जहाँ बीज जैसा है वही बीज वैसा ही फल और पत्ते फूल बना लेता है सूरज की कृपा से। सूरज उसे छूता नही फिर भी सूरज उसे छूता है! सूरज हजारों लाखों माईल दूर होते हुए भी उसके साथ है, उसके साथ होते हुए भी वो निराला है! ऐसे ही ज्ञानी के हृदय में सूर्यों का सूर्य जो परमात्मा प्रगट हुआ है! तो ज्ञानी की दृष्टि से…जैसे सूरज वहाँ है और सूरज की दृष्टि कहो, किरण कहो पेड़ पौधों को पोषते है और पेड़ पौधों में जैसी जैसी बीज में संस्कार और क्षमताएँ होती है ऐसे ऐसे बीज कोई छोटा पौधा, छोटे गमलों का बीज होता है तो कोई बड़े पेड़ों का बीज होता है ,तो कोई गुलाबी फूल का होता है तो कोई और किसी रंगरूप आकृति के होते है। लेकिन सत्ता तो सूरज के किरणों से मिलती है उनको पनपने की,खिलने की,महकने की! ऐसे ही जिसके जैसे संस्कार है..जबतक ज्ञानवान महापुरुष सूर्य की कृपादृष्टि नही पड़ी तबतक उसका अंतःकरण उस साधन में उतना खिलता नही!

माई ने तप तो किया, व्रत भी किया, सब साधन किए लेकिन किताब पढ़-पढ़के बताने वाले गुरुओं के द्वारा उसने किए। सद्गुरु अभी उसको मिला नही था तो कर-करके बेचारी थक गई थी। थक गई थी तो एकदम नास्तिक जैसी हो गई। और जब समर्थ संत आए तो उसकी चेलियाँ समर्थ संत के सत्संग सुनने को गई और आकर कहा अपनी सत्संग सुनाने वाली बाई को , तो उसने डाँट दिया कि कोई साधु -वाधु नही है , साधुने जो बताया सब किया कोई अनुभव नही हुआ! भगवान -वगवान नही है।

फिर भी उसका मन उस संत के दर्शन के लिए छुप के जाने का हो गया। और छुप के जब गई तो उस संत की दृष्टि पड़ी और उसका छुपा हुआ जो चैतन्य… जैसे बीज को खाद-पानी है फिर भी कई ऐसे बीज है जो फूटते नही क्योंकि उनपर कोई कंकड़ है या कोई ठीकरा पड़ा है, इसको बोलते है प्रतिबंधक प्रारब्ध! तो महाराज! वो हट गया उसका प्रतिबंध हट गया! तो माई को अनुभव हुआ थोड़ा बहुत। बाद में तो संत चले गए और वो बाई पैदल पैदल उनके यहाँ गई, वर्षों तक उनके आश्रम में रही, दिन-रात आए हुए अतिथियों को भोजन बनाके खिलाती थी। सुबह ४ बजे से लेकर रात्रि पंगत…कार्यभार सँभालती थी।उसकी वही सेवा थी। और अंत में सद्गुरु की कृपा से उसको ऐसे पद की प्राप्ति हुई कि महाराज ! जिस पद को योगी पाकर मुक्त हो जाते है, ज्ञानी पाकर ब्रह्मवेत्ता हो जाते है उस पद को वो पा ली!

कहने का तात्पर्य ये है कि ईश्वर है और ईश्वर को पाने की योग्यता भी है लेकिन उस दोनों का…योग्यता का और ईश्वर की प्राप्ति इन दो के बीच का जो मिडिया है वो सद्गुरु का सानिध्य जबतक नही होता तबतक काम नही बनता! बीज भी है, सूरज भी है लेकिन किसान जबतक सेटिंग नही करता है तबतक काम नही बनता है!

दूसरी बात… साधक के जीवन में एक खास होना चाहिए, हर मनुष्य के जीवन में ये गुण होना चाहिए- तत्परता! अपने लक्ष्य की स्मृति और तत्परता!
एक कहानी बता दूँ… दो किसान थे। दोनों की जमीन बराबर थी पास-पास में। एक किसान ने उस जमीन को खेडा , क्यारियाँ बनाई , बीज बोए। दूसरे ने भी खेडा अपने ढँग से..बीज इधर उधर डले, फिर कभी बगीचे में आता था कभी नही, कभी कुछ।लेकिन जो पहला किसान था उसने विधिवत बीज बोए, अमुक अंतर पर बीज बोए और अमुक दिन पर पानी दिया, उसका बगीचा तो कुछ ही समय में लहलहाने लगा, फूल खिलने लगे, पक्षियों की किलहोल और महाराज! फल फूल से लदा भरा उसका बाग दूर-दूर से लोग देखने को आने लगे । उसके बाग को देखकर लोगों को होता कि “हाश!कितना सुंदर बगीचा!वाह!ईश्वर की क्या लीला है!बंजर जमीन था और उस बंजर में देखो प्रभु का क्या खेल है!वाह!इसने अपनी महनत से देखो कैसा प्रभु की सृष्टि में सौंदर्य भर दिया” व्ज बोलता था “प्रभु की सृष्टि में सौंदर्य भरने वाला मैं कौन होता हूँ?सौंदर्य भी उसीका है और भरने की सत्ता भी उसीकी है! ये हाथ-पैर भी उसीके दिए हुए हैं!हमको तो आप यश दे रहे है, बाकी यश तो उसी प्यारे का गाईए!” जय रामजी की!

वो माली क्यारी-क्यारी की खबर लेता!पौधे-पौधे की निगरानी रखता, हर फूल को सुबह-श्याम निहारता देखता,कही कटाई हो, कही छटाई हो, कही सिंचाई हो, कही खाद पानी बराबर देता। और उसको अपने कार्य करने में इतना आनंद आता! कोई पौधा सूखने न पाए और कोई पेड़ बूढा होकर व्यर्थ न जाए। जहाँ कटाई करना है वो कटाई कर लेता,जहाँ बुआई करना है बुआई कर लेता , बड़ा खयाल रखता।उसने उस बगीचे में प्राण भर दिए! वो बगीचा विश्रांति स्थल हो गया! माली को आय भी अच्छी होती थी,यश भी अच्छा हुआ और उसको कार्य में तत्पर होने का रस भी मिला और उसकी काम करने की क्षमताएँ भी बढ़ गई। दूसरे माली ने बगीचा लगाया , कही कोई पेड़ पौधा हुआ है तो कही सूखा पड़ा है, कही थोड़े फल लगे है तो पकने के पहले ही गिरे हुए है ,कही पक्षियों को कभी भगाया तो कभी पक्षियों ने चट कर दिया!

उसकी जमीन उजाड़ जैसी लग रही थी, एकदम उजाड़ न पूरा हराभरा। जहाँ कहीं छोटा मोटा पेड़ पौधा खिला है उसको देखकर वो फूलता था कि देखो मैने कितना बढ़िया किया। लेकिन आसपास का कचरा और सूखे पेड़ और पौधे उस खिले हुए पौधे की शोभा को नष्ट कर देते थे। वो अपना भाग्य कूटता था “क्या करें!मेरा भाग्य ही ऐसा है!पड़ोसी का बगीचा भगवान ने ऐसा कर दिया और मेरे बगीचे का ठिकाना नही! ” हकीकत में तो भगवान ने सूर्य किरण दोनों को बराबर दिए, भगवान ने वृष्टि तो दोनों को बराबर की, भगवान ने धरती में रस तो दोनों के लिए एक जैसा भरा। लेकिन जो तत्पर था अपने काम में, जो बारीकी से एक एक पौधे की खबर रखता था, बारीकी से एक एक पेड़ की, खाद पानी की व्यवस्था रखता था उसका
तत्पर होना, ख्याल रखना ही उसके कार्य की सफलता थी। और वो जो लापरवाही है वोही उसकी विफलता का कारण था और दोष देता है भगवान को। और यश मिलता है तो बुद्धिमान कहता है भगवान की लीला है। तो कौनसा आदमी दुनिया में जीने के काबिल हुआ? जो तत्परता से काम करता है और सफल होता है तब भी ईश्वर की स्मृति कर देता है और तत्परता से कार्य करनेवाला व्यक्ति विफल नही होता है! और विफल कभी कबार कभी हो भी जाता है तो खोजता है विफलता का कारण क्या है?विफलता का कारण ईश्वर नही है,
विफलता का कारण प्रकृति नही है, विफलता का कारण अपनी बेवकूफी है। जय रामजी की! तो कहाँ हमारी बेवकूफी हुई जानकारों की सलाह लेकर वो अपनी बेवकूफी मिटाते है और कार्य तत्परता से करते है। आज तो जरा-जरा बात में गलती हो गई, भूल गए, ये हो गए इसको बोलते है

लापरवाही,प्रमाद…एक होता है आलस्य दूसरा होता है प्रमाद। पति ने कहा अथवा साथी ने कहा ये कर लेना, याद भी है… अच्छा! होगा..देखते है, देखते हैं, देखते है- देखते हैं करके कहाँ भटक गया ये है आलस्य। तो आलस्य और प्रमाद मनुष्य का शत्रु है, मनुष्य की योग्यताओं का शत्रु है। तीसरा शत्रु है ईर्षा.. मैं इतना काम करता हूँ वो तो कुछ नही करता। तो अपनी योग्यता विकसित करने के लिए भी अपने को तत्परता से कार्य करना चाहिए। कम से कम समय और अधिक से अधिक सुंदर कार्य करने की जसकी कला विकसित है वो आध्यात्मिक रस्ते जाता है तो आध्यात्मिक जगत में भी सफल हो जाए, लेकिन ज्यादा समय बरबाद करे और कम से कम कार्य हो और वो भी सड़ा गला बगीचे वाला जैसा वो आदमी व्यवहार में भी विफल रहता है और परमार्थ में भी पलायन वादी हो जाता है। जय रामजी की! वो परमार्थ में पलायनवादी हो जाएगा, जितना सुख सुविधा मिला तो हाँ! अच्छा है एकांत है भजन होता है और जहाँ थोड़ी प्रतिकूलता आई तो वहाँ से भाग जाएगा। तो – अतो भ्रष्ट ततो भ्रष्ट

तो, पलायनवादी लोग जिनको सुख सुविधाएँ मिल जाती है लेकिन तत्परता नही है काम करने की ,ईश्वर में प्रीति नही है…जप में प्रीति नही है, ध्यान में प्रीति नही है ऐसे व्यक्ति को ब्रह्मा जी आकर भी सुखी करना चाहे तब भी वो नही हो सकता है, दुःखी रहेगा, दुःख बना लेगा। कभी कबार दैव योग से सुख मिला तो आसक्त हो जाएगा, फूल जाएगा और दुःख मिला तो बोलेगा “क्या करें भगवान की सृष्टि ऐसी है, जमाना ऐसा है , ये ऐसा है, वो ऐसा है।

What is the purpose of the service?


What is the purpose of the service? Your heart is cleansed by the service. Egoism, hatred, jealousy, high feelings of emotions and all sorts of such bad feelings are destroyed and qualities like humility, pure love, empathy, tolerance and compassion develop. Selfishness vanishes from service, duality is weak, life’s approach becomes vast and generous. Unity begins to feel, speed progresses in enlightenment.The feeling of ‘one in all, one in everybody’ starts to feel. That is why unlimited happiness is attained.

What is the society? There is only a group of different individuals or units. The world is nothing but the manifest form of God. The service is worship only. The service and the wisdom of the wise men and women of great goodness is fulfilled.Like the Hanuman ji service and the teachings of Sita and Shriram ji, Brahmmanutti was completed.

Discrimination-sense is fatal, so it should be eradicated. To eradicate it, the need for Spirit-Spirit, the development of unity of Caitanya and selfless service. Differentiation is an illusion created by ignorance or illusion.

Source: Rishi Prasad, September 2018, page number 17 issue 309