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अजामिल का पतन (भाग-5)…


बाहर.. कुटिया के बाहर एक अलख जगी भिक्षाम देहि! भिक्षाम देहि! कलावती ने सुना तो हैरान सी हुई कि हम तो स्वयं भिखारियों से बदत्तर है फिर हमसे भिक्षा कौन मांग रहा है? बाहर आकर देखा तो वही साधुजन उसकी दहलीज़ पर खड़े अलख जगा रहे थे।

कलावती की सब कलाएं तो रूप ढलने के साथ ही ढल चुकी थी, अब तो वह छह बच्चों की माँ भर रह चुकी थी, अकड़ खो चुकी थी, अदा खो चुकी थी बस बची थी तो अपने ही हाथो से कालिख पुती जिंदगी। अब तो कोई अभिमान भी नही था। जब साधुओं को अपने द्वार पर भिक्षा मांगते पाया तो उसे लगा कि शायद उसका भाग्य ही उसका परिहास कर रहा है क्योंकि पहली बात तो यह है कि वह उधम इस लायक कहां कि अपनी अपवित्र हाथो से उन पवित्र आत्माओं को भोजन कराए। दूसरा उसके पास इतना अनाज भी कहाँ था जो उन्हें वह खिलाती।

फ़टी सी साड़ी का पल्लु अपने हाथों से खिंचती हुई वह बोली क्षमा करें महाराज इतना भोजन मेरे यहाँ कहां कि आप सबको तृप्त कर सकूँ? साधु मुस्कुराए- माते! हम साधुओ का क्या जितना मिल जाये उसी में सब्र कर लेगें।

कलावती ने सोचा कि शायद प्रभु ने उसे उसके पास इन साधुओं को पाप धोने के लिए एक अवसर के रूप में भेजा है सो जैसे तैसे उसने यथा योग्य अन्न से साधुओं को तृप्त कराया तभी अजामिल भी कुटिया में पहुंच गया और साधुओं को देख इतना क्रोधित हुआ कि साधुओं का दिल भर के अपमान किया प्रतिक्रिया स्वरूप साधु केवल मुस्कुराये और अजामिल से भोजन के बाद दक्षिणा के मांग की।

अजामिल बोला- ये जो आपके पास आसन, दण्ड, कमण्डलु और चिमटा है उसे तुम दक्षिणा समझ लो मेरी तरफ से, मैंने तुम्हारे प्राण लेकर ये छिना नही यही दक्षिणा है, फिर भी साधुओं के आग्रह पर दक्षिणास्वरूप में अपने पुत्र का नाम नारायण रखने के लिए अजामिल ने हामी भरी साधु चले गए।

समय आया कलावती को पुत्र हुआ और अजामिल ने पत्नी के दबाव में आकर बेटे का नाम नारायण रखा। पता नही यह क्या लीला थी कि अजामिल अपने इस सातवे पुत्र को इतना प्यार करता था कि दिन भर हर बात पर उसे ही पुकारता नारायण ओ नारायण लेकिन विषयो का ग्रास बना अजामिल का तन खोखला तो हो ही चुका था और इस खोखले तन को अब बीमारी भर रही थी।

दिन दिन खत्म होते अजामिल का आखिरी दिन भी आ गया परलोक से उसे लेने यमदूत चल पड़े। लेकिन जब मृत्यु भय से तड़पती अजामिल ने फिर से अपने पुत्र नारायण को नारायण ओ नारायण कहकर पुकारा तो साधुओं के आशीर्वाद से उसके पुराने संस्कार पुनः जागृत हो उठे।

अंतकाल में उसकी आंखों के सामने गुरुदेव का वही दिव्य आश्रम घुमने लगा जहां कभी वह शिक्षित दीक्षित हुआ था और फिर सामने आ गया वही मुस्कुराता सा अलौकिक चेहरा जिसे छोड़कर वह किसी और के मुस्कुराहट के पीछे लग गया था। गुरुदेव का दर्शन होते ही अजामिल को श्वास-श्वास में रमण करने वाले नारायण का स्मरण हो उठा।

अजामिल के यूँ सुमिरन करते ही यमदुत पीछे हट गए और विष्णु लोक से देवदूत सामने उपस्थित हो उठे। अजामिल को यमदूत स्पर्श तक न कर सके। अकाल मृत्यु टल गई और अजामिल की जीवन अवधि बढ़ गई।

परन्तु अब अजामिल के नेत्र पूर्णतः खुल चुके थे वह अपना शेष जीवन तपस्या पूर्ण व्यतीत करते हुए उच्च गति का अधिकारी बना। लेकिन यह सारी घटना के पीछे फिर उसी सत्ता की शास्वत करुणा दिखी जिसे सद्गुरु कहकर संबोधित करते है। अजामिल बेहद ही अधमता तक गया, अत्यंत पाप की पराकाष्ठा तक गया लेकिन उसके गुरुदेव उसे तब भी न भूले औऱ सन्तो को निमित्त बनाकर उसे नारायण शब्द से ऐसा जोड़ा कि अंतिम क्षणों में इसी नारायण शब्द के बहाने वह अंदर के नारायण से जुड़ा। यह भी गुरु का ही संकल्प है कि मेरे शिष्य का कल्याण हो फिर निमित्त कुछ भी हो।

एक कल्पित कथा है कहते हैं कि एक बार एक व्यक्ति दूध लेने दुकान पर गया दूध लेकर हंसी खुशी वापस लौटा।उसकी पत्नी ने उस दुध को गर्म किया औऱ फिर अपने पति को पीने के लिए दे दिया। दूध पीने के कुछ ही देर बाद पति की मृत्यु हो गई। पत्नी जोर- जोर से रोने चिल्लाने लगी अड़ोसी-पड़ोसी सब इकठ्ठे हुए। मृत्यु का कारण पता चलने पर सभी डंडे लेकर दुकानदार के पास चले गए उसे खूब मारा पीटा। इधर यमदूत उस व्यक्ति की आत्मा को लेकर यमराज के पास पहुंचा और कहा कि हे यमदेव इसके मृत्यु का दोषी किसे ठहराया जाय? क्या उस दुकानदार को जिसने उसे जहर भरा दूध दिया।

यमराज ने कहा- उस बेचारे का क्या दोष उसे तो पता भी नही था कि दूध में जहर है वह जहर तो सांप के मुँह से उस दूध में गिरा था। यमदूत ने कहा- फिर सांप इस व्यक्ति के मृत्यु का दोषी हुआ यमराज ने कहा- नही सांप तो चील के पंजो में दबा था। उसने जानकर तो विष को दूध में घोला नही।

यमदूत बोला- फिर तो चील इसकी दोषी है, नही.. चील तो अपना शिकार ले जा रही थी विष और दूध से उसका क्या लेना देना। तो देव फिर दोषी कौन है? यमराज ने कहा- इस व्यक्ति के स्वयं के कर्म इसके कर्म की गठरी ने ही इसकी मृत्यु के लिए यह मंच रचा दुकानदार, सर्प, चील आदि तो सब केवल निमित्त मात्र बने।

ठीक इसी तरह आज यदि हमारे जीवन मे भी कोई दुख,संकट है तो उसका कारण हमारे कर्म संस्कार है और इन कर्म संस्कारो को नष्ट किये बिना दुख नष्ट नही हो सकते शास्त्र कहते है कि-

*ज्ञान अग्नि सर्वकर्माणि भस्मस्यात कुरुते अर्जुनह*

अर्थात केवल सद्गुरु के ज्ञान की अग्नि ही ऐसी अग्नि है जो कर्मो के बीज को नाश कर सकती है अन्यत्र कुछ नही।

अजामिल की कथा हमें यह अमर सन्देश छोड़ गई कि हम सभी शिष्यो के लिए वह एक भूल, जो कभी शिष्य को भूलकर भी नही करनी है वह है गुरु आज्ञा की अवहेलना।

धन्य है आचार्य शंकर की गुरु भक्ति


गुरु कृपा का छोटे से छोटा बिंदु भी इस संसार के कष्टों से मनुष्य को मुक्त करने में पर्याप्त है। केवल गुरु कृपा के द्वारा ही साधक आध्यात्मिक मार्ग में लगा रह सकता है एवं तमाम प्रकार के बंधनों एवं आसक्तियों को तोड़ सकता है । जो शिष्य अहंकार से भरा हुआ है , जो गुरु के वचनों को सुनता नहीं अथवा सुना अनसुना करता है उसका आखिर नाश होता है । जिन गुरु को आत्मा साक्षात्कार हुआ है , ऐसे गुरु में और ईश्वर में , कोई फर्क नहीं दोनों समान है और एक रूप है ।

श्रीमद आद्यशंकराचार्य अल्प अवस्था में ही भास्या समेत शास्त्रों में पारंगत हो गए थे । फल स्वरूप उनके मन में वैराग्य उत्पन हो गया था । उनके हृदय में प्राणी मात्र के कल्याण की भावनाए तब से ही थी जब उन्होंने होश संभाला । मां की आज्ञा लेकर बाल्य अवस्था में ही संन्यास ले लिया और आत्मज्ञान लाभ के लिए सदगुरु के खोज के लिए पैदल निकल पड़े । केरल प्रदेश से चलते चलते दो मास के बाद नर्मदा किनारे ओमकारनाथ पहुंचे । वहा पता चला के एक गुफा मे कोई महान योगी सैकड़ों वर्षों से समाधिस्थ हुए बैठे हैं । इस परिपक्व जिज्ञासु का हृदय आनंद से पुलकित हो उठा ।

गुरु के लिए इस बालक की तीव्र जिज्ञासा जानकर , वहां के वृद्ध संन्यासियों ने कहा , के हे बालक तुम धन्य हो ! धन्य हे तुम्हारी तितिक्षा और गुरुभक्ति ! यहां पर महा योगी श्रीमान गोविंद पादाचारिया बैठे हैं । कब से बैठे है यह कोई नहीं जानता । उनसे उपदेश पाने की प्रतीक्षा में बैठे हम भी वृद्ध हो चले ।

बालक शंकर ने वृद्ध सन्यासी के संकेत अनुसार दीपक लेकर उस अंधकार गुफा में प्रवेश किया । वहा एक अति दीर्घ काया लंबी जटावाले एक योगी पद्मासन में धन्यास्त बैठे थे । उनकी त्वचा सुख चुकी थी । देह कंकाल मात्र अवशेष रहीं थीं फिर भी ज्योतिर्मय थी । जिनके पावन चरणकमलों में आश्रय पाने के लिए कोमल वय में ही इतनी लंबी यात्रा की, उन गुरुदेव के दर्शन पाकर बालक शंकर का मन अनिर्वचनीय दिव्यानंद से भर उठा । वे भी ध्यान में लीन हो गए । अगाध अश्रु जल से उनका वक्षस्‍थल भीग गया ।

वह भावावेश में आकर गुरूदेव की स्तुति करने लगा , ” हे प्रभु ! आप की महिमा अपार है । ब्रह्मज्ञान प्राप्ति की कामना से मै आप के श्री चरणों में आश्रय की भिक्षा मांगता हूं । समाधि भूमि से व्यतीत होकर इस दीन शिष्य को स्वीकार करें । ” इस प्रकार बालक शंकर की स्तुति से गुफ़ा मुखरित हो उठी । महायोगी के निश्चल निस्पंद देह में प्राणों का संपदन होने लगा । क्षणभर में उन्होंने एक दीर्घ नि:स्वास छोड कर आंखे खोली । उनका मन योगी प्रक्रिया द्वारा जीवन भूमि पर उतर आया । सहस्त्र वर्षों की समाधि एक सच्चे अधिकारी जिज्ञासु बालक के आने से छुटी। यह वार्ता तीव्र गति से चारों ओर फेल गई । दर्शन अभिलाषी नर- नारी के भीड़ ने ओंकारनाथ को एक तीर्थ क्षेत्र में परिवर्तित कर दिया ।

सदगुरु देव श्री गोविंद पादअर्चार्य ने बाल सन्यासी शंकर को शिष्य रूप से ग्रहण किया । उन्हें क्रम सह हठयोग , राजयोग और ज्ञानयोग सिखाया । साधन क्रम अनुसार अपरोक्ष अनुभूति के उच्च स्तर में सिद्ध प्रतिष्ठ कर दिया अद्वैत वेंदांत के आखिरी रहस्य का उदघाटन कर दिया । उनकी देह में ब्रह्म ज्योति प्रस्फुट हो उठी । यही बाल सन्यासी शंकर ” जगगुरु श्रीमद् आद्य शंकरचार्य ” हो गए । भारतीय संस्कृति की के अनुपम रत्न इस अर्चार्य योगदान को आज कौन नहीं जानता । धन्य है अर्चार्य शंकर की गुरु भक्ति ।

अजामिल का पतन (भाग-4)….


अजामिल आगे बढ़ा और गुरुदेव के चरणो में बैठकर बोला गुरुदेव आप कुछ उदास लग रहे हैं ? गुरुदेव कुछ पलों तक कुछ न बोले बस एक टक अजामिल को देखते ही रहे। अजामिल की दिल की धड़कने तेज़ हो गईं उसे लगा कि जैसे अभी करारी डाँट पड़ने वाली है। परंतु गुरूदेव तो अजामिल से कुछ सुनना चाहते थे। उसे समय औऱ मौका दे रहे थे कि वह अपने गुनाह को कुबूल कर ले ताकि वे उसे पतन की खाई में गिरने से बचा सके। परंतु जब अजामिल कुछ नही बोला तो गुरुदेव ही बोले- अजामिल मै स्वान पद्धति को लेकर बड़ा चितिंत हूँ।

अजामिल ने थोड़ा ठंडा श्वास लिया चलो शुक्र है गुरुदेव मेरी किसी बात पर रुष्ठ नही है। गुरुदेव ने कहा- मैं सोच रहा हूं कि जब हड्डी में कुछ रस ही नहीं औऱ माँस भी उस पर नहीं तो क्यों स्वान उसे जी जान लगाकर खाता है। अजामिल ने कहा- गुरुदेव! इसमें चिंतित होने वाली क्या बात है। कुत्ते को कुछ तो मिलता ही होगा। गुरुदेव ने कहा- हाँ मिलता है लेकिन सुख नहीं बल्कि दुख क्योंकि हड्ड़ी जब उसको जबड़ों औऱ मसूड़ो पर लगती हैं तो उसमें जख़्म कर रक्त निकाल देती हैं। और इसी रक्त का पान कर स्वान सोचता है कि शायद यह रक्त हड्ड़ी से मिल रहा है परंतु अनन्त: वह अथाह कष्ठ को प्राप्त करता है।

अजामिल बोला- लेकिन गुरुदेव इसमे आपको चिंतित होने की क्या आवश्यकता है यह तो स्वान का मामला है न। गुरुदेव ने कहा- परंतु आज मेरा एक शिष्य भी स्वान सा ही व्यवहार कर रहा है। इससे स्पष्ट गुरुदेव क्या कहते यदि कुछ कहते तो वे जानते थे कि अजामिल एक पल भी और आश्रम में नही रुक पाएगा। उसके सुधरने की सारी संभावनाए खत्म हो जाएगी। उनके अंजान होने का नाटक ही तो अब तक अजामिल को आश्रम मे रोके हुए था इसलिए वे ढके छुपे शब्दों में बार-बार उसे आगाह कर रहे थे परन्तु अजामिल समझ ही नही पा रहा था या समझना ही नही चाह रहा था।

पूरे दिन अजामिल का मन उचाट सा रहा। आश्रम उसे कैदखाना सा प्रतीत हो रहा था। वह दिन औऱ दिनों से कुछ ज्यादा ही लंबा लग रहा था। उसका दिल कर रहा था कि जल्द ही शाम हो और फिर वह उस कामनगरी का मेहमान बने। मन मे भिन्न-भिन्न संकल्प विकल्प आ रहे थे कि आज मैं यह करूँगा आज मै वो करूँगा और इन्ही चक्रियो में चकराया अजामिल गुरुदेव को प्रणाम कर जब आश्रम से निकलने लगा तो गुरुदेव फिर सांकेतिक भाषा मे बोले- अजामिल आज ध्यान से कदम रखना कहीं आज तू कीचड़ में बिल्कुल ही न धस जाए क्योंकि आज अंधेरा कुछ ज्यादा ही प्रतीत हो रहा है। इतना कहकर गुरुदेव आसन से उठे औऱ अपने कक्ष में चले गए परंतु अजामिल कुछ न समझा अगर समझा तो उल्टा ही समझा उसे लगा शायद गुरुदेव पर बुढापा हावी हो रहा है अभी तो ठीक से संध्या भी नही हुई और गुरुदेव को अंधेरा दिख रहा है औऱ दिन मे भी तो क्या बेतुकी चिंता कर रहे थे स्वान जैसे जानवर के लिए परेशान हो रहे थे। अरे सोचना है तो अपने शिष्यों के बारे में सोचे मेरी सोचे।

परंतु मुर्ख अजामिल नहीं जानता था कि गुरुदेव पर बुढ़ापा नही बल्कि उस पर शैतान हावी हो रहा है। गुरुदेव किसी स्वान के बारे में नही उसी के बारे में सोच रहे थे। यह बात और है कि वह स्वान से भी बदत्तर हो चला था। गुरुदेव हर कदम पर स्वयं को प्रकट कर रहे थे लेकिन अजामिल को कुछ दिखाई नही पड़ रहा था और अजामिल आश्रम से घर जाने के लिए निकला नही… घर जाने के लिए वह आज निकला ही नही था क्योंकि घर का नक्शा तो उसके दिमाग में था ही नही वह तो सीधा काम नगरी के लिए ही निकला था औऱ आज गणिकाएं भी सतर्क थी क्योंकि सभी के कानों तक यह खबर पहुंच चुकी थी कि एक नया शिकार दो दिन से बिना शिकार हुए खाली जा रहा है।

नागिन सी बलखाती सड़क पर अजामिल के लिए हर कदम पर डंक था। लेकिन हैरानी की बात तो यह है कि अजामिल को ज़हर की ही प्यास जग गई थी सो वह उनसे बच नही रहा था उनका मज़ा ले रहा था। जल्द ही वह कल वाले गणिका के कोठे के सामने जा खड़ा हुआ, गणिका भी जाल बिछाये हुए बिल्कुल तैयार बैठी थी। शून्य प्रतिरोध करता हुआ अजामिल उस गणिका के जाल में हँसते- हँसते कैद हो गया। रोज़ आश्रम की पवित्र माटी में बढ़ने वाले कदम कोठे की चार दिवारी का स्वाद चखने आज चढ़ गए कैसा दुखद मंजर था वह, जो हाथ गुरु की हाथ मे देने के लिए बना था वह वैश्या के शिकंजे में चला गया।

20 वर्षो से गुरुदेव ने जिसे तराशा था एक मिनट में वह चूर- चूर हो गया और आगे की कहानी तो मात्र कालिख की कहानी रह गई। बहुत समय तो नही लेकिन जितना भी समय अजामिल ने कोठे में गुजारा उससे यह तो तय था कि वह अब सीखा रखने का अधिकार खो बैठा था। कोठे से अजामिल बाहर आया तो स्वयं अपने हाथों से अपना चरित्र की कब्र सजाकर बाहर आया फिर कदम जल्दी-जल्दी समेटता हुआ घर पहुंचा।पिता ने देरी का कारण पूछा तो अजामिल ने पिता को बातो ही बातो में घुमा दिया। घुमाना तो था ही जो गुरु को भरमाने का दम रखता हो उसके लिए पिता चीज़ ही क्या है।

अगली सुबह अजामिल न तो ब्रम्हमुहूर्त में उठा और न ही उसने ध्यान किया क्योंकि सोते-सोते ध्यान कर रहा था उस गणिका का। जब सूरज सिर चढ़ आया तब पिता ने आवाज़ दी- बेटा अजामिल! बेटा अजामिल! क्या आज गुरुकुल नही जाना? गुरुकुल इस शब्द ने तो मानो उसके सिर पर फन दे मारा वह कम्पित सा हो उठा डरा, घबराया, सहमा सा वह आश्रम पहुंचा देखा कि गुरुदेव फूलो को सहला रहे थे मानो उन्हें समझा रहे थे कि अजामिल की तरह तुम भी कहीं मुरझा मत जाना। बहुत भँवरे है जो यहां वहां मंडारते है उन्हें अपने पास फ़टकने भी मत देना। तुम्हे तो पूर्णतः पवित्र रहते हुए प्रभु के चरणों मे चढ़ना है।

अजामिल की आत्मा यह मौन वार्ता सुन पा रही थी फिर गुरुदेव उन फूलो को छोड़ चिड़ियों के पास पहुंच गए और उन्हें दाना डालने लग गए। एक चिड़िया को हाथ में ले उसके पँखो पर हाथ फेरने लगे कहने लगे हे मेरी प्यारी चिड़िया अपने इन पँखो को समझा दे कहीं ये तुझे उड़ाकर काल नगरी न ले जाये।अजामिल दूर से यह सब देख रहा था आज पहली बार गुरुदेव सबको प्यार दे रहे थे बस अजामिल को छोड़कर उसको देखना तो दूर गुरुदेव ने उस दिशा की तरफ भी नही देखा जहाँ अजामिल खड़ा था।

अजामिल के मन में एक टीस सी उठी आखिर गुरुदेव ने मुझे आज प्यार क्यों नहीं दिया, तभी गुरुदेव एकदम पीछे पलटे और अजामिल पर जैसे नज़रे ही गाड़ दी। होठ तो गुरुदेव के अब भी शांत थे लेकिन नज़रे बहुत कुछ कह रही थी अजामिल प्यार खैरात में नही मिलता इसे कमाना पड़ता है और जो तू कृत्य करके आया है उसके बाद तो तू मेरे प्यार का क्या गुस्से का हकदार भी नही रहा।अजामिल 20 वर्षो से मैं तुझ पर काम कर रहा था, तुझे गढ़ रहा था, आकार दे रहा था, तराश रहा था और तूने एक पल में मेरी मूर्ति तोड़ दी। एकबार भी नही सोचा अपने छोटे से सुख के लिए तुमने मुझे कितना कष्ट दिया है तुझे इस बात का एहसास भी नही है।अरे इस पावन दरबार मे आकर तो पशु भी मानवता का आचरण करने लगते है और तू है कि मानव होकर भी पशु निकला इस तरह गुरुदेव बिना कुछ कहे ही सबकुछ कहकर वहां से चले गए।

गुरु के सानिध्य में अजामिल ने वर्षो बिताए थे वह गुरु के प्यार का आदि सा हो गया था इसलिए वह उनकी यह नाराजगी यह पराया पन उसे भीतर तक हिला गया। वह सोचने लगा आखिर मैने कल वह महापाप किया ही क्यो? कभी अजामिल अपने को कोसने लगा तो कभी अपने भाग्य को शायद। उसके पतन की कहानी वापस उत्थान की तरफ करवट ले रही थी लेकिन तभी…. अरे अजामिल! क्या हुआ क्यों खामखां बावरा हुआ जा रहा है मैं ही न अपना तेरा मन तेरा अहित थोड़ी न करूँगा मै।

याद है न कल वाली वह अकल्पनीय शाम चल ऐसा करते है कि आज आखिरी बार गनिकापुरी चलते है वहां उस गणिका से मिलकर उसे बता देते है कि तेरा अब उनसे कोई सम्बंध नही…नहीं तो वो बेचारी बेकार में हर रोज़ तेरी राह ताकेगी परेशान होगी।

मन ने मौका सम्भालते हुए अजामिल के लिए एकबार फिर गिरने का रास्ता तैयार कर दिया गुरु को एक किनारे कर दिया उनकी नाराजगी को एक किनारे कर दोया और दुर्भाग्य देखो कि अजामिल फिर गनिकापुरी पहुंच गया। लेकिन वहां जाते ही उनका क्षणिक वैराग्य कपड़े पर लगी धूल की तरह तुरन्त ही झड़ गया धरती का कण जैसे बवंडर का संग कर कहीं का कहीं जा गिरता है वैसे ही उस गणिका के बवंडर में अजामिल आगे से आगे जा गिरा बस अब वापस लौटने की उम्मीद खत्म हो गई। बालू का रेत अब मुट्ठी से निकल चुका था इसलिए गुरुदेव ने अजामिल के पिता को बुलाकर पूरी हकीकत बता डाली और उसे आश्रम से निकाल दिया गया।

आगे की कहानी कल की पोस्ट में दी जाएगी…..