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गुरुभक्त सुदत्त की रोचक कथा (भाग-2)


कल हमने जाना कि महात्मा बुद्ध का शिष्य सुदत्त, युवराज जेत की चुनौती स्वीकार करता है लेकिन कुमार जेत की चुनौती उसकी हैसियत से थोड़ी ऊंची थी। मामूली बात थोड़े न थी कई एकड़ की जमीन पर सोने के सिक्के बिछाना, खैर सुदत्त पूरी गति में था करानेवाला आप कराएगा यह सोचकर वह निमित्त बन गया।

अगले ही दिन से छकड़े के छकड़े भर-भरकर स्वर्ण मुद्राएं वन में आने लगीं वन की भूमि पीले सोने से चमक उठी। सुदत्त मुट्ठियां भर-भरकर मुद्राएं उठाता फिर जमीन को प्यार से सहलाते हुए उस पर उन्हें बिछा देता करते- करते चौथाई वन सोने से ढक गया फिर आधा वन। सुदत्त ने अपने ख़ज़ाने खाली होते देखे तो व्यापार को समेटकर पाई-पाई इकट्ठे करने लगा साथ ही अपनी अन्य जमीन जायदाद भी बेचता गया, इन हालातों में भी उसने अपने नौकरों को भी कड़ी हिदायत दी कि जो भी हो तुम लंगर बन्द मत करना वरना श्रावस्ती के गरीब इसका इल्जाम गुरुदेव पर मड़ देंगे।

धीरे-धीरे यह खबर सारे श्रावस्ती में फैल गई युवराज जेत को भी मानो तेज झटके लगे वह तुरन्त वन पहुंचे वहां आकर देखा लगभग तीन चौथाई ( 3/4 ) वन सोने की मुद्राओं से ढका जा चुका था। सोने से लदे छकड़े कतारे लगाकर खड़े थे। जेत से रहा न गया सुदत्त से बोला कि- क्यों कर रहे हो ये पागलपन आखिर किसके लिए कर रहे हो?

सुदत्त ने जेत की आंखों में आंखे डालकर देखा और बोला- उसके लिए जो इस वन का ही नही सकल जगत का स्वामी है, जिसके आने से श्रावस्थी में सौभाग्य का नया सूर्य उदय होगा, उसके लिए जिसके एक मुस्कान के आगे ये करोड़ो मुद्राएं तुच्छ है, जिसकी एक दृष्टि में तीनों लोकों के सुख समाए है।

युवराज जेत ने बीच मे ही टोका- कौन है वो?

-मेरे स्वामी मेरे गुरुदेव है।

-सुदत्त समझते क्यों नही उनके आने से पहले तुम कंगाल हो जाओगे सड़क पर आ जाओगे।

सुदत्त ने कहा- समझते तुम नही कुमार उनके आने से मैं ही नही समस्त श्रावस्थी के दरिद्रता हर जाएगी सब आत्मिक स्तर पर धनी हो जाएंगे पूर्ण आनंदित।

जेत ने लम्बी गहरी श्वांस भरी इतने में देखा कि सुदत्त पर गजब का उन्माद छा आया है कभी धरा पे लोट रहा है, कभी दौड़कर शिलाओं को सहलाता है साथ- साथ कहे जा रहा है देखो कुमार देखो !! जब मेरे प्रभु इस धरा पर चलेंगे तो यह पगली भी आनन्दित होगी, जब मेरे गुरुदेव इस शिला पर बैठकर ध्यान करेंगे तो यह पत्थर भी निर्वाण पा लेंगे, इस वृक्ष के नीचे बैठकर जब मेरे गुरुदेव दर्शन एवं उपदेश देंगे तो यह भी आनंद का धनी हो जाएगा, ये हवाएं ये पवन जब ये मेरे गुरुदेव के वचनों को पाएंगे तो अपने आपको धन्य महसूस करेंगे गुरुदेव का चीवर छुयेगी तो यह भी धन्य हो जाएगी।

बस-बस शांत हो जाओ सुदत्त कुमार जेत कह उठा कुछ मिनटो तक ठिठकी हुई आंखों से जेत सुदत्त को घूरता रहा फिर अचानक बोला- शिष्य की ऊंचाई देख ली परन्तु अब उसके भगवान की ऊंचाई देखना चाहते है सुदत्त, अब एक भी और सिक्का इस वन में मत बिछाना बची हुई जमीन हमारी ओर से उपहार समझो । हम भी तुम्हारे गुरुदेव से मिलने के लिए अधीर है ।

आखिर वह पुण्य घड़ी भी आ गईं कुछ दिनों के बाद सभी वन के बाहर फूल मालाये लेकर गुरुदेव के इंतजार में खड़े है दूर से लाल रंग का सैलाब उमड़ता दिखाई दिया इन सबके आगे चल रहे थे महात्मा बुद्ध हंसो के झुंड के बीच उनके राजा की निराली ही उड़ान थी। स्मित मन्द करुणा भरी मुस्कान बिखेरते हुए गुरुदेव बढ़े आ रहे थे उन्हें देखते ही सुदत्त तन्द्रा में उतर गया मानो बसन्त का एक ठंडा झोंका धीरे से उनके कानों में कह गया- देख श्रावस्थी के अनाथ पिंडक पूरे ब्रम्हांड को अपनी करुणा से जिलाने वाले विश्व के अनाथ

पिंडक अनाथों के नाथ आ रहा है…

तुमको जो छू करके आती है हवाये,

महका दे तन मन ये महक फिजायें।

न जाने किस ऋतु की बारिश थी यह जो सुदत्त की आंखों से बरस उठी भव्य स्वागत के बीच महात्मा बुद्ध और उनके संघ ने वन में प्रवेश किया कुछ क्षणों के बाद सुदत्त अपने गुरुदेव के सामने था कुमार जेत भी पास खड़ा था ।

महात्मा बुद्ध ने कहा- सुदत्त तूने तो मुझे सिर से पांव तक सोने में मढ दिया रे।

सुदत्त ने कहा- गुरुदेव! आपका दिया आपको दिया, मेरा क्या था भगवान?

बुद्ध मुस्कुराए फिर पूछे- तूने इस वन का क्या नाम रखा है सुदत्त?

सुदत्त हाथ जोड़ते हुए बोला- प्रभु! यह शुभ कार्य आप ही की प्रतीक्षा कर रहा था, वैसे भगवन युवराज जेत ने हमे इस वन का बहुत बड़ा भाग बेमोल दान में दिया है क्यों न उन्ही के नाम पर वन…..।

– ठीक है ठीक है सुदत्त आज से यह वन “जेत वन” कहलायेगा।

कुमार जेत नम्र शाखा की तरह बुद्ध के चरणों मे झुक गए अरदास की प्रभु सिर्फ एक चौथाई ( 1/4 ) भूमि अर्पित करने वाले को आपने इतना सम्मान दे डाला कि इतिहास में मेरा नाम उज्ज्वल हो गया ये वन जेत वन के नाम से प्रसिद्ध होगा परन्तु प्रभु क्या अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले इस सुदत्त को कुछ न दोगे।

बुद्ध बोले- सुदत्त तो लेन- देन के व्यापार से बहुत ऊंचा उठ चुका है इसने अपना सबकुछ मुझे दे दिया है अब मेरा सबकुछ इसीका तो है। क्या पिता को अपने पुत्र को कुछ देने की आवश्यकता है ? पिता का सबकुछ पुत्र का ही तो है। सच मे यह सौदा हर सौदे से बढ़कर था खरे से भी खरा, सुदत्त ने खुद को देकर अपने गुरुदेव को ले लिया था।

धन्य है ऐसे शिष्य जिनकी जीवन गाथा, जिनका जीवन चरित्र पढ़ने के लिए इतिहास में हमे लौटने का मन करता है। अपने लिए तो हर कोई कमाता है धन इक्कठे करता है समाज मे दानियों की भी कमी नही मगर कितने ऐसे है जो अपने गुरुदेव अपने प्रभु के लिए सर्वस्व अर्पण कर जाते है ।

एक शिष्य के लिए सच्ची लक्ष्मी तो उसके गुरु के प्रति की हुई सेवा उसका गुरु चिंतन है। इस सच्ची लक्ष्मी तो हमारे भाग्य में है लेकिन हम उसे कितना बटोर पाते है.. सच्ची लक्ष्मी तो हमारे जोगी की प्रसन्नता है, उनकी एक मीठी मुस्कान है, उनकी एक दृष्टि है जिसे हमे खूब यत्न पूर्वक अर्जित करना चाहिए यह सच्ची लक्ष्मी की प्राप्ति मात्र और मात्र गुरुदेव के सिद्धांतों के सूत्र को पकड़ने से ही प्राप्त होती है इसलिए कहते है कि-

जब जन प्रभु से प्रभु को मांगे, उसे प्रार्थना जानो।

धन संसार पदार्थ मांगे, तो उसे गोखर मानो।

लोग कहे हम तो मांगेंगे, है अधिकार हमारा।

उससे नही तो किससे मांगे,

उस बिन कौन हमारा।

माना उस पे हक है सबका,

है अधिकार हमारा।

पर फर्ज हमारा प्रति क्या उसके,

ये तो कभी न जाना।

अधिकार संग फर्ज जुड़ा है,

ये जन उसको जानो।

गर चाहते हो हिस्सा उससे,

तो फर्ज निभाना जानो।

दाता ने मानव तन देकर,

हम पर एक उपकार किया।

तत्व रूप से जाने उसको,

मोक्ष मार्ग यह प्रदान किया।

इसलिए इस तन को पाकर,

ईश्वर से ईश्वर को मांगो।

धन संसार न मांगो उससे,

भक्ति शक्ति सेवा मांगो।

ईश्वर की इच्छा को जिसने,

तन मन से स्वीकार किया।

गुरु प्रेम तब बरसा उन पर भक्ति का रंग खूब चढ़ा,

गुरु प्रेम तब बरसा उन पर भक्ति का रंग खूब चढ़ा

गुरुभक्त सुदत्त की रोचक कथा (भाग-1)


गुरु का आना सुख का छाना,

गुरु का जीवन प्रभु का दर्शन,

गुरु की वाणी गंगा का पानी,

गुरु का चेहरा फूलो के जैसा,

गुरु की दृष्टि रचे नई सृष्टि,

गुरु की काया चन्दन की छाया,

गुरु की आंखे सागर के जैसी।

सुदत्त भावनाओं की कलम से कुछ ऐसी ही कविता गढ़ रहा था। उसके गुरु थे महात्मा बुद्ध।उसके मानस पटल पर उन्ही की छवि साकार थी, उसकी श्वांसों में उसके गुरुदेव चन्दन की खुशबू की तरह बसे हुए थे। उसकी पुलक-पुलक में उनके होने का अहसास रहता था, मस्तक पर जैसे गुरु के चरण सजे है उसे हमेशा ऐसे लगता था। सच मे सुदत्त अपने गुरुदेव को हरपल पीता था, उन्ही में जिया करता था।

कहने को वह बुद्ध के संघ का समर्पित भिक्षुक न था एक गृहस्थी शिष्य ही था। रईसी उसे खानदानी जायदाद में मिली थी लेकिन माया की इन तेज फुंकारो के बीच होने पर भी उस पर जरा भी जहर न चढ़ा था वह मिठास से भरा था, गुरुभक्ति के अमृत से लबालब । यह इसी भक्ति की शक्ति थी कि वह ऐसा कर आया था। कैसा?? कि वो साक्षात अपने गुरुदेव को महात्मा बुद्ध को उनके सकल संघ के साथ अपने नगर श्रावस्थी आने का निमंत्रण दे आया था। भरी रसाई से रोधी आवाज में सुदत्त ने बुद्ध से कहा था कि- प्रभु श्रावस्थी युगों से प्यासा है, आपके स्नेह वर्षा के कुछ बौछारें वहां भी पड़ जाय तो हमारा अहोभाग्य, आप आएंगे न.. तथागत। महात्मा बुद्ध ने भी करकमल उठाकर पूरी प्रसन्नता से कहा- अवश्य सुदत्त! आनेवाला चतुर्मास हम श्रावस्थी में ही बिताएंगे।

भावनाओ के बूते सुदत्त ने सेवा का बीड़ा तो उठा लिया था परन्तु अब पुरुषार्थ के बूते पर उसे पूरा भी करना था श्रावस्थी में एक ऐसा स्थान ढूंढना था जहां गुरुदेव अपने सैंकड़ो भिक्षुओ के साथ चार महीनों तक विहार कर सके वैसे तो सुदत्त श्रावस्थी के चप्पे-चप्पे का जानकार था मगर महात्मा बुद्ध के लिए भूखण्ड ढूंढना आसान न था।

भिक्षुक आनंद ने बताया था कि- गुरुदेव को एकांत प्रिय है, इसलिए कोई ऐसा ठिकाना खोजना होगा जो नगर की भीड़भाड़ से दूर हो लेकिन वह ज्यादा दूर भी न होना चाहिए वरना भिक्षुओ को नगर में भिक्षा लेने आने में दिक्कत होगी, लोगो को गुरुदेव को सुनने और दर्शन करने में दिक्कत होगी। सुदत्त इन्ही ख्यालो के ताने बाने बुन रहा था। उसके रात दिन के चिंतन का यह बिंदु बन गया था कि कहाँ निवास करेंगे मेरे गुरुदेव? श्रावस्थी की वो कौन सी धरा है जहां जगतपति आंनद से विहार करेंगे इन्ही भावनाओ की कसौटी लेकर सुदत्त रोज सुबह श्रावस्थी के दौरे पर निकल पड़ता सभी सहचरों, परिचितों, रिश्तेदारों को अच्छी सी अच्छी भूमि सुझाने को कहता।

अपने कारोबार को तो सुदत्त ने मानो इन दिनों ताले ही लगा दिए थे सिर्फ एक ही धुन उसके सिर चढ़ बोल रही थी कि गुरुदेव और उनका श्रावस्थी में आगामी आगमन। अधीरता इतनी थी कि क्या कहे रातों को चौंककर उठ खड़ा होता सुबह तक का इंतजार पौ फटने तक एक-एक पल काटना उसे भारी जान पड़ता, उजाला होने से पहले ही नहा धोकर तैयार हो जाता और फिर जब सूरज की पहली किरण श्रावस्थी को छूती सुदत्त जमीन की खोज के लिए निकल पड़ता।

आखिरकार लगन की शाखा पर कौंपले फूटी श्रावस्थी की सीमा पर एक मनोरम आम्रवन पर सुदत्त की नज़र अटक गई क्या छटा थी यहां की जहां-तहाँ फूल फल पत्तियों से लदे पेड़ झूम रहे थे पुरा वन हरियाली से धुला था। हर मौसम के पौधे सुंदर क्यारियों में सजे थे भँवरों की झुंड इठलाती हुई घूम रहे थे, यहां की हवा भी ताजी और सात्विक थी, गुलाब और मोगरे की भीनी-भीनी खुशबू मानो सावन की हवाओ में घुली थी।

सुदत्त ठगा सा रह गया धरा क्या जैसे वैकुंठ था यह और भगवान तो वैकुंठ में ही रहा करते है इसलिए गुरुदेव के लिए यही स्थान उचित रहेगा। सुदत्त के मन मे इस आशा की कली चटकी ही थी कि बुद्ध ने उसे फला फुला फूल बना दिया सुदत्त को वन के चप्पे-चप्पे पर भगवे चीवर लहराते हुए दिखे *”बुद्धम शरणम गच्छामि”* की हल्की- हल्की धुनें फूटती सुनाई दी।

शिष्य के हर अनगढ़ विचारों को मिटाना या पूरा आकार देना यह गुरु का ही तो विरद है विचार अच्छा है तो गुरुवर उसको आधार देते है, विचार गलत है तो वे उसे जड़ समेत उखाड़ फेंकते है। आज सुदत्त को भी अपने गुरुदेव का इशारा मिल गया था अब उसकी उड़ान देखने वाली थी। उसने झट सूत्रों से पता लगाने को कहा कि जमीन किसकी है? पता चला कि कौशल नरेश के पुत्र युवराज जेत इस वन के स्वामी है।

सुदत्त ने उसी पल राजमहल पहुंचकर राजकुमार से भेंट की और प्रस्ताव रखा लेकिन राजकुमार जेत तो बिल्कुल अड़ियल निकला उसे यह वन बहुत प्यारा था वह उसके एक कोने तक का सौदा करने को तैयार नही था। सुदत्त ने दाम बढाकर बात की परन्तु सब निष्फल। जेत टस से मस नही हुआ सुदत्त घुटनो के बल गिरकर लगभग गिड़गिड़ाने लगा आखिरकार युवराज जेत ने यू ही हाथ हिलाते हुए बात टालने के लिए कह दिया- अरे जाओ, जाओ सुदत्त इस वन की तुम क्या कीमत आंकोगे? इसकी सारी भूमि पर स्वर्ण मुद्राएं बिछा दी जाये तब कहीं जाकर इसका मूल्य सधता है। है किसी मे जिगरा इसे खरीदने का?

युवराज जेत के लिए तो यह सुदत्त से पीछा छुड़ाने की युक्ति थी मगर सुदत्त के लिए यही मुक्ति की युक्ति बन गई उसने झट मायूसी की जंजीरे उतार फेंकी हाथ जोड़कर खनकती हुई खुशी में बोला- मैं खरीदूंगा, तुम्हारी पूरी वन पर स्वर्ण मुद्राओं की चादर बिछा दूंगा अब बस तुम अपनी जुबां से पीछे मत हटना, कुमार पीछे नही हटना, मैं वही मूल्य दूंगा जो तुमने कहा है। कुमार जेत स्तब्ध बड़े असमन्जस में पड़ गया लेकिन फिर उसके मन मे कौतुक उठा देखे तो सही कैसे उस कई एकड़ के वन में स्वर्ण मुद्राएं बिछता है,  हुं…… जेत व्यंग भरी मुस्कान दे उठा।

सुदत्त ने इस चुनौती को स्वीकार किया और चला गया दरअसल यह चुनौती धनी सुदत्त ने नही उसके शिष्यत्व ने स्वीकार की थी एक भोली सी आशा जो गुरुदेव को वन में विहार करते देखना चाहती थी आज एक तूफानी संकल्प बन गई थी। वही संकल्प कुमार जेत की शर्त को सर आंखों पर उठाकर ले आया था अब बारी थी शर्त पूरी करने की वैसे तो सुदत्त के खजानो में धन का सावन छाया रहता था माँ लक्ष्मी निरन्तर बरसात करती रहती थी।

दूर-दूर की कस्बो में सुदत्त को अनाथ पिंडक के नाम से जाना जाता था क्योंकि उसकी रसोई,अन्न भरे गोदाम गरीब असहायो के लिए हमेशा खुले रहते थे उसके लंगर के चूल्हे की आग कभी बुझती नही थी वहां आठो प्रहर श्रावस्थी के दीन – गरीबो को भर पेट भोजन मिला करता था। अनाथों के पिंडक अर्थात देह, अनाथों के पिंडक की देखभाल करने वाला सुदत्त इसलिए अनाथ पिंडक कहलाता लेकिन कुमार जेत की चुनौती उसकी हैसियत से थोड़ी ऊंची थी मामूली बात थोड़े न थी कई एकड़ जमीन पर सोने के सिक्के बिछाना खैर सुदत्त पूरी गति में था कराने वाला आप कराएगा यह सोचकर वह निमित्त बन गया।

कल की पोस्ट में हम जानेंगे कि सुदत्त किस प्रकार अपने गुरुदेव के लिए इस वन का सौदा करता है।

अमरपुर का वह अनोखा गरीब ब्राह्मण


गुरु इस पृथ्वी पर साक्षात ईश्वर है, सच्चे मित्र एवं विश्वास पात्र बन्धु है। हे भगवान! हे भगवान! मैं आपके आश्रय में आया हूँ मुझ पर दया करो, मुझे जन्म मृत्यु के सागर से बचाओ.. ऐसा कहकर शिष्य को अपने गुरु के चरण कमलों में दण्डवत प्रणाम करना चाहिए। जो अपने गुरु चरणों की पूजा निरपेक्ष भक्ति भाव पूर्वक करता है उसे गुरुकृपा सीधी प्राप्त होती है। तीव्र गुरुभक्ति के शक्तिशाली शस्त्र से मन को दूषित करने वाली आसक्ति को मूल सहित काट न दिया जाय तबतक विषयो का संग त्याग देना चाहिए।

एक घटित घटना – अक्कलकोट के स्वामी समर्थ एक सिद्ध पुरुष हो गए उनके बहुत से अनुयायी थे जिन पर वे सदा कृपा दृष्टि रखते थे।अमरपुर गाँव मे एक निर्धन ब्राहमण अपनी पत्नी के साथ रहता था।पति-पत्नी दोनों ही स्वामी समर्थ के भक्त थे। ब्राह्मण जीवन यापन के लिए प्रतिदिन गांवों में घूम-घूमकर भिक्षा माँगता था। भिक्षा में कम या अधिक जो कुछ भी मिलता उसी में दोनों पति-पत्नी गुजर बसर करते थे।

उस ब्राह्मण में एक विशेषता थी, वह अपने घर आये अतिथि का बहुत आदर सत्कार करता था। भिक्षा में प्राप्त अन्न से वह घर आने वाले हर अतिथि को भोजन अवश्य करवाता था। निर्धन ब्राह्मण की पत्नी भी बहुत सुशील थी घर आये किसी भी अतिथि को वह भूखे पेट कभी जाने नही देती थी। निर्धनता में भी पति-पत्नी अपनी गृहस्थी आनंदपूर्वक व्यतीत करते थे। वे अपना समय भक्ति में लीन ईश्वर के भजन गाते हुए बिता रहे थे।

एकबार स्वामी समर्थ कुछ दिनों के लिए अमरपुर गांव में आये वे भी भिक्षा के लिए घर-घर जाते थे और अपने सच्चे भक्तो को आशीर्वाद प्रदान करते थे। एकदिन स्वामी समर्थ इस गरीब ब्राह्मण के घर भीक्षा लेने पहुंचे उस समय ब्राह्मण स्वयं भीक्षा लेने के लिए गांव में गया हुआ था। घर मे अतिथि को आया देख ब्राह्मणी ने उन्हें बड़े आदर सत्कार के साथ बिठाया और उनकी पूजा अर्चना की किंतु घर मे अन्न का एक भी दाना न था इसलिए वह परेशान हो रही थी। वह यह संकोच में गड़ी जा रही थी कि गुरुदेव को क्या भोजन खिलाया जाय?

कुछ देर उलझन भरी अवस्था मे रहने के पश्चात उसे स्मरण हुआ कि घर के आंगन में घेवड़े (एक प्रकार की सब्जी है) का एक पौधा लगा हुआ है जिसमे बहुत सी फलियां लगी हुई है उसने तुरंत जाकर घेवड़े की कुछ फलिया तोड़ी और उसकी सब्जी बना ली।

स्वामी समर्थ को उसने भोजन में घेवड़े की सब्जी बड़े ही प्रेमपूर्वक परोस दी। स्वामी समर्थ सर्व ज्ञाता थे वे जानते थे कि ब्राह्मणी बड़े ही जतन से सब्जी बनाकर लाई है ऐसी भक्तिभावना देख कर गुरुदेव मन ही मन उसे सधा रहे थे।

भोजन के उपरांत ब्राह्मणी ने गुरुदेव से आशीर्वाद के लिए कहा, स्वामी समर्थ ने आंगन में लगे घेवड़े के पौधे को जड़ से उखाड़ दिया और कहा- यही तुम्हारे लिए आशीर्वाद है, अब तुम्हारी गरीबी मिट जाएगी।

निर्धन ब्राह्मणी पौधे को जड़ से उखड़ा देख बहुत दुखी हुई वह समझ नही पा रही थी कि आखिर गुरु जी ने पौधे को निकालकर फेंक क्यों दिया? कठिन समय मे उसे इसी पौधे का सहारा था। अपने हालात के बारे में सोच- सोचकर वह रोने लगी कुछ देर बाद जब ब्राह्मण घर लौटा तो उसने पत्नी को बहुत दुखी और उदास पाया जब उसने पत्नी से उदासी का कारण पूछा तब उसने सारी घटना ज्यो की त्यों सुना दी ।

ब्राह्मण ने पत्नी को सांत्वना देते हुए समझाया कि यदि गुरुदेव ने यह आशीर्वाद दिया है कि हमारी गरीबी अब जड़ से समाप्त हो जाएगी तो हमे उनके वचनों पर भरोसा करना चाहिए। जहां घेवड़े का पौधा गुरुदेव ने उखाड़ फेंका था वह स्थान अस्त-व्यस्त हो गया था, ब्राह्मण उस स्थान को साफ करने के लिए कुदाली से पौधे की बची-खुची जड़े काटने लगा।

खुदाई करते समय उसकी कुदाल एक मटके से जा टकराई ब्राह्मण ने मटका बाहर निकालकर देखा तो पाया वह तो हीरे-मोतियों से भरा हुआ था। ब्राह्मण पति-पत्नी यह देख आश्चर्यचकित रह गए।वे हीरे जवाहरात से भरे मटके को लेकर गुरुदेव के पास पहुंचे।

गुरुदेव ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा- यही आशीर्वाद था कि अब तुम्हारी गरीबी बिल्कुल मिट जाएगी, लो मिट गई। तुमने गुरु वचनों पर भरोसा रखा इसलिए यह संभव हुआ। वर्षो से गरीबी में जीवन व्यापन करने वाले पति- पत्नी बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने गुरुजी को उन पर हुई कृपा के लिए अनंत धन्यवाद दिये।

यह प्रसंग हम सभी साधक, शिष्यो को एक विलक्षण सीख प्रदान करती है। गुरु सदैव ही हमारे बाह्य सहारे पर जिस पर हम स्वयं को निर्भर रखते है उसी पर कुठाराघात करते है, कुठाराघात करके उसकी ममता, आसक्ति, और मान्यताओं को चकनाचूर कर देते है और परम सहारे की ओर अग्रसर करते है, स्व की शुद्धता के लिए अग्रसर करते है परन्तु विचारणीय तो यह है कि क्या हम गुरु की इस शल्य क्रिया की प्रक्रिया के लिए तैयार भी है या नही?? यदि नही तो अभी से तैयारी शुरू होनी चाहिए।

गुरु समस्त माइक, मान्यताओं और आसक्तियों के घोर शत्रु होते है परन्तु कभी यह जीव अपनी बुद्धि की मलिनता के कारण सद्गुरु को स्वयं का शत्रु मान बैठता है जितना हम मन में, बुद्धि में अपने ही द्वारा निर्मित मान्यताओं में जीते है उतनी मात्रा में सद्गुरु हमे विरोधी लगते है इसी लिए तो कहते है कि- गुरु कृपा के लिए याचना की आवश्यकता नही, गुरु तो सदैव शास्वत दाता है। हम ही लेने के लिए तत्तपर नही। जितनी मात्रा में शिष्य का समर्पण गुरु के वाक्यो के प्रति, उनके वचनों के प्रति होती है उतनी ही मात्रा में सतशिष्य उनकी कॄपा को ग्रहण कर पाता है।