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सिद्ध परंपरा का वह अद्भुत प्रसंग जो आपका जीवन बदल देगा….


गुरूभक्ति योग ही सर्वोत्तम योग है। कुछ शिष्य गुरु के महान शिष्य होने का आडम्बर करते हैं। लेकिन उनको गुरु वचन मे या कार्य मे विश्वास और श्रद्धा नही होती जो अद्वितीय है। सर्वशक्तिमान गुरु की संपूर्ण शरण मे जाओ। गुरु भक्ति योग आपको इसी जन्म मे धीरे-धीरे दृढ़ता, निश्चिंतता एवं अविचलता पूर्वक ईश्वर के प्रति ले जाता है। अहं भाव के विनाश से गुरुगुरुभक्तियोग का प्रारंभ होता है। और शाश्वत सुख की प्राप्ति मे परिणत होता है।

एक संत हो गए #तोकामाई चैतन्य बड़े ही अलमस्त ब्रह्मनिष्ठ संत एक बार संत तोकामाई चैतन्य के पास बारह वर्ष का एक बालक आया। उसने कहा हे महाराज मैं आपके चरणों मे रहना चाहता हूँ। आपकी सेवा में जीवन सफल करना चाहता हूँ। आपका सानिध्य पाकर धन्य धन्य होना चाहता हूँ।

संत तोकामाई ने कहा देख मेरे साथ तेरा गुजारा हो न सकेगा। तू यहाँ से चला जा। बालक बिलखने लगा कहा प्रभु कुछ दिन हमे अवसर दिया जाय। अगर मैं असफल हुआ तो आप जहाँ कहेंगे मै चला जाऊँगा। संत ने हामी भर दी। बालक का नाम गणू था।

बालक गणू तोकामाई जी की सेवा में दत्त चित् रहता झाडू पोछा करना, कपड़े साफ करना, स्नान के लिए पानी भरना जो भी सेवा होती दौड़ दौड़कर करता। संत बालक को प्यार तो करते थे परंतु जरा सी भी भूल हो तो इतना अधिक डाँटते कि आसपास देखने वालों को भी बालक पर दया आ जाती। कभी कभी तो तोकामाई जी इतना अधिक गणू को मारने के लिए दौड़ते और कभी कसकर पीट भी दिया करते।

संत के प्रति सभी आंगतुकों की श्रद्धा थी। इसलिए वे कुछ कहते तो नही परंतु बालक के प्रति सबके हृदय मे सहानुभूति और दया का भाव होता। सभी आंगतुक यही सोचते बल्कि गणू घर लौट जाता तो अच्छा होता। दिन रात सेवा तदुपरांत उपर से कटु कटु वाणियो का चाखन और कभी कभी छड़ी की पिटाई। परंतु बालक गणू अपने गुरु चरणो को पकड़े ही रहता। कोई शिकायत नही, न मोह से, न मन से।

एक बार तोकामाई जी ने कहा बेटे आज भिक्षा के लिए मै भी चलूँगा। झोली और कमण्डल गणू के हाथ मे थमाया। भिक्षाटन हो गया नगर भ्रमण हो गया। भिक्षा करके दोनो एक जगह बैठ कर भोजन किये। तदुपरांत पानी पीने के लिए नदी के तट पर आये। दोनो पानी पिये संत ने आंखे उठाकर आसपास देखा तो उन्होंने देखा कि तीन माइयाँ नदी मे कपड़े धो रही है। उनके तीन छोटे छोटे बच्चे थोड़ी दूर खेल रहे है।

संत एक किनारे थोड़ी दूर चले गये गणू को इशारे से बुलाया। गणू आया। संत ने कहा गणू जल्दी से एक गड्ढा खोद डाल। गड्ढा क्यूँ किसलिए? गणू ने कोई सवाल नही किया बस आदेश मिला गुरु का और गणू ने खोदना शुरू किया। अच्छा खासा गड्ढा खुलवाया तदुपरांत संत ने कहा बेटे देख तीनो माइयाँ मशगूल है कपड़े धोने मे। उनके तीनो बच्चे खेल रहे हैं। उन सबको चुपके से पकड़कर ले आओ। चिल्लाने न पाये। संत ने कहा तीनो बच्चो को गड्ढे मे डाल और जो मिट्टी है उसे भर दे उसमे और उसके उपर बैठकर तू ध्यान लगा।

बारह साल का बालक गणू तीनो बच्चो को गड्ढे मे धकेल दिया उपर से ढक दिया और फिर उसके उपर बैठकर ध्यान करने लगा। तीनो माइयाँ जब कपड़े धो ली तब अपने बच्चो को ढूंढने लगी जब चारो और ढुढ़ी। परंतु जब बच्चे नही दिखे दूर मे संत तोकामाई दिखे संत की प्रसिद्धी थी संत को देखकर तीनो माइया उनके पास दौड़ी और कहने लगी।

बाबा आपने मेरे बच्चो को देखा है क्या? बच्चे अभी यही खेल रहे थे और अभी कहाँ चले गए दिखते ही नही। संत ने कहा वह देख जो ढोंगी, कपटी आंख मूंदकर बैठा हुआ है वही तुम्हारे बच्चो को जानता है उससे पूछो कि तुम्हारे बच्चे कहाँ है। तीनो माइयाँ आयी बालक गणू को झकझोर कर पूछा कि कहाँ है हमारे बच्चे?

परंतु गणू चुप। बोले तो कैसे?

गुरु आज्ञा तो थी नही बोलने की।

तोकामाई दूर से ही चिल्लाये ऐसे नही बोलेगा, इसको पीटो। यही जानता है कि बच्चे कहाँ है। पीटो तब पता चलेगा। तीनो ने कसकर पिटाई की गणू की। जब मारते मारते थक गयी तो फिर आसपास के पेड़ की डालियो को तोड़कर जितना पीट सकी पीटा। गणू का पूरा शरीर मार खाकर चिन्ह सहित हो गया। फिर भी वह चुप रहा गुरु की आज्ञा न थी बोलने की।

संत तोकामाई पास आ गये उन्होंने कहा यह दुष्ट बहुत दम्भी है कपटी है देखो मिट्टी अभी नई नई लग रही है कहीं ऐसा तो नही इसने गड्ढा खोदकर तुम्हारे बच्चो को गड्ढे मे डाल दिया हो। गणू को धकेलकर एक तरफ हटाया गया संत ने कहा चलो चलो देखते हैं कहीं मिट्टी के अंदर तो बच्चे नही। जब मिट्टी को हटाया गया तो तीनो बच्चे मूर्छित। तीनो बच्चो को बाहर लेटा दिया गया। माइयो ने अपने बच्चो को मरा हुआ समझा। देखा तो वो तीनो की तीनो गणू के ऊपर भूत की तरह टूट पड़ी। जितनी पिटाई करनी थी जितना श्राप देना था दिया। इधर बिलख बिलख कर रो रही है और पिटाई भी करे जा रही है । खूब मार मारा और उसके बाद कहा मेरे बच्चे को तुमने मार डाला तो हम तुमको छोडेंगे नही। तुम्हे भी मार डालेंगे उसके बालो को पकड़कर घसीटने लग गई। दुसरी ने उसके गले को दबाया और तीसरी उसके पैर को पकड़कर विपरीत दिशा मे घसीटने लगी।

जब अच्छी तरह पिटाई हो गई गणू की तो संत तोकामाई चैतन्य ने कहा माइयाँ जरा देख तो बच्चे को जो तुम लोग मरा हुआ समझ रहे हो लेकिन ऐसा तो नही है वे बेहोश हैं। माइयाँ आई तो संत तोकामाई ने अपने कमण्डल से जल छिड़कते हुए कहा यह बच्चे तो बेहोश है थोड़ी देर मे ठीक हो जाएंगे। बच्चे थोड़ी देर मे होश मे आ गये। बच्चो को होश मे आया देखकर माइयो का सारा क्रोध उड़ गया अब कौन गणू को पीटे। अपने अपने बच्चे को गले लगा लिया उन्हे लगा कि कितने दिनो के बाद उनका खोया हुआ बच्चा उन्हे मिल गया और बड़ी अनहोनी टल गई।

आसपास बहुत भीड़ लग गई लोगो ने सुना की गणू की यह सब करामात है तो सबके सब जूता चप्पल जो भी मिला उसी से गणू की पिटाई करना शुरू कर दी तो भी गणू ने यह नही कहा कि यह गुरू की आज्ञा है। वह चुप ही रहा संत चुपके से गणू को अपने साथ लेकर आश्रम पहुचे उसके बाद शांति से बैठे। पूरे शरीर मे जुते और छङियो के निशान दर्द से बेहाल बच्चा। संत ने कहा क्यो बेटे और रहेगा मेरे साथ। कैसी रही आज की शिक्षा। बच्चे ने हाथ जोड़कर कहा #गुरू कृपा ही केवलम।

संत तोकामाई चैतन्य उसकी भक्ति उसकी श्रध्दा उसकी आस्था उसकी अटूट निष्ठा को देखकर उसके सिर पर हाथ फेरे बिना रह ना सके। उसे हृदय से लगा लिया और कहा बेटे तु तो सफल हुआ। तेरी गुरु भक्ति, गुरु निष्ठा रंग लाई। वही गणू नाम का बालक आगे चलकर महान सिध्द संत हुआ। जिसका नाम ब्रह्म चैतन्य #गौंदवलेकर जी के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

इस घटना के बाद अब, सब कुछ उन नन्हें योगियों के बदल जाने वाला था (भाग-3)


कुछ दिन पूर्व हम सभी ने यह प्रसंग पढा था कि गुरुदेव निवृति नाथ ने माडे खाने की इच्छा व्यक्त की, तब सौपान देव और ज्ञानदेव दोनों गांव में माड़े के लिए सामग्री इकट्ठा करने के लिए गए । जहां पर विसोबा चाटी द्वारा उनको अपमान एवम् तिरस्कार सहना पड़ा और इकट्ठी की हुई सामग्री भी मिट्टी में मिल गई । ज्ञानदेव वापस आकर अपने कुटीर की फाटक का किवाड़ बंद कर लेते हैं,

तब मुक्ताबाई ज्ञानदेव को ताटी अभंग द्वारा मनाती है, समझाती है, गाते-2 मुक्ताबाई स्वयं भाव-विभोर होकर रोने लगती है । तभी एक ब्राह्मण देव गांव से आकर उन्हें आटा दे जाते हैं, परंतु दुविधा यह है कि आटा तो मिल गया परन्तु बर्तन नहीं होता है । अब माड़े कैसे बनाए जाएं गुरुदेव के लिए, जब संत ज्ञानेश्वर ने मुक्ताबाई को रोते हुये देखा तो उन्होंने उनसे कहा कि मुक्ता तुम माड़े बनाने की तैयारी करो, बर्तन की व्यवस्था मैं कर दूंगा ।

मुक्ताबाई यह सुनकर बहुत खुश हो गई और तैयारी करने लगी, उधर संत ज्ञानेश्वर ने योगसिद्धि से अपनी पीठ को तवे की तरह तपा लिया और मुक्ताबाई से कहा तुम मेरी पीठ पर माड़े सेक लो । मुक्ताबाई ने ऐसा ही किया और बर्तन के बिना माड़े तैयार हो गये, जब गुरुदेव निवृति नाथ ने ज्ञानेश्वर को योग विद्या का प्रयोग करते देखा तो उन्हें समझाया कि योग विद्या एक महान विद्या है।

जिसका असली उद्देश्य मात्र ईश्वर प्राप्ति है, लोक कल्याण है उसे भूख, प्यास जैसी शारीरिक इच्छाओं और स्वार्थपूर्ति के लिए कभी प्रयोग नहीं करना चाहिए । ज्ञानदेव ने निवृतिनाथ जी की बात को गांठ बांध ली और फिर उन्होंने कभी अपनी योग विद्या का प्रयोग निजी कारणों के लिए नहीं किया । मुक्ताबाई ने अपने भाइयों को बड़े प्रेम से माड़े खिलाये, लेकिन जब उसके खाने की बारी आई तो उसकी थाली से एक काला कुता माड़े उठाकर भाग गया ।

मुक्ता भूखी ही रह गई, मगर फिर भी प्रसन्नचित, तभी गुरुदेव ने कहा अरे मुक्ता वह कुत्ता तेरा खाना उठाकर ले गया, तूने उसे डांटकर भगाया भी नहीं, ऊपर से तू खुश भी है, इस पर मुक्ता बोली किसे डराऊं, गुरुदेव विट्ठल स्वयं मेरे बनाये माड़े लेकर गये हैं, उनको मेरे बनाये माड़े इतने अच्छे लगे कि वे कुत्ते का रूप धर कर उसे खाने आ गये, मेरे लिए इससे बड़ी खुशी की बात और क्या होगी ।

मुक्ता का जवाब सुनकर गुरुदेव निवृतिनाथ मुस्कुरा उठे, आखिर गुरू उसके भावों की परीक्षा ही तो ले रहे थे । मुक्ता की बात सुनकर संत ज्ञानेश्वर बोले मुक्ता चल मान लिया, तेरा खाना उठाकर भागने वाला विट्ठल है मगर हमें इतना तंग करने वाला विसोबा कौन है मुक्ता बोली विसोबा भी विट्ठल ही है विट्ठल के हर शरीर में अलग-2 मानव स्वभाव हैं मगर उन सभी शरीरों के अंदर चेतना तो एक ही विराजमान है गुरुदेव , गुरुदेव मुझे तो विसोबा में भी विट्ठल के ही दर्शन होते हैं ।

बाहर खड़ा विसोबा झोंपड़ी की दरार से यह सारा दृश्य देख रहा था, वह पहले ही संत ज्ञानेश्वर के योग द्वारा पीठ को तपाने का चमत्कार देखकर आश्चर्यचकित, ऊपर से मुक्ता की बातें सुनकर उसका अहंकार पूरी तरह पिघलने लगा । उसे पहली बार अहसास हुआ कि वास्तव में ये कोई साधारण बच्चे नहीं बल्कि ज्ञान, योग और भक्ति की प्रतिमूर्ति हैं, इनका ज्ञान मेरी तरह किताबी नहीं है बल्कि इनके जीवन में उतर चुका है विसोबा को अपनी कुबुद्धि पर बड़ा पश्चाताप होने लगा ।

वह सोचने लगा कि मैंने ऐसे दिव्य बच्चों को सताने का पाप किया है अब इसका प्रायश्चित कैसे करूं, कैसे अपने पाप कर्मों की क्षमा मांगू । पश्चाताप के आंसू बहाता विसोबा उनकी झोंपड़ी के अंदर आया और संत के चरण पकड़ कर अपने कृत्यों के लिए क्षमा मांगने लगा । उसका अहंकार पूरी तरह से चारों बच्चों के चरणों में समर्पित हो गया, विसोबा संत ज्ञानेश्वर से उसे अपनी शरण में लेने का अनुरोध करने लगा ।

विसोबा का पश्चाताप देखकर सबने उसे क्षमा कर दिया । आगे चलकर निवृतिनाथ ने उन्हें उपदेश दिये और मुक्ताबाई विसोबा की गुरू हुईं । संत संतानों के बताए वास्तविक धर्म के मार्ग पर चलते-2 विसोबा ज्ञान और भक्ति में डूब गये । उनकी चेतना इतनी उच्च हो गई कि आगे चलकर वे संत विसोबा खेचर कहलाए गए । उन्होंने महाविष्णु-चा-अवतार, श्री गुरूमाझा-चा-ज्ञानेश्वर जैसे अभंग भी बनाकर गाये, इस कहानी में आयी तीन महत्वपूर्ण बातें अध्यात्मिक दृष्टि से मनन करने योग्य हैं,

पहली कि संसार में उपस्थित हर इंसान, जीव, वनस्पति और वस्तु में मूल रूप से उसी एकमय को देखना । दूसरी बात कि कभी भी अपनी शक्ति का स्वार्थ के लिए प्रयोग ना करना और तीसरी बात कि हमसे नफरत करने वाले, बुरा बर्ताव करने वाले को भी क्षमा करना, उसे भी भक्ति-युक्त प्रतिसाद देना । निवृतिनाथ परम सिद्ध योगी थे, उन्होंने अभावों को सहना मंजूर किया, मगर अपनी सिद्धियों का कभी भी स्वार्थपूर्ति के लिए दुरूपयोग नहीं किया ।

उन्होंने संत ज्ञानेश्वर के साथ-2 संसार को भी कितनी बड़ी शिक्षा दी कि शक्ति का प्रयोग भक्ति बढ़ाने के लिए हो, जन-कल्याण के लिए हो, स्वार्थपूर्ति और व्यक्तिगत महत्वकांक्षा पूरी करने के लिए न हो वरना लोग जरा सी शक्ति पाकर उसका दुरूपयोग करने लगते हैं, अपने लाभ के लिए तो बहुत छोटी बात है मगर वे उनका दूसरों के नुकसान के लिए भी प्रयोग कर डालते हैं ।

शक्ति मिलने पर लोग अहंकारी, स्वार्थी और असहनशील भी हो जाते हैं जबकि ज्ञान और शक्ति का प्रयोग सत्यप्राप्ति एवम् लोक-कल्याण के लिए ही होना चाहिए । संत ज्ञानेश्वर और उनके छोटे संघ ने सदैव ऐसा ही किया और लोगों को भी ऐसा ही करने की शिक्षा दी । यहां पर देखा जाए तो दोनों ही सदगुरु और संसार, दोनों ही अपने सिद्धांतों से एक-दूसरे के विपरीत हैं जहां सदगुरु का सिद्धांत स्व से पर कल्याण है वहीं संसार का सिद्धांत पर से स्वार्थ की पूर्ति है ।

प्रबुद्ध ब्रह्मनिष्ठ सदगुरु कभी भी चमत्कार दिखाकर या योगसिद्धि का प्रयोग कर लोगों को आकर्षित या भ्रमित नहीं करते, परन्तु यहीं संसार की धारणा क्या है कि वह चमत्कार को ही नमस्कार करना चाहती है हम अपने ही प्यारे गुरुदेव के जीवन पर दृष्टि डालें तो हम सभी ने देखा है कि पूज्यश्री शक्तियों के स्वामी होते हुए भी उन्होंने कभी भी उनका प्रदर्शन किसी को प्रभावित करने के लिए नहीं किया।

अपितु हम सभी साधकों के कल्याण के लिए ही किया है फिर चाहें वो ध्यानयोग शिविर में एक-साथ लाखों लोगों को उस महामाया की अधरामृत चखाने के लिए किया हो या फिर हम प्रत्येक साधक को संरक्षित करने के लिए किया हो । ऋद्धि-सिद्धि उसकी दासी, यदि वह संकल्प चलाए मुर्दा भी जीवित हो जाए, मृत गाय दिया जीवन दाना, सबका योग क्षेम वे रखते यह सभी बातें बापूजी के जीवन में मात्र परहित के लिए हैं,

यह हमारे पूज्य पुराण पुरुष हमारे गुरुदेव इन सिद्धियों का उपयोग तो स्व के लिए करने से भी परहेज रखते हैं क्यूं ! क्योंकि मेरे बापू का हृदय ही ऐसा है कि उन्होंने अपना सर्वस्व हमें ही समर्पित कर रखा है, उनके पास जो कुछ है वह सब उन्होंने हम साधकों को दे रखा है, हम साधकों के लिए सुरक्षित कर रखा है ।

कैसा अनौखा समर्पण होता है सदगुरु का अपने शिष्यों के लिए, कई बार हम सभी ने सुना है, पढ़ा भी है कि जैसे नाई अपने बाल स्वयं नहीं काटता, डॉक्टर अपना इलाज स्वयं नहीं करता वकील अपना केस स्वयं नहीं लड़ता, वैसे ही मैं भी अपने प्यारे साधकों के संकल्प से ही बाहर आऊंगा । इस वाक्य में स्वार्थ की दूषित गंध नहीं, परहित की पोषित सुगंध है । कहां तो समस्त ब्रह्माण्ड के स्वामी परन्तु आज अपने जीवन से पूज्य श्री हम सभी को यह सीख दिए जा रहे हैं कि औरों के लिए जियो सबके लिए जियो और अपने जीवन को सार्थक करो ।

बड़ा ही सुन्दर सूत्र है कि सबका मंगल सबका भला ।

इस घटना के बाद अब, सब कुछ उन नन्हें योगियों का बदल जाने वाला था (भाग-2)


कल हमने सुना कि साधु स्वभाव के माता-पिता के देहांत के बाद संत ज्ञानेश्वर के मन में कई सवाल उठने लगे, तब उनके गुरुदेव श्री निवृतिनाथ ने उन्हें प्रेरित किया कि यह दोष समाज का नहीं समाज की अज्ञानता का है । समाज को अज्ञानता और कुरीतियों से मुक्त करना है, तो उन्हें उन्हीं की सरल भाषा सीख अर्थात शास्त्र ज्ञान देना होगा । विट्ठल और रुक्मणि के देहांत प्रायश्चित के बाद भी समाज चारों बच्चों को किसी भी तरह का सहयोग करने के लिए तैयार नहीं था ।

जिस शुद्धिकरण और जनेऊ-संस्कार के लिये उनके माता-पिता ने अपना जीवन त्याग दिया, निवृति नाथ को उसकी जरूरत ही नहीं महसूस होती थी । वह अपने अनुभवों से यह स्पष्ट देख पा रहे थे कि वह तो पहले से ही शुद्ध हैं और उन्हें किसी के प्रमाण-पत्र की आवश्यकता ही नहीं, लेकिन सभी की सोच थी कि इस शुद्धि-पत्र से ही वे चारों इस समाज में लोगों के साथ मिलकर लोक-कल्याण का कार्य कर पायेंगे । निवृतिनाथ ने नियति की इच्छा पूरी करने हेतु आलंदी के ब्राह्मणों के पास जाकर उनसे शुद्धि-पत्र देने के लिए अनुरोध किया ।

ब्राह्मणों ने उनसे कहा कि शास्त्रों से आगे जाकर हम कोई भी निर्णय नहीं दे सकते, क्योंकि यह हमारे अधिकार क्षेत्र से बाहर है लेकिन पैठण की धर्म-पीठ के पास यह अधिकार है वहां धर्म से संबंधित गलत आचरण पर विचार करके उस पर स्वतंत्र निर्णय दिया जा सकता है, अतः तुम पैठण जाकर वहां के धर्म-पीठ से शुद्धि-पत्र के लिए अनुरोध करो । ब्राह्मणों के इस सुझाव को स्वीकार करते हुये ज्ञानदेव और निवृतिनाथ ने उनसे निवेदन पत्र लिया और पैठण की ओर रवाना हो गये ।

जब चारों भाई-बहन वहां पहुंचे तो जो धर्म संकट आलंदी के ब्राह्मणों के सामने आया था, वही पैठण की धर्म-पीठ के सामने भी आकर खड़ा हो गया । उन्होंने भी इस विषय पर काफी चर्चा की, अंत में निर्णय हुआ, क्योंकि यह चारों बच्चे बड़े तेजस्वी और ज्ञानी हैं एवम् इनके माता-पिता देहांत प्रायश्चित भी कर चुके हैं, अतः इनसे कुछ प्रतिज्ञायें करवाकर इन्हें ब्राह्मण समाज में शामिल कर लिया जाये । धर्म-पीठ ने बच्चों से कुछ प्रतिज्ञायें करने के लिये कहा, जैसे वे आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करेंगे, सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलेंगे आदि-2 ।

इन प्रतिज्ञाओं को बच्चों ने सहर्ष मंजूर कर लिया, प्रतिज्ञाओं में से एक प्रतिज्ञा यह भी थी कि वे समाज के जातिवाद के नियमों का सम्मान करेंगे । ब्राह्मण के अतिरिक्त अन्य किसी को भी वेद-शास्त्र आदि ज्ञान नहीं सिखायेंगे, मगर संत ज्ञानेश्वर को यह प्रतिज्ञा मंजूर नहीं थी, इसी बात पर उनकी अन्य ब्राह्मणों से बहस हो गई । संत ज्ञानेश्वर का कहना था कि प्रत्येक जीव में उसी गुरूतत्व, उसी परम-चैतन्य ईश्वर का वास है, सभी समान हैं इंसानों में तो भेद की बात छोड़िये, जानवर एवम् किसी अन्य जीव में भी कोई भेद नहीं है ।

यह बात सुनकर वहां उपस्थित सभी ब्राह्मण आग-बबूला हो गये और उनका घोर विरोध करने लगे, तभी वहां से एक भैंसा जा रहा था ब्राह्मणों ने संत ज्ञानेश्वर को चुनौती दी कि यदि इस भैंसे की और तेरी आत्मा एक ही है तो इससे भी अपनी तरह बुलवा कर दिखा ।

इस पर संत ज्ञानेश्वर ने चुनौती को स्वीकार करते हुए भैंसे के आगे वेद-मंत्र बोलने शुरू किये, सबकी आंखें उस समय खुली की खुली रह गईं, जब भैंसे ने भी उन मंत्रों को दोहराना शुरू कर दिया ।

यह चमत्कार देखकर वहां उपस्थित सभी लोग बालक ज्ञानदेव के आगे नतमस्तक हो गये । कुछ जगहों पर यह कथा भी सुनने को मिलती है कि उस भैंसे को चाबुक से मारा गया और उसके निशान संत ज्ञानेश्वर के शरीर पर दिखाई दिये । इस घटना से सभी ब्राह्मणों का अहंकार चूर-2 हो गया, वहां उपस्थित कई ब्राह्मणों को अपने व्यवहार पर पश्चाताप हुआ और वे सभी ज्ञानदेव के सामने समर्पित हो गये । इस तरह कुछ ही क्षणों में पूरा माहौल प्रेम और भक्तिभाव से भर गया, इसके बाद सभी ब्राह्मणों ने चारों बच्चों को आसन देकर आदरपूर्वक उन्हें शुद्धि-पत्र भी दिया ।

इस घटना की कीर्ति चारों ओर फैल गई, उन बच्चों को न केवल समाज में मान्यता मिली, बल्कि सम्मान भी मिलने लगा, इसके बाद बालक ज्ञानदेव संत ज्ञानेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हो गए । संत ज्ञानेश्वर और उनके भाई-बहनों की कीर्ति हवा से भी तेज गति से फैल रही थी, चारों दिशाओं से कई लोग इन चार विद्वान बालकों को देखने के लिए आ रहे थे । इतनी कम आयु में उनका ज्ञान और विद्वता देखकर सभी बहुत प्रभावित हुये, वे सरल और लोक-भाषा में जन-सामान्य को सत्य का श्रवण करा रहे थे , जिससे हर वर्ग और जाति का इंसान उनसे सहजता से जुड़ पा रहा था ।

हर कोई उनसे एक ही निवेदन कर रहा था कि वे उन्हें कुछ मार्गदर्शन दें, उपदेश दें कि संसार के बंधनों से मुक्ति कैसे संभव है मोक्ष प्राप्ति का मार्ग क्या है, लोग उनके संदेशों को सुनने भी लगे । अपनी बातों से वे ना सिर्फ ज्ञान और भक्ति का प्रचार, प्रसार करने लगे बल्कि समाज में फैले अज्ञान, भेदभाव, गलत मान्यताओं का भी डटकर विरोध करने लगे । इस तरह उन्होंने समाज के जागरण का जो उत्तम लक्ष्य ठाना था उसकी शुरुआत हो चुकी थी ।

यह महापुरुषों की करुणा ही होती है कि पतित समाज में पदार्पण कर वे उन्हें पतितपावन करते हैं, इसलिए स्वामी शिवानंद जी कहते हैं कि जिसने गुरू प्राप्त किये हैं ऐसे शिष्य के लिए ही अमृत्व के द्वार खुलते हैं । जिन्होंने ईश्वर के दर्शन किये हैं ऐसे गुरू का संग और सहवास ही शिष्य पर गहरा प्रभाव डालता है ।

तमाम प्रकार के अभ्यास की अपेक्षा गुरू का संग श्रेष्ठ है, गुरू का सत्संग शिष्य का पुनर्जन्म करने वाला मुख्य तत्व है, वह उसे दिव्य प्रकाश देता है और उसके लिए स्वर्ग के द्वार खोल देता है ।

साधकों को इतना ध्यान में रखना चाहिए कि केवल पुस्तकों का अभ्यास करने से या वाक्य रटने से अमृत्व नहीं मिलता, उससे तो वे अभिमानी बन जाते हैं जिसके द्वारा जीवन का कूट प्रश्न हल हो सके ऐसा सच्चा ज्ञान तो गुरू कृपा से ही प्राप्त हो सकता है केवल बुद्धिमान व्यक्ति के रूप में एक व्यक्ति की कोई अहमियत नहीं है उसे वास्तविकता का ज्ञान नहीं है किन्तु जब वह व्यक्ति गुरू के संपर्क में आता है तब उसमें सच्चा ज्ञान, सच्ची शक्ति और सच्चा आनंद प्रकट होता है वे गुरू भी ऐसे हों, जिन्होंने परमात्मा के साथ तादात्मय स्थापित किया हो ।

आगे की कहानी कल की पोस्ट में दी जाएगी….