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बाबा माधवदासजी की वह अनोखी तपविधि जो जन जन के लिए वरदान बन गई


गुरुभक्ति धर्म का सार है। गुरुभक्तियोग तमाम आध्यात्मिक प्रवृत्तियों का मूल है। गुरु के प्रति भक्तिभाव ईश्वरप्राप्ति का सरल एवं आनंददायक मार्ग है।

आनंद मानंद कर्म प्रसन्नम।
ज्ञान स्वरूपं निजबोधयुक्तम।।

गुरुदेव आनंदमय रूप है। वे शिष्यों को आनंद प्रदान करनेवाले हैं। वे प्रभु प्रसन्नमुख एवं ज्ञानमय हैं। गुरुदेव सदा आत्मबोध में निमग्न रहते हैं। योगीजन सदा उनकी ही स्तुति करते हैं। संसाररूपी रोग के वही एकमात्र वैद्य हैं।

शिष्य को अपने गुरुदेव के नाम का स्मरण उनकी गुणों के चिंतन के साथ करना चाहिए और शिष्य के जीवन में यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रहनी चाहिए। जिन्होंने ऐसा किया है या फिर ऐसा कर रहे हैं वे इससे होनेवाली अनुभूतियों व उपलब्धियों के स्वाद से परिचित हैं।

ऐसे ही एक सिद्ध तपस्वी हुए बाबा माधवदास। गंगा किनारे बसे वेणुपुर गाँव में उन्होंने गहन साधना की। गाँववाले उनके बारे में बस इतना ही बता पाते हैं कि बाबा जब गाँव में आये थे तब उनकी आयु लगभग 40 वर्ष की रही होगी। सामान के नाम पर उनके पास कुछ खास नहीं था। बस आये और गाँव के बाहर पीपल के पेड़ के नीचे ही जम गये। बाद में गाँववालों ने उनके लिए एक कुटिर बना दी।

बाबा माधवदास की एक ही साधना थी गुरुभक्ति। इसी ने उन्हें साधना के शिखर तक पहुँचाया था। जबतक उनके गुरुदेव थे, उन्होंने उनकी सेवा की। उनकी आज्ञा का पालन किया। बाद में उनके शरीर छोड़ने पर उन्हींकी आज्ञा से इस गाँव में चले आये।

चर्चा में गाँववालों को उन्होंने बताया कि उनके गुरुदेव कहा करते थे कि साधु पर भी समाज का ऋण होता है, सो उसे चुकाना चाहिए। ऐसा उनका मानना था कि 1-1 साधू 1-1 गाँव में जाकर ज्ञान की अलख जगाये। गाँव के लोगों को शिक्षा और संस्कार दे। उन्हें आध्यात्मिक जीवनदृष्टी प्रदान करे। अपने गुरु के आदेश के अनुसार वे सदा इन्हीं कामों में लगे रहते थे।

जब गाँववाले उनसे पूँछते कि वह इतना परिश्रम क्यों करते हैं ? तो वे कहा करते कि गुरु का आदेश मानना ही उनकी सच्ची सेवा होती हैं। बस, मैंने सारे जीवन उनके आदेश के अनुसार ही जीने का संकल्प लिया है।

बाबा माधवदास वेणुपुर के लोगों से कहा करते थे कि श्रद्धा का मतलब है समर्पण। याने की निम्मितमात्र हो जाना। मन में इस अनुभूति को बसा लेना कि मैं नहीं तू।

गुरुभक्ति का मतलब है कि, हे गुरुदेव! अब मैने स्वयं को समाप्त कर दिया है। अब तुम आओ और मेरे हृदय में विराजमान हो जाओ। अब मैं वैसे ही जिऊँगा जैसे कि तुम जिलाओगे। अब मेरी कोई मर्जी नहीं। तुम्हारी मर्जी ही मेरी मर्जी है।

माधवदास जैसा कहते थे वैसा ही उनका जीवन भी था। उनका कहना था कि शिष्य जिस दिन अपने आप को शव बना लेता है, उसी दिन उसके गुरुदेव उसमें प्रवेश कर उसे शिव बना देते हैं। जिस दिन शिष्य का अस्तित्व मिट जाता है, उसमें सद्गुरु प्रकट हो जाते है। फिर समस्त साधनाये स्वयं होने लगती है। सभी तप स्वयं होने लगते हैं।

शिष्य को यह बात हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि सत्कर्म एक ही है जिसे हमने न किया हो, बल्कि हमारे माध्यम से स्वयं गुरुदेव ने किया हो वही सत्कर्म है।जो भक्ति अहंकार को लेकर बहती हैं वह कभी पवित्र नहीं हो सकती। उसके प्रवाह के सानिध्य में कभी तीर्थ नहीं बन सकते। शिष्य के करने लायक एक ही यज्ञ है अपने अहम को भस्म कर देना और स्वयं गुरुमय हो जाना। समझने की बात यह है कि धूप में खड़े होना, अथवा भूखे मरने का नाम तपस्या नहीं है। स्वयं को विलीन कर देना यही सच्ची तपस्या है।

शिष्यधर्म को निभानेवाले बाबा माधवदास सारे जीवन यही तप करते रहे। इसी महान तप से उनका अस्तित्व जन-2 के लिए वरदान बन गया। परन्तु उनसे कोई उनके उपलब्धियों की बात करते तो वे हँस पड़ते और कहते, “मैं हूँ ही कहाँ? ये तो गुरुदेव हैं, जो इस शरीर को चला रहे हैं और अपने कर्म कर रहे हैं।

गुरुजी से आध्यात्मिक प्रश्नोत्तरी


महाराज जी मैं कई सालों से सेवा कर रहा हु पहले तो बड़ी आसानी से हो जाती थी पता ही नही चलता था कब शुरू हुई और कब खत्म लेकिन आजकल सेवा के दौरान बहुत सी दिक्कते आती है परेशानियों का सामना करना पड़ता है, ऐसा क्यों? महाराज जी ने कहा- क्योंकि अब तुम खुद को बड़ा समझने लगे हो पहले तुम बालक की नाई सेवा करते थे खुद को अबोध,आकर्ता मानते थे लेकिन अब तुम्हे लगने लगा है कि मुझमे सेवा करने की क्षमता सामर्थ्य आ गया है सेवा का अभ्यासी हो गया हूं खुद करने के काबिल हो गया हूं इस मैं-मैं में गुरु कहि पीछे छूट गए है जब गुरु छूट जाएंगे तो उनकी कृपा कैसे होगी? कृपा नही होगी तो परेशानियां तो आएंगी ही इसलिए जब कभी सेवा में दिक्कत आने लगे तो समझ जाओ कि गुरु से कनेक्शन टूट गया सो तुरंत सब छोड़कर पहले गुरु से प्रार्थना, अरदास करो उनसे संपर्क स्थापित करो फिर सारी परेशानियों का समाधान मिलता चला जायेगा कहि कोई दिक्कत नही रहेगी।महाराज जी मैने सेवा का बहुत महात्म्य सुना और पढा है इसलिए मैं तन-मन से सेवा करता हु फिर भी मुझे अपनी कोई आध्यात्मिक उन्नति होती महसूस नही होती ऐसा क्यों गुरुदेव? जानते हो अर्थशास्त्र का एक नियम होता है जितना कमाई पर ध्यान दिया जाता है उतना ही खर्च पर भी क्योंकि यदि कमाई और खर्च समान है तो जमापूंजी हमेशा शून्य ही रहेगी इसलिए यदि आप बचत करना चाहते है तो कमाए ज्यादा और खर्च करे कम ठीक यही नियम अध्यात्म के क्षेत्र में भी लागू होता है परन्तु विडम्बना है कि बहुत से साधक केवल एकतरफा पहलू पर ही ध्यान देते है यानी कमाई पर।जैसे कि आपने कहा मैं सेवा तो बहुत करता हु परन्तु साथ ही खर्च कितना करते हो, कभी विचार किया? आप सोचेंगे कि खर्चे से क्या मतलब है तो देखिए जब- जब भी आपके भीतर कोई नकारात्मक विचार आता है किसी गुरुभाई के प्रति द्वेष की बुद्धि होती है दुर्भाव पैदा होता है किसीको हानि पहुंचाने की इच्छा होती है तब-तब समझो कि हम अपना कमाया हुआ धन फेंक रहे है,कोई विकार रूपी सर्प अपना फन उठाये और हम उस तरफ ही चल पड़े तब समझना कि धन का नाश हो रहा है।साधक,सेवक एक कंजूस बनिया होना चाहिए जैसे कंजूस बनिया अपना धन के बड़ी ही सतर्कता से सम्भाल रखता है एक-एक पाई-पाई का सम्भाल सब हिसाब-किताब रखता है वैसे ही साधक को भी अपनी की हुई कमाई की सम्भाल रखनी चाहिए। मूर्ख जिज्ञासु सेवक अपनी कमाई खर्च करके अध्यात्मभ्र्ष्ट हो जाते है और दोषारोपण करते हुए कहते है कि यह मार्ग तो अर्थहीन है,ऐसे तो है नही। गुरु तो खजाना अनंत युगों से लुटाते आ रहे है और मूर्ख जिज्ञासु अर्थ शून्य ही रह जाते है।

किसे पता था, वर्षा में भीगता वह सन्यासी आज किसी का जीवन बदलने वाला था….


गुरु की सेवा करके आशीर्वाद प्राप्त करने के इच्छुक साधको को कुसंग से अवश्य दूर रहना चाहिये। इस माया का रहस्य कौन जान सकता है ? जो कुसंग का त्याग करते है, जो उदार हॄदय वाले गुरु की सेवा करते है, जो अहम भाव से मुक्त है और जो ममता रहित है वे इस माया का रहस्य जान सकते है, जो भक्तिभाव पूर्वक गुरु की सेवा करता है। वह जीवन के परम तत्व को प्राप्त करता है। राग द्वेष से मुक्त ऐसे गुरु का संग करने से मनुष्य आसक्ति रहित बनता है, उसे वैराग्य प्राप्त होता है उसमें गुरु के चरण कमलों के प्रति भक्ति जागती है।

महफ़िल थम चुकी थी सभी सेठ साहूकार गणिका के नृत्य का आंनद ले अपने-अपने घरों की ओर लौट चुके थे। संगीतज्ञ भी अपने वाद्य यंत्रों को यथोचित स्थान पर रखकर प्रस्थान कर चुके थे गणिका भी पांव से घुंघरू निकाल भोजन कर रही थी अचानक तेज बिजली चमकी बादलो में जोरदार गर्जना हुई फिर मुसलाधार बारिश भी शुरू हो गई।

गणिका भोजन ग्रहण कर हाथ धोने के लिए जब खिड़की के पास पहुंची तो अचानक उसकी नज़र नीचे सड़क पर एक छज्जे की ओट में खड़े युवा सन्यासी पर पड़ी। भगवा वस्त्र धारण किये वह सन्यासी ठंडी हवाओं व बौछारों से थर-थर कांप रहे थे। गणिका एक पवित्र भाव से टकटकी बांधे उस सन्यासी की ओर निहारती ही रह गयी सोचने पर मजबूर हो गयी आखिर यह युवा, एक सन्यासी क्यों हो गया ? संसार का सौंदर्य इसे क्यों न भाया, क्यों यह सब छोड़कर ईश्वर के सम्मुख हो गया ? ठंड से थर-थर कांपते उस सन्यासी के प्रति गणिका के मन मे आदर व दया के भाव उमड़े और उसने अपनी दासी को आदेश दिया- सामने जो महात्मा जी बारिश में भीग रहे है उन्हें अंदर आदर सहित ऊपर लिवा लाओ ।

दासी ने आदेश का तुरन्त पालन किया। शीघ्रता से सीढिया उतरकर सन्यासी के पास पहुंची और कहा- चलिए महात्मन ! ऊपर चले मालकिन ने आपको बुलाया है। सन्यासी दासी की बात को अनसुना कर पिंजरे में बंद अपने तोते को बारिश की फुहारों से बचाने का प्रयास करने लगे। दासी ने आग्रह पूर्ण स्वर में फिर बात दुहराई।

सन्यासी ने कहा- यह एक नाचने वाली गणिका का कोठा है न फिर मैं कैसे इसकी सीढियाँ चढ़ सकता हूँ ? कहां मैं प्रभु में मग्न रहने वाला और कहां ये भोग विलासिता के गर्त में डूबा कोठा। इस पाप के घर मैं चरण नही डाल सकता।
दासी लज्जित हो अपने आँचल को सम्भालती हुई तुरन्त लौट गई।

मालकिन को सन्यासी का संदेश देने ज्यो ही आगे बढ़ी तो उसके कदम थम गये उसने देखा कि गणिका बड़े हर्ष से आरती की थाली में कपूर, अगरबत्ती, तिलक, पुष्प, देशी घी का दिया तैयार कर सन्यासी का स्वागत करने के लिए खड़ी है। दासी को समझ नही आया कि मालकिन को कैसे कहे कि महात्मा जी ने उसका प्रस्ताव ठुकरा दिया है.. तभी गणिका ने पूछा- महात्मन आ रहे है न दासी, मैं जानती थी कि वे जरूर आएंगे मैने बचपन से अपनी भक्ति के फल के रूप में सन्तो की सेवा मांगी है ईश्वर से। यह सुनते ही दासी का अश्रुओं पर लगा बांध टूट गया और उसने रोते-रोते सारी बात गणिका को बता दी। जैसे ही दासी ने बात पूरी की गणिका के हाथो से आरती की थाली गिर गयी वह दासी की ओर धीमे कदमो से बढ़ी और पूछा ऐसा क्यों कहा उन्होंने ?

सन्यासी जी ने कहा आप…. आप गणिका है देह का व्यापार करते हुए विलासिता के गर्त में डूबी हुई, इससे पहले दासी कुछ और कह पाती गणिका ने अपने दोनों कानो पर हाथ रख लिए बस..बस… मैं और नही सुन सकती अश्रु की धाराएं गंगा की तेज़ प्रवाह की तरह गणिका के कपोलो पर उमड़ पड़ी बादलो की तेज गर्जना चमकती हुई बिजली उसके ऊपर सन्यासी के वचनों का प्रहार। यह वचन प्रहार गणिका पर वैसा ही प्रभावशाली सिद्ध हुआ जैसा कि हनुमान जी का मुष्टिका प्रहार लंकिनी पर हुआ था।

गणिका सोचने पर विवश हो गयी ठीक ही तो कहा उन सन्यासी ने क्या मैं सारा जीवन यूँ ही लोगो के लिए मनोरंजन का साधन बनी रहूँगी ? क्या मैं इतनी पापिनी हूँ, क्या मैं इतनी पापिन हो चुकी हूं कि सन्त चरण तक छूने का मुझे कोई अधिकार नही ?? जिस सौंदर्य को देखने के लिए लोग दूर-दूर से मेरे कोठे पर आते है क्या वही सौंदर्य सन्त की सेवा करने में बाधक बन गया है ? क्या मैं इतनी मलिन हो चुकी हूं कि दर-दर प्रभु का अलख जगाने वाले मेरे अन्तःकरण में उस प्रभु की अलख नही जगा सकते।

गणिका इन्ही प्रश्नों में उलझी हुई अपने शयन कक्ष के साथ बने छोटे से कृष्ण मंदिर में पहुंच गई भगवान श्री कृष्ण की मूर्ति के आगे सिर झुकाकर रोने लगी, सिर पटक- पटक कर बोली- हे कृष्ण ! मुझे अपनी जोगन बना, मेरे नाचने की कला का, गायन की कला का सदुपयोग हो माधव परन्तु.. पर यह कैसे हो पायेगा ? मलिन को स्वच्छ तो सन्त ही बनाते है, तुझ तक पहुंचने के द्वार भी तो वही खोलते है यह क्षमता तो उन्ही में होती है लेकिन आज वही सन्त मेरे कोठे पर आने को तैयार नही, हे भगवान ! मैं क्या करूँ ? गणिका के मन मे एक तूफान उठ गया प्रभु प्राप्ति का परन्तु प्रभु प्राप्ति के लिए चाहिए सन्त, सन्त की शरणागति जो बारिश की बौछारों का आनंद ले रहे थे, दूर खड़े हुए भी गणिका के मन को प्रेरित कर रहे थे अपनी रूहानी बूंदों से।

गणिका श्री कृष्ण की प्रतिमा के आगे रोते हुए बारम्बार यही पुकार करने लगी – हे कृष्ण ! हे माधव ! मेरा भी उद्धार करो इन सन्त महात्मा से कहो कि इस पापिन के मैंले वस्त्र को भी पावन करे.. तभी गणिका के मन मे एक पंक्ति गूंज गई जो कभी बचपन मे उसने सुनी थी इसी के साथ उसके निढाल शरीर मे जैसे जान आ गई,स्फूर्ति आ गई वह तेजी से उठी एक हाथ मे मैला वस्त्र और दुसरे हाथ मे स्वच्छ वस्त्र ले तीव्र गति से सीढिया उतर गई सीधे महात्मा जी के पास जा उनके चरणों मे गिर पड़ी बारिश मे भीगती गणिका व गणिका के अश्रुओं से भीगते नयन सन्तो के चरण प्रक्षालन करने लगे।

सन्त ने कहा- हे देवी ! उठिए आप भीग रही है, अपने तन को कष्ट मत दीजिये भीतर जाइये। गणिका भूमि से उठी फिर कराह उठी कष्ट.. कष्ट यह बारिश मुझे क्या देगी महात्मन कष्ट तो आपने मुझे दिया है मेरे निमन्त्रण को अस्वीकार कर, आप क्यों नही आये ऊपर ? माना कि मैं एक वैश्या हु, मलिन हु, पापिन हुं परन्तु मैं भी अब एक सुंदर जीवन जीना चाहती हु, विषय विकारो की बीमारी को जो खत्म कर दे ऐसी ज्ञानरूपी दवा चाहती हुं। वह ब्रम्हज्ञान रूपी औषध जो आप जैसे सन्तो के पास ही होती है, फिर उसने अपने दोनों हाथ आगे किये एक मे मैला व एक मे स्वच्छ वस्त्र था दोनों को सन्त के सामने कर प्रश्न किया महात्मन आप मेरी एक बात का उत्तर दीजिये धोबी के पास कौन सा वस्त्र जाता है मैला या स्वच्छ ?

संत ने कहा- यह तो सर्वविदित है कि धोबी के पास मैला वस्त्र ही जायेगा भला स्वच्छ क्यों जाए।
गणिका ने कहा- फिर मैं भी तो एक मैला वस्त्र के समान ही हु, मैंने सुना है गुरु धोबी शिष्य कपड़ा साबुन सर्जनहार इसलिए कृपया मेरी प्रार्थना स्वीकार करे मुझ मैले वस्त्र को भी प्रभु भक्तिरूपी साबुन से पावन कर दे।

संत जी ने तो यह लीला यही सब प्रक्रिया घटाने के लिए की थी, वे गणिका के मर चुके अन्तःकरण को पुनर्जीवित करने के लिए ही तो ठीक उसकी कोठे के सामने आकर खड़े हुए थे और उसकी दासी को इतने कटु शब्द कहे थे। प्रयोजन सिद्ध होने पर बोले चलिए देवी हमे आपका निमन्त्रण स्वीकार है। गणिका प्रसन्न मुद्रा से ऊपर की ओर दौड़ी झट से आरती का दीपक जलाया महात्मा जी की आरती उतारी और लोटे के जल से चरण पखारे फिर महात्मा जी से आसन पर विराजमान होने के लिए कहा उसके बाद शुद्धतम भावो व सामाग्री से भोजन बनाया। महात्मा जी ने भोजन ग्रहण किया अब बारी आई गणिका के भोजन करने की अर्थात उसके आत्मा के भोजन की।

गणिका ने कहा- महात्मन ! मैंने सुना है कि संतो के पास ज्ञान की चाबी होती है जिससे अज्ञानरूपी ताले को खोलकर वे घट भीतर ही प्रभु के अलौकिक प्रकाश का दर्शन करा देते है। मैं भी प्रभु प्रकाश को पाकर अपने जीवन की कालिमा को नष्ट कर देना चाहती हूँ। राग रंग की छिछली मस्ती से दूर सदा-सदा के लिए प्रभु आंनद की अनुभूति चाहती हूँ मुझपर कृपा करें।

महात्मा जी ने गणिका के सच्चे भावो को देख उसी क्षण उसे दीक्षा प्रदान कर दी। गणिका ने दिव्य प्रकाश का दर्शन किया अनहद कीर्तन घण्टे, शंख, नगाड़ो की ध्वनि सुन नाम व अमृत का भी अनुभव किया जिस कृष्ण के लिए वह बचपन से तड़पती रही आज घट भीतर ही केशव के दर्शन पाकर वह कृत कृत्य हो गयी उसने बारम्बार महात्मा जी से प्रार्थना किया व प्रणाम किया फिर खुशी से उसके कदम थिरक गए नाचते हुए उसने वही बात दुहराई जो कृष्ण दीवानी मीरा गाती थी
पायो जी मैंने नाम रत्न धन पायो

उधर बारिश थमी इधर नाचती हुई गणिका के कदम। जब महात्मा जी ने गणिका को कहा- देखो देवी ! अब तुम सुबह-शाम नियमित ध्यान साधना किया करना लोगो को ईश्वर की तरफ प्रेरित करना, ईश्वर के भक्ति की तरफ प्रेरित करना। तुम्हारा मधुर कण्ठ तुम्हे प्रभु की देन है इस कण्ठ से प्रभु के लिए गीत गाना, अपने आपको पूर्णतः सेवा में अर्पित कर दो सुंदर भावपूर्ण भजनों द्वारा लोगो के मन मे भक्तिभाव भरो, उन्हें देह के क्षणिक सौंदर्य की ओर नही बल्कि सौंदर्य के रचयिता उस प्रभु की ओर अग्रसर करो उसके बाद महात्मा जी पिंजरे सहित तोता सौंपते हुए गणिका से बोले- और हां ! कभी खुद को खाली मत छोड़ना जब कभी कुछ करने को न हो तो पिंजरे के इस तोते को राम नाम सिखाया करना।

महात्मा जी को मालूम था कि गणिका का जीवन किन हालातो से गुजरा है अथवा तो आगे किन हालातो से गुजरेगा साधना, सुमिरन, सत्संग के बाद कभी यदि ये खाली होगी तो इसका मन इसे पीछे की ओर अपनी वासनाओ की ओर ले जाएगा, बुरे विचारों की ओर अवश्य खींचेगा इसलिए उसके मन को व्यस्त रखने के लिए उसकी सेवा तोते को राम नाम सिखाने की लगा दी ततपश्चात गणिका को आशीर्वाद देकर महात्मा जी मन्दिर की सीढिया उतर गए। जी हां संत के चरण पड़ने से अब वह कोठा नही मन्दिर बन चुका था उसमें वास करने वाली वैश्या नही अब भक्ति मति हो चुकी थी। चाहे सबरी हो, चाहे मीरा हो, चाहे गार्गी आदि जो भी पूज्य माताएं हुई है वे ब्रम्हवेत्ता सद्गुरुओं की प्रसादी से हुई है। उन्हें स्व में स्थिति प्राप्त हुई है और साक्षात देवी का स्वरूप बन चुकी है, आदरणीय बन चुकी है और वे जगत में पूजनीय बन चुकी है ऐसे सद्गुरुओं को शत-शत प्रणाम !

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