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समर्थ रामदास जी का वह सत शिष्य कल्याण….


ज्ञान मार्ग के पथ प्रदर्शक गुरु की प्रशस्तिगान झुकती नही है, सच्चे गुरु सदैव शिष्य के अज्ञान का नाश करने में तथा उसे उपनिषदों का ज्ञान देने में संलग्न रहते है।आध्यत्मिक गुरु साधक को अपनी प्रेमपूर्ण एवं विवेकपूर्ण निगरानी में रखते है तथा आध्यात्मिक विकास के विभिन्न स्तरों में से उसे आगे बढाते है। सत्य के सच्चे खोजी को सहायभूत होने के लिए गुरु अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है ब्रह्म विषयक ज्ञान अति सूक्ष्म है शंकाएं पैदा होती है उनको दूर करने के लिए एवं मार्ग दिखाने के लिए ब्रह्मज्ञानी आध्यात्मिक गुरु की आवश्यकता होती है। साधक कितना भी बुद्धिमान हो फिर भी गुरु अथवा आध्यात्मिक आचार्य की सहाय के बिना वेदों की गहनता प्राप्त करना या उनका अभ्यास करना उसके लिए सम्भव नही है।

समर्थ रामदास जी उन्होंने अनेक भक्तिगीतों एवं भजनों की रचना की थी छत्रपति शिवाजी महाराज के अनुरोध पर वे अपने शिष्यो के साथ सज्जनगढ़ नामक किले पर रहने के लिए गए थे । उस समय किले पर पानी की व्यवस्था न थी गांव से किले तक पानी लाने की जिम्मेदारी समर्थ के कल्याण नामक एक शिष्य ने उठाई। यह कार्य कल्याण पूरी लगन और सेवाभाव से किया करता था उसका दिन भर का अधिकतम समय इस काम को पूरा करने में ही बीत जाता था इसलिए आध्यात्मिक शिक्षा और अपने गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के लिए उसके पास बहुत कम समय बचता था।

समर्थ के अन्य शिष्य दिन भर ग्रन्थ पढ़ते रहते थे वे समर्थ से वार्तालाप करके तथा प्रश्नोत्तरी के माध्यम से शिक्षा प्राप्त किया करते थे फिर भी गुरु रामदास स्वामी कल्याण को ही अपना सबसे प्रिय शिष्य मानते थे ऐसा उन नज़दीक रहने वाले शिष्यो को लगता था। दूसरे शिष्यो को इसका कारण समझ मे नही आता था इसलिए वे कल्याण से ईर्ष्या करते थे । समर्थ उनकी इस भावना से भलीभांति परिचित थे।

एक दिन पढ़ाते समय समर्थ ने शिष्यों से एक बड़ा ही कठिन सवाल पूछ लिया परन्तु कोई भी शिष्य उस प्रश्न का उत्तर न दे पाया उसी समय उनका प्रिय शिष्य कल्याण वहां से गुजर रहा था समर्थ ने उससे भी वही प्रश्न पूछा कल्याण ने सही उत्तर बताकर सभी शिष्यो को अचंभे में डाल दिया। शिष्यो ने गुरुजी से पूछा – गुरु जी यह कैसे सम्भव हुआ? कल्याण ने तो हमारी तरह इतनी शिक्षा भी ग्रहण न की फिर भी इतनी जटिल सवाल का जवाब वह कैसे दे पाया ?

गुरुजी ने शिष्यो से कहा- केवल कल्याण ही ऐसा शिष्य है जो ग्रन्थों में लिखी बातों का सही मायने में पालन करता है वह रोज भक्तिभाव से सेवा करता है मानो ईश्वर के लिए ही कर रहा हो केवल ग्रन्थों का ज्ञान पाना ही काफी नही होता।

समर्थ की बात सुनकर शिष्यो को अपनी गलती का एहसास हुआ उन्हें तो अपने अल्प ज्ञान में ही अहंकार था परन्तु कल्याण के ईश्वर के प्रति असीम प्रेम व गुरुभक्ति ने उसे ज्ञान का मार्ग दिखाया कहते है कि.. भक्त और सज्जन लोग की जुबान पर स्वयं सरस्वती माता विराजमान हो जाती है। माँ सरस्वती की कृपा से कल्याण गुरुजी के कठिन प्रश्न का सही उत्तर दे पाया।

अहंकारी इंसान का अहंकार हमेशा उसके अंदर की कमजोरी को बचाने का प्रयत्न करता है वह अपनी भूलो और गलतियों का इल्जाम दूसरो पर डालना चाहता है। अहंकारी इंसान अपने छोटे से छोटे गुणों को भी बढ़ा चढ़ाकर बताता है लेकिन दुसरो का बड़े से बड़ा गुण भी उसे कुछ खास नही लगता अपने भीतर के अहंकार के कारण दुसरो की अच्छाइयां उसे दिखाई नही देती या यूं कहें कि वह दूसरों की अच्छाइयां देखना ही नही चाहता । अपने छोटे से छोटे गुण भी उसे बहुत बड़े लगते है अपने अंदर की अच्छाइयों को तो वह तुरन्त देख लेता है अर्थात उसकी दूर की नज़र कमजोर और नज़दीक की नज़र बहुत तेज़ होती है।

अहंकारी इंसान को लगता है कि मैं कितना अच्छा हूँ, मैं कितना ज्ञानी हूँ मेरे अंदर कितने सारे सदगुण है लेकिन दूसरे के अच्छे गुणों को वह अनदेखा कर देता है तथा उन्हें स्वीकार नही करता फला ने फला काम किया तो कौन से बड़ा तीर मार दिया? यह काम तो कोई भी कर सकता है ऐसे तर्क कुतर्क करता है।

अहंकारी इंसान दूसरों की कमियों को बढ़ा-चढ़ाकर बताता है इस तरह वह अपने को हर बात में श्रेष्ठ साबित करना चाहता है। वह दुसरो की ज्ञान ध्यान की ओर देखता तक नही और सज्जन.. सज्जन व्यक्ति सज्जन साधक तो उसे कहते है जो दूसरों के सद्गुणों पर दृष्टि रखकर सद्गुण ग्राही बनता है । हम भी अच्छे शिष्य बन सकते है अगर हम ईश्वर से असीम प्रेम करे गुरु की आज्ञा को शिरोधार्य करे ईश्वरीय ज्ञान को ईश्वरीय गुणों को अपने अंदर धारण करे उसे अपने कार्य मे उतारे। हमे चाहिए कि हम सच्चे मन से सेवा करे और कल्याण की तरह अपने गुणों का विकास करे लेकिन उन गुणों पर अहंकार कभी न करें….।

दादा गुरु साँई श्री लीलाशाहजी महाराज का पत्र बापूजी को ..


जिनके लिए तीनो कालो में यह सृष्टि बनी ही नही ऐसे बापूजी के आगे कोई उनके गुरु की लेशमात्र चर्चा ही कर दे तो बापूजी की आंखों में अमृत का झरना फूट पड़ता है मानो उस सुखद दृश्य के आगे गुरुभक्ति बढ़ाने वाले सभी ग्रन्थ साहित्य फीके पड़ जाते है। ऐसे सत्शिष्य को सद्गुरु साईं श्री लीलाशाह जी महाराज ने 10 मार्च 1969 याद करते हुए हम जैसे पतित जीवों के उन्नति के लिए एक पत्र लिखा

प्रिय-प्रिय आसाराम!

विश्वरूप परिवार में खुश प्रसन्न हो,तुम्हारा पत्र मिला समाचार जाना जब तक शरीर है तब तक सुख-दुख ठंडी-गर्मी, लाभ-हानि,मान-अपमान होते रहते है सत्य वस्तु परमात्मा में जो संसार प्रतीत होता है वह आभास है कठिनाइयां तो आती जाती रहती है अपने सत्संग प्रवचन में अत्याधिक सदाचार और वैराग्य की बाते बताना सांसारिक वस्तुएँ, शरीर इत्यादिक हकीकत में विचार दृष्टि से देखे तो सुंदर नही है,आनंदमय नही है,प्रेम करने योग्य नही है और वे सत्य भी नही है ऐसा दृष्टांत देकर साबित करे जैसे शरीर को देखे तो वह गन्दगी और दुःख का थैला है नाक से रेठ, मुँह से लार, त्वचा से पसीना, गुदा से मल, शिश्न इन्द्रिय से मूत्र बहते रहते है उसी प्रकार कान,आँख से भी गन्दगी निकलती रहती है वायु शरीर मे जाते ही दूषित हो जाती है,अन्न-जल सब कफ पित्त और दूसरी गन्दगी में परिणित हो जाते है।बीमारी व बुढापे में शरीर को देखे किसीकी मौत हो जाये तो शरीर को देखे उसी मृत शरीर को कोई कमरे में चार दिन रखकर बाहर निकाले तो कोई वह खड़ा भी नही रह सकता विचार करके देखने से शरीर की पोल खुल जाएगी दूसरे वस्तुओं की भी ऐसी ही हालत समझनी चाहिए।आम कितना भी अच्छा हो तीन-चार हफ्ते उसे रखे रखोगे तो सड़ जाएगा बिगड़ जाएगा इतनी बदबू आएगी कि हाथ लगाने में भी घृणा होगी इस प्रकार के विचार लोगो को अधिक बताना ताकि उनके दिमाग मे पड़ी मोह की परतें खुल जाए।नर्मदा तट जाकर दस-पन्द्रह दिन रहकर आना दो बार स्नान करना अपने आत्म विचार में वेदांत ग्रन्थ के विचारों में निमग्न रहना। विशेष जब रूबरू मुलाकात होगी तब बताएंगे बस अब बन्द करता हूँ। शिव…

हे भगवान! सबको सद्बुद्धि दो शक्ति दो,निरोगता दो, सब अपने अपने कर्तव्य का पालन करें और सुखी रहे।

हरिओम शांति-शांति!

लीलाशाह….

क्यूँ शिष्य गुरु के पास हाथ में समिधा लिए जाते है, क्या कारण है पढि़ये …


सत्य के साधक को मन एवं इंद्रियों पर संयम रखकर अपने आचार्य के घर रहना चाहिए और खूब श्रद्धा एवं आदरपूर्वक गुरु की निगरानी में शास्त्रों का अभ्यास करना चाहिए। शिष्य को चुस्तता से ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए और आचार्य की पूजा करनी चाहिए। शिष्य को चाहिए कि वह आचार्य को साक्षात ईश्वर के रूप में माने, मनुष्य के रूप में कदापि नहीं। शिष्य को सब सुख वैभव का विष की तरह त्याग कर देना चाहिए और अपना शरीर गुरु की सेवा में सौंप देना चाहिए।

शास्त्रों ने, ऋषियों ने शिष्य के लक्षण बताते हुए कहे कि ,

*अलुब्ध स्थिरग्रात्रश्च आज्ञाकारी जितेंद्रियः।*

पहला लक्षण आदर्श शिष्य का ‘अलुब्ध’ अर्थात आदर्श शिष्य वह है जो अलुब्ध हो,जो लोभी न हो, जिसको गुरु से कोई लोभ नहीं। गुरु मुक्ति प्रदान कर दे वह भी लोभ नहीं। गुरु भक्ति दे दे वह भी लोभ नहीं। ‘अलुब्ध’– किसी भी प्रकार का लोभ नहीं। गुरु के पास गये हुए शिष्य के मन में कोई लोभ न हो। केवल एक ही बात कि मेरे गुरु मुझे एकबार कह दे कि “बेटा ! तू मेरा है।” बस! हो गई बात और कुछ नहीं चाहिए।

गोस्वामी जी कहते हैं कि एक बार राघव मुझे कह दे कि तुलसीदास मेरो है। अलुब्ध! लोग आज गुरु के पास जाते हैं तो प्रतिष्ठा के लोभ से जाते हैं। अपनी सेवा दिखाने के लिए जाते हैं। लोग खुद को प्रदर्शित करने के लिए जाते हैं।

गुरु तो पारसमणी हैं, लोहे को कंचन बना देंगे। लेकिन जो लोहा है, वह यदि कवच पहनकर जायेगा तो पारसमणी क्या करेगा? लोहे को यदि कपड़े में बांधकर पारस के पास रखो तो कुछ ना होगा। संसार में बहुधा लोग गुरुजनों के पास ऐसे ही जाते हैं। कई लोग तो गुरुजनों के पास गुरु बनने के लिए जाते हैं। कई लोग तो गुरु के पास जाने के बाद समाज में प्रसिद्ध हो जाते हैं और फिर ऐसी चर्चा करने लगते हैं कि इन गुरु महाराज को हमने ऊपर उठाया तब दुनिया उनको जानने लगी। रावण यही काम करता था– कैलाश को उठाकर दुनिया को कहता कि ये शंकर कोई बड़े नही थे। वह तो मैंने कैलाश को उठाया और दुनिया ने देखा फिर प्रसिद्ध हुए।

‘अलुब्ध’–जिसको कोई लोभ नहीं। शिष्य की शरणागति तो मिट्टी की शरणागति की तरह है। कुम्हार ने मिट्टी खोदी तब मिट्टी ने कुछ नहीं कहा। गधे पर रखी वह कुछ ना बोली। कुम्हार अपने आँगन में मिट्टी को ले आया, पानी डालकर पैरों से रौंदने लगा मिट्टी कुछ ना बोली। पिंड बनाया, चाकपर चढ़ाया,उसे घुमाया परन्तु मिट्टी कुछ ना बोली। न कहा कि तू मुझे लोटा बना, घड़ा बना अथवा तो कुछ और बना …नहीं, मिट्टी कुछ ना बोली। जो कुम्हार ने चाहा वह बना दिया, कुम्हार की मौज! उसको चाक से उतार दिया, मिट्टी कुछ ना बोली। धूप में तपाया, सुखाने के लिए अग्नि में डालकर उसको पकाया मिट्टी कुछ ना बोली। घड़े को कुम्हार ने बाजार में डालकर निलाम कर दिया।

खरीदने वाले टकोर मारकर ले जाते, मिट्टी कुछ ना बोली। कुम्हार ने 5 रुपयों में मिट्टी का घड़ा निलाम कर दिया, मिट्टी ने एक लब्ज तक नहीं उच्चारा।

जिसके घर घड़ा गया उस गृहिणी ने घड़े के गले में रस्सी का फंदा डाला, पनघट पर जाकर पानी भरने के लिए मिट्टी के घड़े को कुएँ में उतारा परन्तु मिट्टी कुछ ना बोली। इधर-उधर हिलाया, डुबोया, ऐसे किया और घड़े को बाहर लायी। कुएँ की दीवारों से टकराता-2 घड़ा बाहर आया, परन्तु फिर भी मिट्टी कुछ ना बोली। गृहिणी ने सिर पर रखा, पानी छलका न छलका घर ले आयी। एक-दो महीने में घड़ा फूट गया फिर भी मिट्टी कुछ ना बोली। कचरे में डाल दिया, फिर वह मिट्टी मिट्टी में मिल गई, परन्तु मिट्टी कुछ न बोली। ऐसी शरणागति शिष्य की होनी चाहिए।

*तदविज्ञानार्थं गुरुमेवा भिगच्छेत।*

*समित्पानि क्षोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम।।*

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि, हाथ में समिध लेकर शिष्य गुरु के पास जाता था। गुरु यज्ञ करते थे और शिष्य हाथ में लकड़ियाँ लेकर उनके पास जाता था। गुरु के पास पुष्प ले जाना अच्छी बात है, ले जाना चाहिए। प्रसाद ले जाना अच्छी बात है। लेकिन भारतवर्ष का सिद्धांत कहता है कि, शिष्य गुरु के पास हाथ में लकड़ियां ले जाता था। यह हमारी परंपरा है।

उपनिषद् के ऋषि के पास जब ज्ञान अर्जित करने के लिए शिष्य जाता है तो समिध लेकर जाता है, क्यो?…मानो वह गुरु को यह कहता है कि, गुरुदेव! जैसे यह समिध अग्नि में डालकर आप स्वाहा कर देते हैं, वैसे हमें भी स्वाहा कर दो। हमारे अहंकार को स्वाहा कर दो। हमारी वासनाभरी भीगी ही लकड़ी क्यों न हो, जो हैं आप अग्नि में डालकर उसे स्वाहा कर दो।

*समित्पानि क्षोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम।*

यह जो शरणागति का भाव है, वह शिष्य में होना चाहिए। कोई लोभ नहीं, कोई प्रलोभन नहीं। और ध्यान देना जिसको कुछ नहीं चाहिए उसको सबकुछ मिलता है और जिसको सबकुछ चाहिए उसको कुछ नहीं मिलता। इसलिए शिष्य का पहला लक्षण ‘अलुब्ध’ –अलोभी होना चाहिए।