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परिप्रश्नेन


प्रश्नः भगवत्कृपा, संतकृपा और गुरुकृपा क्या है ?

पूज्य बापू जीः भगवत्कृपा है कि तुम्हें संसार फीका लगने लगे और भगवद्-शांति, भगवद्-ज्ञान, भगवद्-रस में सार दिखने लगे । कैसी भी मुसीबत में से निकलने का रास्ता दे देते हैं ।

भगवान कहते हैं-

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।

जो मुझे जिस भाव से, जैसा भजता है मैं उसको उसी भाव से फल देता हूँ । यह भगवत्कृपा है पर संतकृपा इससे कुछ विलक्षण है । भगवान को तो जिस भाव से भजो, जितना भजो उस भाव से उतनी कृपा देंगे परंतु संत को भजो चाहे न भजो, उनकी दृष्टि में आ जाओ और तुम्हारे को जो जरूरत है, तुम जो माँगो, वह तो ठीक है लेकिन तुम्हारे को धीरे-धीरे फुसला के, पटा के, रेलगाड़ी चलाकर, प्रसाद फेंक के…. कैसे भी करके संत तुमको चिन्मय सुख की तरफ ले जायेंगे । जिससे भगवान भगवद्-रस में तृप्त हैं, तुमको उस रसस्वरूप में पहुँचा देंगे । पिता की कृपा में अनुशासन होता है, माता की कृपा में ममता होती है किंतु माँ दया, कृपा करती है तो ममता से करती है, पिता कृपा करता है तो अनुशासन करके अपने काम-धंधे के योग्य बनाने की कृपा करता है और भगवान की कृपा में जो जैसा भजता है उसको वैसा ही फल मिलता है परंतु संत व सद्गुरु की कृपा में ऐसा होता है कि आप कृपा न चाहो तो भी वह बरसती रहती है । जितना भी ले सकता है ले और नहीं लेता है तो लेने योग्य बनाते जाते हैं ।

संत की कृपा में प्रेम होता है, उदारता होती है क्योंकि संत भुक्तभोगी होते हैं – जहाँ तुम रहते हो वहीं से संत आये हैं तो संसार के दुःखों को, आपाधापी, संसार में कैसा पचना होता है, कैसी फिसलाहट होती है – इन सबको वे जानते हैं । इसलिए कैसा भी साधक हो… चलो, चलो, चलो – डाँटकर, प्यार करके, कुछ पुचकार के, न जाने क्या-क्या करके उठाते हैं और पहुँचा भी देते हैं । अब तुम जैसा भजो वैसा फल देने को संत नहीं तौलेंगे । ‘तुम कैसे भी हो, हमको जो मिला है वह तुमको कैसे मिले’ इस प्रयोजन से सारा आयोजन करेंगे, करायेंगे । यह संतकृपा ऐसी ऊँची होती है । मैं कभी सोचा नहीं था कि मेरे सद्गुरु जी मेरे को इतना ऊँचा पहुँचायेंगे ।

गुरुकृपा ही केवलं शिष्यस्य परं मङ्गलम् ।

मैं गुरु जी के पास गया तो मैं आशाराम बनूँ या मुझे ब्रह्मसाक्षात्कार हो ऐसा तो सोचा ही नहीं था । बचपन से भगवान की तड़प तो थी लेकिन समझता था कि ‘शिवजी आयेंगे, दर्शन देंगे और बोलेंगेः ‘क्या चाहिए ? मैं बोलूँगाः ‘कुछ नहीं चाहिए ।’ तो शिवजी प्रसन्न हो जायेंगे । हम समझते थे कि इसी को बोलते हैं भगवत्प्राप्ति । बाद में पता चला कि ‘अरे, यह तो कुछ भी नहीं । इतनी मेहनत करो और भगवान आये, दिखे फिर चले गये तो अपन वैसे के वैसे ।’ गुरु जी ने ऐसी कृपा की कि पता चला शिवजी जिससे शिवजी हैं, विष्णुजी जिससे विष्णुजी हैं, ब्रह्मा जी जिससे ब्रह्मा जी हैं और दुनिया जिससे चेतना पाती है वही मेरा आत्मदेव है, यह सब मेरे आत्मदेव का ही विस्तार है ।’ मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था ऐसी ऊँची अवस्था में गुरु जी ने रख दिया । यह है गुरुकृपा !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2021, पृष्ठ संख्या 34 अंक 344

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तीन सच्चे हितैषी – पूज्य बापू जी


सच्चे हितैषी तीन ही होते हैं-

1. संयमी, सदाचारी, शांत मन हमारा हितैषी है । जो मन में आया वह करने लगे या मन के गुलाम बने तो वह मन हमारा शत्रु है । जो मन संयमित है, शांत है वही हमारा हितैषी है । असयंमित, अशांत मन तबाही देता है ।

2. इष्टदेव हमारे हितैषी हैं । ब्रह्मवेत्ता गुरु मिलने के पहले जिनको भी इष्ट माना है वे हमारे हितैषी होते हैं । वे इष्ट ही हमारी प्रेरणा करते हैः ‘जाओ लीलाशाहजी के पास या फलाने ब्रह्मवेत्ता गुरु के पास, यह करो, वह करो….।’

3. ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु हमारे हितैषी हैं । जब सद्गुरु मिल जाते हैं तो इष्ट का काम पूरा हो जाता है । अकेले इष्ट शक्तिशाली तो हैं परन्तु वे एक शक्ति हैं, जब इष्ट गुरु के पास भेजते हैं तो शक्ति 11 गुना हो जाती है ।

इष्ट को हम मानते थे, उनकी पूजा करते थे । इष्ट ने गुरु के पास भेजा और गुरु ने इष्ट को चुरवा लिये तो इष्ट नाराज नहीं हुए कि ऐसा गुरु ? मैंने तो ऐसा साधक भेजा और मेरी ही पूजा छुड़वा दी !’ नहीं-नहीं, इष्ट और सद्गुरु पूजा के प्यासे नहीं होते, पूजा के भूखे नहीं होते । पूजा के निमित्त हमारा मंगल हो इसलिए स्वीकार कर लेते हैं, बाकी उनको क्या परवाह है ! इष्ट और सद्गुरु हमारे दुश्मन नहीं होते हैं परंतु कभी-कभार देखोगे कि अच्छे काम करके इष्ट या सद्गुरु को प्रणाम करने गये हो तो वे प्रसन्न मिलेंगे और गड़बड़ की तो इष्ट या गुरु की आँखें अंगारे बरसाती हुई मिलेंगी । हम स्वयं अपने हितैषी नहीं हैं, सद्गुरु सच्चे हितैषी होते हैं, जो कई जन्मों की हमारी कमजोरी, दोष, पाप, अपराध, दुष्टता व अकड़-पकड़ को जानते हुए भी हमारा त्याग नहीं करते, हमसे घृणा नहीं करते, हमारे लिए उनके मन में हित की भावना होती है । ऐसे पूर्ण हितैषी सद्गुरु हमें जो देना चाहते हैं उसकी हम 10 जन्मों में भी कल्पना नहीं कर सकते ।  उस परमात्म-धन के वे धनी होते हैं और वह हँसते-खेलते हमें देना चाहते हैं । आवश्यक वस्तु बिना माँगे ही सद्गुरु दे देते हैं और अनावश्यक माँगें जैसे प्रसिद्ध होने की माँग, कपट करके लोगों से पैसा बटोरने की माँग… ये सब जो गलत बातें हैं, जिनको यदि आप चाहते हैं तो गुरु जी उन चाहों को लताड़ते हुए भी आपको शुद्ध बनाने में बहादुर होते हैं । अनावश्यक वस्तुएँ, जिनको हम चाहते हैं, वे हमसे छीनते हैं और आवश्यक वस्तुएँ जिनको हम नहीं भी चाहते हैं उन्हें वे हँसते-खेलते, पुचकारते हुए देते हैं ।

शोक, विलाप, मनमुखता, छल कपट करने की तुम्हारी जो पुरानी आदते हैं उनको सच्चे हितैषी गुरु कैसे निकालते हैं वह तो वे ही जानते हैं । उस समय गुरु शत्रु जैसे भी लगें तब भी भूलकर भी उनका दामन नहीं छोड़ना चाहिए । परम हितैषी सद्गुरु तुम्हारे अहं की परवाह न करके तुम्हारी महानता पर दृष्टि रखते हैं । उनके लिए ‘परम हितैषी’ शब्द भी छोटा है ।

माँ-बाप बच्चे का जितना हित जानते और कर सकते हैं उतना बच्चा नहीं जानता है, नहीं कर सकता है । माँ-बाप की तो सीमा है परंतु सद्गुरु व इष्ट की तो सीमा होती ही नहीं है । वे असीम तत्त्व के धनी होते हैं ।

आपका गुरु जाने, आप जानो, मैं तो मेरे गुरुदेव को बोल रहा हूँ कि ‘आप ब्रह्म हैं, आप विष्णु हैं, आप चन्द्र हैं, आप सूर्य हैं, आप नक्षत्र हैं, आप ग्रहों से भी परे हैं, आप पूर्ण के पूर्ण हैं । ब्रह्मा-विष्णु, महेश का अधिष्ठान जो आत्मा है वही आप हैं ।’

मैंने अपने गुरु को जब ‘गुरु ब्रह्मा’ बोला तो मेरी आँखें पवित्र हो गयीं, भर आयीं । दुनिया में ऐसा कोई हितैषी नहीं जितना गुरुदेव हैं ।

‘हे लीलाशाह भगवान ! भगवान भी आपके आगे मत्था टेकते हैं, आप ब्रह्मस्वरूप हैं ।’ किसी ने कहाः ″मेरे गुरु तो भगवान हैं ।″

  मैंने कहाः ″तू गाली दे रहा है ।″

अरे, भगवान भी जिनका चेला बन के अपने सौभाग्य की सराहना करते हैं उनको बोलते हैं ‘गुरु’ ।

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।

गुरुर्साक्षात्परब्रह्म तस्मैं श्री गुरवे नमः ।।

गुरुकृपा ही केवलं शिष्यस्य परं मङ्गलम् ।

जब तक ब्रह्मज्ञानी गुरु नहीं मिले तब तक इष्ट का अवलम्बन, सहारा कुछ साथ देता है परंतु जैसे जब सूरज के प्रकाश में आ गये तो दीये का प्रकाश सूरज के प्रकाश में समा जाता है ऐसे ही इष्ट का कृपा-प्रसाद गुरुकृपा आने के बाद सब गुरुकृपा में बदल जाता है ।

हमारे इष्ट को गुरुदेव ने चुरवा लिया, गोदाम में रखवा दिया । इष्ट को कोई फिक्र नहीं । उसके बाद इष्ट की पूजा हमने कभी की नहीं और अनिष्ट कभी हुआ ही नहीं, इष्ट-ही-इष्ट है । गुरु ने हमको ही करोड़ों लोगों का इष्ट बना दिया ।

हे गुरुदेव ! हम तो इस बात में बबलू थे । हम जो नहीं चाहते थे (जिसका हमें पता नहीं था) वह दे दिया और हम जो चाहते थे (शिवजी का साकार दर्शन व प्रसन्नता) वह हटवा दिया । कितना हित है आपकी दृष्टि में ! कितने हितैषी हैं आप !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2021, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 344

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दशरथ की सभा में छलका जनक जी के दूतों का ज्ञानामृत


जब राजर्षि जनक के दूतों ने महाराज दशरथ को भगवान श्रीरामचन्द्र जी द्वारा शिव-धनुष टूटने का समाचार सुनाया तब भाव से उनका हृदय भर आया और अत्यधिक स्नेह के कारण वे अपने पद की गरिमा भूल गये और दूतों को पास बैठाकर कहने लगेः

″भैया कहहु कुसल दोउ बारे ।

भैया ! क्या मेरे दोनों नन्हें पुत्र कुशल हैं ?″

जनकपुर के दूत चकित होकर सोचने लगे, ‘इन्होंने कैसी विलक्षण दृष्टि पायी है – जिन्होंने धनुष तोड़ दिया वे इन्हें नन्हें-से बालक दिखाई दे रहे हैं ! आश्चर्य हैं ! पत्र में पढ़ चुके हैं, फिर भी कुशल पूछ रहे हैं ।’

दूत मौन हैं । दूतों की चुप्पी से दशरथ जी को संदेह हुआ कि ‘इन लोगों को पत्र दे दिया होगा, जिसे लेकर चले आये होंगे । शायद राम को देखा या नहीं ?″ फिर एक शब्द और जोड़ दियाः ″अच्छा, देखा है तो क्या अपनी आँखों से देखा है ? अगर अपनी आँखों से देखा है तो अच्छी तरह से देखा कि नहीं  ?″

जब दूत कुछ बोले नहीं तो स्वयं बताने लगे कि ″मेरा एक पुत्र तो साँवले और दूसरा गोरे रंग का है । वे धनुष-बाण लेकर चलते हैं । विश्वामित्र जैसे मुनि के साथ हैं ।″

दूत मौन ही हैं इसलिए उन्होंने आगे कहाः ″अगर पहचानते हैं तो

पहिचानहु तुम्ह कहहु सुभाऊ ।

दूर से तो कोई भी चर्चा सुन लेता है पर स्वभाव का पता तो पास जाकर ही चलता है ! तो क्या आप उनके स्वभाव को जानते हैं ?″

राजा दशरथ प्रेम से बार-बार इस प्रकार पूछने लगे । फिर भी दूत नहीं बोले तो उन्होंने प्रश्न कियाः ″यह प्रश्न मेरे दिल में इसलिए बहुत उठ रहा है क्योंकि मैंने सुना है जनक विदेह हैं, देह की भावना से ऊपर हैं, फिर ऐसे विदेह (जनक) ने उन्हें कैसे जाना ?

कहहु विदेह कवन विधि जाने ।″

ये प्रेमभरे वचन सुनकर दूत मुस्कराये और कहाः ″हे राजाओं के मुकुटमणि ! सुनिये, आपके समान धन्य और कोई नहीं है, जिनके राम-लक्ष्मण जैसे पुत्र हैं, जो दोनों विश्व के भूषण हैं । आपके पुत्र पूछने योग्य नहीं हैं ।

पुरुषसिंघ तिहु पुर उजिआरे ।।

‘वे पुरुषसिंह तीनों लोकों के प्रकाशस्वरूप हैं ।’ (श्री रामचरित. बा.कां. 291.1)

महाराज ! आप यह कह रहे हैं लेकिन आपके पुत्र जो हैं वे प्रकाश में देखने के लिए नहीं हैं अपितु स्वयं प्रकाशित करने के लिए हैं । सारे संसार में जो दिखाई दे रहा है, उनके प्रकाश से ही दिखाई दे रहा है ।″

बड़ा दार्शनिक सूत्र देते हुए उन्होंने आगे कहाः ″अँधेरे में कोई वस्तु खो जाये और न मिले तो कहा जाता है कि ‘अब तो प्रकाश की आवश्यकता है, दीया जलाकर ढूँढ लो ।’ पर क्या सूर्योदय के बाद कोई यह कहता है कि ‘जरा दीपक लेकर देखो कि सूरज निकल आया कि नहीं ?’ यह तो उलटी बात होगी, कारण कि सूरज निकलने के बाद यही कहा जाता है कि ‘अब दीपक की क्या आवश्यकता है, इसे बुझा दो ।’

तिन्ह कहँ कहिअ नाथ किमि चीन्हे ।

देखिअ रबि कि दीप कर लीन्हे ।।

हे नाथ ! उनके लिए आप क्या कहते हैं कि ‘उन्हें कैसे पहचाना ?’ क्या सूर्य को हाथ में दीपक लेकर देखा जाता है ?″ (श्री रामचरित. बा. कां. 291.1.2)

सीधा-सा तात्पर्य है कि बुद्धि ही दीपक है और संसार की वस्तुओं को देखने के लिए बुद्धि के दीये को जलाने की आवश्यकता है । पर परम प्रकाशक जब स्वयं प्रकट हो जायें, उस समय बुद्धि के प्रकाश की कोई आवश्यकता नहीं है ।

फिर दूत आगे कहते हैं- ″आपके बड़े राजकुमार अत्यंत शीलवान और विनयवान हैं । उनमें कोमलता है तथा छोटे राजकुमार अत्यंत तेजस्वी हैं, जिन्हें देखकर ही जो बुरे राजा हैं वे काँपने लगते हैं । आपने जो पूछा कि ‘अपनी आँखों से देखा कि नहीं और विदेह ने कैसे जाना ?’ तो महाराज ! हमें तो आपकी बात कुछ उलटी दृष्टि आ रही है । इनको विदेह ही जान सकते हैं ! जो मात्र ‘देह’ देखने वाले हैं वे क्या जानें ! वे तो उनको भी एक देह में घिरा हुआ मान लेंगे । आपने जब यह कहा कि ‘भली प्रकार देखा कि नहीं ?’ तो उनको देखने के बाद अब दिखाई देना ही बंद हो गया ।

देव देखि तब बालक दोऊ ।

अब न आँखि तर आवत कोऊ ।।

‘हे देव ! आपके दोनों बालकों को देखने के बाद अब आँखों के नीचे कोई आता ही नहीं (हमारी दृष्टि पर कोई चढ़ता ही नहीं) ।″ (श्री रामचरित. बा. कां. 292.3)

जब रोम-रोम में रमने वाला सर्वव्यापी राम ज्ञानचक्षु से भली प्रकार से दिखाई देता है तो फिर और कुछ नहीं दिखाई देता, पूरा दृश्य-प्रपंच भी चैतन्यस्वरूप परमात्मा का आनंद-उल्लास जान पड़ता है । जनक जी के दूतों के ज्ञान की मधुरता छलकाते वचन सुनकर सभारहित राजा दशरथ प्रेम में मग्न हो गये ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2021, पृष्ठ संख्या 24, 25 अंक 344

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