All posts by Gurukripa

सज्जनों और दुर्जनों का स्वभाव


मृदघटवत् सुखभेद्यो दुःसन्धानश्च दुर्जनो भवति ।

सुजनस्तु कनकघटवद्दुर्भद्याश्चाशु सन्धेयः ।।

‘दुर्जन मनुष्य मिट्टी के घड़े के समान सहज में टूट जाता है और फिर उसका जुड़ना कठिन होता है । सज्जन व्यक्ति सोने के घड़े के समान होता है जो टूट नहीं सकता और टूटे भी तो शीघ्र जुड़ सकता है ।’

नारिकेलासमाकारा दृश्यन्ते हि सुहृज्जनाः ।

अन्ये बदरिकाकारा बहिरेव मनोहराः ।।

‘सज्जन पुरुष नारियल के समान दिखते हैं अर्थात् ऊपर से कठोर और भीतर से कोमल व मीठे तथा दुर्जन व्यक्ति बेर-फल के समान बाहर से ही मनोहर होते हैं (अंदर से कठोर हृदय के होते हैं ) ।’

स्नेहेच्छेदेऽपि साधूनां गुणा नायान्ति विक्रियाम् ।

भङ्गेऽपि हि मृणालानामनुबध्नन्ति तन्तवः ।।

‘स्नेट टूट जाय तो भी सज्जनों के गुण नहीं पलटते हैं, जैसे कमल की डंडी के टूटने पर भी उसके तंतु जुड़े ही रहते हैं ।’

(हितोपदेश, मित्रलाभः 92,94,95)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2021, पृष्ठ संख्या 19 अंक 341

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

जीवन की माँग की पूर्ति किससे ? – पूज्य बापू जी


आत्मशांति सौंदर्य से बड़ी है, आत्मशांति संसारी दुःखों से बड़ी है, स्वर्ग से, अष्टसिद्धियों-नवनिधियों से भी बड़ी है, आत्मशांति हमारा स्वभाव है ।

मन में काम आया, आप कामी हुए, अशांत हुए, काम चला गया, आप शांत हो गये । मन में क्रोध आया, आप अशांत हुए, थक गये, क्रोध चला गया, आप शांत हुए, सोये तो थकान मिटी । मन में भय आया, आप भयभीत हुए, अशांत हुए, भय चला गया, आप शांत हो गये । मन में मोह आया, आप चिंतित हुए, अशांत हुए, मोह चला गया, आप निश्चिंत हुए, शांत हुए ।

आत्मशांति जीवन की माँग है, यह जीवात्मा का स्वाभाविक स्वरूप है । जिसके पास धन है और चित्त में शांति नहीं वह कंगाल है । जिसके पास सत्ता है और चित्त में शांति नहीं है तो क्या खाक है सत्ता !

ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिं…. (गीताः 4.39)

स्व के ज्ञान (आत्मज्ञान) से परम शांति की प्राप्ति होती है । शिक्षा का ज्ञान अलग है, ‘स्व’ का ज्ञान अलग है । ऐहिक शिक्षा का ज्ञान पेट भरने के काम आता है, उसकी जरूरत है पर आत्मिक ज्ञान की उससे भी ज्यादा जरूरत है । ऐहिक ज्ञान हिटलर के पास था लेकिन आत्मशांति नहीं थी तो खुद भी दुःखी था और दूसरों को भी दुःख के, मौत के घाट उतारता था । ऐहिक ज्ञान भी और स्व को आनंदित करने का, शांत रखने का, समाधिस्थ करने का ज्ञान भी है । राम जी में ऐहिक ज्ञान भी है, स्व को शांत करने का सामर्थ्य भी है । पूर्ण जीवन उन्हीं का होता है जो आत्मशांति पाना जानते हैं । कार्य करने के पहले शांति होती है, कार्य करने के बाद भी शांति होती है तो कार्य ऐसे ढंग से करो कि जब चाहो तब परम शांति का स्वाद ले सको । जब वासना के अधीन होकर कर्म करते हैं तो भय, अशांति, उद्वेग, चिंता आदि आपकी शक्तियों को क्षीण कर देते हैं । जब वासना को छोड़कर कर्तव्य समझ के कर्म करते हैं और फल की आकांक्षा नहीं करते तो आपको शांति, सामर्थ्य, प्रसन्नता, निश्चिंतता आदि सद्गुण आ प्राप्त होते हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2021, पृष्ठ संख्या 5, अंक 341

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

सेवा-अमृत


(पूज्य बाप जी के सत्संग से संकलित)

भलाई करके ईश्वर को अर्पण करोगे तो ईश्वरप्रीति मिलेगी, ईश्वरप्रीति मिलेगी तो बुद्धि ईश्वर-विषयिणी हो जायेगी ।

जितना हो सके भलाई करो, किसी भी प्रकार से बुराई न करो तो ईश्वर को प्रकट होना ही है ।

जो जबरन परोपकार करता है उसके हृदय में ज्ञान प्रकट नहीं होता, जो समझकर परोपकार करता है उसके हृदय में ज्ञान प्रकट होता है ।

तटस्थ विचारों के अभाव के कारण व्यक्ति कर्मों के जाल में बँधता है ।

गुरुसेवा सब तपों का तप है, सब जपों का जप है, सब ज्ञानों का ज्ञान है ।

ईमानादारी से जो गुरुसेवा करते हैं उनमें गुरुतत्त्व का बल, बुद्धि, प्रसन्नता आ जाते हैं ।

गुरुसेवा से दुर्मति दूर होती है ।

देश के लिए,  विश्व के लिए मानव-जाति के लिए वे लोग बहुत बड़ा काम करते हैं, बहुत उत्तम काम करते हैं जो संत और समाज के बीच मे सेतु बनने की कोशिस करते हैं और वे लोग बड़ा खतरा पैदा कर रहे हैं जो संतों और समाज के बीच में अश्रद्धा की खाई खोद रहे हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2021, पृष्ठ संख्या 17 अंक 341

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ